गीता समीक्षा अध्याय २
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ द्वितीयोऽध्यायः
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन ।।२/१।।
अर्जुन बोले― तथा करुणा से युक्त, आंसुओं से परिपूर्ण व्याकुल नेत्रवाले अर्थात उस अर्जुन से भगवान मधुसूदन ने इस प्रकार वाक्य कहा….।
व्याकुलनेत्र का मतलब अधिक आंसुओं के कारण सामने ठीक से देख न पाना ।।१।।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।२/२।।
श्रीभगवान बोले― अर्जुन ! तुझे यह विकार (कायरता) इस विषम समय मे कहाँ से प्राप्त हुई है ? यह तो अनार्यों द्वारा ही आचरणीय है, नरक को देनेवाला एवं अपकीर्ति करने वाला है ।
विषम समय यानी जिस समय युद्ध के लिए आमने सामने सेनाओं के उपस्थित होकर युद्ध का ढोल भी बज गया है तब, सभी शस्त्र छोड़ने ही वाले हैं ऐसे उस प्राणघातक समय में ।।२।।
क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तोत्तिष्ठ परन्तप ।।२/३।।
पार्थ ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, हे परन्तप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए उठ खड़ा हो ।
अनार्य, नपुंसक आदि दो श्लोकों में कहकर परुष बचन यानी कठोर शब्द बोल रहे हैं या और पार्थ कहकर कुन्ती के आजीवन संकट और तप का स्मरण दिलाकर उनके आने वाले सुख पर युद्ध से पलायन रूप कुठाराघात से सावधान करते हुए अर्जुन के तपस्वी जीवन का भी स्मरण दिला रहे हैं, जिसमें उन्होंने तप के माध्यम से भगवान शंकर को भी संतुष्ट किया एवं युद्ध में संतुष्ट करके पाशुपतास्त्र को प्राप्त किया था । नीति भी यही है कि कर्तव्य से कारणवश च्युत होने वाले की प्रशंसा पूर्वक असहमति जताते हुए मार्गदर्शन करना चाहिए ।।३।।
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।।२/४।।
अर्जुन बोला― हे मधुसूदन ! हे शत्रु का नाश करने वाले ! पूजा के योग्य भीष्म, द्रोण को मैं किस प्रकार युद्ध में बाणों के द्वारा उनसे युद्ध करूंगा ? ४।।
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान ।।२/५।।
क्योंकि महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस संसार में भिक्षा का भोग(खाना) श्रेष्ठ है । वैसे भी धन की कामनाओं के लिए इन गुरुजनों को मारकर खून से लथपथ भोगों ही भोगूँगा ।।५।।
न चैतद्विमः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ।।२/६।।
मैं यह भी नहीं जानता कि हमारे लिए युद्ध करना या न करना दोनो में कौन श्रेष्ठ है ? अथवा युद्ध करने पर हम उन्हें जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे । जिनको मारकर मैं जीने की भी इच्छा नहीं करता वही उनमें भी प्रमुख रूप से धृतराष्ट्र के पुत्र युद्ध के लिए सामने खड़े हैं ।।६।।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।२/७।।
कायरता के दोष से मेरा स्वभाव हरण कर लिया गया है इसलिए धर्म के विषय में मैं मूढचित्तवाला आपसे ही पूछता हूँ― जो मेरे लिए श्रेय अर्थात श्रेष्ठमार्ग हो वह कहो, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे शिक्षा दो, आपकी शरण हूँ ।।७।।
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ।।२/८।।
क्योंकि शत्रु रहित धनधान्य से परिपूर्ण पृथ्वी एवं देवता का आधिपत्य यानी इन्द्रपद प्राप्त होने पर भी जो मेरी इन्द्रियों को सुखा देने वाले शोक को दूर कर सके ऐसा कुछ नहीं देखता ।।८।।
समीक्षा— श्लोक पांच से यहां तक अर्जुन ने कई पक्ष रखे । पहला पक्ष यह कि जिनकी हम पूजा करते हैं उन्हें मारने की अपेक्षा भिक्षा यानी संन्यास धर्म ही श्रेष्ठ है । फिर जय पराजय संबंधित बात से यह कहा कि किसी भी कार्य का परिणाम क्या होगा इस पर बारंबार विचार करना आवश्यक है अन्यथा बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय । काम बिगाड़े आपनो जग में होत हंसाय ।। स्वयं समझ में न आने पर अपने किसी विशिष्ट मंत्री यानी जो स्वार्थ रहित शिक्षा दे सके ऐसे मित्रों से विचार-विमर्श कर लेना चाहिए ।
शरण और शिष्य का अर्थ यह है कि यहां पर पहले अर्जुन सन्न्यास ग्रहण करने की बात करता है और फिर संन्यास और युद्ध दोनो के विषय में क्या कल्याणकारी है यह निर्णय न कर पाने के कारण श्रेष्ठ मार्ग को जानना चाहता है । इस संशय का उत्तर आगे छित्त्वैनं संशयं योगमात्तिष्ठोत्तिष्ठ भारत ४/४२ भगवान कहेंगे कि संशय का नाश करके युद्ध के लिए उठकर खड़ा हो जा । वस्तुतः संन्यास क्या है ? जिसे वीतरागी संपूर्ण कर्मों के झंझट को त्याग कर गिरि कन्दराओं में निवास करते हैं और कर्म का स्वरूप क्या है ? जो ऐसे हिंसक घोर कर्म को भी उचित माना जाता है कि अपने ही कुटुम्बियों का नाश करने में भी दोष दिखाई नहीं देता, और यदि आप कहो कि सन्न्यास का स्वरूप मात्र पुत्र या शिष्य को ही समझाया जा सकता है तो इसके लिए मैं पहले ही आपकी शिष्यता स्वीकार करता हूँ अतः संन्यास का उपदेश करो । कर्म का अनुशासन यानी कर्म की शिक्षा भी गुरु या मित्र की भांति दो मैं दोनो तरफ से यानी गुरु और मित्र दोनो रूपों में दी गई शिक्षा का अनुशरण करूंगा यही शरणापन्न होने का भाव है
यहाँ शंका हो सकती है कि जब शिष्यता स्वीकार कर ली तो फिर मित्र वाली बात कहां से आ गई । तो इसका समाधान यह है कि भगवान स्वयं कहते हैं भक्तोऽसि मे सखा चेति ४/३ भक्त शब्द गुरु के लिए और सखा शब्द मित्र के लिए भगवान ने भी ये दोनो शब्द एक साथ स्वीकार किये और कहे है, साथ ही अर्जुन भी सखेति मत्वा ११/ ४१ कहता है अतः यहाँ अर्जुन दोनो ही दृष्टिकोण से वस्तु स्थिति समझना चाहता चाहे वह शिष्य के रूप में या फिर मित्र के रूप में समझ सके ।
अब प्रश्न यह उठता है कि संन्यास और कर्म दोनो में पूर्व और पश्चिम जैसी स्थिति है निवृत्त और प्रवृत्ति एक साथ कभी नहीं चल सकते । अतः संन्यास के लिए मनोगत प्रत्येक श्रुत-अश्रुत विषयों से वैराग्य आवश्यक है यदि कृष्ण ऐसा प्रश्न करें तो ? अर्जुन इसके लिए पूर्णतः तैयार है और पहले ही कह देता है ये अभावों से भरी शत्रु वाली पृथ्वी ही नहीं बल्कि धनधान्य संपन्न शत्रु रहित पृथ्वी सहित देवलोक का इन्द्रपद भी मेरी इन्द्रियों के शोक को दूर नहीं कर सकता है अर्थात सभी श्रुत और अश्रुत भोगों के प्रति मेरे अन्दर पूर्ण वैराग्य हो चुका है । ये वही अर्जुन हैं जो इन्द्रलोक जाकर इन्द्र के आधे सिंहासन पर इन्द्र के साथ बैठकर कर वहां से शस्त्र विद्या सीख कर आये थे । अतः स्वर्गीय सुख उनसे अधिक और कौन जान सकता है ? यहाँ महात्माओं को तो कोई कामना ब्रह्मलोक तक होती नहीं है और भंडारे दिन में मात्र दक्षिणा के लिए कितने खायेंगे इसका भी कोई पता नहीं । एक रसगुल्ले का रस छूटता नहीं और वैराग्य ब्रह्मलोक तक का । इससे अधिक और हास्यास्पद क्या होगा ? लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा के त्याग का संकल्प करने वाले आज के आधुनिक संन्यासियों को लोक की कामना कितनी हो सकती है इसका अनुमान उनके दिखावे के दंभ से ही देख लेना चाहिए सारे के सारे शास्त्र और संन्यास पद्धति मात्र भक्तों के बीच मैं विद्वान और सिद्ध हूँ यही दिखाने में ही धरे के धरे रह जाते हैं, शिष्य और शिष्या रूप पुत्र-पुत्रियों को थोक के भाव पैदा करने वाले, धन की कामना आज के संन्यासियों में कितनी है इसका अनुमान तो मैं संन्यासी होने के नाते लगा सकता हूँ, कुछ अपवाद छोड़कर संन्यास आज वेश्यावृत्ति की तरह हो गया है ।
अर्जुन कहता है कि आप का शरणापन्न हूँ मुझ पर विश्वास करें कि मुझे अब मन में भी कोई कामना किसी भी भोग के प्रति नहीं है । यहाँ पर दो बातें सामने आती हैं संन्यास का स्वरूप क्या है ? और कर्म का स्वरूप क्या है ? चूंकि यहां पर पहला प्रश्न संन्यास से संबंधित है और दूसरा प्रश्न कर्म से संबंधित है अतः आगे उत्तर भी इसी क्रम से पहले ज्ञान और फिर कर्म के क्रम से मिलेगा । यहां पर यह भी सुनिश्चित हो जाता है कि ज्ञानमार्ग में कर्म का कोई दूर दूर तक संबंध नहीं है यह अर्जुन भी मानता है इसलिए सन्न्यास की बात करता है तथापि वह यह भी जानता है कि मैं इस समय शोकातुर हूँ इसलिये मेरा निर्णय गलत न हो जाये कि वास्तव में श्रेष्ठ मार्ग कौन सा है वही श्रेष्ठ मार्ग जानने के लिए अर्जुन कृष्ण के शरणापन्न होकर पूछ रहा है ।।५-८।।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।।२/९।।
सञ्जय बोले― हे शत्रुओं को तपाने वाले राजन् ! इस (उपरोक्त?) प्रकार निद्राविजयी अर्जुन भगवान अन्तर्यामी हृषिकेश के प्रति कहकर युद्ध नहीं करूंगा इस प्रकार का निश्चय भगवान गोविंद से कहकर चुपचाप बैठ गया ।।९।।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ।।२/१०।।
हे भारत ! तब दोनो सेनाओं के बीच में इन्द्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण ने उस विषाद करते हुए अर्जुन से मुस्कुराते हुये से यह वचन बोले….. ।
मुस्कुराते हुए से अर्थात कटाक्ष करते हुए ।।१०।।
अब यहाँ से भगवान का उपदेश प्रारंभ होता है संन्यास अर्थात साङ्ख्य का जो श्लोक तीस तक वर्णन चलेगा, यहाँ यह पहले से ही समझ लेना आवश्यक है कि जो कर्म का वर्णन गीता में किया गया है उसका विनियोग मात्र चित्तशुद्धि के लिए ही, क्योंकि बिना चित्तशुद्धि के किये ज्ञान दूर दूर तक नहीं टिकता । कर्म सविशेष ब्रह्म की उपासना संबंधित है जिसका विनियोग ज्ञान यानी स्वरूप स्थिति में होता है । शुद्ध ज्ञान स्वरूप होता है उसके लिए किसी कर्म की आवश्यकता नहीं है क्योंकि कर्म से प्राप्त जो भी होगा वह नाशवान होगा, जबकि ज्ञान स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप है और वह स्वरूप अविनाशिनी है । कर्म चित्तशुद्धि का साधन है । कर्म रूप साधन से चित्तशुद्धि रूप साध्य है, सविशेष ब्रह्म साधन और निर्विशेष ब्रह्म साध्य है । निर्विशेष ब्रह्म अस्ति मात्र सत्ता है और तत् एवं त्वम् की एकता से ही अस्ति प्राप्ति का लक्ष्य ही गीता का सिद्धांत है । अर्थात तत् और त्वम् का शोधन ही साधन है और अस्ति साध्य ।
यहाँ कुछ शब्द भी समझ कर रखना आवश्यक है जैसे साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु २/३९ यहाँ पर बुद्धि का अर्थ विवेक है जो ज्ञान का विवेक के साथ ही योग यानी कर्मयोग के विवेक में भी वर्णन किया गया है । योग का अर्थ होता है आत्म ज्ञान की उत्पत्ति के जो साधन हैं उनकी चेष्टा करना, उनको क्रियात्मक रूप देना यह योग है और उस योग से युक्त जो बुद्धि है उसे बुद्धियोग अर्थात कर्मयोग कहते हैं । इसी प्रकार बुद्धौ शरणमन्विच्छ २/३९ यहां बुद्धि का अर्थात ज्ञान है और उसी के अभिन्न भाव में क्रियान्वित करना योग है तस्माद्योगाय युज्यस्व २/५०, इसी प्रकार बुद्धियोगमुपाश्रित्य१८/५७ यहाँ भी ज्ञानयोग की ही उपासना कहा गया है । इसी प्रकार योग का अर्थ समत्व कहा गया है समत्वं योग उच्यते २/५० यह समत्व सभी मुमुक्षुओं के उपासना के लिए भाववृत्ति है जबकि इस समता का कथन निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ अर्थात जो सभी कल्मषों अर्थात विकारों से रहित है ऐसा निर्विकार ही ब्रह्म ही सम है अर्थात समत्व में प्रतिष्ठा ब्राह्मी स्थिति है । एवं योग का अर्थ जीव-ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करता है और योग का अर्थ पाणिनीय अष्टांग योग भी है । इसी प्रकार कूटस्थ का अर्थ जीव, ब्रह्म एवं छल प्रपंच से युक्ता माया है । इसी प्रकार ब्रह्म का अर्थ निर्विकार सबकी सत्ता मात्र जो ब्रह्म नाम से कही गई है, प्रत्यागात्मा, माया या प्रकृति, वेद, वेदवेत्ता, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म जिज्ञासु अर्थात मुमुक्षु, एवं अन्य शब्दों में भजन, मन्मना इत्यादि सभी पारिभाषिक शब्द कहाँ क्या निश्चय करना है उसको प्रसंगानुसार स्वयं ही समझना चाहिए । जो अर्थात उपक्रम और उपसंहार का अतिक्रमण करे वह अर्थ कभी नहीं हो सकता है । यह विशेष विचारणीय तथ्य है ।
अब भगवान का उपदेश कटाक्ष करते हुए प्रारंभ होता है―
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भासषे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।२/११।।
श्रीभगवान बोले― जो शोक करने योग्य नहीं है उसका तो तू शोक कर रहा है और भाषण दे रहा है किसी उत्कृष्ट वेद वेदांग पारंगत ज्ञानी की तरह । पण्डित (ज्ञानी) जिनके प्राण चले गये हैं यानी जो मर गये हैं और जिनके प्राण नहीं गये हैं अर्थात जो अभी जीवित हैं उनके विषय में शोक नहीं करते ।
शंका― मरने में शोक तो ठीक है किन्तु जीवित का शोक कहना युक्तिसंगत कैसे हो सकता है ? इसका समाधान― यह है कि जैसे मुमुक्षु के लिए सभी कर्मफल त्याग कहने मात्र से पापमय और पुण्यमय फलों का त्याग स्वतः सिद्ध होता है क्योंकि जो आज पुण्य है कल वह नष्ट होने पर जन्म-मृत्यु का हेतु अवश्य बनेगा जो पुनः पुनः इसी क्रम की अनुवृत्ति करके दुःख रूप पाप ही सिद्ध होता है, उसी प्रकार जो आज जीवित हैं, वे आज नहीं तो कल तो मरेंगे ही तो शोक होगा ही इस लिए अभी की प्रसन्न भविष्य का शोक ही है इसी न्याय से मरने वालों के साथ जीवित के भी शोक की बात भगवान ने कहा है । जीवित रहने वालों के साथ ही जिनका अभी अभी जन्म हुआ है उसकी प्रसन्नता को भी शोक रूप में अध्याहार कर लेना चाहिए ।।११।।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।२/१२।।
न तो ऐसा ही है , मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था, ये राजा लोग नहीं थे । और न तो मैं,तू और ये राजा लोग इसके पश्चात नहीं होंगे ऐसा भी नहीं है ।
यहां पर आत्मा को त्रिकाल में होने और मैं, तू और यह करके जो त्रिपुटी है वह सब ‘मैं’ अर्थात आत्मा के ही अर्थ में है अर्थात भगवान कहते हैं कि जिन्हें तू मरने वाला कहता है वह आत्मा तो तीनो काल हैं निश्चित रूप से है और एकरस ही है (अतः ये शोक के योग्य नहीं हैं) ।।१२।।
क्योंकि―
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।२/१३।।
इस देह को धारण करने वाली जीवात्मा का जैसे कौमार्यावस्था, जवानी एवं बूढापा होता है वैसे ही जब यह शरीर छोड़ता है तब दूसरे शरीर को प्राप्त कर लेता है उस बदलाव में धैर्यवान मोहित नहीं होते अर्थात शोक नहीं करते ।।१३।।
मात्रा स्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यांस्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।२/१४।।
क्योंकि हे कौन्तेय ! सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख देने वाले शब्दादि मात्राओं का स्पर्श है । ये सभी आने-जाने वाली हैं इसलिए हे भारत ! उन्हें सहन करो ।
मात्रा यानी शब्द, स्पर्श, रूप, रस गंध, और स्पर्श यानी अनुकूल प्रतिकूल की अनुभूति एवं अनुभूति के फलस्वरूप उत्पन्न सुख दुःख ये सभी आने जाने वाले हैं जबकि आत्मा एकरस अपरिवर्तनीय है । अतः आत्मा के निमित्त शोक व्यर्थ है यह भाव है ।।१४/
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।।२/१५।।
हे पुरुषश्रेष्ठ ! ये मात्राएं अर्थात सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मान-अपमान, आदि षडूर्मियां एवं जन्म मृत्यु रूप परिवर्तन जिस पुरुष को व्यथित नहीं करतीं, जो सुख दुःख में धैर्यवान है वही अमृतत्व प्राप्ति के लिए संकल्प करता है ।
अर्थात जो प्रत्येक परिवर्तन में एक मात्र अविनाशिनी आत्मा को ही नित्य, अचल अपरिवर्तनीय सभी विकारों से रहित देखता है वही मोक्ष का अधिकारी है । अर्जुन को श्रेयमार्ग यानी निवृत्ति मार्ग का यह अधिकार बताते हुए मानो यह कह रहे हैं कि ये भिक्षु धर्म के लक्षण देखो और अपनी व्यथित स्थिति देखो कि तुम भिक्षुक अर्थात सन्न्यासी बनने के योग्य हो या नहीं ? क्योंकि तुम तो पुरुषों में श्रेष्ठ कहे जाते हो तो श्रेष्ठ विचार भी तुम्हें ही करना होगा ।।१४।।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।२/१६।।
असत की कहीं सत्ता विद्यमान नहीं होती है और सत का कभी अभाव विद्यमान नहीं होती, क्योंकि दोनो ही स्थियों के अन्तर्भाव को तत्त्वदर्शियों द्वारा देखा गया है ।
असत यानी जो है नहीं पर अनुभव में आ रहा है और विचार करने पर गायब हो जाये जैसे रस्सी में सांप, सांप दिख रहा था बड़ा भय हुआ लेकिन जब विचारपूर्वक उसके पास जाकर देखा तो रस्सी थी सांप था ही नहीं, यदि सांप होता तो पास जाने पर भी दिखता, किन्तु वह था ही नहीं, मिथ्या असत भासित हुआ, भासित वस्तु की अपनी सत्ता होती ही नहीं है, वैसे ही सर्दी-गर्मी, कौमार्य, जवानी बुढापा एवं जन्म और मृत्यु का विचार करने पर यह कुछ सिद्ध ही नहीं होता है जबकि इन सभी परिस्थितियों में भी आत्मा सदा सर्वदा एकरस है, यही तत्त्वदर्शियों द्वारा देखा गया अन्तर्भाव है । इसमे शरीरादि की सत्ता कभी भी विद्यमान नहीं हुई और आत्मा कभी अविद्यमान नहीं हुआ यही आत्मदर्शन है और आत्मदर्शी कभी शोक को प्राप्त नहीं होता, यह भाव है ।।१६।।
अविनशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।२/१७।।
क्योंकि जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है अविनाशी उसी को जान । इस अव्यय का विनाश कोई भी कभी भी नहीं कर सकता ।
इस आत्मा की विशेषता यह है कि आत्मा अव्यय है अव्यय का विनाश त्रिकाल में भी संभव नहीं है । क्योंकि विनाश के लिए कोई न कोई स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर चाहिए जबकि वह अशरीरी है, अशरीरी का नाश संभव नहीं है, इसलिये वह अविनाशी है शेष लक्षण आगे बताये जायेंगे ।
यहां एक बात और स्पष्ट समझ लेना चाहिए येन सर्वमिदं ततम् यह वाक्य यहां त्वं का लक्ष्यार्थ आत्मा है जबकि अध्याय ८/२ में विराट और १८/४६ निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है । सबके एक ही लक्षण यहां उपस्थित हैं तो यहां यह समझना है कि आत्मा, ईश्वर और ब्रह्म भिन्न भिन्न है या एक ही हैं ? दूसरी बात यहां जीव ही संपूर्ण जगत में व्याप्त बताया गया है और इसकी पुष्टि जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।७/५ परा प्रकृति रूप से करते हैं, जबकि इसी जीव को अध्याय १३/१ में क्षेत्रज्ञ कहते हुए वह क्षेत्रज्ञ १३/२ मैं हूँ कहते हैं । चलो यहाँ भी १३/२ पर कोई विवाद कर सकता है अतः आगे बढते हुए देखते हैं गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा १५/१३ एवं यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः १५/१७ ये सभी लक्षण इकट्ठे करने पर जीव ही ईश्वर है या ईश्वर ही जीव है ? क्या कहेंगे ? क्योंकि या तो जीव ही संपूर्ण जगत को धारण करेगा या फिर ईश्वर, क्योंकि एक ही जगत के दो धारक, नियंता हो नहीं सकते या दो सत्ताएं नहीं हो सकती हैं । यहाँ सिर्फ इतना कहूंगा कि यही प्रमाण गीता के हैं जो आत्मा से भिन्न किसी ईश्वर या ईश्वर से भिन्न किसी आत्मा के त्रिकाल में भी न होने का दावा करते हैं । यही केवलाद्वैत है । शेष विचार अध्याय ७/५ में ।।१७।।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।।२/१८।।
हे भारत― शरीरधारी जीव के ये शरीर नाशवान हैं जबकि वह स्वयं अविनाशी है । यह आत्मा अविनाशी एवं अप्रयेय है इसलिये युद्ध करो ।।
नाश तो मृगमरीचिका के जल का होता है, रस्सी के सर्प का होता वस्तुतः जो चीज है ही नहीं तो नाश भी कैसे बन सकता है ? किन्तु जिस भ्रम से यह सब भासित हो रहा उसी भ्रम से स्वप्न की तरह नाश भी हो जाता है, वैसे ही जिनके नाश के विषय में विचार कर रहे हो वे नित्य एवं अविनाशी हैं वे अप्रयेय हैं अर्थात वे मात्र आत्मा हैं जिसे किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं नहीं किया जा सकता है बल्कि वे स्वयं सिद्ध हैं और जिन शरीरों को लेकर तुम शोक कर रहे हो वे नाशवान हैं ही, जो नाशवान है वह नष्ट होगा ही, अतः शोक का त्याग करके युद्ध करो ।
इसलिये यहाँ युद्ध करो से यह कहा गया है कि हमने जीव के नित्यत्व और शरीरों के अनित्यत्व के विषय में युक्ति से समझाया है, आपको समझ में आ गया हो तो युद्ध में लग जाओ । यह आज्ञा नहीं बल्कि समझाने की यह एक युक्ति की पूर्णता है । इस माध्यम से जीव की निर्विकारता का वर्णन किया गया है ।।१८।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।।२/१९।।
जो इस आत्मा को मारने वाला मानता है और जो मरने वाला मानता है वे दोनो यह नहीं जानते हैं कि यह आत्मा न तो मरता है और न ही मारा जा सकता है ।
यहां आत्मा का क्रिया और कर्म से कोई संबंध नहीं होना एवं निर्विकार दिखाया गया है ।।१९।।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।२/२०।।
यह आत्मा अज है, नित्य, शाश्वत, अनादि एवं एकरस है । इसलिए यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है न तो यह कभी उत्पन्न होकर भविष्य में शरीर की भांति पुनः उत्पन्न होने वाला है इसलिए शरीर को मारे जाने से यह आत्मा नहीं मरता ।
यहाँ आत्मा के निर्विकारित्व का वर्णन किया गया है कि जब जन्म ही नहीं हुआ तो मृत्यु भी कैसे हो सकती है ? यहाँ जन्म मृत्यु रूप विकार के बीच में चार विकार और समझ लेना चाहिए, जन्म न होने से आत्मा शरीर वाला है ऐसा जो अस्ति भाव है वह भी नहीं होगा । जैसे देवदत्त का पुत्र है यह कहने में पुत्र तो दिख नहीं रहा है किन्तु ‘है’ कहने से उसके होने का ज्ञान हो रहा है कि यहाँ नहीं है तो कहीं और होगा लेकिन है, यहाँ जो है नाम की सत्ता है वह आत्मा के अशरीरी होने के कारण अस्ति यानी है भाव को प्राप्त नहीं होता है, और जब जन्म नहीं है नहीं तो वृद्धि नाम का तीसरा विकार भी नहीं हो सकता है, जिस वृक्ष का बीज ही नहीं, अंकुर भी नहीं तो बढ़ेगा कैसे ? इन तीनो विकारों के न होने से परिणाम दाढी, मूछ, रोग आदि भी संभव नहीं है और जब परिणाम ही जिसका नहीं तो उसका अपक्षय अर्थात जीर्णशीर्ण हो जाना वृद्ध हो जाना भी नहीं बनता है तो फिर छठा विकार मृत्यु भी कैसे हो सकती है । इस प्रकार जो षड्विकारों से रहित है वह न तो मर सकता है और न ही मारा जा सकता है यह भाव है ।।२०।।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।।२/२१।।
हे पार्थ― जो इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अज, अव्यय जानता है वह पुरुष कैसे किससे किसको मरवाये और कैसे किसको मारे ?
यहां पर जो उपरोक्त जन्म मृत्यु रूप विकार से रहित कहा गया उसी का स्पष्टीकरण करते हैं, अज यानी जो जन्म रूप विकार से रहित है, नित्य यानी जो एक रस है जिसमें न तो वृद्धि होती है और न ही कोई दाढी मूछ आदि परिणाम होते हैं, अव्यय यानी उसमें अपक्षय रूप में शरीर का निर्बल होना वृद्धि होना आदि न होना, अविनाशी यानी मृत्यु रहित । इस प्रकार आत्मा षड्विकारों से रहित है, अतः वह न तो कर्ता हो सकता है और न ही उसका किसी क्रिया या कर्म से संबंध ही हो सकता है तो फिर वह किस प्रकार किसी को मारे या मरवायेगा ? अर्थात आत्मा में यह सब संभव ही नहीं है । यह भाव है ।
यहाँ आत्मा का कर्ता कर्म क्रिया से कोई संबंध न होना ही सर्वकर्मसंन्यास सिद्ध होता है ।२१।।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।१/२२।।
जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को त्यागकर दूसरे नये कपड़े पहन लेता है, वैसे ही यह देही अर्थात जो शरीर में ही रहना पसंद करता है वह शरीरी एक जीर्ण शरीर को त्यागकर दूसरा शरीर धारण कर लेता है ।
यहाँ मूल में जीर्णानि शब्द आया है, इसलिये जीर्ण शरीर का अर्थ पुराना शरीर नहीं कहा जा सकता है क्योंकि पुराना तो तब होगा जब वृद्धावस्था आयेगी । आज के समय में वृद्धावस्था आयेगी ही इसकी क्या गारंटी ? महाभारत आदि में भी कितने ही किशोरों को मार दिया गया । आज के समय में भी पता मिला कोई बच्चा ही दिल का दौरा पड़ने से मर गया, कोई नौजवान मर गया ये शरीर पुराने या वृद्ध नहीं कहे जा सकते । मेरी माँ ने मुझे जब सन्न्यास के लिए अपने जीवन भर के लिए रोकना चाहा, तो मैने कहा कि ठीक है मां ! आप हमें इस बात का विश्वास दिला दो कि जब तक तुम जीवित रहोगी तब तक मैं नहीं मरूंगा, मां का उत्तर था इतनी गारंटी मैं नहीं ले सकती । अतः यहां जीर्ण का अर्थ है जिस काल में जीवात्मा के रहने के अनुकूल शरीर की स्थिति रोग के कारण या शरीर के शस्त्रादि से क्षतविक्षत हो जाने के कारण,या और भी बहुत से कारणों से शरीर का अपक्षय हो जाने पर उसके अनुकूल न होने की दशा में शरीर बदल देना यह भाव बनता है ।।२२।।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।२/२३।।
इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है न इसे पानी गीला कर सकता है और न ही वायु सुखा सकती है ।
ये शस्त्र, अग्नि, पानी और वायु सावयव हैं अतः अवयव यानी शरीर तक ही इनकी गति है, स्वसंवेद्य आत्मा तक नहीं क्योंकि वह निरवय है । अगर ये निरवयव के साथ अपने इस प्रभाव में सफल होते तो आकाश काट दिया गया होता, अग्नि आकाश को अब तक चला चुका होता, पानी ने आकाश को डुबा दिया होता और वायु ने सुखा दिया होता किन्तु ऐसा हुआ नहीं और न हो रहा है एवं हो सकता भी नहीं । जब स्थूल आकाश का ये कुछ बिगाड़ नहीं सके तो आकाश का भी आकाश आत्मा के साथ इनकी गति या कोई क्रिया हो भी कैसे सकती है ? यह अशरीरी होना ही आत्मा के निर्विकारता का रहस्य है ।।२३।।
अच्छेद्योऽमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।२/२४।।
यह आत्मा काटा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गीला नहीं किया जा सकता और सुखाया भी नहीं जा सकता है क्योंकि आत्मा नित्य है, व्यापक है, सूखे ठूंठ के समान निर्लिप्त, अचल एवं सनातन है ।
यहाँ पर पूर्वार्ध में आत्मा के अकाट्य आदि का कारण बताया गया है । और उत्तरार्ध में न जायते म्रियते २/२० का अनुवाद । शंका हो सकती है कि यह तो पुनरावृत्ति दोष होता है फिर पुनरावृत्ति क्यों की ? तो इसका उत्तर आगे आश्चर्यवत्पश्यति २/२९ में देंगे, अभी यहाँ इतना समझना चाहिए कि आत्मा अत्यंत कठिनता से समझ में आती है इसलिए प्रकारान्तर शैली का आश्रय लेकर पुनः पुनः समझाना दोष नहीं है, क्योंकि किसी विधि से समझ में आये पर समझ में आना चाहिए । यहाँ पर शस्त्र आदि का प्रभाव आत्मा में क्यों नहीं होता ? इसके लिए बताया कि पहली बात वह नित्य है जबकि शस्त्र, अग्नि आदि अनित्य हैं दूसरी बात यह कि आत्मा सर्वगत है, सर्वगता होने के कारण आकाश रूप भी वही है और स्थूल शस्त्र आदि भी वही और उन उन की क्रिया भी वही है क्योंकि सर्वगत है अतः वह आत्मा ही इन सबकी सत्ता है, अतः आत्मा स्वयं से स्वयं का नाश कैसे कर सकती है ? तीसरी बात वह ठूंस की तरह अचल है क्योंकि वह सर्वगत देशकाल अपरिच्छिन्न है और हिलने के लिए उससे भिन्न स्थान चाहिए जो है ही नहीं तो हिलेगा कैसे ? इसलिये भी शस्त्र आदि अन्य क्रिया उसमें संभव नहीं है । चौथी बात वह सनातन यानी अनादि है । नाश उसका होता है जिसका आदि हो, उत्पत्ति हो किन्तु आत्मा का कोई आदि नहीं है, क्योंकि वह स्वयं सबका आदि है तो अन्त कैसे होगा ? इस प्रकार दुर्विज्ञेय आत्मतत्त्व को निर्विकार कहा गया है ।
विशेष बात यह है कि यहाँ पर आत्मा को शरीरी या देही नहीं कहा गया बल्कि सर्वगत कहा गया है । मतलब स्वसंवेद्य आत्मतत्त्व का अपने सर्वगत भाव में शरीर भाव त्यागकर स्थित होना ही मोक्ष है ।।२४।।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।२/२५।।
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है, इस आत्मा को निर्विकार कहते हैं इसलिए इस प्रकार आत्मा के स्वरूप को जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए ।
बद्धि द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है इसलिये आत्मा अव्यक्त है । चिन्तन उसी का होता है जो इन्द्रियों का विषय हो जबकि आत्मा इन्द्रियों का विषय न होने से अचिन्त्य एवं किसी क्रिया का विषय न होने से इस आत्मा को अक्रिय रूप निर्विकारी कहा गया । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।२५।।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।२/२६।।
इस प्रकार आत्मा के स्वरूप के नित्यत्व और अनात्मा के अनित्यत्व का विचार करके भी यदि इस आत्मा को तू नित्य जन्मने और मरने वाला मानता है तो भी हे महाबाहो ! तुझे शोक नहीं करना चाहिए ।।२६।।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।२/२७।।
क्योंकि जन्म लेने वाले की मृत्यु और मरने वाले का जन्म अटल है, इसलिये इस अपरिहार्य सत्य के लिए भी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए ।
जन्म मरण रूप में अपरिवर्तनीय सत्य का परिवर्तन न होना अपरिहार्य है ।।२७।।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।२/२८।।
पहले ये सभी अव्यक्त थे और अब मध्य में (इस समय) व्यक्त हैं, मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त हो जायेंगे इस में क्या शोक करना ?
यहाँ पर कहने का भाव यह है कि जिसका आदि भाग रस्सी और अन्त भाग रस्सी हो और मध्यभाग में सर्प दिखे तो वह सर्प नहीं भ्रम ही है, इसी प्रकार ये जन्म से पहले अव्यक्त थे किसी प्रमाण से भी नहीं जाने जा सकते थे और मृत्यु के बाद भी अव्यक्त ही हो जायेंगे तो फिर ये मध्य में भी कैसे हो सकते हैं । जो दिख रहा है वह भ्रम है जो इनका स्वरूप जन्म से पहले और मृत्यु के बाद होगा वही स्वरूप इस समय भी है अतः इस माध्यकाल के इस भ्रम के लिए शोक नहीं करना चाहिए ।।३०।।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद चैव कश्चित् ।।२/२९।।
आत्मा का स्वरूप ऐसा है कि इसे कोई विरला ही बड़े आश्चर्य के समान देखता है, अन्य कोई विरला ही उसका कथन करता है वह भी आश्चर्य है, इस आत्मा के विषय में कोई विरला ही अन्य आश्चर्य के समान ही सुनता है और कोई तो सुनकर भी उसे नहीं जान पाते हैं ।
यहाँ आत्मा का दुर्विज्ञेयत्व बताया गया है । आश्चर्य इस बात का कि हम जिस स्वरूप को आत्मा शरीर इन्द्रिय सहित कार्यकरण संघात के सहित जानते थे विचार करने पर तो वह कुछ और ही निकला, इसी को आगे यततामपि सिद्धानां कश्चित् वेत्ति तत्त्वतः ७/३, पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषा १५/१० कहेंगे । यहाँ पर मानो भगवान यह कह रहे हैं कि आत्मा के स्वरूप को जानने वाले और वक्ता दुर्लभ होने पर भी मैं दोनो रूप से तेरे सामने ही उपस्थित हूँ और श्रोता दुर्लभ होने पर भी तू श्रोता तो है लेकिन कुछ समझ में भी आ रहा है या नहीं ? यह इसका भाव है ।।२९।।
देही नित्यमवध्योयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि न त्वं शोचितुमर्हसि ।।२/३०।।
हे भारत ! सभी शरीरों में शरीर को धारण करने वाली यह आत्मा नित्य, एवं अवध्य है इसलिये तुझे शोक नहीं करना चाहिए ।
सभी शरीरों का मतलब ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त चेतन एवं जड़ शरीरों में स्थित होकर भी वह सबसे निर्लिप्त होने से नित्य और नित्य होने से अवध्य है ।।३०।।
समीक्षा― श्लोक ग्यारह से लेकर यहाँ तक त्वं पदार्थ के लक्ष्य आत्मतत्त्व का वर्णन किया गया है । श्लोक ग्यारह में अशोच्यानन्वशोचस्त्वं से बताया गया है कि संसारासक्त जीव कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो जाये, कितना भी बड़ा शास्त्री, आचार्य और पण्डित क्यों न हो जाये अन्त में उसका हर विश्लेषण होगा तो अपने स्वार्थ के आधार पर ही । संसारी भाव की रक्षा करते हुए ही जैसे कि अर्जुन ने अध्याय १/३० से लेकर अध्याय २/८ तक विश्लेषण करके और स्वयं निर्णय भी युद्ध नहीं करूंगा २/९ का निर्णय भी दे दिया । इसके बाद संपूर्ण प्राणियों में मैं तू और यह का जो व्यवहार होता है वह एक मात्र आत्मा को लेकर होता है इसलिए मैं तू और यह मैं के अर्थ में ही त्रिपुटी को बाधित करके आगे आत्म स्वरूप की नित्यता और निर्विकारता पर विचार करते हुए हुए नित्य ही आत्मा सर्वगत मोक्षस्वरूप और उसकी दुर्विज्ञेता का वर्णन करते हुए उसके जानने वालों को भी दुर्लभ जैसा बताया । यह सर्वकर्मसंन्यास की दृष्टि से भी कहा और जो जन्मने और मरने वाला भी आत्मा को मानते हैं उस दृष्टि से भी आत्मा के नित्यत्व पर विचार प्रकट करते हुए शोक रहित हो जाने की बात कही जिसमें सुख दुःखादि आने जाने वाले सभी अस्थाई विकारों को सहन करने के लिए कहते हैं यही सहन शक्ति यानी तितिक्षा ही आत्मतत्त्व को समझने और उसमें स्थिर होने का साधन भी बताया । इन साधनों के माध्यम से परिवर्तनशील अनात्मा के परित्याग पूर्वक आत्मसाक्षात्कार करके शोक रहित होना ही इन बीस श्लोकों का लक्ष्य है ।।११-३०।।
साङ्ख्य दृष्टि के बाद अब लोकदृष्टि से अर्जुन का शोक निवारण…..
स्वधर्मपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।२/३१।।
स्वधर्म को भी देखकर तुझे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए युद्ध से बढ़कर कल्याणकारी अन्य कोई साधन उपलब्ध नहीं है ।
यहाँ क्षत्रिय धर्म की स्पष्ट बात लोकदृष्टि से कही गई क्योंकि धर्म को आगे करके प्राप्त युद्ध और प्रजापालन ही क्षत्रिय का पहला धर्म है, यज्ञादि गौड़ हैं । यहाँ क्षत्रिय से जो जिस क्षेत्र में जिस स्थान और कर्तव्य कर्म में स्थित है उसका निःस्वार्थ रूप से विधिवत पालन करना ही धर्म है, जैसे सन्न्यासी को प्रेसमंत्र लक्षित निष्ठा ही उसका कर्तव्य है इससे बढकर कोई भी अन्य उपासना, साधना कल्याणकारी नहीं हो सकता है यह भाव है ।।३१।।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।।२/३२।।
हे पार्थ ! इस प्रकार अपने आप प्राप्त युद्ध स्वर्ग के खुल हुए द्वार से क्षत्रिय सुखी होते हैं ।
मतलब न चाहकर भी जो युद्ध बलात् प्राप्त हुआ है वह क्षत्रिय के लिए उतना ही सुखकारी होता जितना स्वर्गकामी के लिए स्वर्ग का खुला द्वार सुख देता है ।।३२।।
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।२/३३।।
ऐसा जानकर भी यदि तू युद्ध नहीं करेगा तो स्वधर्म यानी तेरा स्वाभाविक क्षत्रिय धर्म और तेरी जो युद्ध में कभी पराजित न होने वाली कीर्ति है उसका नाश करके पाप को प्राप्त करेगा ।।३३।।
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्यायम् ।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।।२/३४।।
और मनुष्य तेरी अनन्त काल तक रहने वाली अपकीर्ति को कहेंगे अर्थात निंदा करेंगे । सम्मानित पुरुषों के लिए अपयश मृत्यु से भी बढकर दुःख देने वाला होता है ।।३४।।
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ।।२/३५।।
जिन दुर्योधन आदि की दृष्टि में तू महारथी रूप से सम्मानित है, वे तेरे कारुणिक यानी दया भाव से युद्ध से हटा हुआ नहीं बल्कि कर्ण आदि के भय से युद्ध से हटा हुआ बल्कि भागा हुआ मानेंगे और तू उनकी दृष्टि में लघुता को प्राप्त हो जायेगा ।।३५।।
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ।।२/३६।।
तेरा अहित चाहने वाले बहुत न कहने योग्य भी कहेंगे, तेरे सामर्थ्य की निंदा करेंगे उस दुःख से बढ़कर और दुःख क्या होगा ?
कालकेय, पौलोमों का अकेले ही बध कर देना, महादेव को भी युद्ध में सन्तुष्ट कर देना इस सब सामर्थ्य की निंदा तो बहुत ही दुःखद होगी अर्थात असहनीय होगी ।।३७।।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः ।।२/३७।।
यदि मारा गया तो स्वर्ग मिलेगा अथवा जीत गया तो पृथ्वी पर राज करेगा इसलिये हे कुन्तीपुत्र ! युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ।
ऐसी निंदा सुनने से तो मर जाना ही अच्छा है, जब मरना ही है तो अपने कर्तव्य का पालन करके ही मरो तो स्वर्ग मिले, और जीवित में पृथ्वी के सभी यश, भोग आदि सुख । दोनो प्रकार से कर्तव्य पालन में लाभ ही है एवं कर्तव्य पालन न करने वाला दोनो ओर से नष्ट हो जाता है ऐसा इसका भाव है ।।३७।।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाययौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पाममवाप्स्यसि ।।२/३८।।
सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय सबको समान समझकर फिर युद्ध करने से पाप नहीं लगेगा ।
सुख दुःखादि आने जाने वाले हैं आज सुख है तो भी कल दुःख होना ही है, आज दुःख है तो कल सुख होना ही है । इसी प्रकार हानि लाभ जय पराजय भी हैं । अतः प्राप्त समय के अनुसार या क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने से पाप नहीं लगेगा ।।३८।।
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ।।२/३९।।
उपरोक्त जिसका श्लोक ११ से ३० तक वर्णन है उसके लिए ही एषा कहा गया है । तेरे लिए यह साङ्ख्य मत कहा अब योग यानी कर्मयोग मत सुन जिससे बुद्धि युक्त होकर कर्मबंधन को पूर्णतः काट डालेगा ।
यहां पर कर्मयोग की स्तुति की गई है ।।३९।।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।।२/४०।।
इस मनुष्य लोक में आरंभ किये गये कर्म का नाश नहीं होता, न ही पापरूप उल्टा फल होता है । इस समत्व रूप धर्म का थोड़ा भी पालन करने से महान भय का नाश हो जाता है ।
यहाँ पर आया हुआ अस्य पद२/३८ में आये सम पद के कथन के लिए है ।।४०।।
समीक्षा― श्लोक ३१ से यहाँ तक स्वधर्म पालन और स्वाभाविक कर्म पर बल दिया गया है जो कर्तव्यत्वेन प्राप्त कर्म हैं यदि उन्हें नहीं किया जाता है किसी मोह या स्वार्थवश तो जीवन भर का किया गया यशमय कार्य मिट्टी में मिल जाता है । लोग न कहने योग्य कहते अर्थात बहुत प्रकार के आरोप प्रत्यारोप करके गालियाँ देते हैं जिन्हें सुनना कठिन है । इसलिये अपने कर्तव्य कर्म को व्यक्तिगत हानि लाभ, सुख दुःख से ऊपर उठकर कर्तव्य पालन करना ही चाहिए । इसमें लोक दृष्टि से भी दोष न होने से स्तुतिमय कल्याण ही है और मरने के बाद भी यश रूप में विद्यमान स्वर्ग ही है, क्योंकि जो समभाव रखकर धर्म यानी कर्तव्य का पालन थोड़ा भी किया जाता है उसका विपरीत फल हो ही नहीं सकता । यही इन दश श्लोकों का भाव है । यही लोकदृष्टि है ।।३१-४०।।
वस्तुतः यहाँ से कर्मयोग का वर्णन आगे श्लोक ५३ तक किया जायेगा । इस पर शंका हो सकती है कि जो श्लोक ३१ से ४० तक कहा गया वह कर्मयोग नहीं है ? क्योंकि यहाँ भी सम भाव रखकर कर्म करने के लिए कहा गया और यह समत्वं योग उच्यते २/४८ के अनुसार योग ही है । इसका समाधान यह है कि एक कर्तव्य कर्म जो स्वर्गादि देने वाले होते हैं वही कर्तव्य कर्म यहाँ पर इससे पहले कहा गया है क्योंकि वह कर्म भी राग द्वेष प्रेरित होने पर स्वर्गादि भी नहीं देता है इसलिए समभाव में स्थित होकर कर्म करने के बात कहा है । अब जो आगे कहने की प्रस्तावना है वह कर्मयोग समभाव में समाधियोग के लिए है जिससे जीव अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा चित्तशुद्धि पूर्व समभाव को प्राप्त करके स्वसंवेद्य अद्वितीय आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है । जिसका सकाम और निष्काम विभाग पूर्वक वर्णन किया जायेगा ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ।।४१।।
हे कुरुनन्दन ! निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही कही गई है क्योंकि अनिश्चयात्मिका बुद्धि यानी चंचल बुद्धि की अनन्त शाखाएं होती हैं ।
मूल में आये इह पद से एक बुद्धि कहने का तात्पर्य यह है कि पहले जो साङ्ख्य बुद्धि कही गई है वह एक हो गई और अब जो योग विषयक बुद्धि कही जा रही है यह एक हो गई । दोनो में जिस किसी में भी बुद्धि संकल्प विकल्प रहित होकर स्थिर हो जाये वह निश्चयात्मिका बुद्धि है । अथवा एकमात्र आत्मस्वरूप का व्यावसाय अर्थात चिन्तन करने वाली बुद्धि जिसमें कोई व्यभिचार यानी अन्य चिंतन न हो वह व्यवसायात्मिका बुद्धि है । दूसरी बात श्लोक २/३८ में समभाव कहा और आगे भी समत्वं योग उच्यते २/४८ कहेंगे अतः योग यानी समभाव वाली बुद्धि एक ही होती है और विषम भाव यानी सकाम कर्मी बुद्धि की अनेक और अनन्त शाखाएं होती हैं यही यहाँ इह पद से कहा गया है ।।४१।।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।२/४२।।
हे पार्थ ! जिस पुष्पित वाणी को वेदवाद में आसक्त अविवेकी लोग इन भोगों के अतिरिक्त ईश्वर है ही नहीं, ऐसा कहते हैं ।
जैसे सुगन्ध रहित दिखाऊ फूल मन को आकर्षित करता है वैसे ही जिनकी वाणी सुनने में बहुत सुन्दर मनमोहक लगती है ऐसे कर्मकांड में आसक्त लो पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक के भोगों से भिन्न ईश्वर को मानते ही नहीं हैं जिनके विषय में आगे कहा जा रहा है, ये वेदवादी यानी वेदों के नाम पर झगड़ा करने वाले हैं ।।४२।।
कामात्मना स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।२/४३।।
वे कामनाओं के आधीन रहने वाले सभी नाना प्रकार की क्रियाएं भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए करते हैं । कर्म के फलस्वरूप जन्म प्रदान करने वाले स्वर्ग से बढ़कर कुछ मानते नहीं हैं ।।
पुष्पितां वाचं से इन्हीं जन्मादि फल को देने वाली फल श्रुति का वर्णन ही है, जो इस श्लोक में कहा गया है ।।४३।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।२/४४।।
उस पुष्पित वाणी अर्थात कर्मकांड विषयक जन्म मृत्यु देने वाले भोगों की स्तुति करने वाले वेदवादियों के द्वारा जिनका चित्त हरण कर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में ही आसक्त रहने वाले हैं ऐसी अस्थिर बुद्धि कभी भी समाधि अर्थात स्व-स्वरूप को प्राप्त नहीं होती ।
आज यह काम्यकर्म, कल वह, आज इस कामना के लिए इसकी आरधना, तो कल उस कामना के लिए उसकी आराधना, बस इसी में लगे रहना क्योंकि इससे भिन्न कोई और ईश्वर है यह जानते भी नहीं हैं ।।४४।।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।२/४५।।
वेद तीनों गुणों का विषय हैं इसलिए हे अर्जुन ! तू तीनो गुणों से ऊपर उठ जा । द्वन्द्वों से रहित, नित्यसत्त्वस्थ, योगक्षेम की चिन्ता से रहित होकर आत्मवान् हो जा ।
श्रीमद्भगवद्गीता "मेराचिन्तन" में इसका विस्तार देखना चाहिए ।।४५।।
समीक्षा― यहाँ मात्र इतना समझ लेना चाहिए कि वेद के दो भाग हैं पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा । पूर्वभाग जैमिनीय मत है जो यज्ञ याग आदि कर्मकाण्ड द्वारा देवाराधन द्वारा लौकिक धन, स्वास्थ्य, ऐश्वर्य एवं पारलौकिक स्वर्गादि की प्राप्ति का वर्णन करते हैं । उनमें अलग से कोई ईश्वर है यह बात बिल्कुल नहीं मानते हैं, उसी भाग का यहाँ संक्षेप में श्लोक ४१ से लेकर श्लोक ४४ तक वर्णन करके इस श्लोक के प्रथम चरण में पूर्वमीमांसा का त्याग और द्वितीय चरण में वेदव्यास कृत उत्तरमीमांसा यानी उपनिषद भाग के ग्रहण की बात कही गई है तथा तृतीय एवं चतुर्थ चरण में उत्तरमीमांसा का अधिकारी बताते हुए अन्तिम लक्ष्य आत्मनिष्ठ हो जाना निर्धारित किया गया है । अब यहाँ से आगे मात्र औपनिषदीय तत्त्व का निराकरण किया जायेगा और जहाँ कहीं भी सकाम पूर्वमीमांसा संबंधित वर्णन आयेगा उन्हें राजसी,तामसी, आसुरी, राक्षसी, प्रकृति के गुणों में आसक्त और दैवीमाया आदि के नाम से सकाम कर्मासक्ति की निंदा करके उत्तरमीमांसा के लक्ष्यभूत आत्मनिष्ठा का ही वर्णन किया जायेगा । जहाँ कहीं भी माम्, मयि, मत् कृष्ण द्वारा सविशेष सूचक कहा भी जायेगा उसका भी विनियोग अन्त में आत्मपद में ही होगा ।
हमें पूर्वपक्ष को भलीभांति समझना चाहिए, क्योंकि हम अनेक बार पूर्वपक्ष को ही उत्तर पक्ष समझ बैठते हैं यही हमारे अर्थ का अनर्थ हो जाता है, शास्त्र का मूलभाव छिप जाता है और दुराग्रह हमारे हृदय में घर बना लेता है जो किसी भी मुमुक्षु के पतन का हेतु बन जाता है । पतन यही है कि न तो वह आत्मा के ही स्वरूप को समझ पाता है और न ही परमात्मा के स्वरूप को । यदि दो में से एक को भी स्वरूपतः समझ लिया जाये तो दोनो समझ में आ जाता है और बिना प्रयत्न के ही एकमेद्वितीयम् में आज नहीं तो कल स्थिति हो ही जायेगी । यह समझ में आ जाता है कि आत्मा और ईश्वर भिन्न नहीं एक ही है सर्वभूतेषु येनैकं १८/२० आत्मा और ईश्वर का एकत्व कृष्ण किस प्रकार करते हैं देखिए― पहले कहते हैं तमेव शरणं गच्छ १८/६२ और फिर कहते हैं मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ पहले उस ईश्वर की शरण में जाने की और फिर मेरी शरण में आने की बात करते हैं जो परस्पर विरुद्ध प्रतीत होता है तथापि संपूर्ण गीता का जब विधिवत निरीक्षण करेंगे तो पायेंगे कि दोनो भिन्न नहीं एक ही तत्त्व हैं । यहां तम् यानी ईश्वर तत् पदार्थ का और माम् यानी मेरा का अर्थ कृष्ण त्वम् पदार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं । जब तत् और त्वम् एकत्व को प्राप्त हो जाते हैं तब न तत् रहता है, न त्वम्, मात्र असि पद रहता है यही तत्त्वमसि गीता का लक्ष्य है । यही शोध उत्तरमीमांसा का अन्तिम लक्ष्य है जो गीता रूपी उपनिषद सार के द्वारा यहाँ से आगे शोध प्रारंभ किया जाता है । निस्त्रैगुण्य द्वारा उपनिषद ब्रह्मसूत्र के लक्ष्यार्थ आत्मवान् के द्वारा जो आत्मस्वरूप है जो स्वसंवेद्य है उसकी खोज करते हैं यह उपक्रम है । यह समझकर रखना चाहिए ।
शंका― इतनी दूर गीता में प्रवेश करके फिर आत्मवान् का उपक्रम किस आधार पर किया गया है ? उपक्रम तो प्रारंभ में दिया जाता है । क्या श्रीकृष्ण भूल गये या विषयांतर हो गया ?
समाधान― यहाँ पर श्रीकृष्ण द्वारा पूर्वमीमांसा में आसक्त सकाम पुरुषों की निंदा और उत्तर मीमांसा द्वारा प्रतिपादित लक्ष्य आत्मनिष्ठा यानी आत्मवान् एकाएक नहीं कहा है । प्रथम अध्याय में जिस कारण से अर्जुन को भय और शोक प्राप्त हुआ एवं अध्याय दो में भी गुरूनहत्वा २/५ आदि पूर्वमीमांसा से ही संबद्ध है । उसी के निराकरण के लिए श्लोक ११ से लेकर श्लोक ३० तक जिस आत्मतत्त्व का येन सर्वमिदं ततम् २/१७, न जायते म्रियते वा कदाचिन् २/२० इत्यादि से प्रतिपादन किया, उसी षड्विकार रहित नित्य, विभु, सर्वगत आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठा ही जिसका लक्ष्य है वह मुमुक्षु उसमें कैसे प्रतिष्ठित हो उसके साधन एवं उसमें प्रतिष्ठा का विस्तार करने के निमित्त ही यह उत्तरमीमांसा का लक्ष्य आत्मवान् कहकर उपक्रम को यहां पर स्पष्ट मात्र किया गया है । जबकि उपक्रम तो श्लोक ११ में ही कर दिया गया था और शेष श्लोक ३० तक उसके स्वरूप का निर्धारण किया गया है, इसमें भूल या विषयांतर का प्रश्न ही नहीं उठता । ऐसा समझना चाहिए ।।४५।।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।२/४६।।
जब तक चारों ओर से परिपूर्ण महान जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे गड्ढे,कुएं से जितना प्रयोजन होता है, तत्त्ववेत्ता यानी ब्रह्मतत्त्व को जानने वाले ब्रह्मज्ञानी का भी संपूर्ण वेदों से उतना ही प्रयोजन होता है ।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि वेद की निंदा यहाँ पर कदापि नहीं की गई बल्कि अज्ञानी मनुष्य की स्थिति का वर्णन किया गया है, जैसे छोटे जलाशय गड्ढे, कुएँ आदि शीघ्र सूख कर नष्ट हो जाते हैं और थोड़े से जल से भर भी जाते हैं किन्तु समुद्र न तो कभी सूखता ही है और न ही घटता या बढ़ता है, वह सदैव सम रहता है, इसी प्रकार वेद से संबद्ध सकाम तुच्छ भोगों का प्रतिपादन करने वाले मात्र उतने ही अंश से है जो जन्म मृत्यु का हेतु हैं, उनकी अपेक्षा जब तत्त्वदर्शी शास्त्रों के अन्तिम लक्ष्यार्थ को जान लेता तब सब कुछ छोड़कर उसी की प्राप्ति में लग जाता है और वेद के तुच्छ भोगपरक अंश से उसका कोई संबंध नहीं रह जाता है । यहाँ ब्राह्मण यानी ब्रह्मज्ञानी मुमुक्षु सर्वकर्मसंन्यासी कहा गया है जो भविष्य में होने वाली ब्रह्मरूपता का सूचक है ।।४६।।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।२/४७।।
तेरा कर्म करने में अधिकार है फल में किंचित्मात्र भी नहीं । कर्मफल का हेतु मत बन, और कर्म न करने अर्थात निष्कामता की भी संगति का त्याग कर दे ।
यहां अर्जुन या यूं कहें जो भी सांसारिक मोहासक्त प्राणी हैं उनका उपरोक्त ज्ञान में अधिकार नहीं है, अतः ज्ञान के अनधिकारी को केवल कर्म ही करना चाहिए उसके फल पर अधिकार बिल्कुल न रखे क्योंकि कर्मफल ही जन्म मृत्यु का हेतु है । किन्तु फल की चाह न रखने पर भी कर्म कर्ता का भी अहं नहीं होना चाहिए क्योंकि यह अहं वृत्ति कर्ता के अभिमान से युक्त होने से जन्म मृत्यु दायक फल में आसक्त कर ही देगी । फिर शंका हो कि ऐसा है तो कर्म करना ही क्यों ? इसके लिए कहते यह भी तो कर्म न करने की आसक्ति है, इस निष्कर्मणता यानी निष्कामता की आसक्ति का भी त्याग कर दो ।।४७।।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।२/४८।।
हे धनञ्जय ! सिद्धि-असिद्धि को एक समान समझकर आसक्ति का त्याग करके योग में स्थित होकर कर्म कर क्योंकि समत्व को योग कहते हैं ।
सुखदुःखे समे कृत्वा २/३८ को ही यहाँ पुनः अनुवाद किया गया है, शैली भेद से समत्व और योग का महत्व स्पष्ट करना है । क्योंकि निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ अर्थात समत्व का अर्थ सभी विकारों से रहित ब्रह्म है तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ५/१९ अर्थात ज्ञानयोगी उसी समत्वं रूप ब्रह्म में स्थित होते हैं । यह योग है । अतः समत्वं एवं योग दोनो का अन्वय व्यतिरेक अर्थ करने पर समत्व को योग और योग को ही समत्व कहते हैं । अर्थात ब्रह्म में स्थित हुए बिना समत्व और समत्व के बिना ब्रह्म में स्थिति कभी नहीं हो सकती है तथापि यहाँ साधन प्रकरण है इसलिए यहाँ सीधे कह दिया जाये कि तू ब्रह्म ही है ऐसा चिंतन कर, तो कठिन पड़ता है किन्तु समभावस्थ होकर कर्म कर यह बात तो व्यक्ति को ठीक जंचती है क्योंकि कर्म संसारासक्त का स्वभाव है, अकर्म अर्थात सर्वकर्मसंन्यास बड़ा कठिन है । अतः यहाँ साधन के रूप में योग यानी ब्रह्म की स्थिति प्राप्त करने के लिए समत्व को ही योग यानी ब्रह्म कहा गया जिसे बिना ज्ञान के प्राप्त किये प्राप्त नहीं किया जा सकता है, इसलिए पहले समत्व को स्वीकार करके समः सर्वेषु भूतेषु १३/२७, समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।।१३/२८ फिर उसकी प्राप्ति का उपाय करेगा वह उपाय अद्वेष्टा सर्वभूतानां आदि १२/१३ से १२/१९ तक एवं अमानित्वादि १३/७ से १३/११ तक के साधनों को जो सिद्धों के लक्षण एवं ज्ञान के नाम से नाम से प्रकाशं च १४/२२ से १४/२६ तक एवं जो त्रिगुणातीत के लक्षण और यहाँ भी प्रजहाति यदा कामान् २/५५ से विहाय कामन्यः २/७१ तक जो सिद्ध के लक्षण हैं उनकी शरण में जायेगा और सभी कर्मों को दूर से ही त्याग कर ज्ञानयोग की शरण में चला जायेगा जैसा कि आगे कहा गया है । यही समत्व द्वारा कर्म निर्धारण चित्तशुद्धि होने पर सर्वकर्मसंन्यास और ब्राह्मी स्थिति के लिए ज्ञान का हेतु है ।
विशेष― यह समत्वभाव ही सर्वकर्मसंन्यास पूर्वक ज्ञानोत्पत्ति का साधन है जिसके पश्चात तत्क्षण ब्रह्मी भाव प्राप्त होगा यही यहां पर विशेष रूप से कहा गया है ।।४८।।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणः फलहेतवः ।।२/४९।।
क्योंकि हे धनञ्जय !बुद्धि अर्थात ज्ञानयोग से अतिरिक्त जो दूसरे कर्म हैं उनको दूर से ही त्याग देना चाहिए एवं ज्ञानयोग की शरण ग्रहण करके अन्वेषण यानी आत्मपदार्थ की खोज करना चाहिए, कारण कि फल के हेतुभूत कर्म दीन हैं ।
यहां कर्मों को उनके फलस्वरूप जन्म मृत्यु रूप दुःख का हेतु कहा गया है क्योंकि कर्मों की आसक्ति ही होने पर उसकी वासना के फलस्वरूप जन्म का हेतु बनता है और जन्म होने पर संपूर्ण दीनता, परवशता स्वतः सिद्ध हो जाती है । कत विधि सृजी नारि जगमाहीं । पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।। यही पराधीन विषयासक्त जीव की स्थिति है सदैव माथा पीटता रहता है । अतः सर्वकर्मसंन्यास ही मोक्षार्थी का परम लक्ष्य है । यही अर्थ यहाँ उचित है ।
सारांश― आत्मतत्त्व के रहस्य को न जानने वाला ही दीन है ।।४९।।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मशु कौशलम् ।।२/५०।।
बुद्धि यानी सांख्य बुद्धि से युक्त होकर सुकृत कर्मों का फल पुण्य और दुष्कृत कर्मों का फल पाप अभी मार डाल अर्थात नष्ट कर दे क्योंकि समस्त कर्मों की कुशलता योग यानी ब्रह्मतत्त्व में प्रतिष्ठा है, इसलिये समत्व रूप योग का अनुष्ठान कर ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसामप्यते ४/३३, ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ४/३७।। इन आगे कहे जाने वाले प्रमाणों से ज्ञानयोग ही एकमात्र साधन है जिसके आश्रित होकर निर्विकार हुआ जा सकता है और निर्विकारता ही सम रूप ब्रह्म का लक्षण है निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ सर्वकर्मसंन्यास पूर्वक ज्ञानयोग का आश्रय लेना चाहिए । यह भाव है ।।५०।।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ।।२/५१।।
क्योंकि मनीषीजन साङ्ख्ययोग से युक्त होकर कर्म से उत्पन्न फल का त्याग कर देते हैं फिर जन्म के बन्धन से भलीभांति मुक्त होकर निरामय पद को प्राप्त करते हैं ।
यहाँ इस श्लोक को दो भावों से समझना चाहिए एक तो साधक भाव और दूसरा सिद्धभाव । साधक भाव में सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाययौ २/३८, सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा २/४८ का भाव यहां कर्म से उत्पन्न फल में सन्निहित है । साधक यह बिल्कुल यह न विचार करे कि हमें हमारे ज्ञान के अनुष्ठान या कर्म के अनुष्ठान की सिद्धि मिले ही क्योंकि सिद्धि मिलना भी कर्मों के फलस्वरूप शरीर दृष्टि से ही है और सिद्धि मिल भी गई तो प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सिद्धि का मिलना और उसमें प्रसन्न होना ये लक्षण परिच्छिनता के हैं । परिच्छिन्नता है तो शरीर है, और शरीर हैं तो वह भले मानस शरीर ही क्यों न हो, क्लेश सुनिश्चित है । मोक्ष की चाह भी परिच्छिन्नता में ही होती है और परिच्छिन्नता कभी मोक्ष हो नहीं सकती क्योंकि वह स्व-स्वरूप से अभिन्न ही है । अतः अपरिच्छिन्न ब्रह्म में ये सिद्धि असिद्धि मोक्ष और बंध होता ही नहीं है इन सबका परित्याग करके साधक गड्ढे या कुएं के समान वाली बुद्धि का त्याग करके सर्वत्र परिपूर्ण समुद्र बुद्धिवाला हो जाता है यही बुद्धि भाव अनामय पद अर्थात मोक्ष की प्राप्ति का हेतु होने से अनामय पद की प्राप्ति बताया गया है । दूसरे पक्ष में जो कर्मों के फलस्वरूप शरीर भाव का भी त्याग कर चुका है वह जीते जी तो मुक्त है ही तथापि शरीर त्याग के पश्चात षड्विकार रहित अपरिच्छिन्न आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है यही मोक्ष नाम से कहा गया है ।।२/५१।।
यदा ते मोह कलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।२/५२।।
जिस समय तेरी बुद्धि सुने गये और आगे सुनने योग्य विषयों के मोह रूपी दलदल को पार कर जायेगी उसी समय मुमुक्षु सर्वकर्मसंन्यासी निर्वेद पद को प्राप्त कर लेगा ।
पूर्व श्लोक में अनामय पद की प्राप्ति में जो साधन बताया गया है उसी को यहां स्पष्ट करते हुए कहते हैं वस्तुतः जैसे स्वर्ण कीचड़ में लिपट गया जिसके कारण यह नहीं दिख रहा है इस कीचड़ के अन्दर सोना भी है, किन्तु जब कीचड़ को हटाकर साफ कर दिया तो साफ दिखने लगा कि यह सोना है । जब कीचड़ में था तब भी सोना और कीचड़ साफ होने पर भी सोना, किन्तु कीचड़ के कारण हम यह सोना है ऐसा करके जान नहीं सके, ऐसे ही यह आत्मा जिसे संपूर्ण जगत में परमात्मा के नाम से जाना जाता है वह मोह रूपी कीचड़ के दलदल में फंस हुआ सा स्वयं को मानने लग गया । बहुत प्रकार के भोगैश्वर्य का श्रवण करके वह मोहाच्छन्न होकर उन्हीं की प्राप्ति में लगा रहता है, किन्तु जिस समय तेरी बुद्धि इस दलदल को जो सुनी गई फल श्रुति है और जो भविष्य में फलश्रुति सुनी जायेगी उससे जब वैराग्य हो जायेगा तब उसी समय वह अनामय निर्वेद पद प्राप्त हो जायेगा । यानी स्वसंवेद्य मन वाणी, बुद्धि से न जाना जा सकने वाला होने के कारण निर्वेद नाम से कहा जाता है उस निर्वेद यानी स्वसंवेद्य यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह अर्थात मन वाणी, बुद्धि से न जाना जा सकने वाला होने के कारण निर्वेद नाम से कहा जाता है उस निर्वेद पद को प्राप्त कर लेगा । ऊपर का अनामय पद और यहां का निर्वेद पद समझना चाहिए भिन्न नहीं । वस्तुतः स्वरूप तो अक्रिय पद है किन्तु प्राप्त करना गत्यर्थक कहने का तात्पर्य यह है जिस मिथ्या भ्रम में स्वयं को सुखी दुःखी होने वाला अपने को जीव मान रहा था उसी मिथ्या भ्रम के मिथ्या निवारण से उसे प्राप्त होना कहा गया है जबकि जिस समय वह सुखी दुःखी जीवत्व का अनुभव करता है उस समय भी ब्रह्म है और जिस समय ब्राह्मी रूप का अनुभव करता है उस समय भी वह ब्रह्म है । जैसे खा पीकर सोया हुआ पुरुष भूखा न होने पर भी स्वप्न में भूख का अनुभव करता है और स्वप्न के ही भोजन से वह तृप्ति का भी अनुभव करता है जबकि वह जिस समय भूख का अनुभव करता है उस समय भी भूखा नहीं है और जिस समय तृप्ति का अनुभव करता है उस समय भी तृप्त ही था । दोनो दशा में न उसने खाया, न भूखा हुआ, क्योंकि वह तो खा पीकर निश्चिंत सोया हुआ है फिर भी खाना और तृप्त होना कहा जाता है । वैसे ही यहाँ बन्ध और मोक्ष का कथन है वस्तुतः स्वरूपगत यह कुछ भी नहीं है, वह ज्यों त्यों था, है और रहेगा । इसमें किसी प्रकार की क्रिया या विकार न था, न है न होगा और हो सकता भी नहीं है । यही निर्वेद पद प्राप्त करना है ।
स्पष्टीकरण― यहाँ हम स्पष्ट कर देते हैं कि अधिकांश लोग अर्थ करते कि जिस समय मोहरूपी दलदल को पार कर जायेगा उस समय निर्वेद यानी वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा । निर्वेद का अर्थ यहां वैराग्य किया जाता है और है भी, हम इसका विरोध कदापि नहीं करते, क्योंकि व्याकरण में इसका अर्थ वैराग्य ही है तथापि विचार पूर्वक निर्वेद नामक वैराग्य के स्वरूप पर विचार करने पर कि जब मोह रूपी दलदल को पार कर जायेग― यह जो पार करना है यह बिना वैराग्य के कैसे पार हुआ ? जैसे कोई कहे कि जब देवदत्त नदी पार कर जायेगा तब नाव को छोड़ देगा, इसमें भी कहने की क्या बात है ? वह तो आप नहीं कहोगे तो भी छोड़ना ही है । लेकिन नई बात अगर होगी तो यह कि देवदत्त नदी पार करके फिर बिना किसी अन्य विघ्न के अपने गतव्य को पहुंच जायेगा । यही यहां पर है समझना चाहिए कि मोहरूपी दलदल पार करने का मतलब जिन काम्यकर्मों का वर्णन श्लोक ४१के उत्तरार्ध से श्लोक ४४ तक जिन श्रुति प्रतिपादित काम्यकर्मों का वर्णन किया गया है और जिनका वर्णन त्रैगुण्यविषया वेदा २/४५ कहकर किया गया है, उन सभी का जिस क्षण में उल्लंघन कर जायेगा तत्क्षण बिना किसी काल के एक छोटे से छोटे अंश का बिलंब किये उसी काल में निर्वेद को प्राप्त हो जायेगा अर्थात जिन त्रिगुणात्मक विषयों का वर्णन अध्याय १४ में किया जायेगा और जिनका वर्णन अध्याय तीन में भी गुणकर्मविभागयोः ३/२८ इत्यादि से किया जायेगा और अध्याय तेरह में जिसे प्रकृति नाम से वर्णन किया जायेगा उन सभी से अशेष वैराग्य अर्थात अनात्म पदार्थ से शून्य हो जायेगा इसी के लिए निस्त्रैगुण्यो भव २/४५ आदेश दिया गया था । जिसके पश्चात तत्क्षण आत्मपद में स्थित हो जाता है । यही वह निस्त्रैगुण्य एवं निर्वेद पद पाना है । इसे ही गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तऽमृतश्नुते ।।१४/२० कहा गया है । इसकी व्याख्या उसी स्थान पर की जायेगी । यहां तो मात्र इतना बताना है कि बिना पूर्वापर का विचार किये बिना उपरोक्त व्याख्या में अनामय पद कैसे हो गया ? या आत्मपद कैसे हो गया ? यह सोच समझकर ही दोषारोपण करें । दूसरी बात जब भी कोई युक्ति प्रकरण पूरा होता है तब उस प्रकरण का फल कहा जाता है और यहाँ का आखिरी फल है निर्वेद को प्राप्त होना ही है, इस आधार पर भी निर्वेद का अर्थ निर्विकार निर्लेप आत्मपद प्राप्ति ही होगा । सभी विकारों और उपाधियों की संगति का त्याग करके जो भी बचता है वह भी पुरुषः परः १३/२२ ही बचता है । अतः इस आधार पर भी एकमेवाद्वितीयम् नामक आत्मपद स्वसंवेद्य अहं ब्रह्मास्मि की अनुभूति अस्ति पद ही शेष बचता है । अतः मेरे अनुकूल मुझे तृप्ति प्रदान करने वाला अर्थ मेरे लिए यही अभीष्ट है ।
सारांश― सर्वथा प्रकृति और उसके विकारों से निर्लिप्त होने पर ही देशकाल की बाधा से रहित अपरिच्छिन्न आत्मपद प्राप्त होता है ।।५२।।
सूचना― निर्वेद पद का विशेष विवरण टिप्पणी में एवं अध्याय छः के श्लोक ३४ में भी देखना आंशिक दिया गया है ।
श्रुति विप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।२/५३।।
श्रुतियों की फलश्रुति से भ्रमित हुई बुद्धि जिस समय स्थिर हो जायेगी उसी समय मुमुक्षु आत्मस्वरूप में अचल समाधि रूप योग को प्राप्त हो जायेगा ।
मूल में श्रुति शब्द है अतः यहाँ श्रुति यानी वेदों की पूर्वमीमांसा संबंधित सकाम कर्मफल का कथन करने वाली श्रुतियों के द्वारा कामनाओं से भ्रमित हुई बुद्धि और भिन्न भिन्न आचार्यों और शास्त्रों में कही गई उपासना संबंधित भिन्न भिन्न कही गई साधनाएं एवं उनके साध्य के परस्पर विरोधाभास से भ्रमित हुई बुद्धि का निश्चय न कर पाना कि कौन सी उपासना करूँ या लक्ष्य प्राप्ति के लिए कौन सी साधना श्रेष्ठ जिसे मैं करूँ ? यही है श्रुतिविप्रतिपन्ना, क्योंकि सभी अर्जुन की तरह श्रेष्ठ ही साधना करना चाहते हैं कनिष्ठ नहीं । इस प्रकार की जब बुद्धि उत्तरमीमांसा अर्थात आचार्य के प्रसाद से तद्विद्धि प्रणिपातेन ४/३४ अर्थात वेदांत के श्रवण, मनन, निदिध्यासन से जिस समय स्थिर हो जायेगी अर्थात एक ही आत्मस्वरूप में समाहित हो जायेगी तदा यानी उसी समय अविलंब योग अर्थात आत्मसाक्षात्कार यानी ब्रह्म की प्राप्ति हो जायेगी । यहाँ पर स्वरूप में समाहित होने पर ब्रह्म की प्राप्ति का मतलब परिच्छिन्नता का समाप्त होना कहा गया है ।।५३।।
समीक्षा― इस प्रकार श्लोक २/४६ में जो बताया गया था कि जिस प्रकार गड्ढे, कुएं के पानी की औपचारिकता भी समुद्र के प्राप्त होने पर समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार वेदों के कर्मकांड से भी ब्रह्मवेत्ता का संबंध समाप्त हो जाता है, कैसे ? इसके लिए साधन के रूप में फलासक्ति और कर्तृत्व एवं अकर्तृत्व के अभिमान से रहित हो समत्व में स्थित होकर ब्रह्म प्राप्ति के निमित्त कर्म करते हुए ज्ञान का लक्ष्य सामने रखकर चित्तशुद्धि पूर्वक ज्ञानयोग का अन्वेषण यानी खोज करे । उसी ज्ञानयोग का आश्रय लेकर कर्म से उत्पन्न सभी शुभ और अशुभ फलाभिसन्धि का शरीर सहित त्याग दे अर्थात सर्वथा आसक्ति रहित हो जाने पर मोह रूपी दलदल एवं श्रवण किये हुए कामुक और भ्रामक भावों से मुक्त होकर निर्वेद पद अर्थात आत्मस्वरूप की मुमुक्षु को प्राप्ति तत्क्षण हो जाती है, उसमें ज्ञान होने के किसी अगले क्षण की आवश्यकता नहीं होती है । यही शरीर रहते सिद्धावस्था कहा जाता है और शरीर त्याग करने पर मोक्ष यानी जीवन्मुक्ति एवं विदेह मुक्ति दोनो ही अवस्था इस प्रकार के ज्ञानयोगी मुमुक्षु को प्राप्त हो जाती है । यह भाव इन आठ श्लोकों द्वारा व्यक्त किया गया है ।।२/४६-२/५३।।
अर्जुन उवाच
स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्तस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ।।२/५४।।
अर्जुन बोले― हे केशव ! समाधि को प्राप्त स्थित प्रज्ञ का लक्षण क्या है ? स्थिर बुद्धि वाला किस प्रकार बोलता है ? कैसे बैठता है ? चलता कैसे है ?
पूर्व श्लोकों में समाधि रूप निर्वेद को जो प्राप्त हो चुके सिद्ध हैं उनकी समाधि का लक्षण और उनका व्यवहार कैसा है ? इस प्रकार मूलतः दो ही प्रश्न बनते हैं तथापि अर्जुन ने चार भागों में विभक्त करके पूछा है, क्योंकि सिद्ध के लक्षण ही साधक के लिए अनुकरणीय हैं ।।५४।।
श्रीभगवानुवाच
प्रजाहित यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ।।२/५५।।
श्रीभगवानुवाच― हे पार्थ ! जिस समय मनोगत सभी कामनाएं अशेष रूप से चली जाती हैं और आत्मा से आत्मा में संतुष्ट हो जाता है उस समय स्थित प्रज्ञ कहा जाता है ।
तीनो गुणों के कार्यरूप संपूर्ण पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक की सुनी गई और सुनी जाने वाली प्राप्त और अप्राप्त सभी कामनाएं नष्ट हो होकर स्वयं से स्वयं में अर्थात स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाती है उसी समय बुद्धि को स्थित प्रज्ञ अर्थात समाधिस्थ कहते हैं ।।५५।।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।२/५६।।
दुःख से उद्वेग को जिसका मन प्राप्त नहीं होता यानी विक्षिप्त नहीं होता, सुख के स्पर्श से मन रहित हो जाता है अर्थात सुख से आसक्त नहीं होता, जिसकी विषयों के प्रति आसक्ति, प्राणियों से भय तथा अपकारी पर भी क्रोध नहीं होता उस निरंतर आत्मा में ही रमण करने वाले मननशील मुनि की बुद्धि समाधिस्थ कहते हैं ।
सारांश― यहां अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनो ही परिस्थिति में निर्विकार होना ही स्थित प्रज्ञ कहा गया है ।५६।।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/५७।।
जो सर्वत्र आसक्ति रहित उन उन शुभ अशुभ की प्राप्ति में रहता है न ही अभिनन्दन करता और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि समाधि में प्रतिष्ठित है ।
यहाँ आया है सर्वत्र आसक्ति का न होना और पहले कहा मनोगत कामना की निवृत्त अर्थात अशेष रूप से आसक्ति रहित होना लेश भी आसक्ति का शेष नहीं बचना चाहिए । जैसे किसी बर्तन में तेल भरने के बाद पलट दिया और उसमें पानी भर दिया तो उसमें लगा हुआ तेल पूरे पानी में फैल जाता है, वह पानी किसी काम का नहीं होता, उस पानी को पलट कर दूसरा भरा तो उसमें भी तेल किन्तु जब अधिक मात्रा में सूखी राख डालकर कसके साफ दो-तीन बार किया तो वह तेल उसमें नहीं रहता और फिर पानी भी शुद्ध रहता है, इसी प्रकार कामना का लेश भी शेष है तो उसकी साधना लक्ष्य की प्राप्त कभी नहीं होने देगी । धन पुत्रादि में गृहस्थ में ये स्वाभाविक हैं ही इसलिये यह सर्वकर्मसंन्यास का लक्षण यहाँ अर्जुन के पहले प्रश्न के उत्तर रूप में तीन श्लोकों में दिया गया ।।५७।।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/५८।।
जिस प्रकार कछुआ अपने सभी अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार यह ब्रह्मज्ञानी भी संपूर्ण इन्द्रियों को इन्द्रियों के उन उन विषयों से खींच लेता है उस समय उसकी बुद्धि समाधि में स्थित होती है ।
कछुआ भय के कारण अपने शरीर को अन्दर खींच लेता है जिससे शत्रुओं से अपनी रक्षा कर लेता है वैसे ही मुमुक्षु जिस समय इन्द्रियों को उनके विषयों से सावधानी पूर्वक रोक लेता है क्योंकि ये विषय ही साधक के शत्रु हैं । ज्ञान में स्थित सर्वकर्मसंन्यासी इन्द्रियों पर नियमन करके अपनी रक्षा कर लेता है । यहां पर अर्जुन के दूसरे प्रश्न का उत्तर समझना चाहिए कि वह बोलता तो हैं लेकिन जितना अत्यावश्यक है उतने मात्र से शरीर निर्वाह की प्रक्रिया के निमित्त भिक्षा आदि के निमित्त ही बोलता है अन्य भाषण नहीं करता, अन्यथा चित्तवृत्ति के वाह्य विषयों में रमने का भय उत्पन्न हो सकता है ।।५८।।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।२/५९।।
यह देहधारी विषयी जीव इन्द्रियों को बलात् उनके विषयों से रोक लेता है इस प्रकार इन्द्रियां रस रहित होकर भी उन-उनका रस लेती रहती हैं, किन्तु परमतत्त्व को जानने वाला यानी स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित ब्रह्मज्ञानी के विषय पूर्ण रूप से निवृत्त यानी नष्ट हो जाते हैं ।
साधक साधना काल में बहुत संयम उपवास आदि करता है किन्तु बाहरी विषयों को रोक देने पर भी अन्दर मन विषयों का रस लेता रहता है जिससे उसका वैराग्य पुष्ट न होकर कभी भी विषयों के कारण पतन को प्राप्त हो सकता है, किन्तु जिसकी स्वरूप में स्थिति हो गई है उसके सभी अन्तर्बाह्य विषय पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं इसी को कहा एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति २/७२ अर्थात उसका सांसारिक यानी लौकिक और पारलौकिक सभी भोगों की निवृत्त हो जाती है ।
यहाँ साधक को अन्दर से विषय रहित कहना अपेक्षित है ।।५९।।
ययतो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।२/६०।।
क्योंकि हे कौन्तेय ! प्रयत्नशील बुद्धिमान पुरुष की भी प्रमथनशील इन्द्रियां बलात् मन को मथ डालती हैं ।
जब समाहित चित्त विचारशील मुमुक्षु की भी इन्द्रियां उसके मन को मथ डालती हैं तो अविवेकी और साधना में असावधान की इन्द्रियों के मथन डालने में क्या कहा जाये ? अर्थात अपने अपने विषयों में मन को जबरन् खींच लेती हैं। अतः यहाँ मुमुक्षु और साधक को सावधान किया गया है ।।६०।।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/६१।।
इसलिये उन सभी इन्द्रियों को अनुशासित करके जो मुझ परम आत्मस्वरूप में स्थित है उसकी प्रज्ञा समाधिस्थ है ।
यहाँ पर विशेष ध्यान देने योग्य प्रसंग चल रहा है आत्मन्येवात्मना तुष्टः का और लक्ष्य है आत्मवान् २/४५ का तो फिर कृष्ण ने मत्परः क्यों कहा ? यहाँ कृष्ण के मत्परः कहने का भाव साढे तीन हाथ का शरीर नहीं है बल्कि मत् प्रत्यय मैं का अर्थभूत सर्वात्मा ही है । इस प्रकार त्वं पदार्थ का लक्ष्य आत्मा और मयि आत्मप्रत्यय द्वारा तत् पदार्थ का लक्ष्य ईश्वर, दोनो में अभिन्नता का प्रतिपादन किया गया है । यही तमेव शरणं गच्छ १८/६२ एवं मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ में भी तम् द्वारा तत् पदार्थ और मामेकं द्वारा मैं का अर्थ आत्मा यानी तत् और त्वं पदार्थ का एकत्व प्रतिपादित किया गया है । ये बात उपक्रम और उपसंहार के साथ ठीक ठीक बैठ जाने पर ही गीता का लक्ष्य समझ में आयेगा । अर्थात जो एक मात्र आत्मस्वरूप की शरण ग्रहण किये है उसी की बुद्धि समाधिस्थ है । यह अर्जुन के तीसरे प्रश्न का उत्तर हो गया कि वह बैठता कैसे है ।।६१।।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।२/६२।।
मनुष्य विषयों का ध्यान करता है, वे विषय विषयी की संगति से उत्पन्न होते हैं । संग से काम एवं काम से क्रोध उत्पन्न होता है ।
शब्दादि पांचों विषयों का चिन्तन उनके रस की संगति यानी उनमें रमणीयता देखने या उनके गुणों का चिंतन करता है जिससे काम अर्थात उन्हें प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है । उदाहरण के लिए मेरा सारा का सारा लेखन कार्य संपर्क यन्त्र(फोन) से चल रहा है तथापि ऋषिकेश आने के बाद कुछ महात्माओं की संगति से लैपटॉप की आवश्यकता का अनुभव हुआ । आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए खरीद नहीं सकता और किसी से आग्रह भी नहीं कर सकता था । बड़ा विक्षेप कई दिन चला । अन्त में मानस विचार आया कि जब अभी तक संपर्क यन्त्र से काम चल रहा था तो अब क्यों नहीं चल सकता ? बस मन शान्त हो गया । अतः ये संगति का प्रभाव है काम को उत्पन्न करना । काम की पूर्ति न होने पर क्रोध होता है, इसके लिए श्लोक ५९ में कहा कि बलात् इन्द्रियों के रोके गये विषयों से उनका आन्तरिक रस नहीं जाता अतः इन्द्रियां मन को मथ डालती हैं २/६० ऐसी स्थिति में यदि कोई उस काम प्राप्ति में बाधक बनता है तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है ।।६२।।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।२/६३।।
क्रोध से अत्यधिक मूढता छा जाती है, उस मूढता से स्मृति अत्यंत भ्रमित हो जाती है, स्मृति के भ्रमित होने से बुद्धि का नाश और बुद्धि के नाश से मुमुक्षु पतन को प्राप्त हो जाता है ।।६३।।
स्मृति नाश का मतलब यह भी याद न रहना कि हमें किससे क्या कहना चाहिए या क्या व्यवहार करना चाहिए, ऐसा हो जाने पर बुद्धि नष्ट हो जाती और क्रोध में आकर अपना हित अहित देखे बिना कुछ भी कर डालना, यही पतन का मार्ग यानी पतन है ।।६४।।
रागद्वेष वियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।२/६४।।
किन्तु जो मन को अपने वश में करके राग द्वेष रहित होकर जिसकी इन्द्रियां विषयों में विचरण करता वह जितात्मा अर्थात विचारों प्रौढता को प्राप्त बुद्धि वाला प्रसन्नता को प्राप्त करता है ।
यहां दो बार आत्मा शब्द आया जिसमें एक तो अपने आधीन किया हुआ मन है और दूसरा निदिध्यासन में समाहित बुद्धि यही उसकी प्रौढता यानी संशय विपर्यय रहित स्थिर बुद्धि है । प्रसन्नता का मतलब सभी वाह्य और अंतर विकारों से रहित होकर निर्लिप्त भाव से शरीर संबंधित कर्म करता हुआ आन्तरिक स्वास्थ्य को प्राप्त कर लेता है ।।६४।।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशुः बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।६५।।
मन की प्रसन्नता से मुमुक्षु के सभी दुःखों का नाश हो जाता । मन की प्रसन्नता अर्थात निर्विकारता से बुद्धि शीघ्र ही आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाती है अर्थात समाधि को प्राप्त हो जाती है ।
यहां सभी दुःखों से आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक तीनो प्रकार के दुःखों का निवारण बताया गया है ।।६५।।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।२/६६।।
जिसकी बुद्धि युक्त नहीं है,उस अयुक्त बुद्धि में आत्मभावना नहीं बनती । बिना आत्मभाव के शान्ति नहीं मिलती, बिना शान्ति के सुख कहाँ ?
पूर्वोक्त श्लोक में बुद्धि का आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होना बताया गया है उसी को स्पष्ट करते हैं कि जिसकी इन्द्रियां और मन जीता हुआ नहीं उसकी बद्धि स्वरूप का निश्चय नहीं कर पाती है यही अयुक्त बुद्धि है । ऐसी अयुक्त बुद्धि की आत्मस्वरूप में भावना अर्थात स्थिरता नहीं हो सकती है । जब तक आत्मस्वरूप में स्थिरता नहीं होती है तब तक शान्ति नहीं मिलती और जिसमें शान्ति नहीं है उसको सुख कैसे मिल सकता है ? अर्थात अशान्त मनुष्य जिसने मन और बुद्धि को नियंत्रित नहीं किया है उसे कभी सुख की अनुभूति नहीं हो सकती है, सदैव अशान्त ही रहेगा ।।६६।।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।२/६७।।
क्योंकि इन्द्रियों में से एक भी जिस इन्द्रिय का मन अनुगमन करता है उसी एक इन्द्रिय के विषय के आश्रित मन इस मुमुक्षु की बुद्धि का वैसे ही हरण कर लेता है जैसे जल में नौका का हरण वायु कर लेती है ।
यहां यह कहना है कि जब एक इन्द्रिय का विषय इतना अनर्थ कर सकता है तो सभी इन्द्रियां विषयों से मिलकर क्या कर सकती हैं यह साधक को स्वयं समझ लेना चाहिए । इसकी अधिक व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता "मेराचिन्तन" में देखना चाहिए ।।६७।।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/६८।।
इसलिये हे महाबाहो ! इन सभी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों सहित जिसने मन को अनुशासित कर लिया है उसकी बुद्धि स्वरूप में प्रतिष्ठित है ।।६८।।
या निशा सर्वभूताना तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।२/६९।।
समस्त प्राणियों के लिए जो रात्रि होती है उसमें संयमी जागता है, जिसमें संपूर्ण प्राणी जागता है उसे मननशील मुनि रात्रि जानते हैं ।
संपूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति संसार में होने के कारण वे उसे ही देखते और समझते हैं अतः वही उनका दिन किन्तु इन्द्रियों पर संयम करके एक आत्म निश्चय जिसने कर लिया ऐसे मननशील मुनि के लिए वह रात्रि ही है । एवं जिस आत्मस्वरूप में मुनि जागता है, वह संसारासक्त को दिखाई नहीं देता इसलिये उसके लिए आत्मस्वरूप की बात रात्रि ही है ।।७०।।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति सर्वे ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।।२/७०।।
चारों ओर से परिपूर्ण समुद्र में सभी नदियों का जल प्रवेश करता है, उसी प्रकार जिसमें सभी कामनाएं प्रवेश कर गई हैं वह शान्ति को प्राप्त करता है कामनाओं की इच्छा करने वाला नहीं ।
वर्षा ऋतु में नदियों में बहुत बाढ आ जाती है जिसमें नदियों का जल संपूर्ण मर्यादाएं तोड़ देता है, वह संपूर्ण जल समुद्र में चला जाने पर भी एवं गर्मियों में नदियों के सूख जाने या कम होने पर भी समुद्र अपनी मर्यादा में अचल रहता है । कभी बढ़ना रूप प्रसन्नता और घटना रूप शोक नहीं होता, उसी प्रकार जिस समाधिस्थ मुमुक्षु की संपूर्ण कामनाएं तद्रूप हो गई हैं अर्थात स्वरूप से अभिन्न हो गई हैं वे चाहे समाधि अवस्था में हों या समाधि से व्युत्थान की अवस्था में दोनो ही स्थित में वह अपने स्वरूपगत भाव में ही रहता है । उसे चाहे जितने भोग मिल जायें या न मिलें दोनो अवस्थाओं में वह एकरस अविचल रहने के कारण शान्ति को प्राप्त कर लेता है । जबकि कामनाओं की चाह वाला सदैव अशान्त और अस्थिर रहता है ।
यहाँ न कामकामी को इस प्रकार भी अर्थ कर सकते हैं कि जब मुमुक्षु उपरोक्त प्रकार से समत्वभाव को प्राप्त कर लेता है तब वह न तो स्वयं कामी होता है और न काम ही अर्थात कर्ता और कर्म दोनो दोनो ही भाव उसमें नहीं होते इसलिये वह शान्ति को प्राप्त कर लेता है ।।७०।।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ।।२/७१।।
जो मनुष्य संपूर्ण कामनाओं का त्याग करके ममता एवं अहंकार रहित होकर किसी प्रकार की स्पृहा न रखकर विचरण करता है वह शान्ति को प्राप्त कर लेता है ।
सभी कामनाओं का त्याग करना चाहे वे लोकदृष्टि से शुभ हों या अशुभ अर्थात अनुकूल प्रतिकूल परस्थिति में समभाव में रहना । शरीर संचालन संबंधित आवश्यकताओं की भी कामना न करना क्योंकि शारीर प्रारब्धाधीन है । किसी भी अनात्म पदार्थ में गुण बुद्धि से ममता यानी लगाव न होना, और सीमित अहंता से रहित अर्थात व्यापक अहंता में स्थित रहने वाला वह सर्वकर्मसंन्यासी शान्ति को प्राप्त करता है । यहाँ मूल पुमान् शब्द आया है जिसका अर्थ पुरुष होता है, मतलब पुरुष वही है जो अनात्म पदार्थ से ऊपर उठकर आत्मसाक्षात्कार कर ले । इसी पुरुष को आगे अध्याय १५ में पुरुष कहा जायेगा ।
अर्जुन के चौथे प्रश्न का उत्तर हो गया कि सिद्ध कैसे चलता है ।।७१।।
एषा ब्राह्मी स्थितः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।२/७२।।
हे पार्थ ! यही ब्राह्मी स्थिति है जिसको पाकर कोई भी पुनः मोहित नहीं होता । मृत्युकाल में भी यह स्थिति प्राप्त हो जाने पर भी ब्रह्मस्वरूप निर्वाण पद को प्राप्त करता है ।
अब तक श्लोक ५५ से ७१ तक आत्मस्वरूप में स्थित सिद्ध के लक्षण बताए जिन्हें मुमुक्षु को करना ही चाहिए । अब आत्मस्वरूप में स्थित सर्वकर्मसंन्यासी की स्तुति करते हैं । आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५ अर्थात आत्मा से आत्मा में जो सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग करके संतुष्ट रहता है जिसका विस्तार पूर्व श्लोक तक हुआ है उन सभी लक्षणों को एक साथ सभी कामनाओं के साथ समाहित कर लेना चाहिए । कुल मिलाकर जो अनात्मपदार्थ से उपराम होकर आत्म पदार्थ में अभिन्न भाव से अपने अपरिच्छिन्न स्वरूप में स्थित है वही परम शान्त है वही ब्रह्मनिर्वाण पद है जिसे प्राप्त करता है । यह पद जिस किसी को यदि अन्त समय अर्थात मृत्यु के समय भी प्राप्त हो जाये तो वह भी इस परम पद को प्राप्त करता है फिर जिसने आजीवन ब्रह्मचर्य से लेकर सीधे सन्न्यास तक जीवन इसी आत्मशोध में लगा दिया है उसे यदि यह पद मिलता है तो इसमें क्या आश्चर्य है ? अर्थात इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।।७२।।
समीक्षा― अर्जुन के स्थित प्रज्ञ के लक्षण पूछने पर भगवान ने कहा था आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५ अतः यह तो स्पष्ट है कि पूर्व में श्लोक ११ से ३० तक कहे गये आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठा ही यहाँ पर प्रधान है, तथापि आगे कहते हैं युक्त आसीत मत्परः २/६१ अब बीच में आत्मा से भिन्न कृष्ण 'मुझ परम' को क्यों जोड़ने लगे ? इतना ही नहीं अन्त में यहाँ पर एषा ब्राह्मी स्थितः कहते हैं कि यही ब्रह्मी स्थिति है और वह निर्वाण स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त करता है ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति यानी आत्मा, ईश्वर और ब्रह्म इन तीनो शब्दों का यहां पर प्रयोग हुआ । जिसमें फल ब्रह्म है । आत्मा और ईश्वर दोनो को अभिन्न दिखाया गया है । यदि ऐसा एकत्व का प्रतिपादन न हुआ होता तो या तो ईश्वर में स्थिति बताते या फिर आत्मा में स्थिति बताते और प्राप्तव्य फल भी वही होता किन्तु ऐसा नहीं किया । इससे आत्मा की जो येन सर्वमिदं २/१७ से व्यापकता बताया था और आगे जिसे येन सर्वमिदं ८/२२ से ईश्वर कहेंगे एवं येन सर्वमिदं ततम् १८/४६ में जिसे निराकार ब्रह्म कहेंगे वे तीनो ही यहाँ पर एक साथ कह दिये गये हैं । आत्मा त्वम् पदार्थ का लक्ष्यार्थ है, मत्परः तत् पदार्थ का लक्ष्यार्थ है और ब्रह्म अस्ति यानी सबकी परम सत्ता है । इसी बात को आगे तमेव शरणं गच्छ १८/६२ द्वारा तत् पदार्थ का और मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ द्वारा त्वम् पदार्थ के एकत्व का प्रतिपादन करेंगे । अध्याय २ में कहते हैं मत्परः यानी ‘मुझ परम ईश्वर जबकि' तमेव शरणं गच्छ द्वारा मत्परः के ईश्वर से यहाँ भिन्न ईश्वर कहते हुए मामेकं द्वारा त्वं पदार्थ यानी आत्मरूप से स्वीकार करते हैं । यहाँ पर यदि विवेक का प्रयोग न किया जाये तो कृष्ण एक बार स्वयं को ईश्वर कहते हैं और दूसरी बार ईश्वर से भिन्न आत्मा भी कहते हैं । एक बार उस ईश्वर की शरण जाने की बात करते हैं, दूसरी बार अपनी शरण में आने की बात करते हैं यह परस्पर विरोध ही सिद्ध होगा किन्तु विचार पूर्वक देखने पर जीव ईश्वर और ब्रह्म एक ही है इसमें किसी भी प्रकार के द्वैत का कोई स्थान ही नहीं है । यहां गीता का एकमेद्वितीयम् स्वयं सिद्ध है । इस प्रकार यहाँ पर स्थित प्रज्ञ के लक्षणों के बहाने पूर्णतः तत्त्वमसि का संक्षेप में वर्णन कर दिया गया है । जिसका विस्तार आगे किया जायेगा । इतने पर भी यदि कोई किसी प्रकार के द्वैत की शंका करता है तो यह समझना चाहिए कि उस पर न तो ईश्वर की कृपा है और न ही भगवती गीता की । तभी समझ में नहीं आया ।।५५-७२।।
पुनः सैद्धांतिक सममीक्षा― यहाँ एक बार पुनः श्लोक ४५ का सामान्य निरीक्षण करूंगा, विशेष विचार श्लोक ४५, ६१, एवं ७२ में ही दे दिया है अतः अधिक उन्हीं स्थलों पर देखना चाहिए, किन्तु सिद्धांत पक्ष को जब तक न समझ में आये तब तक विचार करना ही चाहिए । त्रैगुण्यविषया वेदा २/४५ जो दिया गया है उससे पहले भोगवादी एवं निरीश्वरवादी का वर्णन है उसी को लेकर त्रैगुण्यविषया वेदा कहा गया उनका विस्तृत वर्णन अध्याय १६ में किया जायेगा । इसके बाद आता है निस्त्रैगुण्य २/४५ तो इसका वर्णन अध्याय १३ और १४ में होगा । कुछ लोग इसे ही गीता का सिद्धांत मानते हैं और शेष आगे के चार साधन हैं यानी साध्य निस्त्रैगुण्य ही है ऐसा कुछ लोगों का मानना है । निर्द्वन्द्व होने के लिए ही सविशेष ब्रह्म की अध्याय ७ से ११ तक वर्णन किया गया नित्यसत्त्वस्थ के लिए ही अध्याय १७ का वर्णन किया गया है क्योंकि जब तक सात्विक भाव एवं श्रद्धा की स्थिरता नहीं होगी, तब तक निस्त्रैगुण्य या आत्मवान नहीं हुआ कहा जा सकता है । निर्योगक्षेम के लिए अध्याय ९ योगक्षेमं वहाम्यहम् और अध्याय १२ में भक्तियोग कहा गया है । आत्मवान् के लिए अध्याय छः तक एवं अध्याय १५ का वर्णन किया गया है जहाँ पर आत्मा को सर्वभाव से जानने की बात कही गई है । इस प्रकार उपक्रम के इस श्लोक को संपूर्ण गीता में भलीभाँति देखा जा सकता है ।
यहाँ पर सैद्धांतिक विचार यह करना होगा कि यदि यहाँ पर यह माना जाये कि निस्त्रैगुण्य होना ही गीता का सिद्धांत है और शेष चार साधन कहे गये हैं जिसमें चौथा साधन आत्मवान् है । तथापि जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं गुणानेतानतीत्य त्रीन् १४/२० में जब तीनो गुणों को को पार कर जाता है तब सभी दुःखों से मुक्त होकर अमृतत्व को प्राप्त करना कहा गया है, इसके अनुसार आत्मपद ही लक्ष्य है मां योयव्यभिचारेण १४/२६ में सविशेष ब्रह्म की उपासना करके तब तीनो गुणों से अतीत होकर ब्रह्मरूपता का संकल्प करता है । अतः यहाँ भी लक्ष्य आत्मपद ही है । जबकि इसी अध्याय दो में परं दृष्ट्वा निवर्तते २/५९ अर्थात जो आत्मसाक्षर करने वाला है वही सभी अनात्मपदार्थ के रसों से मुक्त होता है एवं नैनां प्राप्य विमुह्यति २/७२ अर्थात ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करके यानी आत्मपद में प्रतिष्ठित होने के बाद मोहित नहीं होता इन दोनो वाक्यों से निस्त्रैगुण्य का लक्ष्य यानी सिद्धांत समझ में आ रहा है । तथापि यह अनिर्वचनीय है कि पहले आत्मा की प्राप्ति से निस्त्रैगुण्य का सिद्धांत कहा गया है या निस्त्रैगुण्य से आत्मपद की प्राप्ति सिद्धांत कहा गया है । जब हम उपसंहार में देखते हैं तो सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ यहाँ पर त्रैगुण्यविषया वेदा २/४५ में कहे गये वेदों के कार्य सात्विक राजस तामस तीनो गुणों के कार्य का त्याग पहले बताया गया है और उनका त्याग ही निस्त्रैगुण्य होना है जैसा कि अध्याय १४ में तीनो गुणों को बंधन का हेतु माना गया है । अतः सर्वधर्मान्परित्यज्य से त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन तक एक ही साधन रूप में लेने से निस्त्रैगुण्य सिद्धांत नहीं बनता है बल्कि आत्मस्वरूप की प्राप्ति का साधन बनता है जबकि निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् का जब समन्वय मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु १८/६५ के साथ करते हैं तब निर्द्वन्द्वः के साथ नमस्कुरु एवं मद्याजी की संगति ठीक बैठती है, क्योंकि सगुण साकार के उपासक सविशेष की उपासना से ही स्वयं को रजोगुण तमोगुण के कारण सुरक्षित और निर्द्वन्द्व महसूस करते हैं और कर्मकाण्ड पर ही भरोसा करते हैं ऐसा करेंगे तो ऐसा फल होगा वैसा करेंगे तो वैसा फल होगा यह विचार मन में रहता है, किन्तु मद्भक्तः से सगुण निराकार की उपसना करके परमेश्वर की व्यापकता पर ही निर्भर होकर संसार के हर विषय अनुकूल और प्रतिकूल प्रत्येक दशा में निर्द्वन्द्व हो जाता है जो नित्यसत्त्वस्थो के साथ ही ऐक्य करता है । इतनी उपसना करके तब मन्मना यानी आत्मप्रत्यय में ऐकान्तिक चिंतन द्वारा मामेकं शरणम् अर्थात एकमात्र आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है ।
इस न्याय से सर्वाधर्मान्परित्यज्य से वेदों के तीनो गुणों के कार्य पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत सभी प्रकार की कामना का त्याग करने का आदेश देकर मामेकं शरणं ब्रज यानी एक मात्र सर्वात्मा आत्मस्वरूप की शरण ले यानी आत्मस्वरूप में स्थित हो जा । इस कथन से गीता का सिद्धांत आत्मवान् होना ही मेरे दृष्टिकोण में सिद्ध होता है । अतः इसी सिद्धांत पर आगे का चिन्तन किया जायेगा । ओ३म् !
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।२।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें