गीता समीक्षा अध्याय ४

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

अथ चतुर्थोऽध्यायः
                       
           श्रीभगवान ने दूसरे अध्याय में कहा था कर्मण्येवाधिकारस्ते २/४७ जिसकी व्याख्या तीसरे अध्याय में की कि किस प्रकार तेरा सिर्फ कर्म करने में ही अधिकार है ? सारे कार्य तो प्रकृति कर ही रही अतः फल भी वही निश्चित करती है, किन्तु हमारी स्वतंत्रता है कि हम नये कर्म अपने स्तर पर कर सकते हैं, क्योंकि नैष्कर्म्य सिद्धि के लिए भी कर्म की आवश्यकता है और नैष्कर्म्य बिना फलाकांक्षा के सिद्ध नहीं होता, इसलिए भी कर्म करना चाहिए । इसी को आगे बताने के लिए कि मा फलेषु कदाचन २/४७ अर्थात फल की कामना क्योंकि नहीं करना चाहिए इसकी व्याख्या अध्याय छः तक करते हुए यह बताएंगे कि आत्मसिद्धि में सबसे अधिक बाधक फलाकांक्षा ही है । क्योंकि आत्मा तो संकल्प विकल्प रहित है, इसलिये सबसे पहले सभी संकल्पों को समेटने के लिए कहेंगे आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ क्योंकि ये संपूर्ण जगत संकल्प से उत्पन्न होता है संकल्प प्रभवान्कामान् ६/२४ अतः संकल्प का त्याग करना ही आत्मवान् २/४५ का पहला लक्षण है किन्तु संकल्प का त्याग कहां करे और कैसे करे इसके लिए कहा था युक्त आसीत् मत्परः २/६१ अर्थात मुझसे अभिन्न होकर बिना संकल्प विकल्प के बैठा रहे । मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ३/३० अर्थात मन के द्वारा अध्यात्म चिंतन करते हुए सभी कर्मों को मुझमें त्याग दे । तो प्रश्न उठता है कि मैं सीमित अहंता वाला जीव जो कर्म करूंगा वह व्यापक अहंता वाले ईश्वर को कैसे प्राप्त होगा । इस पर यह बतायेंगे कि पहली बात अपनी परंपरा का अनुकरण करते हुए यह विचार करना चाहिए कि हमारे पूर्वज किस प्रकार के कर्मों का आचरण करके परमतत्त्व को प्राप्त हुए उन कर्मों के स्वरूप को समझकर कर्म करने से कर्म कर्म नहीं रह जाता है बल्कि यज्ञ हो जाता है और वह यज्ञ मैं हूँ यज्ञो वै विष्णुः, अधियज्ञोऽहमेवात्र ८/४ इस प्रकार जब कर्म ही यज्ञ हो जायेगा तब वह यज्ञ और यज्ञ कर्ता मुझसे भिन्न न होकर अभिन्न हो जाते हैं वे तद्रूप हो जाते हैं । इस प्रकार जो मात्र मुझसे अभिन्न संबंध रखते हैं उनका उसके फल पर अधिकार नहीं होता है ऐसी बात नहीं, किन्तु अधिकार समझने पर उसमें त्रुटि होने पर विपरीत फल और त्रुटि रहित होने पर क्षणिक सुख देने वाले स्वर्गादि भोगकर फिर जन्मादि का चक्र चलेगा इसलिये मोक्षार्थी या कल्याणकामी का फल में अधिकतर नहीं है । जबकि परमेश्वर के अर्पित कर्म में दोष होना नहीं बनता है केवल वहाँ भाव ही प्रधान है पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ९/२६ यही यहाँ ब्रह्म को प्राप्त होने वाले अभिन्नभावापन्न कर्मों का स्वरूपतः वर्णन इस अध्याय में किया जा रहा है ।

श्रीभगवानुवाच
इमं विवश्वते योगं प्रोक्तवाहनमव्ययम् ।
विवश्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।४/१।।
              श्रीभगवान बोले― यह कर्मयोग मुझ अव्यय परमात्मा के द्वारा सृष्टि के आदि में सूर्य को कहा था । सूर्य ने मनु को मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा था ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।४/२।।
           हे परन्तप ! इस प्रकार रह ज्ञान परंपरा से राजाओं और ऋषियों द्वारा जाना गया । वह महान योग समयानुसार काल की महत्ता से इस संसार से नष्ट हो गया ।
            ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता किन्तु संसार से लुप्तप्राय हो गया था इसीलिये इह पद दिया गया है । इसी लुप्तप्राय की दृष्टि से नष्ट होना कहा गया है ।
                यहां पर क्षत्रिय वंश को ही परंपरा से ज्ञान प्राप्ति दिखाया गया है कारण कि अर्जुन क्षत्रिय है और क्षत्रिय होने के कारण अपनी वंश परंपरा का अनुशरण करे यही भाव यहाँ है, किन्तु क्षत्रिय वंश तो महाराज मनु से चला है सूर्य किसी भी वर्ण व्यवस्था से ऊपर हैं इसलिए शास्त्र प्रसिद्धि है याज्ञवल्क्य सहित बहुत से ऋषियों को सूर्य ने उपदेश दिया है यह बात समझकर रखना चाहिए ।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।४/३।।
             यह वही योग जो मेरे द्वारा प्राचीनकाल में कहा गया था, चूंकि तू मेरा भक्त है और सखा भी है इसलिये आज तेरे लिए यह रहस्यमय उत्तम ज्ञान कहा ।
        भक्त और सखा कहकर आत्यंतिक आत्मीयता प्रकट करते हुए गीता ज्ञान के अधिकारी को निरूपित किया गया है । इसकी व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखना चाहिए ।।३।।

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवश्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।४/४।।
                अर्जुन उवाच― आपका जन्म अभी हुआ है जबकि सूर्य का जन्म सृष्टि के आदि में हुआ था, फिर मैं यह कैसे जानूँ कि आदि काल में आपके द्वारा ही यह ज्ञान कहा गया है ?
                 अर्जुन मानो कृष्ण के बचपन की याद माखनचोरी और झूठ की याद दिला रहे हैं कि चोरी भी करते थे और झूठ भी बोलते थे कि मैने चोरी ही नहीं की है, लगता है वही आदत आपकी अभी भी बनी हुई है । कहाँ तो आज आप का जन्म और कहाँ तो सृष्टि के आदि में सूर्य का जन्म ? यह बात गले नहीं उतरती कि आपने सूर्य को उपदेश दिया ?....।।४।।

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।४/५।।
               श्रीभगवान बोले― हे परन्तप ! मेरे और तुम्हारे बहुत जन्म बीत चुके हैं उन सभी जन्मों को मैं जानता हूँ लेकिन तुम नहीं जानते ।
               जीव का सहज स्वभाव पाप-पुण्य, राग-द्वेष के आवरण से ढका होता है जिससे वह अपने अनन्त जन्मों के विषय में नहीं जानता है किन्तु ईश्वर चाहे जब चाहे जो रूप धारण कर ले इसका ईश्वरत्व ढकता नहीं है क्योंकि वह किसी कर्म और उसके फल से संबंध नहीं रखता, सदैव सर्वज्ञ एवं स्वयं को अपरिच्छिन्न सर्वात्मा करके ही जानता है और जीव परिच्छिन्न कार्य कारण संघात से बंध जाता है जिससे अल्पज्ञ और कर्म और उसके फल से बंध जाता है पुरुषः प्रकृतिस्थो हि १३/२१ आगे वर्णन करेंगे ।।५।।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।४/६।।
                अव्यय आत्मा अजन्मा होते हुए भी तथा संपूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी प्रकृति को अपने आधीन करके अपनी आत्ममाया से प्रकट होता हूँ ।
              यहां पर अजोऽपि से अजन्मा होते हुए भी, अर्थात मेरा जन्म तो हो नहीं सकता यह निश्चय बताने के लिए अपि का प्रयोग किया गया है । न जायते म्रियते वा कदाचिन् २/२० में जिस षड्विकार रहित आत्मा का अर्थात असि पद का वर्णन किया गया है उसी को यहाँ परिपुष्ट करते हैं क्योंकि जो षड्विकार रहित है उसका जन्म त्रिकाल में भी संभव नहीं है तो भी….., एवं जिस आत्मा के लिए कहा था वासांसि जीर्णानि यथा विहाय २/२२ एवं जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च २/२७ द्वारा जिस आत्मा को अव्यय अर्थात अविनाशी कहा गया है । जिसे न त्वेवाहं जातु नाशं न त्वं नेमे जनाधिपाः २/१२ अर्थात मैं, तुम, यह करके भेदभाव से संबोधित किया गया है वह अविनाशी आत्मा अर्थात जीव का लक्ष्यार्थ आत्मा का बोध कराने वाला त्वम् पदार्थ एवं संपूर्ण प्राणियों का ईश्वर अर्थात संपूर्ण जीव संज्ञक प्राणियों पर शासन करने वाला तत्पदार्थ का लक्ष्यार्थ ईश्वर या विराट पुरुष होता हुआ भी मैं अपनी आत्ममाया अर्थात जो मेरे आश्रित किन्तु मुझसे अभिन्न है उस अपनी पराशक्ति को अपने आधीन करके प्रकट होता हूँ ।
                यहाँ पर स्पष्ट रूप से तत्त्वमसि का प्रबोध कराया गया है और वह परमेश्वर कितना स्वतंत्र है यह बताया गया है कि वह किसी भी रूप को धारण करे किन्तु प्रकृति उसके आधीन होकर संपूर्ण कार्य करती है वह प्रकृति के आधीन नहीं होता है जबकि जीव प्रकृति के गुणों का आस्वादन करने के कारण उसके आधीन हो जाता है इसलिये जीव बद्ध होता है और अपने अनन्त जन्मों को और अल्पज्ञ होने से कार्य-करण से रहित अपने स्वरूप को नहीं जानता है, जबकि परमेश्वर प्रकृति पर भी अनुशासन करने वाला सर्वज्ञ, मुक्त, एवं वह जैसा और जिस स्वरूप वाला है वैसा ही अपने आपको जानता है किन्तु अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए, उनके उद्धार के लिए गीता का उपदेश देने हेतु प्रकट होते हैं यह इसकी भाव प्रतीति लग रही है ।।६।।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।४/७।।
              क्योंकि हे भारत ! जब जब धर्म का क्षय होता है तब तब धर्म के उत्थान के लिए अपने साकार रूप का सृजन करता हूँ ।
            यहां पर धर्म का क्षय होना कहा गया है नाश नहीं, इसीलिये ग्लानि कहा गया है ग्लानि अर्थात कमजोर होना क्षीण हो जाना । तब धर्म का पतन हो जाता यानी धर्म गिर पड़ता है, तब अभ्युत्थानम् अर्थात पुनः भलीभाँति धर्म को खड़ा करने यानी सामर्थ्य प्रदान करे के हेतु से साकार विग्रह लेकर अवतरित होते हैं । रामचरित मानस में गोस्वामी जी कहते हैं― जब जब होइ धरम कै हानी । बाढहिं असुर अधम अभिमानी ।। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा । हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।। धर्म की हानि वर्ण आश्रम की व्यवस्था बिगड़े पर, स्वार्थ परवशता से समाज में मनुष्य को मनुष्य न समझना, ये धर्म का क्षय है । अगर आध्यात्मिक भाव से कहा जाये तो जब अनात्म पदार्थ में अभिन्न तादात्म्य हो जाता है, जिससे वह जन्म जन्मान्तर दुःख से अत्यंत पीड़ित होता है, तब वह परम प्रभु से अपने उद्धार की प्रार्थना करता है तब वे ही परम करुणा के सागर सद्गुरु के रूप में अपनी अनुग्रह शक्ति का अवलंबन लेकर हमारा उद्धार करने के लिए अवतरित होते हैं ।
            उन महामहिम परमेश्वर की पांच शक्तियां निरंतर अपना कार्य करती हैं कभी वे एक क्षण के लिए भी अपना कार्य बंद नहीं करती हैं । पहली सृजन शक्ति, दूसरी पालन शक्ति, तीसरी संहार शक्ति इन तीनो को सभी तो जानते ही हैं, और कुछ अंश में चौथी मायाशक्ति को भी लोग जानते ही हैं जो प्राणियों को मोहित करके कर्मबन्धन से बांधकर संसार चक्र को चलाती रहती है, किन्तु पांचवीं शक्ति के विषय में कोई विवेकशील ही जानता है, वह शक्ति है अनुग्रहशक्ति । परेश्वर में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपने मूलस्वरूप में स्थित होकर किसी का भी उद्धार कर सके इसलिये अपनी अनुग्रहशक्ति को गुरु के रूप में प्रकट करके अपने को भेददृष्टि से मायादोष से ढककर सुखी दुःखी होने वाले जीव को तत्त्वमसि आदि के उपदेश से जगतजाल से मुक्त करते हैं । इसीलिए गुरु को त्रिदेवों से अभिन्न एवं साक्षात परब्रह्म कहा गया है गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः । गुरूर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। यही है अनात्म पदार्थ में स्थित होकर आत्मपदार्थ का क्षरण रूप मान लेना ही स्व-धर्म का क्षरण और परमेश्वर के उद्धार के निमित्त साकार विग्रह धारण करने का रहस्य ।।७।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।४/८।।
            साधुओं को पवित्र करने के लिए एवं पापियों के विनाश के तथा धर्म की भलीभाँति स्थापना के लिए समय समय पर प्रकट होता हूँ ।
            जो साधु हैं अर्थात जो पूर्णतः सदाचार संपन्न हैं जिनकी एक मात्र गति परमेश्वर हैं जो स्वयं अपने स्वभाव से ही सबको पवित्र करने वाले हैं उनको पवित्र करने के अर्थात उनका उद्धार करने के लिए तथा अध्यात्म विद्या और सदाचार रूप धर्म की स्थापना करने के लिए प्रकट होता हूँ । पापात्माओं का संहार करता हूँ । यह कार्य तो मैं समय समय पर करता ही रहता हूँ । यहां युग का अर्थ सत्ययुग आदि युग नहीं समझना चाहिए जब जिस समय आवश्यकता होती उस समय में समझना चाहिए । गुरुदेव भगवान हमरे अन्दर बैठे सदाचारी स्वभाव की रक्षा करके आत्मप्रतिष्ठित करके जगत के चक्र से छुड़ाने के और हमारे दुष्कृत का नाश करने अर्थात अनात्म पदार्थ में ही अपनापन समझकर जो पाप किया है उसका नाश करने के लिए ही प्रकट होते हैं इसलिये उनके जन्म कर्म सब दिब्य होते हैं जैसा कि आगे कहा गया है ।।७।।

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।४/९।।
              मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं जो इस प्रकार तत्त्वतः जानता है हे अर्जुन ! वह देह त्यागकर मुझ सर्वात्मा परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।
               तत्त्वतः को समझने के लिए अजोऽपि सन्नव्ययात्मा ४/६ की व्याख्या देख लेना चाहिए । वहाँ पर लक्षित आत्मा असंग धर्म से युक्त एवं तत्त्ववित्तु महाबहो गुणकर्मविभागशः ३/३८ जो गुण और कर्म के विभाग पूर्वक मुझको जानते हैं । अध्यात्मचेतसा ३/३० आध्यात्मिक बुद्धि अर्थात अभिन्न रूप से जानते हैं । वासुदेवः सर्वम् ७/१९, ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च ११/५४ अर्थात जो आचार्य आदि से जानकर तद्विद्धि प्रतिपातेन ४/३४ इस प्रकार जो ज्ञान नेत्र से जानकर मुझ परमतत्त्व में प्रवेश कर जाते हैं अर्थात अभिन्न भाव को प्राप्त हो जाते हैं । जो मैं तू और यह के अर्थभूत में स्थित ऐसे ज्ञाननेत्र वाले ही पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषा १५/१० ज्ञान स्वरूप मेरे जन्म और कर्म दिव्य जानते अर्थात यह मैं प्रकृति से परे हूँ यह जानते हैं वे भी मुक्त हो जाते हैं अर्थात मैं तो जन्म कर्म से तो निर्लिप्त हूँ ही किन्तु इस प्रकार जो तत्त्व से जानता है वह भी मुझसे अभिन्न होकर संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ।
            विशेष― जहाँ ज्ञानी की दृष्टि में सब कुछ यह वह और मैं वासुदेव ही है वही भक्त भगवान के किये जाने वाले कर्मों को उनकी लीला मानते हैं । भगवान के नाखून, बाल, वस्त्र शस्त्र आदि सभी दिव्य मानते हैं । उनमें जड़ भाव न होकर सभी में चैतन्य भाव मानते हैं और सदैव अपने अन्दर ही उनकी कृपा का अनुभव करते हैं यह भी एक तत्त्वदृष्टि है । इस दृष्टि से उनसे भिन्न कुछ नहीं है तो मैं भी उनसे भिन्न नहीं हूँ बल्कि अभिन्न ही हूँ इस प्रकार मानकर भक्त साकारोपासक भी तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । जो ऐसा नहीं देखते उनका वर्णन अध्याय ७ में आयेगा ।।४/९।।

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।।४/१०।।
              जिनकी संसार के प्रति आसक्ति, भय, क्रोध न होकर मुझमय होकर मेरी उपासना करते हैं, ज्ञानरूप तप द्वारा जो पवित्र हो गये हैं ऐसे बहुत लोग मेरे भाव को प्राप्त हो गये हैं ।
               यहां आसक्ति, भय और क्रोध की व्याख्या करना नहीं है क्योंकि इन्हें सभी जानते ही हैं और पूरी गीता में इसकी व्याख्या तो बराबर होती ही रहती है । मन्मया का अर्थ है जो मुझमें अभिन्नभाव से स्वयं को स्थिर करके अभिन्न तादात्म्य पूर्व जो उपासना करते हैं । यहाँ उपासना का अर्थ है जो मेरा जैसा स्वरूप है उसे तत्त्व से जानकर उसमें निरंतर स्थिरता बनाये रखना यही उपासना है । ऐसे बहुत लोग मेरे भाव को यानी ब्राह्मी भाव को प्राप्त हो चुके हैं ।  यहाँ पर ज्ञान द्वारा पवित्र होकर कहने का मतलब है कि ज्ञानी को किसी अन्य उपासना के ज्ञान की आवश्यकता नहीं न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ४/३८ । मात्र स्वरूप स्थिति ही एक मात्र मोक्ष का हेतु है यह तात्पर्य है ।।१०।।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।४/११।।
               जो जिस प्रकार से मेरा भजन करते हैं मैं उनका वैसे ही भजन करता हूँ । हे पार्थ ! सभी मनुष्य मेरा ही अनुसरण करते हैं ।
              अध्याय ७ में चार प्रकार के भक्त के भक्त कहे जायेंगे, साथ ही जो परमेश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते या मुझ साकार प्राकट्य रूप को साधारण मनुष्यों की तरह जन्मा हुआ मनुष्य मानते हैं, अन्य देवों का आराधन करते हैं । जो जिस भाव वाला है उसी भाव में उसे दृढता प्रदान कर देना और उसके अनुसार ही फल देना भगवान के द्वारा उन उन का भजन करना है । किन्तु जो अभिन्नभावापन्न हैं उनको ज्ञानयोग देते हैं ददामि बुद्धियोगं तम् १०/१० इत्यादि आगे होने वाले तत्पदार्थ विषयक विस्तार का संकेत है ।।११।।

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ।।४/१२।।
               कर्मों द्वारा सिद्धि की इच्छा रखने वाले इस लोक में भिन्न भिन्न देवताओं की आराधना करते हैं क्योंकि मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न सिद्धि शीघ्र होती है ।
              यहां पर बिना चित्तशुद्धि के ज्ञान कामना रहित के लिए दुर्लभ दिखाया गया है । चूंकि भगवान सबके सुहृद हैं इसलिये जो जैसी कामना करता है वैसा ही उसको दे देते हैं । चूंकि वे देव भी मुझसे अभिन्न अर्थात मैं ही हूँ इसलिए उस रूप में वे देवाराधक मेरा ही अनुगमन करते हैं ।।१२।।

चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।४/१३।।
               गुण कर्म के विभाग द्वारा चारों वर्णों की सृष्टि मेरे द्वारा की गई है । उन सबका कर्ता होता हुआ भी मैं अकर्ता और अव्यय परमात्मा हूँ ऐसा जान ।
           पूर्वजन्म के गुण कर्मों के आधार पर सात्विक राजस तामस और मिले हुए गुणों के आधार पर चारों वर्णों की सृष्टि की गई है । यहां यही भी समझना चाहिए कि पूर्ण गुणों के आधार पर उन उन गुणों से युक्त वर्णादि प्राप्त तो हो जाते हैं किन्तु जैसे प्रकृति सब कार्य स्वतः कर रही है किन्तु उनमें आसक्त होना न होना मनुष्य की स्वतंत्रता है वैसे ही इस जन्म में उन जन्मज गुणों से बंधा है ऐसा भी नहीं है वह इस जन्म म़े गुण परिवर्तन कर सकता है । इसलिए अध्याय १८ में ब्राह्मणादि इस जन्म में किसे माना जाये इसके लक्षणों का वर्णन करेंगे । अर्थात यहाँ यह कहना चाहते हैं कि जिस गुण की प्रधान व्यक्ति जन्म लेता है वह कर्म वह करता ही है क्योंकि यही सहज स्वाभाविक कर्म है अतः तुझे करना ही चाहिए ।
             मैं सृष्टि करता हूँ यह अपने स्वरूप को समझाने के लिए अध्यारोप किया है, इस का अपवाद किया कि मैं अकर्ता और अव्यय हूँ । जैसे आकाश की सत्ता में ही सभी उत्पन्न आदि होते हैं किन्तु आकाश का उससे कोई संबंध नहीं होता है, ऐसे ही परमात्मा से सब उत्पन्न होकर भी परमात्मा से कोई उत्पन्न नहीं होता है, सब भ्रान्ति मात्र है । ऐसा इसका भाव है ।।१३।।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।।४/१४।।
             कर्म मुझसे लिप्त नहीं होते और न ही मुझे कर्मफल की इच्छा ही है । इस प्रकार जो मुझे जानता है वह कर्म से नहीं बंधता ।
            अकर्ता, अव्यय, अज, फलाकांक्षा से रहित परमात्मा को जानने वाला कर्म से क्यों नहीं बंधता इसका वर्णन यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते १८/१७ में करेंगे । यह आत्मा का विशुद्ध स्वरूप है, इसी षड्विकार रहित आत्मभाव में जो स्थित होकर अनपेक्षित लोकमर्यादा को ध्यान में रखकर कर्म करने वाला भी मुक्त स्वरूप ही है यही इसका भाव है । यही भाव कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।……. ।।२/४७ में भी सन्निहित है ।।१४।।
              
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।।४/१५।।
             इस प्रकार पूर्वकाल में आत्मा के स्वरूप को विभाग पूर्वक जानकर मुमुक्षुओं ने कर्म किया था, इसलिये पूर्व के मुमुक्षुओं की तरह उन्हीं के किये हुए कर्मों को ही कर यानी उन्हीं का अनुसरण कर ।।१५।।
              समीक्षा― तृतीय अध्याय के पश्चात परंपरा का वर्णन करने में अर्जुन को शंका हुई थी कि सूर्य का जन्म आदि काल में हुआ था किन्तु आपका आज अर्वाचीन है अतः यह बात समझ में नहीं आती है । इसका समाधान अर्जुन की विस्मृति एवं स्वयं (परमात्मा) की स्मृति का वर्णन करते हुए अपने जन्म कर्म की दिव्यता का वर्णन किया । इसी बीच में अजोऽपि….४/६ के माध्यम से तत्त्वमसि का सांकेतिक वर्णन करते हुए आत्मा को षड्विकार शून्य होते हुए भी समय समय पर जीव के उद्धार के निमित्त अवतार धारण करना बताया । जन्म कर्म की इस दिव्यता का ज्ञान क्रोधादि के नष्ट हो जाने पर आत्मा के तात्त्विक ज्ञान से ब्रह्मभाव को प्राप्त होना बताया । इसी बीच सकाम कर्मी देवाराधाकों की भावना से भी अपनी ही आराधना बताते हुए गुण कर्मों के आधार पर चारों वर्णों की सृष्टि करने और स्वयं के अकर्ता एवं अव्यय रूप से जानने की बात कहते हैं कि जैसे अज्ञानी होने की स्थिति में चित्तशुद्धि के लिए और ज्ञानी होने की दशा में लोकमर्यादा के लिए जनकादि तुम्हारे पूर्वजों ने कर्म किया उसी प्रकार उनके द्वारा किये गये दोनो ही दशा में कर्मों का अनुष्ठान तुम्हें भी करना चाहिए, इससे तुम्हें भी कर्मबन्धन प्राप्त नहीं होगा अर्थात चित्तशुद्धि पूर्वक मोक्ष प्राप्त होगा ।।१-१५।।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।४/१६।।
             कर्म क्या है ? अकर्म क्या है इस विषय में विद्वान भी मोहित हो जाते हैं मैं तुझे उन्हीं कर्मों को कहूंगा जिसे जानकर अशुभ से मोक्ष को प्राप्त हो जायेगा ।
            कर्म यानी शास्त्रीय सकाम कर्म और अकर्म यानी कर्मों का स्वरूप से त्याग, इस बिषय में बड़े बड़े विद्वान यानी कर्म संबंधित ज्ञान का अत्यन्त सूक्ष्मता से विश्लेषण करने वाले भी मोहित यानी मूढता को प्राप्त हो जाते हैं । उसी कर्म का विश्लेषण मैं तुझसे कहूँगा, जिसे जानकर तू जन्म-मृत्यु के अशुभ बंधन से मुक्त हो जायेगा । 
            यहां शंका होती है कि ज्ञानदेव तु कैवल्यम् अर्थात हमने महापुरुषों से सुना है श्रुति कहती है कि ज्ञान से ही मोक्ष मिलता है किन्तु यहाँ कर्म के स्वरूप को जानकर मोक्ष मिलने की बात कहना श्रुति से विरोध दिख रहा है ?
            इसका सामधान यह है कि ज्ञान तो स्वरूप से अभिन्न है और स्वरूप में कभी किसी को शंका होती नहीं है, वह ज्यों का त्यों है भ्रम तो कर्मों में ही होता है क्योंकि कर्मों का स्वरूप अत्यंत गंभीर (अगले श्लोक में कहेंगे) है । अतः जब हम कर्म के स्वरूप को विधिवत जान लेंगे तभी हमें वस्तुतः सकाम और निष्काम कर्म जो एक जैसे ही बाहर से दिखते उनका रहस्य समझ कर पहले नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त करके और फिर कर्मों का स्वरूपतः बाहर भीतर से संन्यास हो जायेगा । कर्मों स्वरूप से त्याग होने पर ही भगवान का निस्त्रैगुण्यो भव २/४५ कथन सिद्ध होगा तभी मुमुक्षु आत्मवान होकर संसार चक्र के अशुभ से मुक्त होगा अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेगा । यह इसका भाव है ।।१६।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।४/१७।।
             कर्म को भी जानना चाहिये और विकर्म को भी जानना चाहिए । अकर्म को भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति अत्यंत गंभीर है ।
             पूर्व श्लोक में मात्र कर्म और अकर्म कहा गया है, किन्तु यहाँ पर विकर्म अलग से दिया गया है । इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि कर्म से वह शास्त्रीय निष्काम कर्म जिसकी शास्त्र भूरि भूरि प्रशंसा करता है और विकर्म वह शास्त्रीय सकाम कर्म जिसकी शास्त्र शास्त्र निंदा करता है एवं अशास्त्रीय कर्म । 
              अब शंका हो सकती है कि शास्त्र ही शास्त्रीय सकाम कर्म की निंदा क्यों करेगा ? इसका उत्तर यह होगा कि सकाम कर्म ही जन्म-मृत्यु का हेतु होने से मनुष्य और देव इन्हीं उत्तम मध्यम योनियों में निरंतर भ्रमण करता रहता है, जबकि संपूर्ण शास्त्रों का उद्देश्य एक मात्र परमतत्त्व में प्रतिष्ठित करना होता है, इसी उद्देश्य से सकाम कर्मों की शास्त्र निंदा करता है ताकि कैसे भी आत्मतत्त्व की ओर आकर्षित होकर उसमें प्रतिष्ठित हो जाओ । अशास्त्रीय कर्म के विषय में शास्त्र अधिक बोलना पसंद नहीं करता है क्योंकि उसकी गति एक ही शब्द में अधम कह दी अर्थात नरक जाओ फिर सांप, बिच्छू, बर्रैया, ततैया, कूकर शूकर आदि बनो इसके अतिरिक्त उनकी अन्य कोई गति ही नहीं है । इस शास्त्रीय सकाम कर्म की निंदा अध्याय दो में भी भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् २/४४ इत्यादि साढे तीन श्लोकों में की गई है । आगे अध्याय ७ और सोलह में सकामी और नास्तिक दोनो की निंदा और गति का वर्णन किया जायेगा । इसी गंभीरता को लेकर यहाँ कर्मों की गति अत्यंत गंभीर कहा गया है ।।१७।।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ।।४/१८।।
           जो कर्म में अकर्म और अकर्म में भी कर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान है वही युक्त है अर्थात मुझसे एकता को प्राप्त कर लिया है एवं संपूर्ण सकाम निष्काम करने वाला अर्थात आत्मतृप्त है ।
           यह एक विज्ञान है कि कब कौन निष्काम कर्म सकाम हो जायेगा और कब सकाम कर्म भी निष्काम हो जायेगा । इस रहस्य को जानने के बाद ही मोक्षार्थी कृतकृत्य हो जाता है । अर्थात अब उसके लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता है । वह निक्रिय आत्मरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है । यह व्याख्या इसी अध्याय के श्लोक ४ से ६ तक कहे गये विषय की व्याख्या करता है ।।१८।।

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पविवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ।।४/१९।।
               जिसके सभी कर्मों का प्रारंभ कामनाओं के संकल्प से रहित होता है उसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में जल जाते हैं ऐसा शास्त्रों के जानने वाले पण्डित यानी विद्वान एवं अनुभवशील कहते हैं ।
             संकल्प ही सभी अनर्थों की जड़ है और संकल्प भी नाना प्रकार की इच्छाओं को लेकर ही होता है अतः सभी मन में शुभ और अशुभ कर्मों के संकल्प का त्याग कर देने से वह स्वरूप ज्ञान में स्थित हो जाता और स्वरूप ज्ञान होते ही संपूर्ण कर्म पूर्व कृत, इस समय जो हो चुके हैं और जो आगे होंगे वे सभी अग्नि में तिनके के समान भस्म हो जाते हैं ऐसा शास्त्रवेत्ता एवं अनुभवशील पारदर्शी विद्वानों ने कहा है ।
              यहां  से किं कर्म किमकर्मेति ४/१६ की व्याख्या प्रारंभ की गई है ।।१९।।

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृतोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ।।४/२०।।
            कर्म और उसके फल की आसक्ति का त्याग करके जो नित्यतृप्त होकर आश्रय रहित हो गया है वह कर्म में प्रवृत्त होने पर भी कुछ नहीं करता ।
          यहाँ पर कुछ लोग कर्मफल को एक साथ लेकर केवल कर्मों के फल का त्याग बताते हैं किन्तु यह युक्तिसंगत नहीं लगता है, क्योंकि मा कर्मफलहेतुर्भूः २/४७ का अर्थ स्पष्ट नहीं होता है इससे कर्म में कर्तापन का होना भी हो सकता है, कर्मफल भले न चाहे किन्तु मैंने यह कार्य बिना किसी स्वार्थ के किया, यह कर रहा हूँ और आगे भी निःस्वार्थ कर्म करता रहूँगा, ये जो कर्तापन का अहं है इसको भी नष्ट किये बिना मनुष्य निष्काम हो नहीं सकता है और बिना नैष्कर्म्य के वह आगे कहा गया नित्यतृप्त भी नहीं हो सकता है तो फिर निरश्रय होने का प्रश्न ही नहीं बनता । जबकि कर्म का त्याग स्वरूपतः किसी के लिए बिना स्वरूप प्रतिष्ठा के संभव नहीं है । इसलिये यहाँ कर्म का अर्थ कर्मों के कर्तृत्वपने के अहं से रहित होना और फल में आसक्ति अर्थात कामना का न होना ही सिद्ध होता है । इस प्रकार कर्तृत्वाभिमान और फलाकांक्षा से रहित जो नित्यतृप्त है जो किसी का आश्रय भी नहीं लेता भले वह जागतिक आश्रय हो या ईश्वरीय आश्रय न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ३/१८ फिर भी जो स्वाभाविक ही लोकमर्यादा को स्थिर रखते हुए शास्त्रीय सकाम और निष्काम दोनो प्रकार के कर्म में प्रवृत्त होता है, वस्तुतः वह कुछ करता ही नहीं है । वास्तव में स्वरूप सदैव निष्क्रिय ही है उसमें कोई कर्म होता ही नहीं है । कर्म तो प्रकृति में ही हो रहे हैं निष्क्रिय आत्मा में नहीं इस भाव में प्रतिष्ठित होने पर कर्म भुने हुए बीज के समान निष्फल होता है यह तात्पर्य है यस्य नाहङ्कृतो भावो १८/१७ । यहाँ सकाम और निष्काम दोनो ही कर्म कहने का तात्पर्य यह है कि पहले कामासक्त पुरुषों को लोकसंग्रह के लिए कर्म करने का उपदेश ३/२५ हो चुका है, अतः यहाँ उससे विरुद्घ अर्थ नहीं हो सकता है दूसरी बात मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि २/४७ अर्थात निष्कामता या कर्म न करने में आसक्ति न रखने को भी कहा है जबकि कर्म में आसक्ति न रखने को भी कहा गया है इस प्रकार दोनो प्रकार के सकाम और निष्काम कर्म की आसक्ति का निषेध होने से अनासक्त भाव में दोनो ही प्रकार के कर्म स्वतः ही बन जाते । ऐसा आत्मदर्शी वास्तव में करते हुए भी कुछ नहीं करता है ।।२०।।

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।।४/२१।।
        आशा रहित, शरीर सहित अन्तःकरण को वश में रखनेवाला, सभी  परिग्रह का त्याग करने वाला, शारीर निर्वाह मात्र के लिए कर्म करने वाले यति को कोई पाप प्राप्त नहीं होता ।
          यहां पर सर्वपरिग्रह का त्याग सर्वकर्मसंन्यासी के लिए समझना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ को तो सभी संसाधन चाहे वह लोकसंग्रह के लिए हो या परिवार के लिए जुटाने ही होते हैं इसलिये पूर्व श्लोक में ही कर्मों के कर्तापन और उसके फल का त्याग पहले ही कह दिया है, किन्तु जो ब्रह्मचर्य से सीधे संन्यास को स्वीकार करते हैं उनको सभी प्रकार का शारीरिक और मानसिक त्याग अर्थात अन्तर्बाह्य विषयों एवं उनके संसाधनों का त्याग आवश्यक है । ऐसा सर्व परिग्रह का त्याग करने वाला जिसने मन, बुद्धि, चित् एवं अहंकार सहित शरीर को भलीभांति वश में कर लिया है, पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत सभी भोगों की आशाओं से शून्य हो गया है । यहाँ शून्य कहने का मतलब जैसे पेंसिल से किसी कागज पर लिखो और रबड़ से मिटा दो तो भी पेंसिल की कालिमा का चिह्न हल्का सा दिखता ही है अथवा तेल के बर्तन से तेल निकाल लेने पर भी उसमें चिकनाई रहती ही है, किन्तु यहाँ निराशी कहा गया जिसका अर्थ है कि दूर दूर तक अनात्म पदार्थ का जिसमें शरीर से लेकर अन्तःकरण चतुष्टय तक लेश भी शेष ने हो ऐसा निराशी अर्थात आशा रहित यति मात्र शरीर के निर्वाह संबंधित भिक्षा, वस्त्र आदि को छोड़कर अन्य कोई कर्म मन से भी न करने वाला पाप को प्राप्त नहीं होता है । इस संसार में सबसे बड़ा यदि कोई पाप है तो वह है जन्म लेना क्योंकि शेष पाप तो जन्म के बाद ही होते हैं, पापों की अम्मा है जन्म, पापों का बाप है काम । अतः ऐसा यति जन्म मृत्यु रूप पाप को प्राप्त नहीं होता है अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ।।२१।।

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।।४/२२।।
             जो कुछ स्वतः प्राप्त हो जाये यति उसी में सन्तुष्ट रहे, द्वन्द्वों से अतीत और ईर्ष्या रहित रहता हुआ, सिद्धि असिद्धि को समान रह समझने वाला कर्म करता हुआ भी बन्धन को प्राप्त नहीं होता ।
            कहते हैं कि एक सेठ जी ने अपने धन की गणना करके यह अनुमान लगाया कि इस धन से हमारी सात पीढियां कुछ भी न करें तो भी अपना निर्वाह कर लेंगी, लेकिन चिन्ता आठवीं पीढी की हो गई जिससे वे बिमार पड़ गये । किसी विवेकशील ने बताया कि किसी तीर्थ पर जाकर संतों को भोजन करा दो, तो समस्या का हल हो जायेगा । सेठ जी हरिद्वार को प्रस्थान कर गये । रास्ते में एक लंगोटी लगाये, बिना किसी परिग्रह के एक महात्मा जा रहे थे । उनको निवेदन पूर्वक भोजन कराया और कहा महाराज यह और रख लो शाम के लिए हो जायेगा । इस पर महात्मा ने कहा कि मैं कुछ नहीं रखता जो प्रारब्ध में होगा अभी की तरह अपने आप मिल जायेगा । सेठ ने विचार किया कि यह महात्मा एक समय का भोजन भी नहीं रखता है और फिर भी निश्चिंत और सुखी है जबकि मेरे पास के धन से सात पीढियां भी जीवन निर्वाह कर सकती हैं फिर भी मैं आठवीं पीढी के लिए दुःखित हूँ ऐसा विचार कर सेठ का दुःख निवृत्त हो गया और वे स्वस्थ होकर घर वापस आ गए । यही स्थिति वीतरागी यति की होती है । सब कुछ प्रारब्ध पर छोड़ दिया जो कुछ मिला उसी में संतुष्ट रहना । किसी प्रकार का कोई द्वन्द्व नहीं, सुख-दुःख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी, जीवन-मरण, ईश्वर-जीव इत्यादि कोई द्वन्द्व नहीं एक मात्र आत्मा में ही क्रीड़ा करने वाला । मत्सर रहित अर्थात डाह का न होना यानी गांव की भाषा में मत्सर का अर्थ होता डाह यानी कुढ़न, अन्दर ही अन्दर जलना । यह तभी होता है जब हमारे अन्दर कोई कामना हो और उसकी पूर्ति न हो तथापि वह इच्छित वस्तु दूसरे के पास उपलब्ध हो उसके विरुद्ध जो मन में कुढन बनती है उस कुढन का भी न होना अर्थात कुढन की अम्मा कामना का बाहर से न हो अच्छी बात है किन्तु अन्दर से भी उसकी वृत्ति का भी न उठना । संपूर्ण जीवन जीवात्मैक्य का अन्वेषण करते करते हो गया अभी कुछ समझ में ही नहीं आया यह असिद्ध भावना और समझ में आना यह सिद्धि भावना दोनो देहाभिमान को लेकर हो होती हैं । यह देहाभिमान ही हमारी अव्यक्त सिद्धि में बाधक है १२/५ । जबकि परमतत्त्व तो स्वसंवेद्य स्वरूप ही है उसमें सिद्धि असिद्ध का भाव रखना ही द्वैत है, कामना है । अतः यह सिद्ध असिद्ध का भी भाव न होना । यह स्थिति जिस यति को प्राप्त हो गई है वह प्रारब्धवश जो कुछ करता हुआ दिखाई देता है वस्तुतः दिखने पर भी वह कर्म कर्म ही नहीं इसीलिये वह उसके फलस्वरूप जन्म मृत्यु रूप बंधन को प्राप्त नहीं होता है ।।२२।।

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।।४/२३।।
           अनात्पदार्थ से जिसकी आसक्ति समाप्त हो गई, जिसका चित्त/बुद्धि स्वरूप ज्ञान में स्थित है ऐसे मुक्त पुरुष के द्वारा यज्ञ के लिए आचरण करने पर भी सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं ।
            मुक्त पुरुष के लिए कर्म का सर्वथा अभाव ही होता है । ठीक वैसे ही जैसे दिन के होने पर रात्रि का सर्वथा अभाव होता है तथापि ज्ञान होने से पूर्व जो कर्म प्रारंभ किया गया था वे ज्ञान होने पर स्वतः समाप्त हो जाते हैं तथापि यदि प्रारब्धानुसार समाप्त नहीं होते हैं तो भी वे कर्म यज्ञ रूप ही होते हैं इसलिये वे कर्म बन्धन नहीं देते क्योंकि बन्धन तो वे कर्म देते हैं जो यज्ञ अर्थात परमेश्वर के निमित्त न हों यज्ञार्थात्कर्मणोन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ३/९ इस प्रकार जिसकी बुद्धिवृत्ति निरंतर स्वरूप में स्थित होती है उसके सभी कर्म परमेश्वर में भली प्रकार से विलीन हो जाते हैं अर्थात कर्ता कर्म और क्रिया तीनो एकाकार आत्मरूप ही हो जाते हैं ।।२३।।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।४/२४।।
           अर्पण जिन वस्तुओं से किया जाये वे स्रुवा आदि ब्रह्म है, अग्नि में जिन वस्तुओं की आहुति दी जायेगी वे वस्तुएं शाकल्य आदि ब्रह्म है, जिसमें आहुति दी जायेगी वह अग्नि ब्रह्म है, यज्ञकर्ता के द्वारा दी जाने वाली आहुति ब्रह्म है, आहुति देने वाला ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म है, जिसका प्रत्येक कर्म ब्रह्म में समाहित अर्थात आत्मरूप है उसका गन्तव्य अर्थात प्राप्तव्य भी ब्रह्म है ।
           यहाँ पर कर्ता क्रिया और कर्म अथवा कर्म द्वारा लक्षित फल सभी कुछ ब्रह्म ही है । हाथ ब्रह्म, मुख ब्रह्म, भोजन ब्रह्म, खाना और खाने वाला ब्रह्म उसमें पाचन क्रिया ब्रह्म यति की भिक्षावृत्ति भी ब्रह्म इत्यादि । यज्ञ यानी ब्रह्म भाव से किया जाने वाला प्रत्येक कर्म बन्धन से मुक्त करता है ३/९ । यहाँ अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है । स्वयं भगवान आगे विस्तार कर रहे हैं । अधिक विस्तार श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखना चाहिए अथवा आचार्य शंकर का भाष्य देखना चाहिए । 
           यहाँ हमें जो विशेष समझ में आया है वह यह कि द्वैतवादी कितना भी माथापच्ची कर लें लेकिन लक्ष्यार्थ साध्य दृष्टि में द्वैत का एक भी श्लोक गीता में कहीं भी ढूंढने पर भी नहीं मिलता है । किन्तु जो द्वैत का कथन करने वाले प्रकरण मिलते हैं वे मात्र साधन की दृष्टि से हैं क्योंकि विषयी जीव सीधे अव्यक्त परमतत्त्व को नहीं पकड़ सकता है । जिन्हें लक्ष्यार्थ या साध्य रूप से द्वैत गीता जैसे तत्त्वविवेचनी में भी मिल जाता है वे नमस्कार के योग्य हैं ।।२४।।
               
              इस प्रकार ब्रह्मवेत्ता की स्तुति करके अब आगे ज्ञान यज्ञ के विविध स्वरूपों का वर्णन करते है―
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।।४/२५।।
              दूसरे योगी लोग दैव (परमेश्वर) के निमित्त यज्ञ द्वारा भलीभाँति उपासना करते हैं । अन्य ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म रूप अग्नि में विचार रूप यज्ञ में जीव रूप शाकल्य की आहुति देते हैं ।
               यहाँ पर दैव अर्थात ईश्वर के निमित्त यज्ञ से भलीभांति उपासना कर्मयोगी के लिए कहा गया है इसका विवरण श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन के अध्याय ३/१२ में देखना चाहिए । हमने विद्वानों द्वारा श्रवण किया है जीव का एक नाम यज्ञ है और विष्णु को भी यज्ञ कहा गया है यज्ञो वै विष्णुः । यहाँ ब्रह्म को अग्नि क्यों कहा गया है ? इसको इस प्रकार समझना चाहिए कि जैसे अग्नि छोटे छोटे भिन्न भिन्न प्रकार की काष्ठ यानी लकड़ी के टुकड़ों को जलाकर सारे भेद मिटा देती कि कौन लकड़ी किस पेड़ या प्रजाति की है उसी प्रकार ब्रह्म रूप अग्नि में सभी अनात्म पदार्थ जलकर एकमात्र ब्रह्म नाम से कहा जाने वाला अस्ति पद मात्र बचता है । यहाँ जीव को ब्रह्मरूप अग्नि में हवन करने की बात कही गई है, जब जीवभाव ही नहीं बचता है तो ईश्वरभाव कैसे बचेगा ? अर्थात यहाँ पर जीव और ब्रह्म रूप दोनो उपाधि की भी ब्रह्मवेत्ता ब्रह्माग्नि में हवन कर देते हैं, अर्थात जीव-ब्रह्म की एकता को प्राप्त कर लेता है । यही अहं ब्रह्मास्मि है ।।२५।।।

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।।४/२६।।
          अन्य मुमुक्षु श्रोत्र आदि इन्द्रियों को संयम रूप अग्नि में हवन करते हैं, दूसरे लोग शब्द आदि विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं ।
          श्रोत्र, त्वचा, रसना, आंख, घ्राण (सूंघने वाली इन्द्रिय) इन पांचों ज्ञानेन्द्रियों का उनके स्वैच्छिक विषयों से अनुशासित करना ही संयम रूप अग्नि में हवन करना है । जो जिस भिन्न भिन्न साधन से अनुशासित कर सके । विषयों का इन्द्रियों में हवन करने का अर्थ यह है कि उनके स्वैच्छिक विषयों को देना नहीं बल्कि उनकी तृप्ति जितने से हो सके और वें चंचल न हो सके उतने विषयों को संयम पूर्वक देना भी हवन (यज्ञ) है ।।२६।।

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।।४/२७।।
           अन्य लोग सभी इन्द्रियों के कर्म और प्राणों के कर्म को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम नामक अग्नि में हवन करते हैं ।
          इन्द्रियों के कर्म अर्थात इन्द्रियों के अनावश्यक व्यापार को रोकना और प्राण यानी श्वासों का नियंत्रण ज्ञान के प्रकाश में यानी प्रकृति के गुणकर्म विभाग द्वारा इन्द्रियां इन्द्रियों में अपना कार्य कर रही हैं, मुझे उनसे कोई लेना देना नहीं । इस प्रकार आत्मभाव में निरंतर स्थित रहना रूप अग्नि में सभी इन्द्रियों, प्राणों की क्रियाओं को भस्म करके अक्रिय आत्मरूप में स्थित रहना रूप यज्ञ करना ।।२७।।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।४/२८।।
         तथा दूसरे लोग द्रव्य यज्ञ, तपयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ संयम रूप व्रत करने वाले सर्वकर्मसंन्यासी लोग यज्ञ करते हैं ।
             द्रव्य यज्ञ यानी भोजन वस्त्रादि का दान रूप यज्ञ, कृच्छ्र चान्द्रायण आदि कठोर तप, योग यज्ञ यानी समत्वयोग, कुछ लोग पतञ्जलि का अष्टांग योग रूप यज्ञ अर्थ करते हैं । निरंतर प्रयत्नशील यतिवृन्द कठोर व्रत का अहिंसा अपरिग्रह आदि रूप पालन करने वाले स्वाध्याय अर्थात श्रवण मनन निदिध्यासन रूप एवं अधिकारी को उस ज्ञान का उपदेश करना रूप ज्ञानयज्ञ करते हैं ।।२८।।

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।।४/२९।।
                 कोई तो अपान को प्राण में, कोई प्राण को अपान में हवन करते हैं । अन्य प्राण अपान की गति को रोककर प्राणायाम परायणता रूप हवन करते हैं ।
             हृदय से नीचे जाने वाली श्वास प्राण कहलाती है और हृदय से ऊपर यानी बाहर निकलने वाली श्वास अपान कही गई है । अर्थात कोई तो केवल पूरक रूप कुंभक करते हैं, तो कोई रेचक रूप कुंभक करते हैं। कोई तो आजीवन प्राण और अपान की गति को सम करके नाभि मंडल में ही स्थिर करना रूप यज्ञ करते हैं ।
               यहां शंका  हो सकती है कि प्राण अपान को सम करना तो यहां मूल में लिखा नहीं है तो फिर आपने उन्हें सम करना और नाभि में रोकना क्यों कहा ? इसके लिए यह भी विचार करना चाहिए कि गीता के अनुकूल ही सर्वत्र अर्थ है या नहीं….! भगवान ने कहा प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ५/२७ प्राण और अपान को जो नाक में में बाहर और भीतर विचरण करने वाले प्राण हैं उनको सम करके । अब फिर कह सकते हो कि यहां तो आभ्यंतर लिखा है तो बाह्य कैसे कहा ? तो आप स्वयं विचार करो कि प्राण सदैव शरीर के अन्दर और अपान हमेशा बाहर विचरण करते हैं, जबकि यहां दोनो का वर्णन आया है अतः यहाँ भी विरोध नहीं है ।।२९।।

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।।४/३०।।
               दूसरे लोग नियमित आहार लेकर प्राणों का प्राणों में हवन करते हैं । ये सभी निश्चित रूप से इस प्रकार के यज्ञ द्वारा सभी पापों का नाश करने वाले यज्ञ को तत्त्व से जानने वाले हैं ।
              नियमित आहार से जो न अधिक खाया गया हो और न ही बहुत ही कम खाया गया हो ऐसा आहार, क्योंकि अधिक खाने से श्वास चंचल हो उठती और बहुत कम खाने से श्वास सुप्तप्राय होती है साधक को इन सबसे साधना में और सहज भाव रहने में बड़ी बाधा होती है जब उसकी श्वास बिल्कुल सम नवजात बच्चे की तरह सहज होना चाहिए । तभी वह आगे की प्रक्रिया पूरी कर सकेगा । आगे युक्ताहारविहारस्य ६/१७ में वर्णन आयेगा ।
              इस प्रकार श्लोक २४ से लेकर यहाँ तक कहा गया है वे सभी यज्ञ अर्थात परेश्वर के तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले हैं और इसी प्रकार ज्ञानरूप यज्ञ को करके वे सभी पापों को यानी पुण्य और पाप दोनो प्रकार के कल्मषों  से मुक्त हैं अर्थात जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हैं ।।३०।।

             समीक्षा― गुणकर्मविभाग के आधार पर चारों वर्णों की सृष्टि का कथन करने पर भी परमात्मा अकर्ता है ऐसा जानने वाले मुमुक्षुओं ने पूर्वकाल में भी कर्म किया है, अतः तुझे भी कर्म करना ही चाहिए, यह बताकर कर्म, अकर्म और विकर्म का विद्वानों को भी मोहित कर देने वाले स्वरूप का वर्णन करते हुए ज्ञानाग्नि में जिसके कर्म दग्ध हो गये हैं वही पण्डित है यह बताकर संपूर्ण कर्म में कर्तापन और उससे फलबुद्धि का त्याग कर लोकैषणा, वित्तैषणा और पुत्रैषणा तीनो से आशा रहित अर्थात असंग होकर केवल प्रारब्धवश होने वाले कर्मों से पाप नहीं होता बताया और यथा प्राप्त में सन्तुष्ट रहता हुआ बिना किसी डाह के― क्योंकि कभी कभी हमें तो अमुक वस्तु की आवश्यकता नहीं होती है फिर भी दूसरे के पास होने पर भी डाह यानी जलन हो जाती है कि वह क्यों अमुक वस्तु रखता है ? इस भाव से भी रहित होकर सिद्धि असिद्धि को शरीर दृष्टि से देखता हुआ उनमें सम भाव रखने वाला कर्मबन्धन को प्राप्त नहीं होता क्योंकि ज्ञानयोग का आश्रय लेने के कारण बुद्धि आसक्ति रहित मात्र यज्ञ (परमेश्वर) के लिए ही परमेश्वर में स्थित होकर परमेश्वर रूप कर्म करने के कारण उसके कर्म परमेश्वर रूप होकर परमेश्वर में ही विलय को प्राप्त हो गये अर्थात नष्ट हो गये हैं ।
           ऐसा मुमुक्षु किस प्रकार परमेश्वर में स्थित होकर परेश्वर के लिए परमेश्वर रूप कर्म किस प्रकार करता है ? इस पर श्लोक २४ से लेकर श्लोक ३० तक सात श्लोकों में १२ प्रकार के यज्ञ कहे गये हैं ―
              १― ब्रह्मयज्ञ अर्थात सर्वं खल्विदं ब्रह्म  कर्ता क्रिया और कर्म तत्संबंधी साधन सभी ब्रह्म है । 
              २― दैव यज्ञ अर्थात स्व से भिन्न परमेश्वरार्पित सभी क्रियाओं का संपादन करना ।
           ३― अभिन्न यज्ञ अर्थात जीव और ब्रह्म नामक उपाधियों का भी हवन कर देना यानी उपाधि रहित मात्र अस्ति पद में स्थित होना ।
              ४―संमय रूप यज्ञ अर्थात इन्दियों को साधन चतुष्टय संपन्न बनाना रूप यज्ञ ।
             ५―विषयों का इद्रियों में हवन करना रूप यज्ञ अर्थात इन्द्रियां चंचल और स्वेच्छाचारी न हो जायें जिससे साधना में बाधा पड़े इसलिये उनको उनके विषयों का अनुशासन पूर्वक उचित मात्रा में देना ।
             ६―आत्मसंमय रूप यज्ञ अर्थात सभी इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं का आत्मसंमय रूप स्वरूप ज्ञान से अक्रिय भाव में स्थित होना ।
               ७― द्रव्ययज्ञ अर्थात भोजन पानी वस्त्र औषधि आदि जरूरतमंदों को देना ।
            ८― योग यज्ञ ― वैसे तो गीता में योग का अर्थ तो सम कहा गया है समत्वं योग उच्यते २/४८ अर्थात समत्व भाव में स्थित होना ही योग है और सम का अर्थ निर्दोष ब्रह्म किया है निर्दोषं ही समं ब्रह्म ५/१९ मैं चूंकि गीता का ही आश्रय रखने वाला हूँ अतः मुझे यही अर्थ सटीक लगता है तथापि कुछ विद्वान पतञ्जलि का अष्टांगयोग― यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि भी मनते हैं । जबकि इन सात श्लोकों में ध्यान से देखेंगे तो ये सभी नियम गीता में पहले से ही उपस्थित हैं इसलिये यहाँ अष्टांगयोग कहने पर पुनरावृत्ति ही होती है । चूंकि वेदान्त धारणा, ध्यान और समाधि ये अंग परमतत्त्व की प्राप्ति में हेतु मानता नहीं है इसलिए वेदान्त प्रतिपाद्य स्वध्याय और ज्ञान शब्द यहाँ दे दिया गया है । स्वाध्याय से श्रवण और मनन जबकि ज्ञान से निदिध्यासन रूप समाधि हो जाती है । इसलिए अष्टांगयोग यहाँ अनुपयुक्त लगता है ।
                ९― स्वध्याय ज्ञान यज्ञ― इसका विवरण क्रम संख्या आठ में दे दिया है ।
               १०― रेचक पूरक रूप यज्ञ अर्थात अकेले रेचक या पूरक रूप प्राणायाम करना ।
               ११― प्राण अवरोधन रूप यज्ञ अर्थात प्राणों को सम करके एक निश्चित केंद्र में रोक देना रूप यज्ञ ।
            १२― नियमित आहार रूप यज्ञ अर्थात जो शरीर और मन में विकृति पैदा करके हमारी साधना में बाधा उत्पन्न न करे ऐसे शुद्ध सात्त्विक आहार को उचित मात्रा में लेना  ।
              इस प्रकार परंपरागत प्राप्त ये बारह यज्ञ कहे गये हैं मोक्षार्थी इनके रहस्य को जानकर तदनुसार अनुशरण करने से निष्पाप हो जाता है अर्थात मोक्ष रूप गति प्राप्त कर लेता है । जिस कर्म के न करने से नैष्कर्म्य प्राप्त न होना कहा था, और कर्म करने पर भी यज्ञ अर्थात परमेश्वर के निमित्त न किये जाने वाले कर्मों से पाप लगना कहकर ऐसे इन्द्रियाराम को पाप रूप जीवन व्यर्थ कहा था, वह कैसे जीवन सार्थक करे ? उसका यहाँ विवेचन किया गया है । यहाँ इन यज्ञों के विवेचन से यह बात स्पष्ट हो गई कि क्रिया मात्र यज्ञ है और यज्ञकर्ता स्वयं सबको आश्रय देने वाला निष्क्रिय ब्रह्म है । ऐसे ब्रह्मरूप तत्त्ववेत्ता को पाप स्पर्श भी नहीं कर सकता है क्योंकि पाप पुण्य रूप कर्म भी उसकी दृष्टि में यज्ञ रूप ही हैं ।।१६-३०।।

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तमः ।।४/३१।।
         यज्ञावशिष्ट को खाने वाला सनातन ब्रह्म को प्राप्त होता है । जो यज्ञ नहीं करता वह न यह लोक  भी नहीं मिलता फिर हे कुरुश्रेष्ठ अन्य लोक कहाँ ?
          मनुष्य लोक न मिलना मतलब मनुष्य ही बनता तो भी स्वर्ग आदि देवत्व की कल्पना भी कैसे की जा सकती है ? अर्थात ऐसे लोग अपने स्वभाव के अनुसार कूकर, शूकर, वृक्षादि बनते हैं ।।३१।।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।।४/३२।।
              इस प्रकार यज्ञों का वेदमुख से विस्तार किया गया है, उन सभी को कर्म से उत्पन्न हुआ जान । इस प्रकार जानकर संसार चक्र से भलीभाँति मोक्ष को प्राप्त हो जायेगा ।
             इस प्रकार सभी क्रियाएं वेद वाणी द्वारा वेदों द्वारा यज्ञस्वरूप कही गई जो सभी कर्मज हैं और जो भी चित्तशुद्धि के लिए किया जायेगा वह भी तो कर्मज ही होगा । इसलिये स्वधर्म प्राप्त वैदिक कर्म क्षत्रिय के लिए युद्ध ही श्रेष्ठ है यह भाव है ।।३२।।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।।४/३३।।
             हे परन्तप ! द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि हे पार्थ ! संपूर्ण कर्म ज्ञान से ही भलीभांति समाप्त होते हैं ।
            द्रव्यमय यज्ञ प्रवृत्ति मार्गियों के लिए कहा गया है उसमें कर्मासक्ति की संभावना अधिक होती क्योंकि उन द्रव्यों को जुटाने में भी परिश्रम करना होता है, किन्तु ज्ञानयज्ञ में तो मात्र चारों ओर से मन को हटाकर ब्रह्ममय भावना करनी होती है । अध्याय तीन में यज्ञ का विनियोग ब्रह्म में किया गया था और यहाँ भी ब्रह्मयज्ञ ४/२४ को ही श्रेष्ठ कहा गया है क्योंकि सभी क्रियाओं और यज्ञों का फल है व्यापक आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठा । आत्मा अक्रिय और सभी विकारों से रहित ज्ञानस्वरूप है उस ज्ञानस्वरूप निष्क्रिय आत्मा में प्रतिष्ठित होने पर ही सभी कर्मों की परिसमाप्ति हो जाती है अर्थात वह साक्षात मोक्षस्वरूप हो जाता है ।।३३।।

तद्विद्धि प्रणिपातेन प्ररिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।४/३४।।
           उस ज्ञान को जानने के तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो, सेवा के द्वारा पुनः पुनः प्रश्न करो तब वे ज्ञान का उपदेश करेंगे ।
            यहाँ संप्रदाय परंपरा का स्पष्ट वर्णन किया गया और यह बताया गया है कि बिना संप्रदाय परंपरा के बिना सेवा भाव और श्रद्धा एवं समपर्ण के तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता है । साष्टांग प्रणाम गुरु के प्रति पूर्णतः समपर्ण का सूचक है । विस्तार श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखें ।।३४।।

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।।४/३५।।
             हे पाण्डुपुत्र ! जिसको जानकर पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा, जिसके द्वारा संपूर्ण प्रणियों को पहले अपने में देखेगा फिर इसी प्रकार स्वयं को मुझमें देखेगा ।
            अध्याय दो में यह मैं और तू इन तीन संज्ञाओं से जिस आत्मा का निर्देश किया गया था उसी को स्पष्ट करते हैं कि जिसे अभी यह कहते हो उनको पहले त्वम् पदार्थ लक्षित आत्मरूप स्वयं में और फिर उस त्वम् पदार्थ लक्षित मैं के अर्थ आत्मा को मुझ तत् पदार्थ लक्षित ईश्वर में देखोगे ऐसा यह ज्ञान है जिसे जानकर पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा । 
            यहाँ पर त्वम् एवं तत् पदार्थ के एकत्व को लक्षित किया गय है ।।३५।।
             

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञान प्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।४/३६।।
            यदि ऐसा पापी भी हो जो सभी पाप करने वालों में जो अत्यंत पापीयों से भी बढकर पापी भी तो भी ज्ञान रूपी नौका में में बैठकर सभी पापों को भलीभाँति परा कर जायेगा ।
             मोह को उस ज्ञान से कोई क्यों प्राप्त नहीं होगा इस आशंका का निवारण करते हुए यहां पर ज्ञान की स्तुति पूर्वक यह भी बताया गया है कि जो अत्यंत पापी गुरुपत्नी का गमन करने वाला, गुरु हत्या, ब्रह्म हत्या, गौहत्या जैसे उत्कृष्ट पापियों का भी सरदार हो वह भी जब ज्ञानरूपी नौका के आश्रित संसार समुद्र को पार कर जाता है तो फिर जो आजीवन ब्रह्मचर्य पूर्वक सर्वकर्मसंन्यासी है उसके पार होने में कोई संदेह हो ही नहीं सकता । तो जब संसार सागर को पार ही कर जायेगा तो मोह होने का प्रश्न ही नहीं है, साथ ही मोक्ष का आत्यन्तिक साधन ज्ञान ही है यह भी स्पष्ट कर दिया गया है ।।३६।।

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।४/३७।।
              हे अर्जुन ! जिस प्रकार प्रचंड अग्नि छोटी छोटी सूखी विभिन्न प्रकार की समिधाओं(लकड़ियों) को भस्म रूप कर देती है उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है ।
             यहां पर प्रचंड अग्नि में सूखी छोटी छोटी लकड़ियों के जलाने के माध्यम से यह बताया गया है कि जैसे लकड़ियों के जलने पर उसकी राख में यह पहचान नहीं की जा सकती है कि कौन सी राख किस लकड़ी की है उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि सभी कर्म उपलक्षित पाप-पुण्य रूपी कर्मफलों को जलाकर एक रूप अर्थात सभी कल्मषों से रहित आत्मरूप कर देती है । उसमें जीव-ब्रह्म की उपाधि रूपी कल्मष भी जलकर मात्र अस्ति पद रूपी राख बचती है अर्थात एकमात्र सबको सत्ता देने वाला चैतन्य प्रकाश मात्र बचता है ।।३७।।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।४/३८।।
           ज्ञान के समान इस संसार में पवित्र करने वाला और कुछ भी उपलब्ध नहीं है । वह स्वयं ही समयानुसार समत्व रूप योग भलीभांति सिद्ध हो जाने पर आत्मा में ही सिद्धि को प्राप्त हो जाता है ।
            ज्ञान का आत्मा में ही सिद्ध होना अर्थात स्वसंवेद्य आत्मा के रूप में व्यापक  अहंता में प्रतिष्ठित होना रूप सिद्धि जो सिद्धि-असिद्धि आदि द्वन्द्वों और सभी प्राणियों में एक ही आत्मा के समान रूप देखने से स्थिरता रूप सिद्धि के बाद सिद्ध होता है ।।३८।।

श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।४/३९।।
            इन्द्रियों को वश में करने वाला और ज्ञान प्राप्ति के निरंतर प्रयत्नशील श्रद्धावान् ज्ञान को प्राप्त करता है । ज्ञान को प्राप्त करके तत्क्षण परमशान्ति को प्राप्त कर लेता है ।
           गुरु शास्त्र ने जैसा कह दिया वैसा का वैसा मान लेना श्रद्धा और आत्मस्वरूप अपरिच्छिन्न रूप से जानना ज्ञान है । यहाँ पर यह समझना चाहिए कि जिस क्षण ज्ञान हो जाता है उसी क्षण परमशान्ति को अर्थात सदेह मोक्षस्वरूप हो जाता है । मात्र जो फल देने के लिए कर्मफल उद्यत हो चुके हैं उतने मात्र का भोग करने के लिए शरीर स्थित होता है । जैसे ढाल पर किसी बस का तेल खतम हो जाये तो जितना वेग उसमें है उसके अनुसार गति पूरी करके स्वतः खड़ी हो जायेगी वैसे ही ज्ञान प्राप्ति के बाद जो अब कर्म होंगे और जो अभी फल देने के लिए उद्यत नहीं हुए थे वे सभी आत्मस्वरूप का ज्ञान होते ही नष्ट हो जाते हैं । और जो उद्यत वर्तमान में कर्मफल भोग के निमित्त उद्यत हैं वे भोग से नष्ट होकर शरीर त्यागकर परमशान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे ।।३९।।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।४/४०।।
            अज्ञानी, श्रद्धारहित और संशय वाला नष्ट हो जाता है । संशय वाले को न यह लोक मिलता है, न परलोक ही मिलता है, न सुख ही मिलता है ।
           अज्ञानी का मतलब आत्मज्ञान से रहित, गुरु और शास्त्र की बात पर विश्वास न करना या मीनमेख करने वाला, जीव ब्रह्म कैसे है सकता है ? ब्रह्म जीव कैसे हो सकता है ? इस प्रकार के संशय वाला इसलोक यानी मनुष्य लोक ही नहीं प्राप्त करता अर्थात वह दुबारा मनुष्य ही नहीं बनता तो स्वर्गादि को भी कैसे पा सकेगा ? इतना ही नहीं ऐसे लोगो के कार्य सदैव आधे अधूरे होनो से सुख भी प्राप्त नहीं करते, ईर्ष्या द्वेष के कारण दुखी ही रहते हैं । यहाँ नष्ट होना यानी मनुष्य योनि से नीचे फिर उससे भी नीचे चले जाना समझना चाहिए ।।४०।।

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।।४/४१।।
             हे धनञ्जय ! योग के द्वारा कर्मों का और ज्ञान के द्वारा संशयों त्याग करके आत्मस्वरूप में स्थित मोक्षार्थी को कर्म नहीं बांधते ।
           योग यानी समत्व बुद्धि द्वारा सभी शुभाशुभ कर्म उपलक्षित कर्मफलों का त्याग करके चित्तशुद्धि होने पर ज्ञान द्वारा जीव ब्रह्म कैसे हो सकता है, ब्रह्म जीव कैसे हो सकता है ? इस संशय का आत्मा अनात्मा के विवेक द्वारा नाश करके आत्मस्वरूप में स्थित मोक्षार्थी को कर्म बन्धन नहीं करते । यहां कर्मफल का त्याग करने वाले निष्काम कर्मी की स्तुति की गई है, क्योंकि कर्म नहीं बांधते यह जो बात कही है इससे यही सिद्ध होता है कि यह मोक्षार्थी कर्मफल का ही त्याग करता है कर्म का नहीं, इसलिये विरजा संपन्न गृहत्याग करने वाला संन्यासी यहाँ पर अनपेक्षित है । कर्म नहीं बांधते मतलब कर्मफल जिनका हेतु है वह जन्म-मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है अर्थात वह मुक्त हो जाता है ।।४१।।

तमादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।४/४२।।
            इसलिये हे भारत ! हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार द्वारा काटकर योग में स्थित होकर  युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।
            जीव और ब्रह्म एकत्व में जो संशय होता है वह अज्ञान की चरमसीमा है । आत्मा और अनात्मा का अलग अलग विवेचन करके अनात्मा का त्याग करके आत्मा का वरण करना ही ज्ञान है अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।१३/११ अर्थात आत्मज्ञान से जो कुछ भी भिन्न है वह सब अनात्मा है । यह आत्मा ही ब्रह्म है अर्थात मैं के अर्थ में स्फुटित होने वाला चैतन्य प्रकाश ही ब्रह्म है और वह चैतन्य प्रकाश मैं हूँ ऐसी दृढ भावना द्वारा शोक मोह को उत्पन्न करने वाली परिच्छिन्न वृृत्ति का नाश करके समत्व रूप योग में स्थित होकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा अर्थात युद्ध कर ।।४२।।

            समीक्षा― श्लोक तीस तक क्रिया मात्र को यज्ञ का स्वरूप बताकर यज्ञ के स्वरूप को जानने वाले तत्त्वदर्शी द्वारा ही तदनुसार क्रिया करने पर सभी शुभाशुभ कल्मषों का नाश बताया । आगे ऐसा करने वाले को सनातन ब्रह्म पद अर्थात मोक्ष और न करने वाले को इस लोक और परलोक दोनो से ही भ्रष्ट होना बताया । यह सभी उपासनाएँ वेदों द्वारा ही कही हैं । मनो वै ब्रह्म, अन्नं वै ब्रह्म, इत्यादि भी उपासनाएं भी उपनिषदों में ही कही गई हैं और यज्ञ आदि उपासनाएं भी ब्राह्मण और आरण्यक ग्रंथों में ही कही गई हैं । इसका अर्थ यह होता है कि गीता भी ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद भाग को वेद ही मानती है तभी वितता ब्रह्मणो मुखे कहा है । जो लोग भगवती गीता पर आस्थावान हैं उनको यह तर्क त्याग देना चाहिए कि ब्राह्मण,  आरण्यक और उपनिषद वेद नहीं हैं ।
                यहाँ यह भी बताया गया है कि जो भी हमारी चित्तशुद्धि में हेतु होगा वह अधिकारानुसार कर्म ही होगा तो फिर विहित कर्म ही क्यों न किया जाये ? अर्थात विहित कर्म अवश्य करना चाहिए । जितने भी संसार में यज्ञ हैं वे सभी ज्ञानयज्ञ में समाप्त हो जाते हैं । आत्मा और अनात्मा का विवेक करने में जो साधन सहायक होते हैं उन्हें ज्ञान कहते हैं । उस ज्ञान से जिस अक्रिय निरवयव निर्विकार आत्मतत्त्व का ज्ञान हो जाता है, स्थिति होती है, वहाँ किसी भी क्रिया की गति ही नहीं है अतः कोई भी कर्म चाहे वह सकाम हो या निष्काम छू भी नहीं सकती है । ऐसा आत्मज्ञान लोक परलोक से उत्पन्न वैराग्य के परिपुष्ट होने पर महापुरुषों की शरण में जाकर उन्हें स्वयं को समर्पित कर देने उनकी सेवा करने से और अवसर देखकर तत्त्व संबंधित प्रश्न करने पर दयालु महापुरुष उसका वर्णन करते हैं जिसे जानकर पुनः मोह प्राप्त नहीं होता है कारण कि संपूर्ण प्राणियों को अपना आत्मा और अपने को मुझसे अभिन्न देखता हुआ सर्वात्मा हो जाता है । संपूर्ण भयों की जननी तो भेद है और वह ही समाप्त हो गया, जब अनन्त ब्रह्माण्डों का एक मात्र प्रकाशक हो गया तो सभी किये गये पुण्य-पापमय संसार और उसके भय का प्रश्न ही नहीं बनता है क्योंकि इस आत्मज्ञान की नौका पर बैठकर तो पापात्माओं का सरदार भी भलीभांति संसार सागर को पार कर जाता है तो फिर ब्राह्मण या सर्वकर्मसंन्यासी पार गया तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अर्थात कोई आश्चर्य नहीं है ।
                 इस संसार में आत्मज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कोई भी लौकिक वैदिक कर्म है ही नहीं । यह आत्मज्ञान निरंतर प्रयत्नशील रहने पर समयानुसार स्वयं सिद्ध होकर संपूर्ण कर्म एवं उनके जन्म-मृत्यु रूप बन्धन देने फलों को वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे अत्यंत प्रचंड अग्नि छोटे छोटे सूखे लकड़ी के तिनकों को जलाकर सभी भेद मिटाकर मात्र राख कर देती है वैसे ही जीव और ब्रह्म रूप उपाधि को जलाकर तत्क्षण आत्मरूप पराशान्ति को प्राप्त करा देता है । यह आत्मज्ञान साधन चतुष्टय संपन्न श्रुति शास्त्र आचार्य पर बिना किसी संशय विपर्यय के श्रद्धा रखने और निरंतर प्रयत्नशील को ही प्राप्त होता है अन्य को नहीं । समत्व बुद्धि से सभी कर्मों के फल का और स्वरूप ज्ञान से सभी संशयों का नाश कर देने वाले आत्मस्वरूप में स्थित ज्ञानी को कर्म बन्धन नहीं देते, इसलिये संशय उत्पन्न करने वाले भ्रामक ज्ञान अर्थात अज्ञान का ज्ञान रूपी तलवार से नाश करके समत्व भाव में स्थित होकर स्व-कर्म करना चाहिए ।।३१-४२।।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।४।।

हरिः ॐ तत्सत् !      हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!

                                              श्रीकृष्णार्पणमस्तु
                               

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