गीता समीक्षा अध्याय १
ॐश्रीपरमात्मने नमः
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं ।
यत्कृपातमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ।।
विषयानुक्रमणिका : ––
श्रीमद्भगवद्गीता
क्र.
|
अ.
|
विषय
|
पृ.सं.
|
क्र.
|
अ.
|
विषय
|
पृ.सं.
|
०१
|
००
|
निवेदन
|
०२
|
०२
|
००
|
प्रस्तावना
|
०३
|
०३
|
००
|
गीता माहात्म्य
|
०४
|
०४
|
००
|
ध्यान
|
०८
|
०५
|
०१
|
अर्जुन विषादयोग
|
०९
|
०६
|
०२
|
साङ्ख्ययोग
|
२८
|
०७
|
०३
|
कर्मयोग
|
४०
|
०८
|
०४
|
ज्ञानकर्म योग
|
५४
|
०९
|
०५
|
कर्मसंन्यास योग
|
६८
|
१०
|
०६
|
आत्मसंयम योग
|
७७
|
११
|
०७
|
ज्ञानविज्ञान योग
|
१०२
|
१२
|
०८
|
अक्षरब्रह्म योग
|
१२२
|
१३
|
०९
|
राजविद्या राजगुह्य
|
१४०
|
१४
|
१०
|
विभूति योग
|
१६६
|
१५
|
११
|
विश्वरूप दर्शनयोग
|
१८२
|
१६
|
१२
|
भक्तियोग
|
१९९
|
१७
|
१३
|
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभागयोग
|
२१२
|
१८
|
१४
|
गुणत्रयविभाग योग
|
२२८
|
१९
|
१५
|
पुरुषोत्तम योग
|
२३९
|
२०
|
१६
|
दैवासुर संपत्ति विभागयोग
|
२५३
|
२१
|
१७
|
श्रद्धात्रय विभागयोग
|
२६३
|
२२
|
१८
|
मोक्षसंन्यास योग
|
२७५
|
२३
|
००
|
सिंहावलोकन (संपूर्ण समीक्षा)
|
३१६
|
२४
|
००
|
क्या कहना है ?
|
३३४
|
निवेदन― गीता मानव मात्र के कल्याण का सबसे उत्कृष्ट मार्ग है । मैने जो अनुभव किया वह इतना ही है कि गीता कोई ज्ञान नहीं बल्कि स्वरूप की अनुभूति है । कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि सभी कुछ इसमें अधिकारानुसार प्राप्त है । हमने श्रीमद्भगवद्गीता “मेराचिन्तन" लिखते समय अनुभव किया कि मैं रजोगुण की अधिक वृद्धि के कारण अपने भाव व्यक्त नहीं कर सका । अतः अब समीक्षा अपने अन्तःकरण की शान्ति के लिए लिख कर अपने भावों को प्रकट कर रहा हूँ । यद्यपि हमने आचार्य शंकर को ही यहाँ भी आगे रखा है तथापि आवश्यक नहीं है कि हमारे किसी भी लेख या विचार या शैली से कोई सहमत हो क्योंकि मैं स्वयं जब दूसरे के विचारों से सहमत नहीं हो पाता हूँ तो और किसी से सहमति की अपेक्षा कैसे कर सकता हूँ ? बस जिस किसी भी प्रकार मन को गीता में लगाने का प्रयत्न कर रहा हूँ तथापि जैसे लगाये गये किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत पेड़ के नीचे आकर कोई छाया का आनन्द लेने लगे और उसके गिरे फल उठाकर खाने का आनन्द लेने लगे तो उसमें उस पेड़ लगाने वाले का सौभाग्य ही होता है कि कोई उसके लगाये वृक्ष की छाया या फल से संतुष्ट हुआ वैसे ही यदि किसी को इस विचार से कोई लाभ प्राप्त हो तो मेरा सौभाग्य होगा । लक्ष्य केवल गीता का चिन्तन ही है ।
हमने जहाँ भी विरोधाभास विरोधाभास देखा है वहाँ पर असहमति भी कारण और प्रमाण सहित प्रकट किया है इसके लिए सभी सज्जनवृन्द क्षमा करेंगे ।
हमने पूर्व लेखन में अपने लेख में गलतियों का भी अनुभव किया जो यहाँ सुधारने का प्रयत्न करूंगा । ओ३म् !
प्रस्तावना:― आज का समाज कहीं भी शान्ति प्राप्त नहीं कर पा रहा है । वह बाह्य जगत में ठीक धृतराष्ट्र की तरह ही अपने अनधिकार में अधिकार मानकर यह जानते हुए भी कि यह जगत आज तक किसी का न हुआ है और न ही होगा तो भी संपूर्ण शक्ति जगत और जागतिक सुख के संचय में लगा देता है । गीता ऐसी परिस्थितियों में भी स्थाई सुख की खोज करती हुई मानव जीवन को सुखमय बनाने का भरपूर प्रयत्न करती है । हम यह नहीं कहते हैं कि आप ईश्वर को मानो, कोई ईश्वर है भी या नहीं इस पर मतभेद हो सकते हैं, किन्तु ‘मैं’ हूँ इसमें दूर दूर तक कोई मतभेद नजर नहीं आता । कीट से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त सभी जीव स्थाई सुख चाहते हैं इसमें भी कोई मतभेद नहीं हो सकता है । गीता ऐसे ही स्थाई सुख को प्राप्त करने के लिए मानव जीवन का पथ प्रदर्शन करती है ।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बूद्धिग्राह्मतीन्द्रियम् ६/२१ अर्थात जो आत्यंतिक सुख है वह बुद्धि पूर्वक प्राप्त होता है, किन्तु वह अतीन्द्रिय सुख है । आत्यंतिक सुख इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता । जो इन्द्रियों द्वारा सुख पाने का प्रयत्न करता है उसकी बुद्धि नष्ट हो गई है, वह परम सुख कभी प्राप्त नहीं कर सकता है न हिनस्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् १३/२८ बुद्धि का नाश मतलब आत्महत्या करना । अपना सर्वस्व नाश कर लेना । उपनिषदों में सर्वं खल्विदं ब्रह्म एवं स्मृतियों/ गीता आदि में वासुदेवः सर्वम् का उद्घोष इसलिये नहीं किया गया है कि आप से भिन्न कोई ब्रह्म या ईश्वर है, बल्कि इसलिए यह उद्घोष किया गया है कि आप जहाँ हो जिस जगह पर हो वहीं से अपने मार्ग का चयन कर लो । इसीलिये अयमात्मा ब्रह्म भी श्रुति यही कहती है आत्मा अर्थात स्व से भिन्न कोई ब्रह्म नहीं है आत्मैवेदं सर्वम् यानी यह सब आत्मा ही है इत्यादि श्रुति सम्मत आत्मा को जो मैं का अर्थ है उसे स्वीकार कर लो । यही सुख की चरम सीमा होगी । यदि आप ईश्वर या ब्रह्मवादी हो तो उन्हें स्वीकार करो और यदि आप ईश्वरादि को नहीं मानते हो तो स्वयं को तो मानोगे ? तो स्वयं पर विचार करो कि मैं कौन हूँ ? इसी बात का सबसे पहले अध्याय २/१२ से लेकर श्लोक २/३० तक विस्तृत वर्णन किया गया है और अन्त में कह दिया कि आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते २/५५ यह आत्यंतिक सुख है स्वयं की स्वयं में स्थिरता । जहाँ हमारी ब्रह्म में अभिन्न प्रतिष्ठा है वहीं आपके मैं का लक्ष्यार्थ आत्मा का स्वरूप है । इसीलिए कृष्ण ने पहले ही कह दिया आत्मवान् २/४५ अर्थात कुछ मत कर मात्र आत्मा में स्थित हो जा और जो कुछ भी आत्मा से भिन्न हो उसका त्याग कर दे । इस आत्मा का ही उपक्रम अध्याय २ से आगे विस्तार किया गया है । आत्मप्रतिष्ठा ही जिन विवेकशील का लक्ष्य हो उन्हें भगवती गीता से भिन्न अन्य कोई और प्रयोजन हो भी क्या सकता है ?
हमारे जीवन में एक बहुत बड़ी विडंबना है उसको भी समझकर रखना चाहिए कि हम किस लक्ष्य को लेकर कौन सा उपदेश कर रहे हैं और किस लक्ष्य को लेकर सुन रहे हैं ? उपदेश का प्रभाव उसी अंश को प्रभावित करता है अन्य को नहीं । हमारे परमाराध्य कहते थे कि उत्तरकाशी में एक बड़े विद्वान कथावाचक एक महात्मा से मिलने पर पूछा कि महाराज जी ! आपको देखने से ऐसा लगता है कि आप कुछ अधिक पढ़े लिखे नहीं हो तो भी आपके ललाट पर उत्कृष्ट ब्रह्म तेज और शान्ति झलक रही है और मैं इतना बड़ा विद्वान होकर भी अशान्त हूँ, आपने ऐसा क्या पढ़ा है ? महात्मा ने कहा कि जब आप पढ़ते थे तो लक्ष्य क्या था ? यही कि मैं बड़ा विद्वान बनूँ ? अतः शास्त्र ने आपको वह दिया और मैंने अमुक (किसी चौपतिया जैसी छोटी) पुस्तिका पढ़ी है किन्तु मेरा लक्ष्य ब्रह्म था अतः हमें वह मिला है । अतः लक्ष्य के अनुसार ही सबको समझ और क्रिया प्राप्त होती है । गीता में भी प्रथम अध्याय को देखने से अर्जुन की दयनीय दशा युद्ध से पलायन मात्र मोह के कारण बनी थी । यदि लक्ष्य सन्न्यास होता तो लाक्ष्यागृह के बाद का वनवास, द्यूतक्रीड़ा के बाद का वनवास जब मिला तभी वह संसार की असारता को देखते हुए निर्णय संन्यास का ले सकते थे किन्तु ऐसा नहीं किया । जब अपने ही दोनो ओर से मरने वाले दिखे तब मोह उत्पन्न हो गया और युद्ध से पलायन करने के लिए शास्त्र को ही ढाल बना कर भिक्षावृत्ति यानी संन्यास जीवन स्वीकार करना पसंद किया ।
यही है अपने कर्तव्य से पलायन । किसी भी कर्मठ व्यक्ति को कर्तव्य पलायन करने की शास्त्र कभी अनुमति नहीं देता है अतः वह कर्मनिष्ठा में स्थित रहते हुए भी आत्मानुसंधान करके भी परमसुख को प्राप्त करने का लक्ष्य गीता ही सिखाती है । यही कर्तव्य पालन की निष्ठा अर्जुन में अन्त में जाग्रत हुई । जिसका विवरण आगे अध्याय १८/७३ में दिया जायेगा ।
हम धृतराष्ट्र के आभारी हैं कि यदि उन्हें इतना उत्कृष्ट मोह न हुआ होता तो आज यह गीतामृत अद्वैतवर्षिणी हमारे बीच में न होती । फिर बिचार तो करना ही चाहिए कि हम बारंबार गीता पर विचार तो करते हैं किन्तु उसका हमारे ऊपर प्रभाव कितना है ? भगवान सनत्कुमार जी ने उस समय ब्रह्मतत्त्व का धृतराष्ट्र को उपदेश किया जब उद्योग पर्व में दोनो पक्षों से बहुत ही जोरदार सैन्य संगठन और युद्ध की तैयारी चल रही थी । वह उपदेश सनत्सुजातीय दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है । स्वयं नारायण ने ही सनत्सुजात के रूप में वह उपदेश सुनाया, किन्तु मोहाच्छन्न धृतराष्ट्र पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा सका । अतः युद्ध में दस दिन तक कोई वृत्तांत धृतराष्ट्र तक दैवीमाया के प्रभाव से कोई सूचना नहीं पहुंची । दसवें दिन जब सञ्जय पितामह भीष्म के शरशैय्या विश्रान्ति के उपरान्त धृतराष्ट्र के पास पहुंचे तो धृतराष्ट्र का पहला प्रश्न होता है कि संजय युद्ध का वृत्तांत सुनाओ और यह सुनाओ कि युद्ध का प्रारंभ कैसे हुआ और पहला शस्त्र किसने चलाया ? इससे युद्ध होने की सूचना धृतराष्ट्र को होना स्पष्ट सूचित होती है किन्तु मुख्य विवरण गीता के माध्यम से पता होता है । धृतराष्ट्र ने इसी बात को लेकर किमकुर्वत १/१ कहा था ।
संजय बड़ी ही बुद्धि कुशलता से कौरव सेनापति भीष्म द्वारा प्रथम शंखध्वनि करने की बात कहते हुए कौरव पक्ष ही प्रथम युद्ध की घोषड़ा करता है यह बताकर अन्त में यत्र योगेश्वरः कृष्णः १८/७८ कहते हुए पाण्डव पक्ष की विजय भी सुनिश्चित कहते हैं, ताकि बची हुई संपत्ति और पुत्रों की संधि करके अभी भी रक्षा की जा सके लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका इसी को कहा दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ७/१४ । हमारा कहने का तात्पर्य इतना है कि गीता दो बातें स्पष्ट कहती है कि पहली बात कर्मिनष्ठा और दूसरी बात अपने अधिकार के अनुसार ही कर्म का चयन करना । गीता एक साथ चारों वर्ण एवं आश्रम आदि का सिद्धांत बताती है उसे अपने अपने अधिकारानुसार ग्रहण करना चाहिए । मात्र संन्यासी के लिए ही गीता है, गीता मात्र संन्यास का ही उपदेश करती है मैं यह कभी नहीं मान सकता हूँ । मात्र संन्यास का उपदेश उद्धवगीता श्रीमद्भागवत में ही दिया गया है यहाँ नहीं । अतः पहले अपना लक्ष्य निश्चित करो और फिर गीता का अध्ययन करो । ओ३म् !
–––स्वामी शिवाश्रम
गीता माहात्म्य
धरोवाच
भगवन् परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी ।
प्रारंब्धं भुज्ममानस्य कथं भवति हे प्रभो ।।१।।
पृथ्वी बोली– हे भगवन् ! हे सर्वेश्वर ! प्रारब्ध का भोग करते हुए हे प्रभो ! आपकी अव्यभिचारिणी भक्ति किस प्रकार होती है यानी की जा सकती है ?१।।
श्रीविष्णुरुवाच
प्रारंब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यास रतः सदा ।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपपद्यते ।।२।।
श्रीविष्णु बोले–– प्रारब्ध का भोग करते हुए जो सदैव गीता के अभ्यास में आसक्त होते हैं, निश्चित ही वही मुक्त हैं, सुखी हैं । उनके लिए संसार में कोई कर्म शेष नहीं रहता अर्थात वे आप्तकाम होते हैं ।
विशेष― यह श्लोक अध्याय ३/१७ का प्रतिनिधित्व करता है― तस्य कार्यं न विद्यते ।।२।।
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् ।
क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।।३।।
महा पापी से भी बढ़कर भी पापी भी सावधानी पूर्वक यदि गीता का ध्यान अर्थात चिन्तन करे तो जैसे कमल के पत्ते का स्पर्श करके भी पानी उसे गीला नहीं करता है वैसे ही गीता का चिन्तन करने वाले को पाप स्पर्श नहीं कर सकता ।
विशेष― यह श्लोक अपि चेत्सुदुराचारो ९/३० एवं हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते १८/१७ का प्रतिनिधित्व करता है ।।३।।
गीतायाः पुस्तकं यत्र यत्र पाठः प्रवर्तते ।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै ।।४।।
जहाँ पर गीता पुस्तक होती है एवं जहाँ पर इसका पाठ होता है वहीं पर निश्चित ही प्रयाग आदि सभी तीर्थ होते हैं ।।४।।
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये ।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते ।।५।।
सभी देवता और ऋषिगण, योगी एवं सर्प जहाँ गीता का पाठ होता है वहाँ सभी शीघ्र सहायता करते हैं ।
विशेष― देवता से आधिदैविक, ऋषिगण एवं योगियों से आध्यात्मिक और सर्प से आधिभौतिक तापों का गीता पाठ से निवारण बताया गया है ।।४।।
यत्र गीताविचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।
तत्राऽहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।।६।।
क्योंकि जहाँ गीता का तात्विक विचार होता है, पढ़ा और पढ़ाया एवं श्रवण किया जाता है हे पृथ्वि ! निश्चित ही मैं वहाँ निवास करता हूँ ।।५।।
विशेष― पूर्वोक्त तीनो ताप बाधा क्यों नहीं पहुंचाते हैं उसका कारण बताया कि गीता के पठन, पाठन श्रवण और विचार स्थाल यानी विचार करने वाले के हृदय में स्वयं भगवान का वास होता है इसलिये तीनो ताप ही नष्ट हो जाते हैं । यही गीता की विशेषता है ।।६।।
गीताऽश्रयेहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम् ।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान् पालयाम्यहम् ।।७।।
मैं गीता के आश्रित हूँ अर्थात जहाँ गीता होती है वहीं मैं होता हूँ क्योंकि गीता मेरा उत्तम घर है । मैं गीता के ज्ञान की उपासना करके यानी गीता के सिद्धांत का पालन करते हुए ही तीनो लोकों का पालन करता हूँ ।।७।।
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः ।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वानिर्वाच्यपदात्मिका ।।८।।
गीता मेरी परा विद्या है अर्थात इससे श्रेष्ठ और कोई विद्या नहीं है, ये ब्रह्मरूपा यानी मद्रूपा है इसमें संशय नहीं है । ये ओंकार की अविनाशिनी अर्धमात्रा है, नित्या है स्वसंवेद्य स्व नामक अनिर्वाच्य अर्थात जिसे इन्द्रियों सहित मन एवं बुद्धि द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है उस पद स्वरूपा है ।
विशेष― स्व अनिर्वाच्य पद का मतलब आत्मरूपा, आत्मस्वरूपा ।।८।।
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुन ।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ।।९।।
अर्जुन के प्रति स्वयं अपने ही मुख से सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण के द्वारा कही गई तीनो वेदस्वरूपा, परम आनन्दस्वरूपा एवं तत्त्व के अर्थस्वरूप ज्ञान से युक्त है ।।९।।
योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः ।
ज्ञानसिद्धिं च लभते ततो याति परं पदम् ।।१०।।
जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन अठारहों अध्याय का पाठ करता है वह ज्ञान रूप सिद्धि को प्राप्त करता है एवं उसके पश्चात तत्क्षण पहले जीवनमुक्ति और फिर शरीर त्याग कर विदेह मुक्ति को प्राप्त करता है ।।१०।।
पाठेऽसमर्थः संपूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत् ।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नाऽत्र संशयः ।।११।।
संपूर्ण पाठ करने में असमर्थ होने पर आधा यानी नौ अध्याय का पाठ करने पर जो गोदान देने का पुण्य होता है उस पुण्य को प्राप्त करता है इसमें कोई संशय नहीं है ।।११।।
त्रिभागं पठमानस्तु गङ्गास्नानफलं लभेत् ।
षडंशं जपमास्तु सोमयागफलं लभेत् ।।१२।।
आधा न हो सकने पर एक तिहाई यानी छः अध्याय का पाठ करने से गंगा स्नान का फल मिलता है और तीन अध्याय के पाठ से सोमयज्ञ का फल प्राप्त करता है ।।१२।।
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः ।
रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम् ।।१३।।
जो भक्तिपूर्वक प्रतिदिन एक अध्याय का पाठ करता है वह वह शीघ्र ही रुद्रगण होकर रुद्रलोक यानी शिवलोक को प्राप्त करता है ।।१३।।
अध्यायं श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः ।
स याति नरतां मन्वन्तरं यावद्वसुन्धरे ।।१४।।
अथवा एक अध्याय न होने पर जो श्लोक के पदों का नित्य विचार करता है व जब तक मन्वन्तर और पृथ्वी है तब तक मनुष्य योनि को ही प्राप्त करता है ।।१४।।
गीतायाः श्लोकदशकंं सप्त पञ्च चतुष्टयम् ।
द्वौ त्रीनेकं तदर्थं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः ।।१५।।
गीता के दश ,सात, पांच, चार, तीन, दो, एक श्लोको का भी उसके अर्थ सहित जो मनुष्य पाठ करता है ।।१५।।
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम् ।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषं ब्रजेत् ।।१६।।
गीता के पाठ से भलीभाँति युक्त होकर मरने से वह हजार वर्षों तक चन्द्रलोक को प्राप्त करता है यह अटल है । फिर वह मनुष्य होता है ।
विशेष― आठवें अध्याय के दक्षिणायन मार्ग की गति प्राप्त होती है ।।१६।।
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमम् ।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत् ।।१७।।
मनुष्य होकर पुनः गीता का अभ्यास करके श्रेष्ठ मुक्ति को प्राप्त करता है । गीता का उच्चारण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होने पर भी सद्गति को प्राप्त करता है (इसका पूर्व श्लोक से संबंध है) ।।१७।।
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा ।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते ।।१८।।
बड़े से बड़े पाप करने वाला भी गीता के श्रवण में आसक्त रहने वाला विष्णु के समान रूप धारण करके वैकुण्ठं में आनन्दित होता है ।।१८।।
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः ।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहन्ते परमं पदम् ।।१९।।
गीता के अर्थ का ध्यान अर्थात मनन करता हुआ प्रशंसनीय अर्थात वैदिक, शास्त्रीय कर्म करके वह जीवनमुक्ति के विज्ञान को जानकर मुमुक्षु मृत्यु के पश्चात परमपद अर्थात मोक्ष प्राप्त करता है ।।१९।।
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः ।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम् ।।२०।।
पृथ्वी का भोग करने वाले जनक आदि राजा लोग गीता का आश्रय लेकर अपने सभी पुण्य-पाप रूप कल्मषों को धोकर यानी नष्ट करके परमपद को प्राप्त हुए हैं ऐसा लोक में गाया जाता है अर्थात प्रसिद्धि है ।।२०।।
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत् ।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृतः ।।२१।।
गीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता उसका पाठ निष्फल होता है, व्यर्थ ही परिश्रम कहा गया है ।।२१।।
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः ।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात् ।।२२।।
इस प्रकार महात्म्य सहित जो गीता का अभ्यास करता है वह गीता के पाठ का फल प्राप्त करता है एवं दुर्लभ मोक्ष को भी प्राप्त करता है ।।२२।।
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद्गीताया मया प्रोक्तं सनातनम् ।
गीतान्ते च पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत् ।।२३।।
सूत जी बोले― मेरे द्वारा यह सनातन गीता का माहात्म्य कहा गया है, जो भी गीता पाठ के बाद माहात्म्य का पाठ करता है वह ऊपर कहे गये उस उस फल को प्राप्त करता है ।।२३।।
इति श्रीवाराहपुराणे धराप्रोक्तं श्रीगीतामाहात्म्यं सम्पूर्णम् ।
अधस्तान्मानवं दिव्यमुपरिष्टा गजाकृतिः ।
परस्तात्तमसस्तेजः पुरस्तादस्तु नः सदा ।।
जिनका दिव्य शरीर नीचे का आधा मनुष्य एवं ऊपर का हाथी की आकृति वाला है, जिनका तेज अन्धकार से परे है, वे सदैव सम्मुख रहकर कल्याण करें अर्थात सदैव अनुकूल रहें ।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
नारायण यानी विष्णु, नर यानी अर्जुन, नरोत्तम यानी पुरुषोत्तम अर्थात भगवान श्रीकृष्ण, देवी सरस्वती एवं भगवान व्यास श्रीकृष्णद्वैपायन को नमस्कार करके फिर जय की कामना करना चाहिए ।
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् ।
पूर्णेंदु सुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ।।
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ प्रथमोऽध
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेत्ता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।१/१।।
भावार्थ― धृतराष्ट्र बोले― हे सञ्जय ! धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र में युद्ध की समान रूप से जानकारी रखने वाले मेरे और पाण्डुपुत्रों ने क्या किया ?
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्वानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।१/२।।
भावार्थ–– संजय बोले– जब दोनो सेनाएं आमने सामने हो गईं तब दुर्योधन पाण्ड़वों की व्यूहाकार खड़ी सेना को देखकर इस प्रकार बोला….।
विशेष― पूर्वार्ध में मात्र दुर्योधन कहा और उत्तरार्ध में राजा कहा । दोनो अलग कहने का अपना स्थान है । पूर्वार्ध में धृतराष्ट्र के के पुत्र रूप में कहा गया है और उत्तरार्ध में राजपद के अधिकारी रूप में ।।२।।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्याढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमताम् ।।१/३।।
हे आचार्य ! पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखिये जिसे आपके शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने व्यूहाकार खड़ा किया है ।
विशेष― कूटनीतिक चाल– शिष्य के प्रति गुरु के अन्दर नफरत का बीज बोना ।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराश्च द्रुपदश्च महारथाः ।।१/४।।
इस पाण्डव सेना में जिनके पास बड़े बड़े धनुष हैं वे युद्ध में भीम, अर्जुन की समानता करने वाले हैं । जिनमें युयुधान अर्थात सात्यकि, विराट और द्रुपद महारथी हैं ।।४।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैव्यश्च नरपुङवः ।।१/५।।
धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज, नरश्रेष्ठ शैव्य ।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एवं महारथाः ।१/६।।
पराक्रमी युधामन्यु,और बलवान उत्तमौजा, सूभद्रापुत्र अभिमन्यु, एवं द्रौपदी के पांचों पुत्र ये सभी महारथी हैं ।।६।।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यश्च सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ।।१/७।।
हमारे विशिष्टजनों को हे द्विजश्रेष्ठ ! उनको भलीभाँति जानो । मेरी सेना के सेनानियों के आपके संज्ञान के लिए आप से कहता हूँ ।।७।।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ।।१/८।।
पहले तो आप ही हो, भीष्म, कर्ण और संग्राम को भलीभाँति जीतने वाले कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा भी हैं ।
सभी जानते हैं कि पहले प्रधान सेनापति भीष्म थे फिर भी आचार्य द्रोण का नाम पहले लेने का अर्थ यही है कि उन्हें प्रसन्न करना और पाण्डवों और विरुद्ध शिष्यों के प्रति नफरत पैदा करना ।।८।।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।।१/९।।
इसके अलावा भी हमारी सेना में बहुत शूरवीर मेरे लिए जीवन का त्याग करने वाले हैं जो नाना प्रकार के शस्त्रों के प्रहार एवं सभी युद्ध कौशल में निपुण हैं ।।९।।
समीक्षा― पहले पाण्डव सेनानियों को गिनाकर अन्य भी हैं ऐसा नहीं कहा मानो कि पाण्डु सेना में और योद्धा हैं ही नहीं, जबकि अपने सेनापतियों के नाम गिनाकर और भी अन्यों का दावा करता हुआ अपने को सैन्य रूप में पाण्डवों से मजबूत बताना है । इसीलिये आगे कहता है…..
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितं ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।।१/१०।।
उनका बल भीम द्वारा रक्षित होने के कारण पर्याप्त नहीं है जबकि मेरा बल भीष्म द्वारा रक्षित होने से पर्याप्त है ।
समीक्षा― अपर्याप्तं तत् उसके बाद अस्माकं बलम् कहता है । इसी से अर्थ का स्पष्टीकरण हो जाता है व्याख्या की आवश्यकता नहीं है । भीष्म द्वारा रक्षित सेना प्रर्याप्त होने दो कारण हैं, पहली बात पांडवों की सात अक्षौहिणी सेना थी जबकि कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी, अतः वैसे भी सैन्य दृष्टि से हमारी सेना अधिक और पर्याप्त है । यदि किसी कारण है ऐसा न भी हो तो भी भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान है इसलिए भी मेरी सेना पर्याप्त है यही भाव है ।१०।।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव च ।।१/११।।
सभी मोर्चों पर अपनी सेना के विभाग पूर्वक दृढतापूर्वक स्थित होकर सभी महारथी भीष्म की भलीभाँति रक्षा करें ।
प्रधान सेनापति की रक्षा के लिए सचेत रहना राजा का कर्तव्य है ।।११।।
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ।।१/१२।।
उसकी (दुर्योधन) की प्रसन्नता के लिए कुरुवंश के सबसे अधिक प्रतापी वयोवृद्ध पितामह भीष्म ने सिंहनाद गरजते हुए उच्च स्वर में शंख बजाया ।।१२।।
ततः शंङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्याहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ।।१/१३।।
उसके पश्चात शंख, भेरी, ढोल, मृदंग, और गोमुख सहसा बज उठे । उन वाद्यों का वह शब्द बड़ा भय देने वाला था ।।१३।।
इस प्रकार धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर कि पहले युद्ध किसने किया का उत्तर दे दिया कि पहले तुम्हारे पुत्रों ने ही युद्ध की घोषणा की उसके बाद…..
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवाश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ।।१/१४।।
उसके बाद श्वेत घोड़ों वाले विशाल रथ पर स्थित माधव एवं पाण्डवों ने दिव्य शंख बजाया ।
स्थितौ द्विचन है अतः कृष्ण के साथ ही अर्जुन भी कह दिये गए क्योंकि वे दोनो एक ही रथ पर थे । शेष पाण्डव अलग से कहे गये । दिव्य शंख कहने का मतलब है कि जिस पक्ष में साक्षात नारायण कृष्ण और नर अर्जुन एवं धर्मात्मा पाण्डव हों वहाँ तो देवत्व की स्वतः दिव्यता होगी ।।१४।।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशं देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ।।१/१५।।
भगवान हृषिकेश ने पाञ्चजन्य, धनञ्जय ने देवदत्त, भयंकर कर्म करने वाले बड़े पेट भीम ने पौण्ड्र नामक विशाल शंख बजाया ।।१५।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ।।१/१६।।
राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक शंख, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख बजाया ।।१/१६।।
काश्यश्च परमेश्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ।।१/१७।।
विशाल धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट और कभी पराजित न होने वाले सात्यकि ।।१७।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथ्वीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् पृथक् ।।१/१८।।
हे पृथ्वीपते ! द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पांचों पुत्र बड़ी भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु ने अलग अलग शंख बजाये ।।१८।।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ।।१/१९।।
वह घोष (शंखध्वनि एवं पणवादि की ध्वनि) धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय को चीरता हुआ आकाश एवं पृथ्वी के बीच भयंकर प्रतिध्वनित होने लगा ।
इस श्लोक में शंका की जा सकती है कि यदि दुर्योधन अपनी विशाल सेना और भीष्म पर आश्वस्त था तो उसे यहाँ भयभीत क्यों कहा गया है । इसका उत्तर है कि अधर्म का पक्ष हमेशा भयकारी होता है । रामचरितमानस में आता है कि जिस रावण से तीनो लोक कांपते थे वही रावण जब सीता का हरण करके भागता है तो वह अत्यंत भयभीत होकर इधर उधर देखता हुआ ऐसे भागता है जैसे कुत्ता चोरी करके भागता है । ऐसा ही यहां भी दुर्योधन का भय समझना चाहिए ।।१९।।
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रन् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।।१/२०।।
इस प्रकार जिनकी ध्वजा में बंदर (हनुमानजी) का चिह्न है उन अर्जुन ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को युद्ध के लिए व्यवस्थित यानी तैयार देखकर जिस समय शस्त्र चलाने की तैयारी हो रही थी (उस समय) पाण्डुपुत्र अर्जुन ने धनुष उठाते हुए ।।२०।।
हृषीकेशं तदावाक्यमिदमाह महीपते ।
हे प्रजा का पालन करने वाले राजन् ! उस समय भगवान हृषिकेश (कृष्ण) से इस प्रकार कहा…..
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।।१/२१।।
अर्जुन बोले― हे अच्युत ! रथ को दोनो सेनाओं के बीच में स्थिर खड़ा करो ।।१/२१।।
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ।।१/२२।।
जब तक मैं निरीक्षण करूँ कि युद्ध की कामना वाले सामने खड़े हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के सहित इस युद्ध में उपस्थित किस किस के साथ युद्ध करना है ।।२२।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।।१/२३।।
दुर्बुद्धि धृतराष्ट्रपुत्रों का प्रिय करने की इच्छा वाले युद्ध के लिए उतावले जो ये राजा लोग आये हुए हैं उन्हें मैं देखूंगा ।।२३।।
सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।।१/२४।।
संजय बोले― हे भरतवंशी ! इस प्रकार निद्राविजयी अर्जुन के भगवान हृषीकेश से कहे जाने पर (भगवान कृष्ण ने) दोनो सेनाओं के बीच उत्तम रथ को खड़ा करके…. ।।२४।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति ।।१/२५।।
जिसमें भीष्म और द्रोण प्रमुख हैं उन सभी राजाओं के सामने पृथापुत्र अर्जुन से बोले इन सभी इकठ्ठे हुए कुरुवंशियों को देखो ।।२५।।
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ पित्रॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रापौत्रान्सखींस्तथा ।।१/२६।।
अर्जुन ने वहां युद्धक्षेत्र में चाचाओं, पितामहों (दादाओं), आचार्यों (गुरुओं), मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों तथा सखाओं को ।।२६।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।।१/२७।।
श्वसुरों और सुहृदों (हित चिंतकों) को भी दोनो सेनाओं में सभी बन्धु बान्धवों के सहित उन्हें खड़ा देखकर कुन्तीपुत्र अर्जुन….।।२७।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।।
करुणा से आविष्ट होकर विषाद करते हुए इस प्रकार बोले….
[{यहाँ कृपया का अर्थ कुछ लोग कायरता करते हैं । उनके हिसाब से अवश्य ठीक होगा, किन्तु मेरे विचार से कायरता और कृपा या करुणा में बड़ा अन्तर होता है । कायर वह होता है जो अपने प्राणों की रक्षा के लिए युद्ध से पलायन कर जाता है, किन्तु अर्जुन देवताओं को भी पराजित करने वाले कालकेय और पौलोम नामक असुरों का अकेले ही नाश करने वाले तथा महादेव को भी युद्ध में संतुष्ट करने वाले हैं । विराट युद्ध में अकेले ही अर्जुन ने संपूर्ण कौरव सेना को पराजित करके गायों को छुड़ा लिया था अतः अर्जुन कायर नहीं हो सकते । वे कृपा भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि कृपा तो दीनहीन पर की जाती है युद्ध में खड़े शत्रुओं पर नहीं किन्तु करुणा तब होती है जब किसी के सामने विषम परिस्थिति उपस्थित उपस्थित हो जाये और हम समर्थ होकर भी उसका निवारण न कर सकें । अतः यहां अर्जुन करुणा से परिपूर्ण है न कि कायर ।}]
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।।१/२८।।
अर्जुन बोले― हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा से खड़े हुए इन स्वजनों यानी कुटुंबियों को देखकर... ।।२८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।।१/२९।।
मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख अधिक सूख रहा है । पूरा शरीर कांप रहा है मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न हो रहा है ।
शरीर में रोमांच दो प्रकार से होता है एक अधिक प्रसन्नता से, उसमें भी शरीर के रोयें खड़े हो जाते हैं और आंखों से आंसू आ जाते हैं और अधिक भय से भी यही हाल होता है । विचारणीय यह है कि किसी एक प्रिय पारिवारिक सदस्य के मरने पर क्या हाल होता है ? और यहाँ कितने मरेंगे ? यह गणना करना भी कठिन है । अतः ऐसा होना स्वाभाविक ही है ।।२९।।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।।१/३०।।
हाथ से गांडीव धनुष सरक यानी छूट रहा है और त्वाचा में भी बहुत अधिक जलन हो रही है एवं मैं खड़ा रहने में समर्थ नहीं हूँ मेरा मन भ्रमित हो रहा है यानी चक्कर आ रहा है ।।३०।।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि च केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।१/३१।।
और हे केशव ! निमित्त भी विपरीत दिखाई देता है (इसका स्पष्टीकरण श्लोक ३३में होगा ) एवं अपने स्वजनों को मारकर मैं कल्याण नहीं देखता ।।३१।।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ।।१/३२।।
हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूं और न ही राज्य सुख यानी आज की भाषा में सत्ता सुख भी नहीं चाहता हूँ । हे गोविंद ! हमें ऐसे राज्य भोग और जीवित रहने से भी क्या लाभ है ?
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्वे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।।१/३३।।
क्योंकि जिनके लिए राज्य, भोग और सुख की इच्छा करता हूँ वे ही इस युद्ध में प्राणों और धन का मोह त्यागकर इस युद्ध में खड़े हैं ।।३३।।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।।१/३४।।
गुरुजनों और चाचाओं को तथा पुत्रों एवं दादाओं को, मामाओं, श्वसुरों, पौत्रों, साले, तथा अन्य संबंधीजन ।।३४।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।।३५।।
हे मधुसुदन ! इनके द्वारा मारे जाने पर भी मैं तीनो लोकों के राज्य के लिए भी मारने की इच्छा नहीं करता फिर पृथ्वी के लिए ही क्यों ? अर्थात जब तीनो लोकों के लिए ऐसा क्रूर कर्म नहीं कर सकता तो तुच्छ पृथ्वी के ऐसा करने का प्रश्न ही नहीं उठता ।।३५।।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पामेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ।।१/३६।।
धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हे जनार्दन ! हमें क्या प्रसन्नता मिलेगी ? इन आतताइयों को मारकर हमें पाप ही लगेगा ।।३६।।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रन् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।।१/३७।।
इसलिये हमारे द्वारा धृतराष्ट्र से संबधित कुटुंबियों को हमारे द्वारा मारे जाना योग्य नहीं है क्योंकि हे मधुसूदन ! स्वजनों को मारकर हम सुखी कैसे हो सकते हैं ? अर्थात सुखी न होकर उल्टे दुःख ही होगा ।।३७।।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।१/३८।।
यद्यपि लोभ के द्वारा हरण की गई बुद्धि के कारण ये लोग कुल के नाश से होने वाले दोष एवं मित्रद्रोह से होने वाले पाप को नहीं देखते (तो भी…..) ।।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।१/३९।।
हे जनार्दन ! कुलनाश करने से होने वाले दोष को भलीभांति देखने अर्थात जानने वाले हम लोग ही इस पाप से बचने का विचार क्यों न करें ? अर्थात हमें ही इस जघन्य पाप से बचना चाहिए ।।३९।।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोंऽभिभवत्युत ।।१/४०।।
कुल के नाश से सनातन धर्म का पतन हो जाता है । धर्म के नष्ट हो जाने से संपूर्ण कुल में अधर्म उत्पन्न हो जाता है ।।४०।।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णशंकरः ।।१/४१।।
हे कृष्ण ! कुल में अधर्म के उत्पन्न होने से स्त्रियां अत्यन्त दूषित हो जायेंगी । हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दुष्ट होने से कुल में वर्णशंकर हो जायेगा ।।४१।।
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।।१/४२।
वर्णशंकर संतति कुल का नाश करने वाले को और कुल को नरक में ही ले जाने वाला होता है एवं इससे श्राद्ध क्रिया के नष्ट हो जाने से पितर पितॄलोक से नीचे गिर जाते हैं अर्थात स्वर्गीय पूर्वज भी नरकीय हो जाते हैं ।।४२।।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णशंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।।१/४३।।
इन वर्णशंकर दोषों के कारण कुलनाश करने वालों के शाश्वत जाति एवं कुलधर्म का नाश हो जाता है ।।४३।।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।।१/४४।।
हे जनार्दन ! मनुष्यों के कुलधर्म का नाश होने से ऐसा सुना जाता है कि अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है ।।४४।।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यविसता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।।१/४५।।
अरे आश्चर्य है ! बड़ा खेद है ! हम लोग महापाप करने का निश्चय कर लिये , इसीलिए राज्यसुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं ।।४६।।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमकरं भवेत् ।।१/४६।।
यदि मुझ शस्त्र रहित को शस्त्र हाथ में लेकर ये धृतराष्ट्र के पुत्र युद्ध में मार डालें तो कल्याणकारी होगा ।।४६।।
सञ्जय उवाच
एवमुक्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।।१/४७।।
संजय बोले― इस प्रकार कहकर अर्जुन युद्धक्षेत्र में बाणों सहित धनुष का त्यागकर के शोकाकुल मन से रथ के पिछले भाग में बैठ गया ।।४७।
समीक्षा― धृतराष्ट्र भी शोकाकुल हैं लेकिन न तो प्रजा के लिए और न अपने कल्याण या धर्म के लिए । उसे तो सत्ता की प्राप्ति ही धर्म दिखाई दे रहा है । वह एक राजा होकर भी अपने को राजा नहीं बल्कि राजा का प्रतिनिधि मानता है, यही उसकी समस्या की जड़ है । धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेत्ता युयुत्सवः १/१ में धर्मक्षेत्र की दुहाई देने में भी यही कारण है । वह धर्म को अपने पक्ष में मानता है कि यदि मैं अन्धा न होता तो मैं ही ज्येष्ठ होने के कारण राजा होता किन्तु मेरा पुत्र तो अंगहीन नहीं है अतः अब वही राजा होने का अधिकारी है । इसी अधर्म को धर्म मानकर ही दुर्योधन युद्ध में गया है । उधर युधिष्ठिर तो धर्मराज कहे ही जाते हैं अर्थात दोनो ही धर्म क्षेत्र के समान ज्ञाता हैं । स्वयं दुर्योधन ने भी एक बार कृष्ण से कहा था― जानामि धर्मं न चे में निवृत्तिः इस प्रकार दोनो ही धर्म के मर्मज्ञ हैं और युद्ध में भी दोनो ही पक्ष समानता करने वाले हैं । अतः यहां पर अधर्मं धर्ममिति मन्यते १८/३२ इस प्रकार का सत्तासुख के धर्म का धृतराष्ट्र मेरा मेरा में शोकाकुल हो रहा है ।
ठीक इसके विरुद्ध अर्जुन का शोक मेरा से कोई संबंध नहीं रखता है वह तो मेरे मेरे के लिए शोकाकुल हो रहे हैं । अर्जुन को जो होने वाले युद्ध में मरने वाले हैं उनकी और उनके कुछ की चीखें सुनाई पड़ रही हैं । अतः वह करुणार्द्र होकर इस दयनीय दशा को प्राप्त हुआ है, जिसका परिणाम आज गीता के रूप में सबके सामने है । इस पर अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । ओ३म् !
।।ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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