गीता समीक्षा अध्याय ९
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ नवमोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।९/१।।
श्रीभगवान बोले― किन्तु यह सर्वाधिक गोपनीय ज्ञान तुझ दोष दृष्टि से रहित के लिए ज्ञान विज्ञान के सहित कहूँगा जिसको जानकर अशुभ से मुक्त हो जायेगा ।
यहां पर इदं से यह समझना चाहिए कि अब जो आगे ज्ञान कहा जायेगा और तु पूर्व अध्याय में कहे गए ज्ञान का पक्षान्तर है । अध्याय सात में की गई ज्ञान विज्ञान की प्रतिज्ञा का वर्णन अन्तिम दो श्लोकों में समग्र रूप से करना प्रारंभ किया ही था कि अर्जुन ने बीच में ही सात प्रश्न कर दिये जिसके उत्तर में अष्टम अध्याय में सहजभाव का अभ्यास करने वाले अति उत्तम अधिकारी का श्लोक ८-१० तक वर्णन किया और फिर उत्तम अधिकारी का वर्णन श्लोक १२-१४ तक अष्टांग योग द्वारा किया । ये सभी साधन साधन चतुष्टय संपन्न ज्ञानयोगी के लिए कहे गये हैं किन्तु अब जो साधन कहे जायेंगे ये साधन मंद, अतिमंद के लिए कहे जायेंगे । आत्मा में ही सर्वव्यापक परमेश्वर की उपासना करते हुए मन बुद्धि को उसी परमेश्वर में लगा देना, यह मंद बुद्धि के साधकों के कहा जाने वाले साधन हैं और जो ऐसी उपासना नहीं कर सकते वे मूर्ति आदि में ही परमेश्वर भाव से आराधना करते हुए जो भी क्रियामात्र है वह परमेश्वर को अर्पण करना अतिमंद साधना है किन्तु भगवान उस पर भी प्रसन्न होकर उसका कल्याण करते हैं । यही जितने गोपनीय रहस्य हैं उनमें सबसे अधिक गोपनीय रहस्य है । क्योंकि निर्णुण निराकार एक स्वयं में रहस्य है जो बड़े बड़े वेदवेत्ताओं के देखने, कहने, सुनने और समझने में नहीं आता २/२९, तथापि इतना तो सभी जानते ही हैं कि परेश्वर निराकार है । इससे भी गुह्यतर योग विद्या है जो अष्टांगयोग द्वारा साध्य है और थोड़ा भी असावधान होते ही सब कुछ उलटा हो जाये अतः यह विद्या तो और अधिक रहस्य है जिस किसी को नहीं दिया जा सकता है इसी विद्या के अन्तर्गत मंत्र, औषधि आदि की भी गोपनीयता छिपी होती है किन्तु इससे भी सर्वाधिक गोपनीय बात यह है कि भगवान कागज, मिट्टी, पत्थर आदि की भी प्रतिमा में हो सकता है ? साढे तीन हाथ का कृष्ण भी व्यापक परमात्मा हो सकता है ? यह बात तो गले नहीं उतरती । इसी परम गोपनी रहस्य को समझाने के लिए ही यह अध्याय प्रारंभ हो रहा है, इसमें ज्ञान का वर्णन तो इसी अध्याय में और विज्ञान का वर्णन दसवें अध्याय में एवं इसकी अनुभूति अर्जुन की इच्छानुसार ग्यारहवें अध्याय में कराया जायेगा । जिसको जान लेने से सबसे बड़े अशुभ जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र से छुटकारा मिल जायेगा ।।१।।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तममम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्यम् ।।९/२।।
यह विद्या पवित्र, उत्तम सभी विद्याओं की रानी और और रानियों की तरह ही गोपनीय है । इसका साक्षात्कार ज्ञानमय अव्यय सुखकारी है ।
जैसे राजमहलों में रानियां अत्यंत गुप्त रूप से निवास करती हैं उनसे मिलने की जिस किसी को भी अनुमति नहीं होती है कोई विश्वसनीय दासी ही मिल सकती है उसी प्रकार यह विद्या भी रहस्यमय है जिस किसी की समझ में आने वाली नहीं है । इसमें दोषदृष्टि न होने पर ही समझ में आयेगी यह पवित्र विद्या है । अर्थात ये पवित्र जो यज्ञदान तप आदि से हुए हैं जिनकी चित्तशुद्धि हो चुकी है उनको पवित्र करने वाली श्रेष्ठ विद्या है न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ४/३८ अर्थात ज्ञान से बढकर कुछ भी पवित्र नहीं है । यह धर्ममय अर्थात ज्ञानस्वरूप है इसका साक्षात्कार कर लेने पर अर्थात इस विद्या को आत्मसात कर लेने पर अव्यय अर्थात अविनाशी नित्य सुख देने वाला है । यहाँ धर्म का अर्थ ज्ञान किया गया है क्योंकि आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उसमें स्थित हो जाना ही मनुष्य का पहला और अन्तिम कर्तव्य है और आगे भी धर्म का यही अर्थ किया जायेगा ।।२।।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ।।९/३।।
हे परंतप ! इस आगे कहे जाने वाले ज्ञान में श्रद्धा न रखने वाला मनुष्य मुझको प्राप्त न होकर मृत्यु रूप संसार चक्र में वापस आते हैं ।
अश्रद्धालु का अर्थ अजितेन्द्रिय विषय लोलुप जिसका इसी अध्याय में आगे वर्णन किया जायेगा और धर्म यानी ज्ञान का अर्थ आत्मा-अनात्मा का बोध कराने वाला ज्ञान विज्ञान जिसकी अध्याय सात में प्रतिज्ञा की गई थी और जिसकी पुनः यहां पर भी पहले श्लोक में प्रतिज्ञा की गई है । अर्थात जो आत्मा अनात्मा का विवेक नहीं रखते और उसका प्रत्यक्ष आत्मैक्य रूप से अनुभव नहीं करते उनका इस संसार में वापस होना निश्चित ही है ऐसा कहकर मानो भगवान खेद प्रकट कर रहे हैं ।।३।।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ।।९/४।।
यह संपूर्ण जगत मेरे अव्यक्त स्वरूप द्वारा व्याप्त है, सभी प्राणियों की स्थिति मुझमें है किन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ ।
सभी प्राणी मुझमें हैं कहने का तात्पर्य यह है कि उनकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है । वे प्राणी जो चैतन्य अपने को मानते हैं वह चैतन्यता मुझसे है ही है अर्थात वह अपने को जो आत्मरूप अनुभव करते हैं वह मुझसे ही है भिन्न नहीं इसलिये वे मुझमें हैं मैं उनमें नहीं हूँ, क्योंकि जगत व्यक्त अर्थात स्थूल और स्थूल में सूक्ष्म की व्यापकता है इसलिये मैं निरकार और अविनाशी स्वरूप से संपूर्ण जगत में व्याप्त हूँ फिर भी मैं उनके स्पर्श में नहीं आता यही भाव है न चाहं तेष्ववस्थितः का ।।४।।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ।।९/५।।
किन्तु मेरी माया के ऐश्वर्य को देखो कि वे प्राणी मुझमें नहीं हैं । संपूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला, संपूर्ण प्राणियों भरण-पोषण करने वाला संपूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा ही स्वरूप है ।
यहां पर यह बताया कि जो मैने पहले कहा कि सभी प्राणी मुझमें हैं किन्तु वास्तव में वे मुझमें नहीं हैं यह तो जो मुझमें दिख रहा है यह तो मेरी माया का चमत्कार है ऐसा देख यानी समझ । अध्याय ११/८ में भी भगवान यही कहते हैं पश्य मे योगमैश्वरम् यह कहकर अपनी अनुभूति कराते हैं और यहाँ उसी वाक्य द्वारा यह जो क्रियात्मक कहा जा रहा है उसे देखने का मतलब आत्मा अनात्मा के विवेक द्वारा समझने के लिए कहा जा है । प्रणियों का जो भी भरण पोषण होता है, प्राणियों की जो उत्पत्ति होती यह सब माया का चमत्कार है किन्तु जो प्राणियों में आत्मा करके मैं के अर्थ में जाना जाता है वह तो ममात्मा अर्थात मेरा स्वरूप ही है ।
भगवान ने यहाँ पर संपूर्ण क्रियात्मक जड़ जगत को यहां पर स्व से भिन्न करके उन प्राणियों में जो चैतन्यता है वह मैं हूँ शेष माया का चमत्कार समझ लो यानी जान लो कहा है । इस प्रकार क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का दो विभाग यहीं पर कर दिया है जिसका विवरण भगवान तेरहवें अध्याय में देंगे ।।५।।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणिभूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ।।९/६।।
जैसे आकाश में स्थित वायु महान् वायु सर्वत्र विचरण करती है, वैसे ही संपूर्ण प्राणियों का आश्रय स्थान मुझमें है ऐसा समझो ।
पूर्व श्लोक में भगवान की निर्लिप्तता का योगमैश्वरम् द्वारा दिखाया गया और अब आकाश के दृष्टान्त द्वारा निर्लेपता बताते हुए कहते हैं कि जैसे महान यानी व्यापक आकाश से उत्पन्न वायु भी महान् अर्थात संपूर्ण आकाश में व्याप्त है वह सौम्य, रौद्र चाहे जिस रूप में विचरण करे किन्तु वह न तो आकाश से भिन्न सत्ता वाला हो सकता है और न ही आकाश का वायु से कोई संबंध बनता है क्योंकि वह वायु भी आकाश से उत्पन्न होने के कारण आकाश रूप ही है किन्तु आकाश की महानता का ज्ञान न होने के कारण भिन्न प्रतीत हो रही है । इसी प्रकार संपूर्ण प्राणी मेरी ही सत्ता मात्र से उत्पन्न होकर मुझसे ही धारण किये जा रहे हैं अतः वे मुझसे अभिन्न हैं, फिर भी मैं उनकी प्रत्येक क्रिया कलापों से निर्लिप्त शुद्ध चिन्मात्र चैतन्य सबका प्रकाशक निर्विशेष परमतत्त्व मैं ही हूँ ऐसा जान ।।६।।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ।।९/७।।
हे कुन्तीनन्दन ! संपूर्ण प्राणी कल्प के नष्ट हो जाने पर मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं, पुनः कल्प के आदि में उनकी मैं रचना करता हूँ ।
अब पश्य मे योगमैश्वरम् को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अध्यारोप एवं अपवाद द्वारा अपने को निर्विकार और सभी विकारों का प्रकृति में होना दिखाने के लिए श्लोक दस तक चार श्लोकों में वर्णन करते हैं । पहले अपने ऊपर ही प्रणियों की उत्पत्ति का अध्यारोप करते हुए कहते हैं कि संपूर्ण प्राणी कल्प के क्षय अर्थात नाश होने पर मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और फिर जब नये कल्प का आरंभ होता है तब उन्हीं प्राणियों की मैं रचना करता हूँ । यहाँ विचारणीय यह है कि जब कोई प्राणी परमात्मा को प्राप्त ही नहीं होते हैं तो उन्हीं प्राणियों की वे सृष्टि कैसे करते हैं ? दूसरी बात यह है कि सृष्टि करने का अर्थ है कि जो है नहीं उसकी उत्पत्ति करना― जैसे किसी संतान नहीं है अतः वह संतान की उत्पत्ति करता है लेकिन अगर किसी की संतान है और वह कहे कि मैं अपनी उसी संतान की पुनः उत्पत्ति करता हूँ तो यह बात समझ के बाहर है तथापि भगवान कहते हैं कि मैं उन्हीं प्राणियों का सृजन करता हूँ अन्य का नहीं । इसका स्पष्टीकरण भगवान स्वयं ही आगे करेंगे ।।७।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ।।९/८।।
प्रकृति को अपने आधीन करके प्रकृति के आधीन हुए परवश इस संपूर्ण प्राणियों के समूह की बार बार रचना करता हूँ ।
अध्याय ४ में अपने प्राकट्य को लेकर कहा था प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय ४/६ और यहाँ पर प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य कहा अर्थात चाहे जीव की रचना करना हो या फिर स्वयं को प्रकट करना हो प्रकृति का विराट परमेश्वर पर कोई नियंत्रण नहीं होता है बल्कि प्रकृति पर परमात्मा का ही नियंत्रण होता है जबकि जीव प्रकृति के आधीन होता है और वह अपने ही किये गये पुण्य-पापमय कर्मों के फलस्वरूप उनके पराधीन वैसे ही होता है जैसे बलि का बकरा रस्सी और खूंटे से बंधकर पराधीन होता है और उसका स्वामी बलि का समय उपस्थित होने पर बलि दे देता है । इसी प्रकार ‛मैं मैं’ करने वाला जीव बलि का बकरा है, उसके पुण्य-पापमय कर्मों के प्रति आसक्ति ही रस्सी है एवं प्रकृति अर्थात स्वभाव ही खूंटा है जिसे वह चाहकर भी नहीं तोड़ सकता प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ३/३३, प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति १८/५९ इस प्रकार अपने ही कर्मों के फलस्वरूप पराधीन जीव प्रकृति के आधीन होता है जिसकी मैं सृष्टि के आदि में पुनः पुनः रचना करता हूँ
यहाँ पुनः पुनः कहने का तात्पर्य यह है कि वह अपने स्वभाव को फलासक्ति के कारण जब तक परिवर्तित करके मेरे साथ एकात्मता प्राप्त नहीं कर लेता तब तक वह निरंतर जन्मता मरता रहेगा यह भाव है ।।८।।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मषु ।।९/९।।
हे धनञ्जय ! किन्तु वे सृष्टि आदि कर्म आसक्ति रहित उदासीन के समान स्थित रहता हूँ इसीलिये मुझे नहीं बांधते ।
अध्याय ४/१४ में कहा था कि मुझमें कर्म के फल की इच्छा न होने के कारण कर्म मुझे नहीं बांधते इस प्रकार जो जानता है वह भी कर्म से नहीं बंधता और यहाँ कहते हैं कि कर्म में किसी प्रकार की आसक्ति न रखते हुए उदासीन के समान― यहाँ उदासीन के समान का अर्थ यह है कि जैसे कोई वितरागी कर्म में आसक्त तो होता ही नहीं है तथापि जैसे स्वभाव से ही वह भिक्षादि कर्म के कर्तापन से रहित होता हुआ भिक्षादि कर्म करता है वैसे ही मैं स्वभाव से ही कर्म करता हूँ उन कर्मों से हमारा कोई संबंध बनता ही नहीं है इसलिये वे कर्म हमें नहीं बांधते ।
इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को कर्म नहीं कर्मफल आसक्त कर देता है क्योंकि फल की चाह से कर्म में तत्पर होने वाला स्वतः आसक्त हो जाता है और यदि फल न चाहे तो भी वह अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर जो समाज के लिए कर्म करता है उसमें जो मैने समाज के लिए यह किया और आगे ऐसा करूंगा, यह जो कर्तापन है यह भी बंधन देने वाला है । अतः यहाँ भगवान यह कहना चाहते हैं कि मुमुक्षु जिस समय आसक्ति और कर्तापन का त्याग कर देगा उसी समय वह भी मेरी ही तरह कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा । यही यहाँ का तात्पर्य है ।।९।।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतु नानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।९/१०।।
हे कौन्तेय ! मेरी अध्यक्षता में प्रकृति ही संपूर्ण जड़ चेतन प्राणियों का प्रसव करती है ।
चैतन्य प्रकाश है परमात्मा, उसी चैतन्य के प्रकाश से चैतन्य भाव को प्राप्त जड़ प्रकृति ही संपूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करती है इस आधार पर सबका आत्मा अहमात्मा १०/२० मैं ही हूँ सभी आत्माओं का आत्मा यानी अधिपति मैं ही हूँ अतः मैं अध्यक्ष हूँ । मेरी ही अध्यक्षता में प्रकृति जो नित्य क्षरण को प्राप्त हो रही है, परिवर्तन शील है और उसी के द्वारा संपूर्ण प्राणियों के उत्पन्न होने के कारण ही संपूर्ण जगत परिवर्तन को प्राप्त हो रहा है ।
अभी तक जो पहले कहा था कि मैं ही संपूर्ण प्राणियों उत्पन्न करने वाला हूँ अपने ऊपर यह अध्यरोप किया था उसी का अब अपवाद कर देते हैं कि यह सब मैं ही करता हूँ यह कहने का कारण यह था कि मैं ही सबका अधिष्ठान हूँ अतः मैं ही सब कुछ करता हूँ यानी जो कुछ भी हो रहा है, हुआ और होगा वह सब क्रियाएं मुझमें ही थीं, हैं और होंगी ऐसा समझो, किन्तु यदि मैं ही सृष्टि करता तो मैं नित्य हूँ, अज यानी अजन्मा हूँ, निर्विकार हूँ, अक्षय हूँ अर्थात अविनाशी हूँ तो फिर मुझसे यह मरणधर्मा विकारी जगत कैसे उत्पन्न होगा ? अर्थात मेरी ही तरह षड्विकारों से रहित ही जगत होता किन्तु यदि मुझसे ही षड्विकारों से रहित जगत होता तो फिर अनेक नित्य सत्ताएं होने से भी परिच्छिन्नता का दोष और सृष्टि में अनवास्था दोष उत्पन्न हो जाता इससे मेरा सावयत्व सिद्ध होने से मेरा ही विनाश हो जाता जबकि मैं अविनाशी नित्य एकरस हूँ । अतः परिवर्तनशील प्रकृति से ही यह परिवर्तनशील जगत उत्पन्न हुआ है और मैं निर्विकार निष्क्रिय एकमेवाद्वितीम् हूँ ऐसा निश्चय करके जानना चाहिए । विशेष व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखना चाहिए ।।१०।।
इस प्रकार अध्याय ७ के अन्तिम श्लोक का यहाँ तक उत्तर देते हुए आगे इस स्वरूप को न जानने वालों की निंदा करते हुए अपने व्यापक स्वरूप का मन्दबुद्धि, अति मंदबुद्धि भी कैसे स्मरण करे इत्यादि विषयों पर आगे प्रकाश डालते हैं―
अवजान्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजान्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।९/११।।
तीनों गुणों के पार स्थित मेरे सत्तात्मक स्वरूप को न जानने वाले मूढ लोग मुझ संपूर्ण प्राणियों के स्वामी को न जानने के कारण मानषी साढे तीन हाथ के शरीर वाला जानते हैं ।
परम् यानी जिससे पर यानी श्रेष्ठ अन्य कोई भी नहीं है । भाव सत्ता का बोध कराता है जिससे अपने निर्विशेष, सबको सत्ता देने वाला किन्तु जिसकी और कोई सत्ता न होकर स्वयं से स्वयं में स्थित है ऐसे स्वरूप का संकेत करते हैं । भूतमहेश्वर से अपने औपाधिक ईश्वर रूप का बोध कराते हुए ब्रह्म से लेकर स्तंब पर्यंत सब पर अनुशासन करने का बोध कराते हैं । मूढा यानी जिनकी कोई आत्मा अनात्मा आदि की सोच उत्पन्न ही नहीं होती ऐसे विषय लोलुप अनीश्वरवादी । तनुमाश्रितम् अर्थात जैसे हम सभी स्त्री पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न होने वाले हैं वैसे ये देवकीनंदन, कौशल्यानंदन हमारी ही तरह उत्पन्न हुए मनुष्य से भिन्न ईश्वर हो ही नहीं सकते इस प्रकार अवजान्ति अर्थात जानते हैं । यही इनकी मूढता है ।।११।।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।।९/१२।।
ऐसे विमूढ चित्त राक्षसी एवं आसुरी प्रकृति का आश्रय लेने वालों की आशा, कर्म, एवं ज्ञान भी व्यर्थ होता है ।
विमूढ अर्थात साकार रूप अवतारों का निरादर करने वाले विचार हीन परमेश्वर के समग्र रूप को न जानने वाले । शेष राक्षसी आसुरी प्रकृति का वर्णन आशा, कर्म, ज्ञान की व्यर्थता पर अध्याय १६ में चर्चा करेंगे ।।१२।।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।।९/१३।।
किन्तु हे पार्थ ! महात्मा लोग दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर संपूर्ण प्राणियों का आदि एवं अविनाशी जानकर अनन्य भाव से अर्थात सर्वात्मभाव से मेरा भजन करते हैं ।
महात्मा अर्थात आत्मा की व्यापकता को समग्र रूप से जानने वाले यतिवृन्द । संपूर्ण प्राणियों का आदि यानी निमित्तोपादन कारण ७/६-८ जानकर अनन्य मन से अर्थात अभिन्न भाव से मेरा भजन करते हैं इसी अनन्य भाव को अध्याय १५/१९ में सब कुछ जानने वाला साकार एवं निराकार स्वरूप को तत्त्वतः जानने वाला सर्वभाव से मेरा भजन अर्थात चिन्तन करता है, जानता है कहा जायेगा । दैवी प्रकृति का भी वर्णन अध्याय १६ में किया जायेगा ।।१३।।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्युक्ता उपासते ।।९/१४।।
निरंतर समाहित चित्त होकर मेरे स्वरूप का चिंतन करते हुए एक मात्र स्वसंवेद्य आत्मा से भिन्न अन्य कुछ नहीं है ऐसा दृढ निश्चित करके सबके नियंता सबको प्रकाश देने वाले मुझ जगद्गुरु कृष्ण को नमस्कार करते हुए प्रयत्नपूर्वक मेरी उपासना करते हैं ।।१४।।
यह पूर्वोक्त दैवी संपत्ति संपन्न उच्च अधिकारी के लिए कथन किया गया है । आगे अन्य भिन्न अधिकारियों का वर्णन करते हैं―
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।।९/१५।।
तथा अन्य दूसरे लोग एकत्व के द्वारा मेरी उपासना करते हैं एवं बहुधा अर्थात भेदोपासक मेरे विश्वतोमुख का पूजन करते हैं ।
यहाँ ज्ञानयज्ञ द्वारा अध्याय ४में जीव की ब्रह्म में आहुति देना अर्थात जीवब्रह्मात्मैक्य रूप उपासना करना, ब्रह्मार्पणं ब्रह्म द्वारा अपने सहित प्रत्येक क्रिया में ब्रह्म दृष्टि करना, अयमात्मा ब्रह्म, इत्यादि श्रुति वर्णित अभिन्न उपसना करना । भेदोपासक ॐ, शिव, विष्णु, दुर्गा, गणेश आदि के रूप में उन्हीं का स्वरूप संसार है ऐसा करके स्वामी सेवका भाव से उपासना करते हैं ।।१५।।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ।।९/१६।।
मैं यज्ञ से पूर्व का संकल्प क्रतु हूँ, मैं यज्ञ, स्वाहा, स्वधा, औषध हूँ, मैं मन्त्र हूँ, मैं आज्य हूँ, मैं अग्नि हूँ, मैं ही हुत अर्थात अग्नि में दी जाने वाली आहुति हूँ ।
ब्रह्मर्पणं ब्रह्म…...४/२४ में जिस प्रकार यज्ञकर्ता अपने सहित सब कुछ ब्रह्म दृष्टि करता है उसी की यहाँ पर पुष्टि करते हुए भगवान कहते हैं कि वस्तुतः वह भावना मात्र नहीं बल्कि मैं स्वयं ही हूँ । इसी के निमित्त इस श्लोक में प्रत्येक कही गई सामग्री यज्ञ संबंधित कही गई है । यह जीव और ब्रह्म की एकता का जीता जागता प्रमाण स्वयं भगवान दे रहे हैं ।।१६।।
पितहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्सामयजुरेव च ।।९/१७।।
इस जगत का पिता, माता, जगत को धारण करने वाला, पितामह जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवे मैं ही हूँ ।।९/२७।।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ।।९/१८।।
संपूर्ण प्राणियों की एक मात्र गति अर्थात गंतव्य स्थान, स्वामी, साक्षी, प्राणियों के लय होने पर जहाँ वे निवास करते हैं, सबकी एकमात्र शरण, बिना किसी अपेक्षा के सबका सुहृद यानी शुभचिंतक, संपूर्ण जगत को उत्पन्न करने वाला, सबका प्रलय अर्थात विनाश, प्राप्तव्य स्थान, निधान यानी प्राणियों के सूक्ष्म कर्मबीज जिसमें संरक्षित होते हैं, एवं अविनाशी बीज मैं हूँ ।।१८।।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ।।९/१९।।
हे अर्जुन ! मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, वर्षा के जल का संग्रह करता हूँ और उचित समय पर उसका त्याग यानी वर्षा करता हूँ । मैं ही अमृत और मृत्यु भी मैं ही हूँ । सत् और असत् मैं ही हूँ ।
सत् यानी जो विधि मुख से जाना जाये और असत् यानी जो निषेध मुख से जाना जाये । अवथा जिस जगत की अपनी तो कोई सत्ता नहीं है फिर भी अज्ञानियों की दृष्टि मेंं सत् सा भासित होने वाला जगत भी मैं हूँ और अज्ञानियों के लिए ही मैं जानने में न आने के कारण असत् सा प्रतीत होने वाला भी मैं ही हूँ । अथवा ज्ञानियों की दृष्टि में जो नित्य आत्मस्वरूप ही सत्य है और संसार असत्य है इसमें सत् तो मेरा स्वरूप है और असत् जगत मुझमें भासित होने से मुझसे अभिन्न होने से वही भी मैं ही हूँ ।।१९।।
सूचना― हमने उपरोक्त सभी व्याख्याएं श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में कर दी है । इसके अतिरिक्त भी जहाँ कहीं संक्षेप या मूल अर्थ दिखाई दे वहां भी उपरोक्त पुस्तिका में देखना चाहिए ।
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुणयमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ।।९/२०।।
जो तीनो वेदों में कहे गये यज्ञों द्वारा मेरा यजन करने वाले, सोमरस का पान करने से जिनके पाप धुल यानी नष्ट हो गये हैं वे स्वर्ग की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं । वे यज्ञों द्वारा प्राप्त पुण्य के द्वारा इन्द्रलोक के प्राप्त करके स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं ।
यहाँ पर यह शंका नहीं करना चाहिए कि परमेश्वर की उपासना करने वाला इन्द्र को कैसे प्राप्त होता है, क्योंकि यहाँ स्पष्ट स्वर्ग के लिए प्रार्थना करने की बात आयी और स्वर्ग के अधिपति इन्द्र हैं अतः उन्हीं के उद्देश्य से किया गया पूजन उन्हीं के लोक को ही प्राप्त करायेगा । दूसरी बात सोमपान भी देवताओं के निमित्त ही होता अतः वह भी स्वर्ग को ही देने वाला है । चूंकि परमेश्वर ही सबके मूल में हैं अतः अज्ञान वश परमेश्वर की उपासना को अपनी कामनाओं और भेद दृष्टि के कारण इन्द्र आदि देवता समझ बैठा इसलिये उन्हीं के लोकों और भोगों को प्राप्त करता है । आज के समय में ये उपासनाएँ मात्र परंपरा से सुनी ही जा सकती हो नहीं सकती हैं क्योंकि ये परंपराएं काल की विपरीतता से लुप्त हो चुकी हैं ।।२०।।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ।।९/२१।।
वे उन स्वर्ग लोक के विशाल भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में प्रवेश करते अर्थात जन्म लेते हैं । इस प्रकार तीनो वेदों में कहे गये सकाम कर्मों को करते हुए कामनाओं के फलस्वरूप जन्म मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं ।
यहाँ पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक के भोगों की नश्वरता दिखाकर उन सभी सकाम कर्मों से दृढ वैराग्य प्राप्त हो इसी उद्देश्य से यह प्रसंग उपस्थित किया गया है ।।२१।।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।९/२२।।
जो मनुष्य अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हैं, उन नित्यसमाहित चित्त वाले यतियों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ ।
बुद्धि में अहं और इदं की वृत्ति का होना ही अन्य अन्य है । अन्य का अर्थ जितने भी अनात्मपदार्थ है उनका त्याग करके एक मात्र नित्य निरंतर समाहित चित्त होकर अर्थात सावधान होकर एकमात्र आत्मपदार्थ परमेश्वर का अहंता इदं के त्यागपूर्वक जो स्वसंवेद्य स्वरूप का चिंतन करता उसके योग क्षेम का चिन्तन परमेश्वर ही करता है । यहाँ योग का अर्थ परमात्मा है जो हमें अप्राप्त के समान है उसकी प्राप्ति अर्थात स्वरूप की नित्य प्राप्त की प्राप्ति के समान अनुभूति करा देते हैं । कैसे योग की प्राप्ति करा देते हैं ? इसका उत्तर ददामि बुद्धियोगं तम् १०/१०, ज्ञानदीपेन १०/११ से अलगे अध्याय में देंगे एवं तेषामहं समुद्धर्ता १२/७ से इस योगक्षेमं वहाम्यहम् की प्रतिज्ञा पुनः दोहराते हैं । इस के लिए क्षेम यानी रक्षा करते हैं, वह कैसे करते हैं ? अनात्मपदार्थों के द्वारा आने वाली आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक ये तीनों प्रकार की बाधाओं से रक्षा करते हैं ।
आज हम सबकी लगभग यही एक समस्या है कि हम उपदेश तो दूसरों को करते हैं किन्तु न तो हमें भगवान की इस प्रतिज्ञा पर ही विश्वास है और न ही हमें हमारे प्रारब्ध पर । अगर ईश्वर पर भरोसा होता तो भी हम भगत जगत को ही अपने शारीरिक नाशवान भोगों का आधार बनाकर आज इधर उधर भंडारे खाने के लिए न दौड़ना पड़ रहा होता, पैसों/वैभव के लिए आज हम भक्तों के चक्कर में पड़कर नाना प्रकार से Blackmailing के द्वारा हम जेल की यात्रा न कर रहे होते ।
सारांश― अनात्मपदार्थ का चिंतन न करते हुए परमेश्वर या प्रारब्ध पर विश्वास करते हुए जो व्यापक अहंता वाला सबका आत्मा है ऐसे आत्मभाव में निरंतर समाहित चित्त होकर स्थित हो जाना चाहिए यही नित्य सत्त्वस्थ २/४५ है ।।२२।।
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्यविधि पूर्वकम् ।।९/२३।।
हे कुन्तीपुत्र ! जो दूसरे देवताओं की भी श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं वे भी अविधि पूर्वक मेरा ही पूजन करते हैं ।
यहाँ भगवान यह कहना चाहते हैं कि जब पूजन करना ही है तो कामनाओं के आधीन होकर विधिहीन पूजा क्यों करना ? मैं ही सबकी विधि हूँ अतः विधिपूर्वक मेरा ही पूजन करके जन्म मृत्यु के सागर को पार कर जाओ क्योंकि― ।।२३।।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ।।९/२४।।
क्योंकि मैं ही संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता हूँ और स्वामी अर्थात अधिष्ठात्रृ देवता हूँ । जो मुझे इस प्रकारतत्त्व से नहीं जानते वे पतित हो जाते हैं अर्थात दुःखद जन्म मृत्यु रूप संसार सागर में गिर जाते हैं ।
यज्ञो वै विष्णुः अर्थात विष्णु ही यज्ञ अथवा यज्ञ ही विष्णु है, अधियज्ञोऽहमेवात्र ८/४ अर्थात संपूर्ण देहधारियों में अधियज्ञ मैं हूँ । इस प्रकार जिसके अधिष्ठात्र देवता स्वयं परमेश्वर ही हैं और उसी से अन्य की उपासना करना अविधि यानी विधिहीन उपासना परमेश्वर की है और अधिष्ठात्रृ देवता की ही उपासना करना विधि है । यही इसका भाव है ।।२४।।
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄयान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।।९/२५।।
देवताओं का व्रत करने वाला देवताओं को, पितरों की उपासना करने वाले पितरों को, भूत-प्रेतादि की उपासना करने भूत-प्रेतों को और मेरी उपासना करने वाला मुझको प्राप्त होता है ।
यहाँ पर भगवान यह कह रहे हैं कि भले मैं ही संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता एवं उसका स्वामी अर्थात अधिष्ठात्रृ देवता होऊं लेकिन जिस उद्देश्य को लेकर यज्ञ करता है उसी उद्देश्य को प्राप्त करता है । अतः उद्देश्य मुझ परमतत्त्व की प्राप्ति का ही श्रेय प्राप्ति के निमित्त होना चाहिए ।।२५।।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।।९/२६।।
जो भक्ति पूर्वक निश्छल मन से पत्र, पुष्प, फल, जल मुझे अर्पित करता है मैं उस दिये हुए को भक्तिपूर्वक अर्थात बड़ी प्रीति खाता हूँ ।
यहाँ पर प्रयतात्मनः का अर्थ प्रयत्नशील है और उसी का अर्थ निश्छल मन भी है निश्छल यानी शुद्धबुद्धि । तात्पर्य यह है कि जिसका चित्त सांसारिक विकारों से रहित हो गया है एक मात्र मैं ही जिसकी गति हूँ ऐसा मुझ सगुण साकार की उपासना करने वाला जो कुछ भी मुझे जैसे भी अर्पण करता है, चाहे वह किसी प्राणी में मेरे उद्देश्य से भोजन वस्त्र आदि देकर या किसी मूर्ति आदि में पूजन विधि के रूप में अथवा मेरे उद्देश्य से से मेरी प्रतिमा आदि में जो भी कुछ अर्पण करता है उसे प्रेम पूर्वक स्वीकार करता हूँ । यहाँ भक्ति का अर्थ प्रीति है और खाने का अर्थ स्वीकार करना है ।
इस प्रकार भगवान यह कहना चाहते हैं कि देवाताओं के पूजन विधि में अगर थोड़ी भी त्रुटि हुई तो सब कुछ उल्टा हो जायेगा किन्तु मेरे पूजन की एक ही विधि है मन की निर्मलता, निश्छलता, अन्य कोई विधि मेरे लिए है ही नहीं और इसका कोई फल उलटा नहीं होता, मनुष्य का कल्याण होता ही है ।।२६।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ।।९/२७।।
जो करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान आदि देता है, जो तप करता है, हे कौन्तेय ! वह सब मुझे अर्पण कर ।
अध्याय ३ में यज्ञ के प्रकरण में कहा था कि सबके मूल में अक्षर ब्रह्म ही है जो इस यज्ञ चक्र का अनुसरण नहीं करता है वह पापायु है अर्थात उसका संपूर्ण जीवन ही पापमय है और वह व्यर्थ ही जीता है ३/१६ अर्थात ऐसे व्यक्ति का मर जाना ही भगवान की दृष्टि में श्रेष्ठ है । अगर यह कोई प्रश्न करे कि यज्ञ करने के लिए धन चाहिए तो भगवान उत्तर देते हैं कि तुम कुछ न कुछ तो करते ही हो जैसे खाते हो, जो अन्य देवताओं के निमित्त पूजन करते हो, जो जरूरतमंद की सहायता करते हो यानी दान देते हो, तप यानी जो भी व्रत उपवास आदि करते हो ये जो तुम्हारी सहज और स्वाभाविक क्रियाएं हो रही है पश्यन्श्रृण्वन्…..५/८-९ वे सभी क्रियामात्र तो हो ही रही हैं और नहीं चाहोगे तो भी होंगी ही, जैसे नदी की धारा अनवरत बहती ही है किन्तु अपनी आवश्यकता के अनुसार धारा को मोड़ देना है उसी प्रकार ये ये क्रिया मात्र का उद्देश्य मेरे निमित्त एक मोड़ दे दो । जी रहे हैं तो भगवान के लिए और मर रहे हैं तो भगवान के लिए । इसी को आगे यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः १८/४६ अर्थात प्रत्येक चेष्टा उसी एक सत्ता से ही हो रही है अतः उसी की चेष्टा को उसे ही अर्पित करके उसे ही संतुष्ट करके आत्मसिद्धि को प्राप्त कर लें । यही इसका भाव है ।।२७।।
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ।।९/२८।।
इस प्रकार शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मबन्धनों से मुक्त होकर ज्ञानयोग से युक्त यति भलीभाँति जीवित अवस्था में ही मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त करता है ।
पूर्वोक्त श्लोक के अनुसार शुभ और अशुभ कर्मों को परमेश्वर में ही अर्पण करने के कारण सर्वकर्म संन्यास हो गया उसका फल परमात्मा के साथ एकत्व की अनुभूति योग हो गया इस प्रकार सर्वकर्मसंन्यास पूर्वक परमात्मा के साथ एकत्व का अनुभव करने वाला यानी वासुदेवः सर्वम् ७/१९ की अनुभूति करने वाला मुमुक्षु जीवित अवस्था में ही संसार के देने वाले सभी कारणों से मुक्त होकर शरीर त्याग कर परमात्मा को यानी मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।।२८।।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।।९/२९।।
मैं सभी प्राणियों में सम हूँ, न तो मुझे किसी से द्वेष और न ही प्रिया है । जो मेरा भक्ति पूर्वक भजन करते हैं वे मुझमें और मैं भी उनमें उनमें स्थित हूँ ।
यहां भगवान कहते हैं कि यदि कोई शंका करे कि जब आप ही यज्ञ को भोक्त और स्वामी हो तो भले अन्य लोग अविधि पूर्वक अन्य देवताओं के बहाने आपकी ही पूजा करते हैं, लेकिन करते तो हैं तो क्या आप भी उनसे द्वेष करते हैं जो भेद करते हुए अपने भक्त को ही प्राप्त होते हो ? इस पर कहते हैं नहीं…, ऐसा नहीं है । मेरा न तो कोई प्रिय ही है और न ही द्वेष्य मैं तो सर्वत्र सर्वकालिक सम हूँ निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ अतः मैं किसी को प्राप्त नहीं होता और न ही मुक्ति देता हूँ तथापि जैसे अग्नि के पास जाने वाले की ही ठंडी का निवारण होगा, यत्नपूर्वक अग्नि का आश्रय लेकर भोजन सिद्धि करने वाले की क्षुधा का निवारण होगा वैसे ही जो प्रीति पूर्वक अनन्य भाव से मेरा भजन करते वे मेरे में और मैं उनमें निवास करता हूँ । यहाँ पर मैं उनमें वे मुझमें निवास करता हूँ से भगवान ने यह बताया है कि परस्पर हम भक्त और भगवान दो दिखने पर एक ही हैं और अभिन्न हैं । एकमेवाद्वितीम् हैं ।।२९।।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।९/३०।।
यदि अत्यंत दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भजन करता है तो वह भी साधु मानना चाहिए क्योंकि वह भलीभाँति समाहित हो चुका है ।
भगवान अपनी समता का प्रमाण दे रहे हैं । कितना भी दुराचारी क्यों न हो यदि मेरी शरण में अन्य सभी सुकृत, दुष्कृत के भाव का त्याग करके एकमात्र मेरा ही भजन करता अन्य कुछ भी चिंतन नहीं करता तो उसे साधु मानना ही चाहिए क्योंकि वह भलीभांति मुझ आत्मस्वरूप में ही समाहित हो चुका है वह वासुदेवः सर्वम् ७/१९ ही सर्वत्र देख रहा है । इसलिए उसका अपमान नहीं करना चाहिए ।
एक किंवदंती के अनुसार एक बहुत ही दुराचारी डाकू था उसने सत्तर कत्ल भी किये थे । एकाएक उसके मन में वैराग्य जाग्रत हो गया और वह किसी महात्मा के पास दीक्षा प्राप्त करने के लिए गया । महात्मा ने सोचा कि यह पापी है इसे दीक्षा दे नहीं सकता किन्तु यदि मना किया तो ये मुझे अवश्य मार डालेगा । ऐसा सोचकर पूछा कि आप शिष्य बनने आये हो तो यह जानते हो कि गुरु की आज्ञा का पालन करना पड़ता है, करोगे ? उसने कहा अवश्य वह सब करूंगा जो आप कहोगे । फिर महात्मा ने एक कपड़ा कोयले में तेल मिलाकर रंगकर उसका झंडा बना दिया और उसे देते हुए कहा कि यह झंडा लेकर सभी तीर्थों में घूमों और इसे धोना बिल्कुल नहीं । अन्यथा पाप नष्ट नहीं होंगे । वह उस झंडे को लेकर बहुत से तीर्थ करते हुए एक जंगल के मार्ग से जा रहा था तो उसे किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनायी पड़ी । अन्दर जाकर देखा तो उस स्त्री से दस लोग छेड़छाड़ कर रहे थे और वह उनसे बचने के लिए छटपटा रही थी । उसे गुस्सा आया और सोचा जहाँ सत्तर वहां अस्सी । ऐसा सोचकर उसने उन सभी को अपने फरसे से मार डाला । वह स्त्री चली गई । यह डाकू जब जंगल से बाहर रास्ते पर आया तो देखता है कि उसका झंडा सफेद हो गया है, अतः गुरु का स्मरण करके वापस आ गया । गुरु ने पूछा कि किस तीर्थ पर यह सफेद हुआ तो वह बोला सत्तर अस्सी के बीच और सारी घटना सुना दी । तो कहने का तात्पर्य यह है कि उसकी वृत्ति उस हत्या जैसे पाप कर्म में भी गुरु के प्रति समर्पित थी, अतः वह पापमुक्त हो गया । वही यहाँ पर कहते हैं कि कितना भी पापी हो मेरे सामने आते ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं― कोटि विप्र अघ लागहिं जाही । आये शरण तजउं नहिं ताही ।। सन्मुख होई जीव मोहिं जबहीं । कोटि जन्म अघ नासहिं तबहीं ।।
शंका हो सकती है कि पहले कहा था कि पापी मेरा भजन नहीं करते ७/१५, और यहाँ उसके द्वारा भजन करने की बात कही है यह तो पूर्वापर का विरोध हो रहा है ? इसका समाधान यह है कि वहां पर कहा माययापहृतज्ञाना ७/१५ और यहाँ पर कहा चेत् मतलब यह कि माया द्वारा हरण किये गये चित्त के कारण एक तो मेरी शरण में आयेगा ही नहीं और यदि कदाचित आया भी तो मैं यह ध्यान नहीं रखता हूँ कि वह पापी है क्योंकि पुण्यात्मा से प्रेम नहीं और पापात्मा से द्वेष नहीं क्योंकि मैं सर्वत्र समभावस्थ हूँ, इसलिये मेरी शारण में आने वाला साधु ही है । मैं उसके पापों से उसे ज्ञान देकर मुक्त कर देता हूँ, भगवान प्रतिज्ञा भी करते हैं सर्वाधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।१८/६६ अर्थात जो सभी अनात्मपदार्थ का त्याग करके एकमात्र आत्मपदार्थ में स्थित हो जाता है मैं उसके सभी पाप नष्ट कर देता हूँ इसमें शोक करने की आवश्यकता नहीं है ।।३०।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ।।९/३१।।
हे कौन्तेय ! वह शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है, नित्य शान्ति को प्राप्त करता है, मेरा भक्त कभी पतित नहीं होता ऐसा तुम भलीभांति जान लो ।
वह यानी पूर्व का पापात्मा और इस समय परमेश्वर के शरणागत हुआ जिस समय बाह्य प्रपंचों का त्याग करके एकमात्र मेरे शरणागत हो जाता है उसी समय धर्मात्मा यानी मेरे स्वरूप को ठीक से जानने वाला ज्ञानी हो जाता है और उस ज्ञान का आश्रय लेकर नित्य रहने वाली शान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता । अब अर्जुन ने जो छठे अध्याय में योगभ्रष्ट को लेकर शंका किया था उसका यहां पुनः उत्तर देते हुए कहते हैं कि वह योगभ्रष्ट तो पुण्यात्मा है किन्तु ऐसा पापियों का सरदार भी मेरी शरणागति स्वीकार करने पर पतित नहीं होता तो योगभ्रष्ट के लिए कहना ही क्या है ? अर्थात तुम यह भलीभाँति जान लो कि मेरा भक्त, मेरा शरणागत त्रिकाल में भी पतित न होता, हो सकता है ।
यहां धर्मात्मा का अर्थ ज्ञान किया है क्योंकि अधिकांश टीकाकारों और भाष्यकारों ने इसका अर्थ स्पष्ट नहीं किया है और जिस किसी ने अर्थ स्पष्ट किया हो तो मुझे पता नहीं । यहां धर्म का अर्थ ज्ञान इसलिये किया है कि इसी श्लोक का द्वितीय चरण शाश्वत शान्ति प्राप्त करने की बात कहते हैं जो बिना ज्ञान आत्मतत्त्व के परमतात्त्विक ज्ञान के संभव ही नहीं है श्रुति भी कहती है ज्ञानादेव तु कैलल्यं एवं सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३, सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ४/३६ यहाँ जो धर्मात्मा का अर्थ ज्ञान किया है वह इस अध्याय ४/३६ में कहे गये के अनुसार ही किया है । क्योंकि पूर्वापर का विरोध किसी भी परिस्थिति में शास्त्र का हनन करेगा । बिना ज्ञान के मोक्ष होता ही नहीं है यह पहले वृजिनं संतरिष्यसि के साथ ज्ञानरूपी नौक द्वारा ही पार होने के रूप में बताया गया है और इस प्रसंग में ही इससे संबद्ध अगले श्लोक में तेऽपि यान्ति परां गतिं कहा गया है । अतः कोई यह भ्रम न पाले कि धर्मात्मा का अर्थ ज्ञानी नहीं हो सकता है क्यों विद्वान स्वयं जानते हैं कि धर्म का अर्थ ज्ञान होता है । इस प्रकार ये सभी प्रमाण स्पष्ट करते हैं कि धर्मात्मा का अर्थ ज्ञानी ही है यह स्पष्ट हुआ ।।।३१।।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।९/३२।।
हे पार्थ ! भलीभांति मेरा आश्रय लेते हैं जो भी पापयोनि हों, स्त्री, वैश्य, शूद्र वे भी परगति अर्थात जिससे बढकर उत्तम गति है ही नहीं ऐसी अनुत्तम गति मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
हम उन सभी विद्वानों से असहमति प्रकट करते हैं जो भी पापयोनि की संगति स्त्री, वैश्य और शूद्र लगाते हैं, क्योंकि ये चारों वर्ण वैदिक हैं । स्त्री मात्र कहने पर चारों वर्ण की स्त्रियां भी आ जाती हैं, तो क्या ब्राह्मण आदि कुल की स्त्रियों को पापयोनि कहोगे ? यदि हां तो वे सभी आचार्य इस पापयोनि स्त्री के गर्भ से उत्पन्न होकर धर्मात्मा कैसे हो गये ? क्यों पापयोनि के गर्भ में आना स्वीकार करते हैं ? पापयोनि यानी जन्म से ही पाप वृत्ति वाले, राक्षस, असुर, पशु, पक्षी आदि श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में भी नहीं देखा जा सकता है ।।३२।।
बहस― अज्ञानी संसार का चिन्तन करते हुए जब परस्पर एक दूसरे की काट छांट करते हैं तब उसे बहस कहते हैं । इसी बहस को जब दो विद्वान आधार श्रुति-शास्त्र का बनाकर करते और अपना पक्ष कोई न हो तब उसे कहते हैं वितंडा । यही बहस जब अपने पक्ष को बलवान करने के लिए अपने दोषों को छिपाते हुए दूसरे के दोषों को प्रकट करता तब उसे कहते हैं जल्प । इसी बहस को जब श्रुति-शास्त्र के आधार पर दोनो पक्षों के दोषों का निराकरण करते हुए एक निश्चित परम तत्त्व और समाज को दिशा निर्देश होता है उसे कहते हैं वाद । इसी वाद को भगवान कहते हैं वादः प्रवदतामहम् १०/३२ वही यहाँ पर समझना चाहिए । मैं अधिक व्याख्या नही करना चाहता था तथापि यह बहस का मुद्दा बन गया कि आचार्य शंकर के विरुद्ध अर्थ नहीं होना चाहिए । जबकि मेरा मत है कि शास्त्र के लक्ष्य को लेकर आचार्य प्रमाण हैं, आचार्य के लक्ष्य को लेकर शास्त्र प्रमाण नहीं हो सकता है । यदि श्रुति विरुद्घ भगवान भी बोलते हैं तो उनकी भी बात अमान्य होना हमारी वैदिक आर्य संस्कृति की परंपरा रही है । इस बात को स्वयं आचार्य जी ने अनेकों बार कहा है । इसीलिये हम बुद्ध को भगवान तो मानते हैं, लेकिन उनका श्रुति विरुद्ध सिद्धांत नहीं मानते । इसी बात को लेकर हुई चर्चा के आधार पर यद्यपि मैने ऊपर संक्षिप्त भावना व्यक्त दी थी तो भी मेरी बात का कोई तो प्रमाण होना चाहिए था जो किसी अशिक्षित के लिए कठिन है तथापि हमने प्रयत्नपूर्वक कई आचार्यों की टीकाएं और भाष्य देखा । निम्न लेख कई भागों में विचार पूर्वक बहुत सोच समझकर विद्वानों के मतों की समालोचना करते हुए लिखा है ।
इस बीच हमें बड़ी गंभीर बात मिली कि वैश्यों का वेदों पर अधिकार नहीं है लगभग सभी टीकाकारों ने यह बात स्वीकार की है । अब प्रश्न यह बैठता है कि परंपरा से हम सुनते आ रहे हैं कि वेदों पर स्त्रियों, शूद्रों के अतिरिक्त त्रैवर्णिक अधिकार है और यहाँ अनधिकार क्यों ? इसका कारण दिया कि वह खेती करता है, गोपालन करता है, व्यापार करता है । तो भाई ! यह कार्य क्या नया है ? यह तो अति प्राचीन परंपरा रही है, स्वयं श्रीकृष्ण ने भी उनका यही कार्य बताया है । अतः वे शास्त्र गलत जिन्होंने वैश्य को वेदाधिकार दिया या वे भाष्यकार, टीकाकार, टिप्पणीकार गलत जो वैश्यों का वेदों में अनधिकार बता रहे हैं ? श्रुति स्वयं अपने विरुद्ध या आप श्रुति विरुद्ध ? आचार्य शंकर ने जो स्त्री, वैश्य शूद्र को पापयोनि कहा उसमें उनका साथ उड़िया बाबा के अतिरिक्त अष्टटीका के नाम से प्रसिद्ध गीता की टीकाओं में से भाष्योत्कर्षदीपिका, परमार्थ प्रभा एवं राघवेन्द्रविवृति नामक तीन टीकाओं ने दिया है, शेष ने अलग वही अर्थ किया है जो मैने किया है बस उनकी बात गले से एक ही नहीं उतरती वैश्यों को भी वेदों अनधिकारी बता दिया, यह श्रुति विरुद्ध है और इसे कोई भी स्वीकार कैसे कर सकता है इसका प्रमाण भी अखंडानंदजी के माध्यम से नीचे दिया जा रहा है ।
बाद में जो इस श्लोक को लेकर चर्चा हुई उसके अनुसार पुनः स्पष्टीकरण आवश्यकत दिखी अतः हमने स्त्री, वैश्य और शूद्र को पाप योनि क्यों नहीं माना और पापयोनि को इन तीनो से भिन्न क्यों कहा इसका तो स्पष्टीकरण ऊपर कर चुका हूँ किन्तु श्लोक में देखिये श्लोक के पूर्वार्ध में येऽपि स्युः के साथ में पापयोनयः आया है जबकि स्त्री वैश्य एवं शूद्र के साथ उत्तरार्ध में तेऽपि आया है । जिसका अर्थ यह है येऽपि अर्थात ‛जो भी’ की संगति पापयोनयः के साथ लगेगी एवं तेऽपि अर्थात ‛वे भी’ की संगति स्त्री वैश्य और शूद्र के साथ ही लगेगी । इस प्रकार स्वयं गीतोपदेशक ही पापयोनि का वर्णन अलग और स्त्री आदि का वर्णन अलग कर रहे हैं । इन सम्यक विचारों से दूर दूर तक स्त्री आदि का पापयोनि होना सिद्ध नहीं होता ।
उड़िया बाबा से भी असहमति― ये विचार लेख से कुछ दिन बाद के हैं जब उड़िया बाबा की टीका देखा उस समय यहाँ पर विचार प्रकट कर दिया । आपने स्त्री, वैश्य और शूद्र के पापयोनि होने का बड़ी ही सावधानी से समर्थन किया है और आपके अनुसार ठीक भी हो सकता है तथापि सामाजिक व्यवस्था के अनुसार जो हमारी वैदिक व्यवस्था स्त्री, वैश्यों और शूद्रों को प्राप्त हुई है, उसको स्मृति और पौराणिक काल ने तार-तार कर दिया है । हमारे समाज का विघटन उसी काल में प्रारंभ हो जाता है जिस काल में स्मृतियों का उदय होता है जिसके कारण अत्यंत कम शब्दों में प्रसंगानुसार ही बताने का प्रयत्न करूंगा । हमने अन्त में प्रमाण के लिए दो पुस्तकें दी हैं और स्मृतियां अलग से समझ कर रखना चाहिए । ये सभी पुस्तकें नेट पर भी उपलब्ध हैं जिन्हें कोई भी संग्रह करके प्रमाण देख सकता है । अब आगे का विषय―
आपने कहा कि स्त्री में लोभ, अशुद्धि, काम की प्रधानता अधिक होती है । स्त्री की सभी इच्छाएं नष्ट हो जाने पर भी पति-सुख की कामना रहती है । इन्हें थोड़ा भी प्रलोभन देकर नीच से नीच कार्य करवाया जा सकता अर्थात आपका स्पष्ट संकेत उनके व्यभिचार से संबंधित है ।
मेरा प्रश्न है कि इनमें से ऐसे कौन से कार्य हैं जो ब्राह्मण और क्षत्रिय पुरुषों में नहीं हैं और वे मात्र स्त्रियों में ही हैं ? शास्त्रों में बहुत से ऋषि भी जंगल में पड़े पाये गये जिनमें कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरोहित आचार्य कृप और उनकी बहन कृपी प्रमाण हैं । विश्वामित्र जैसे तपस्वी और मेनका ने भी नवजात बच्ची शकुंतला को वन में छोड़ दिया था । आज कोई बच्चे को जन्म देकर फेंक नहीं सकता है लेकिन उस समय के इस अमानवीय कृत्य का यह जीता जागता प्रमाण है । क्रोध और लोभ तो द्रोणाचार्य का तब देखते बनता है जब राजा द्रुपद ने मित्र मानने से मना कर दिया तो उनको बंदी बनाकर बहुत से निर्दोषों की हत्याकराकर उनका आधा राज्य ही हड़प लिया । इतना ही नहीं महाभारत की जड़ भी आचार्य द्रोण को ही कह सकते हैं मात्र नौकरी के कारण, धन के कारण अन्याय पक्ष को ही महत्व दिया, न कि ब्राह्मणोचित न्याय पक्ष अथवा निवृत्ति पक्ष, इतना ही नहीं स्वार्थ की चरमसीमा तब देखने को मिलती है जब आचार्य द्रोण, कृप भी युद्ध के सिद्धांतों के विरुद्घ आचारण करके अन्यायपूर्वक अभिमन्यु का वध करवा देते हैं और अश्वत्थामा का क्रोधमय कुकृत्य उस समय देखने को मिलता है जब अन्यायपूर्वक सोते हुए सैनिकों के शिविरों में युद्ध सिद्धांत के विरुद्ध आग लगकर सैनिकों को जिन्दा जला देता और गर्भस्थ शिशु पर भी ब्रह्मास्त्र जैसे निर्निवारक यानी अमोघास्त्र का प्रयोग करता है, क्या आपने इन्हें पापयोनि कहा ? जिन्हें आप पुण्य योनि कहते हैं उनकी काम प्रधानता तो स्मृतियों में प्रसिद्ध है । किसी भी राजभवन या स्त्री के पास चले जाना और उससे उत्पन्न संतान की एक नई जाति बना देना और उनके साथ घृणित अमानवीय व्यवहार करना-करवाना यह स्मृति काल के ऋषियों का ही कार्य था । आज संपूर्ण मानव समाज इनकी इसी कामुकता के पापों का परिणाम भोग रहा है । स्त्रियों को ही अकेले पापयोनि क्यों, इन ऋषि-ब्राह्मणों को भी पापयोनि क्यों न कहा जाये ? जो अपनी काम तृप्ति के लिए किसी भी स्त्री को रति दान नाम के नाम पर दूषित कर देते थे और उससे उत्पन्न संतान से अमानवीय व्यवहार करते थे ?
आपने कहा कि वैश्य लोभ और कपट वाले होते हैं और व्यापार में झूठ भी बोलते हैं, तो क्या ब्राह्मण-क्षत्रिय पुरुषों में यह नहीं था या आज नहीं है ? यदि आप यह स्वीकार करते हैं तो फिर ब्राह्मण-क्षत्रिय पुरुष पापयोनि क्यों नहीं ?
आपने शूद्रों को सत् और असत् अर्थात अन्त्यज दो भागों में बांटा और बात भी ठीक है तथापि क्या ये दोनो ही वर्ग स्मृतियों के आधार पर आपकी कामुकता के पापों का जीता-जागता प्रमाण नहीं है ? जिन काम, क्रोध की प्रधानता के कारण शूद्र पापयोनि हो जाता है उन पापों का बीज भी तो आप ही हो फिर आप पापयोनि क्यों नहीं हो सकते ? और अगर आप पाप का कारण होने पर भी पापयोनि नहीं हैं तो आप अपनी ही सत् असत् संतान के प्रति अमानवीय व्यवहार कैसे कर सकते हैं ?
अपवाद रूप से देखा जाये तो ये सभी गुण दोष सर्वत्र व्याप्त हैं । जहाँ ऋषियों-क्षत्रियों (पुरुष वर्ग) में भी ये दोष पाये जाते हैं वहीं स्त्रियों का पातिव्रत्य धर्म जगविदित रहा है । स्त्री जहाँ एक ही पति को अपना सर्वस्व निछावर कर देती थी तो वहीं यह पुरुष वर्ग सैकड़ों हजारों विवाह के लिए शास्त्रों में प्रसिद्ध है, यह प्रथा अभी भी हमारी आंखों के देखते देखते कई पत्नियां रखने की परंपरा रही है । जबकि कितनी दासियों से अनैतिक संबंध अगल से रहते होंगे यह एक रहस्य है । इसका जीता जागता प्रमाण शास्त्रों में अनेक स्त्रियों की इच्छा के विरुद्ध उनका अपहरण और बलात्कार के रूप में देखा जा सकता है । दुर्योधन का भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण तो मानव मात्र के हृदय के अनन्त टुकड़े ही कर देता है, जिसका परिणाम आज भी समाज भोग रही है । मंन्दालसा, गार्गी और सुलभा इत्यादि शास्त्रों में जितेन्द्रिय सत्त्वगुण संपन्न संसार की संपूर्ण नारी जाति का गर्व हैं । कौशल्य और देवकी, यशोदा जैसी राम-कृष्ण की जननी हम सबके स्मरण मात्र से पापों को नष्ट करने वाली हैं, जिनकी संतान बनने को भगवान् भी तरसते हैं उनको एक ही स्वर में पाप योनि कह देना मातृ शाक्ति का इससे बढकर अन्य कोई अपमान हो ही नहीं सकता । ऐसा जघन्य अपराध कृष्ण तो कभी भी नहीं कर सकते, उनकी ओट लेकर अपना स्वार्थ चाहे स्त्री विषयक हो या जाति विषयक कुछ निजी स्वार्थी लोग ही ये जघन्यतम व्याख्या करके सकते हैं । अन्य नहीं ।
शास्त्रों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने से पता चलता है कि जाति समाज उन्नति की एक व्यवस्था थी न कि आज की तरह जातिवाद । इस व्यवस्था को लोग स्वेच्छा से स्वीकार करते थे । शास्त्रों में ब्राह्मणेतर का ब्राह्मण होना और ब्राह्मण का ब्राह्मणेतर होना भी प्रसिद्ध है । जो जिस कार्य में कुशल होता था उसी वर्ग के अनुसार जाति स्वीकार कर लेता था । आज की तरह शास्त्रों में घृणा जाति को लेकर नहीं थी । यह भी स्वार्थ से ऊपर उठकर शास्त्रों में देखा जा सकता है ।
गीता जैसे दिव्य ग्रंथ में भी भाष्यकारों, टीकाकारों और टिप्पणीकारों ने जातीय भेदभाव इतना अधिक घुसा दिया है कि यह लगता ही नहीं है कि जातिविशेष के अतिरिक्त गीता पर अन्य का भी अधिकार हो सकता है । जातीय भेदभाव की घृणित व्यवस्था महाभारत में कर्ण, एकलव्य आदि के रूप में भी देखी जा सकती है । यहाँ तक कि गीतानायक भी अहीर, ग्वाला आदि से तिरस्कृत होकर इस भेदभाव के शिकार हुए थे, यह किसी से भी छिपा नहीं है । उन्हीं कृष्ण पर चार वर्णों के निर्माण का आरोप लगाते हैं, लेकिन वे यह नहीं देखते कि वहां वर्ण की गुण कर्म के आधार पर व्यवस्था की है न कि जन्म के आधार पर । कोई इस वर्ण व्यवस्था की गलत व्याख्या न कर सके इसके लिए उन्होंने स्वयं ब्राह्मण के नौ गुण १८/४२, क्षत्रिय के सात गुण १८/४३, वैश्य के तीन और शूद्र का एक गुण १८/४४ बताते हुए वर्ण व्यवस्था को और अधिक स्पष्ट किया है । जहाँ कहीं भी ये गुण हों और इनके अनुसार ही कर्म हों वही उस गुण कर्म के आधार पर ब्राह्मण आदि है अन्यथा नहीं । क्या ये गुण न होने पर भी ब्राह्मण-क्षत्रिय पुरुष पापयोनि नहीं हैं ?
इस जातिवाद की जड़ हमारा स्मृति और पौराणिक काल ही है । सर्वत्र स्वार्थ से परिपूर्ण व्यवस्थाएं स्पष्ट देखी जा सकती है । गीता में भी जातिवाद घुसा देना स्वार्थ सिद्धि की चरमसीमा है । आज समाज में जो अव्यवस्था बनी है ऐसे ही कामी और स्वार्थ परायण लोगों के कारण ही बनी है । इतने पर भी अपनी मानसिकता बदलने को तैयार न होना आज के समाज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है । स्मृतियों के अतिरिक्त ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड, जाति भास्कर आदि में जातियों की घृणित उत्पत्ति और जातीय परिवर्तन प्रमाणों के सहित स्पष्ट देखा जा सकता है । कम से कम आज के समय में तो मानसिकता बदलो । वेदों पर स्त्री का अधिकार नहीं है, शूद्रों का अधिकार नहीं है यह घृणित भेदभाव वेदों का नहीं वरन् स्मृतियकारों और पौराणिकों का है ।
हम क्षमाप्रार्थी हैं उन ऋषियों के जिनको लेकर यह अपवाद किया, क्योंकि आपके उस समय के दृष्टिकोण को न समझते हुए अर्थ का अनर्थ करने वाले आचार्यों की इस कलियुग में बाढ आ गयी है । वेद जहाँ तक समझ सका कहीं भी निषेध नहीं करते, ब्राह्मण आदि की स्त्री पति के साथ यज्ञ में बैठती है यदि पापयोनि है तो इस पापिनी को यज्ञ मंडप में जाने ही क्यों देना ? क्या पति के साथ यज्ञ में बैठते पवित्र हो जाती हैं और यज्ञमंडप से उठते ही पाप का पिटारा बन जाती हैं ? तो फिर शूद्र स्त्रियां भी यज्ञ में पति के साथ बैठने में पवित्र होना चाहिए ? बाद में भले पाप का पिटारा बन जायें, क्योंकि वहाँ तो स्त्रीमात्र शब्द है ब्राह्मण आदि की स्त्री कहकर भेद नहीं किया गया है ।
वैश्य, लोभी, कपटी, झूठ बोलने वाले पापी का धन यज्ञ में लगाकर यज्ञ तो पापमय हो गया और आप भी, ऐसी दशा में उसका धन क्यों लेना ? और यज्ञादि में लगाकर स्वयं पापमय होकर सत्कर्म को भी पापमय क्यों बना देना ? शूद्र तो कामी, क्रोधी है ही ऐसे पापी द्वारा समिधा का संचय, मंडप की तैयारी आदि कराकर पूरा मंडप और समिधाओं को पापी का हाथ लगने से पूरा यज्ञ ही पापमय हो गया, तो ऐसा पाप आप क्यों करते हैं ? चारों वर्ण स्त्री सहित वेदाधिकारी हैं ऐसी मेरी अपनी मान्यता है, कुछ काल विशेष को छोड़कर । अब जिन्हें पापयोनि कहा गया है उन्हें भागवत के अनुसार उड़िया बाबा से ही समझ लेते हैं―
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कषा आभीरकंकाः यवनाः खशादयः ।
येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुद्ध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ।।
अर्थात जिन जगत् उत्पादक परमेश्वर की शरण लेने पर किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कष, आभीर, कंक, यवन, खश आदि (वेद बाह्य भी) पाप मुक्त हो जाते हैं उनको नमस्कार है ।
इस प्रकार स्त्री, वैश्य और शूद्र को एक साथ पापयोनि कह देना विवाद को जन्म देकर समाज में विस्फोट करना है । आप व्यक्तिगत अपनी जो मान्यता हो मानो, अधिक हो तो मौन रहो । अन्यथा शास्त्र में जहाँ आप अपने स्वार्थ की मिलावट करना जानते हैं तो दूसरा छंटनी करना भी जानता है । इससे समाज में अनवास्था दोष उत्पन्न हो जायेगा ।
अखंडानंद सरस्वती जी― पापयोनयः – मधुसूदन सरस्वती ने इसकी टीका लिखी है कि ‛पापयोनयः’ माने ‛गृधादयः’ गोस्वामी तुलसीदास जी भी यही कहते हैं― गीध अधम खल आमिष भोगी । पाव सो गति जेहिं जाचत योगी ।।
शंकराचार्य जी ने ‛पापयोनयः’ को ‛स्त्रियोवैश्यासतथा शूद्राः’ का विशेषण माना है । मधुसूदन जी शंकराचार्य के अनुयायी हैं, फिर उन्होंने ने शांकर भाष्य में ऐसा रहते हुए बदला क्यों ? इस पर विचार करें । शंकराचार्य का यह कहना है कि जहाँ व्यासकृत ब्रह्मसूत्र भी श्रुति के विरुद्घ हो जाता है वहाँ बलात् ब्रह्मसूत्र का अर्थ श्रुति के अनुकूल करना चाहिए । उन्होंने ने यहाँ तक कह दिया कि बलपूर्वक ब्रह्मसूत्र को श्रुत्यारूढ करो । श्रुति परम प्रमाण है, यह नियम शंकराचार्य ने ही बनाया है और भाष्य में अनेक स्थानों पर इसका पालन भी किया है ।
अब मधुसूदन सरस्वती ने देखा कि शंकराचार्य बोलते तो हैं, परन्तु एक श्रुति ऐसी भी है जिसके विरुद्ध उनका भाष्य जाता है । वह कौन श्रुति है ?__
तद् य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वा । अथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिं पद्येरन् श्वयोनिं वा शूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा ।।५/१०/७।।
अर्थात उन में जो अच्छे आचरण वाले होते हैं वे शीघ्र उत्तमयोनि को प्राप्त होते हैं । वे ब्राह्मणयोनि, क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि को प्राप्त होते हैं । तथा जो अशुभ आचरण वाले होते हैं वे तत्त्काल अशुभ योनि को प्राप्त होते हैं । वे कुत्ता, शूकर अथवा चाण्डालयोनि को प्राप्त होते हैं ।
{निज विचार― यहाँ यह चाण्डाल शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि जो शूद्र नहीं बल्कि वेद बह्य अन्यत्य पापयोनि के अन्तर्गत कहे गये हैं । शक, हूण, म्लेच्छ आदि मनुष्य एवं अन्य पशु, पक्षी, सर्प आदि पापयोनि अर्थ ही युक्तिसंगत है ।}
तो यहाँ वैश्य को रमणीयचरणा अर्थात उत्तमयोनि में श्रुति का उल्लेख है और शंकराचार्य का भाष्य जाता है इस श्रुति के विरुद्ध ।
{(इतना ही नहीं आचार्यचरण ने स्वयं अध्याय १८/४१ के अपने भाष्य में भी वैश्य का वेदाधिकारी कहा है । वह वेदाधिकारी हो और पापयोनि भी इस प्रकार दोनो ही परिस्थिति एक साथ दिन-रात इकठ्ठा होकर एक ही थाली में भोजन कैसे कर सकते हैं ? यह अंश पूर्णतः प्रक्षेपित है ।)}
जबकि इसे प्रक्षिप्त कहने की बजाय इसके आगे का अर्थ अखंडानंदजी का समन्वयवादी है । आगे कहते हैं― तब क्या करना चाहिए, बोले कि भाई ! श्रुति का पक्षपात करना ही ठीक है जिसमें कि फलश्रुति लग जाये । इसलिये उन्होंने ‛पापयोनयः’ का अर्थ ‛गृधादयः’ कर दिया, लेकिन इसमें शांकर भाष्य में कोई अन्तर पड़ा ? अन्तर तो नहीं पड़ा, फिर क्या हुआ ? वही आपको सुनाता हूँ―
देखो चाहे गृधादि हों, स्त्रियां हों, वैश्य हों, शूद्र हों इस श्लोक में एक बात लगी हुई है― ‛तेऽपि यान्ति परां गतिम्’ । इसलिये निकृष्टता तो कहीं न कहीं आती ही है । बोले कि हां, निकृष्टता तो आती है और इसीलिये शांकर सिद्धांत मान्य है, परन्तु किसकी अपेक्षा से निकृष्टता आती है― आगे ब्राह्मण पुण्य है, राजर्षि भक्त है इस प्रकार अगले श्लोक के साथ जोड़कर समन्वय कर दिया ।
मेरा प्रश्न ये है कि जातीय व्यावहारिक उत्कृष्टता और निकृष्टता होना स्वाभाविक है इसका यह तो अर्थ नहीं है कि श्रुति विरुद्ध जाकर हम कुछ भी बोल दें ? यह बोल दें कि वैश्य वेदाधिकारी नहीं है । क्या ब्राह्मण का ब्राह्मण में और क्षत्रिय का क्षत्रिय में एवं ब्राह्मण और क्षत्रिय में उत्कृष्टता और निकृष्टता नहीं है ? इनमें जो निकृष्ट है वह पापयोनि हो गया ? आज यही तो समस्या हमारे समाज में व्याप्त है कि पहले शूद्र का वेदाधिकार में निषेध किया, फिर आपने वैश्य का निशेष किया और अब मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ कि तथाकथित ब्राह्मण लोग क्षत्रियों का भी वेदाधिकार नहीं मानते । जिसके परिणामस्वरूप आज के समाज की भयंकर दयनीय स्थिति हो गई है । हमारे यहाँ म्लेच्छ (अंग्रेज) वेद पढ सकते हैं, यवन (मुसलमान) वेद पढ सकते हैं लेकिन हिन्दू वेद नहीं पढ सकता है क्योंकि वह शूद्र है, वह स्त्री है । यह करके हिन्दुत्व के नाम पर बरगालने वाले यह भी क्यों नहीं सोचते कि जो वेदबाह्य हमारे सनातन धर्म, सनातन संस्कृति के विरोधी हैं, वे वेद पढ सकते हैं तो हिन्दू क्यों नहीं पढ सकता ? स्त्रियां क्यों नहीं पढ सकतीं ? बात जाति की नहीं है, बल्कि बात है उसकी लगन, उसके प्रयत्न की, रुचि और लक्ष्य की है । यदि मेरे से कोई पूछे कि हृदय पर हाथ रखकर कहो कि आचार्य शंकर के इस श्रुति विरुद्ध भाष्ययांश पर सहमत हो― तो मैं यही कहूंगा कि यह भाष्यांश आचार्य का त्रिकाल में हो ही नहीं सकता । यह प्रक्षेपण है, किसी विधर्मी, स्वार्थी असुर ने, राक्षस ने, हमारी संस्कृति का नाश करने के लिए षड्यंत्रकारी ने यह आचार्य शंकर पर लोगों कि आस्था को देखकर उनके नाम पर समाज को भ्रमित करने के लिए यह भाष्यांश जोड़ा हुआ है, प्रक्षिप्त कर दिया है ताकि परस्पर लड़कर आर्य और आर्य संस्कृति यानी वैदिक व्यवस्था नष्ट हो सके ।
एक और प्रमाण देता हूँ आचार्य शंकर की अन्तिम आयु बत्तीस वर्ष की प्रसिद्ध है, तो भी आचार्य के नाम पर एक ‘देव्यापराध क्षमापन स्तोत्र’ प्रसिद्ध है । आज आचार्यों, मंडलेश्वरों, महामंडलेश्वरों ने यह भी ध्यान नहीं देते कि इस स्तोत्र में स्पष्ट लिखा है ‘मया पञ्चासीतेरधिकमपनीते तु वयसि’ अर्थात स्तोत्रकार कहता है कि हे मां ! मेरी पच्चासी वर्ष से अधिक आयु बीत चुकी है । जबकि आचार्य शंकर की आयु बत्तीस वर्ष की थी तो यह स्तोत्र उनका हो भी कैसे सकता है ? हमको विरोध स्तोत्र से नहीं है, बल्कि स्तोत्र को किसी कपटी के द्वारा आचार्य के नाम पर की गई प्रसिद्धि से समाज में फैलने वाले भ्रम से है । ये दो प्रमाण प्रक्षिप्त आचार्य के नाम से दिये । विवेकशील स्वतः संज्ञान लेकर भारतीय संस्कृति का नाश करने वाले वेदविरोधियों के अभियान को कुचलें । आज के स्वार्थी पदासीन शंकराचार्य भी इन प्रक्षेपों को जाति आदि के आधार ही सिद्ध करने में लगे हैं । वस्तु विचार तो कहीं दूर दूर तक नहीं दिखता है । हमने एक बार एक मंडलेश्वर से पूछ दिया, तो वे इतने भड़के कि मैं पिटते पिटते बचा । यही कारण है कि जो सर्वत्र पूजे जाते थे वही धर्माचार्य आज जेलों में ठूंसे जा रहे हैं । लोगों की श्रद्धाएं ही दंभियों और संस्कृति विरोधियों के कारण उठ गईं हैं । मेरा यही मत है कि बिना विचार के अक्षरशः कोई भी किसी भी भाष्य, टीका और टिप्पणी, स्तोत्र आदि पर विश्वास न करे ।। ९/३२ ।।ओ३म् !
किं पुनर्ब्रह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्मसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।।९/३३।।
फिर ब्राह्मण तथा राजर्षियों के लिए कहना ही क्या है ? पुण्य अर्थात पवित्र भक्त इस शरीर को प्राप्त करके संसार के सभी सुखों को अनित्य समझकर मेरा भजन करते ।
पूर्व श्लोक में कहे गये स्त्री वैश्य शूद्र तथा अन्य पापात्माओं की अपेक्षा से ब्राह्मण और क्षत्रिय की उत्कृष्टता अध्यात्म क्षेत्र में दिखाना है न कि स्त्री आदि को पाप योनि कहना । स्त्री में सदैव ममत्व रूप मोह का पिटारा सदैव रहता ही है, वैश्य में लोभ की ही प्रधानता है, वह धन प्राप्ति के कुछ भी कर सकता है और किसी भी सीमा तक जा सकता है जबकि शूद्र तमोगुण प्रधान होने के कारण उसमें सत्, असत् का विवेक होना भी असंभव जैसा है, पाप योनि यानी जिनका जन्म से ही स्वभाव हिंसात्मक हो ऐसे कोल, किरात, पुल्कस, इत्यादि । अतः इनमें मेरी शरणागति की संभावना ही नहीं होती है तो भी यदि मेरी शरण में आ जाते हैं तो वे भी परम गति को प्राप्त करते ही हैं क्योंकि मेरे भक्त का पतन नहीं होता । ऐसा समझकर जो स्वभाव से पुण्य अर्थात पवित्र हैं, जिनमें सत्वगुण की ही प्रधानता है, शम दम आदि १८/४२ नौ गुण जिनमें स्वभाव से ही विद्यमान हैं वे ब्राह्मण एवं सत्त्वगुण मिश्रित रजोगुण की ही प्रधानता जिनमें है, शौर्य आदि सात गुण जिनमें स्वभाव से ही विद्यमान हैं १८/४३ वे क्षत्रिय यदि मेरी शरण में आकर मेरा भजन करते हैं तो इसमें कहना ही क्या है ? अर्थात इसमें किसी प्रशंसा की आवश्यकता इसलिये नहीं है कि यह तो उनका जन्मसिद्ध अधिकार है और उन्हें अध्यात्म पथ पर विचरण करना ही चाहिए । अतः इस प्राप्त शरीर को ही दुःख का हेतु समझकर नित्य सुख का साधन समझकर इसे प्राप्त करके मेरा ही भजन कर ।।३३।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणाः ।।९/३४।।
मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन मेरा यजन कर और मुझे नमस्कार कर । मेरे परायण हुआ मुझसे युक्त आत्मा वाला होकर मुझे ही प्राप्त करेगा ।
अध्याय सात में कहा था मय्यासक्त मनाः ७/१ तो परमेश्वर में मन आसक्त कैसे हो ? इसका उत्तर यहाँ के पूर्वार्ध में एवं योगं युञ्जन्मदाश्रयः ७/१ का उत्तर यहां के उत्तरार्ध में दे दिया । सातवें अध्याय के प्रथम श्लोक में की गई प्रतिज्ञा का उत्तर नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में देने का अर्थ यह है कि अब ज्ञान विज्ञान के कथन की प्रतिज्ञा पूर्ण हुई ।
मद्भक्तः का अर्थ परमेश्वर के सगुण निराकार स्वरूप की उपसना करना अर्थात परमेश्वर के निराकार स्वरूप को परोक्ष रूप से समझकर सगुण सकार का आश्रय लेकर उसका पूजन करना और नमस्कार करना उसी स्वरूप में निराकार परमेश्वर का सर्वत्र आत्मौपम्येन अनुभव करना यही नमस्कुरु एवं मद्भक्तः है । मन्मना का अर्थ है मन को परमेश्वर से अभिन्न कर देना युक्त्वैवात्मनं इसी अभिन्न किये हुए मन के द्वारा मेरे परायण हुआ मुझ सर्वात्मा को प्राप्त करेगा ।
यहां श्लोक के पूर्वार्ध में आया हुआ प्रथम माम् आत्मा का वाचक है आगे इसका स्पष्टीकरण करते हुए मैं ही संपूर्ण प्राणियों की आत्मा हूँ १०/२० कहेंगे । तभी दूसरे माम् सर्वात्मा ब्रह्म को आत्म रूप से प्राप्त करेगा । यहाँ मेरे परायण कहने का तात्पर्य है कि तत् पदार्थ के साथ अभिन्न हुआ आत्मा यानी त्वं पदार्थ । इस प्रकार भगवान ज्ञान विज्ञान के रहस्य को समझाकर जीव-ब्रह्मात्मैक्य द्वारा ही जीव का कल्याण सुनिश्चित करते हैं ।।३४।।
समीक्षा― पूर्व अध्याय में परमात्मा के समग्र रूप का विवेचन करते हुए उत्तम साधकों के साध्य-साधन, शुक्ल-कृष्ण यानी निवृत्ति और प्रवृत्ति मार्ग का वर्णन करते हुए निवृत्ति मार्ग के साधन कर्मोयोग की स्तुति करते हुए अब यहाँ अध्याय सात के छूटे हुए ज्ञान विज्ञान को आत्यंतिक रहस्यमय और सभी पवित्र करने वाली विद्याओं की राजमहिषी बताते हुए इस ज्ञान विज्ञान के प्रति श्रद्धा न रखने वाले का जन्म मृत्यु रूप संसार में बारंबार आगमन बताते हुए अपने से भिन्न किन्तु जगत से निर्लेप बताते हुए संपूर्ण प्राणियों के सर्गादि के लय और सृजन में प्रणियों के कर्मबीज की परवशता और परिवर्तनशील प्रकृति के द्वारा ही परिवर्तनशील जगत की उत्पत्ति चैतन्य प्रकाश के सान्निध्य मात्र से बताते हुए अपनी निर्विकारता का वर्णन करके पुनः जो मेरे सत्तात्मक और सबके संपूर्ण लोकों के शासक के अवतारों को सामान्य स्त्री-पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न हुए मनुष्य की भांति जानते हैं उनको राक्षसी आसुरी प्रकृति से मोहित हुए मूढ, विचारहीन बुद्धिवाला बताकरदैवी संपत्ति का आश्रय लेने वाले के द्वारा आत्मरूप निष्ठा वाले होकर संपूर्ण प्राणियों के आदि मुझ अविनाशी का भजन करते हैं यह बताया ।
निरंतर स्वरूप कथन, चिंतन, प्रयत्नपूर्वक नमस्कार करते हुए ज्ञानयज्ञ के द्वारा अभिन्नोपसना एवं प्रथक् प्रतीक एवं कर्मोपसना के साथ चार श्लोकों में अपनी विभूति के वर्णन पूर्वक एकत्व प्रतिपादन करते हुए स्वर्गकामी द्वारा वैदिक फल श्रुति द्वारा देवाराधन, उन लोकों की प्राप्ति और पुनः उनके नाश का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार देवाराधन नाशवान कामनाओं की पूर्ति के लिए करते हो उसी प्रकार अन्य का आश्रय छोड़कर अकाम भाव से मेरी निरंतर उपासना करो मैं किसी देवाराधन की आवश्यकता ही नहीं होगी, योगक्षेम का निर्वाह तो मैं स्वयं करूंगा ।
क्योंकि दूसरे देवता की भी आराधना विधि रहित और भयकारी मेरी ही उपासना है, इससे अच्छा तुम्हारे पास जो कुछ भी पत्र पुष्प उपस्थित हो वही मुझे अपने सहित समर्पित कर दो तो निर्भय पद प्राप्त होगा । मैं परमेश्वर किसी से भी यद्यपि राग द्वेष नहीं करता तो भी मुझ समत्व रूप ब्रह्म की अभिन्नोपसना करने वाला मेरे अन्दर और मैं उसके अन्दर रहता हूँ क्योंकि ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ अर्थात ज्ञानी तो मेरा साक्षात्स्वरूप ही है । कितना भी दुराचारी पापी ही क्यों न हो मेरा शरणागत होने के कारण वह साधु ही है, वह शीघ्र ही ज्ञान को प्राप्त करके नित्य शान्ति को प्राप्त कर लेता है क्योंकि मेरा भक्त का पतन तो कभी होता ही नहीं है । अर्जुन के द्वारा छठे अध्याय में योगभ्रष्ट की गति का उत्तर देते हुए कहते कि जब मोह की साक्षात् प्रतिमूर्ति स्त्री, लोभ का साक्षात् प्रतिमूर्ति वैश्य, तमोगुण का साक्षात् प्रतिमूर्ति शूद्र और अन्य भी जो पाप की साक्षात् प्रतिमूर्ति भी मेरी शरणागति से परम कल्याण को प्राप्त कर लेते हैं तो फिर सत्त्वगुण प्रधान त्याग की प्रतिमूर्ति ब्राह्मण और सत्त्वगुण मिश्रित रजोगुण प्रधान जो दूसरों की रक्षा और पालन के लिए अपने प्राण तक दांव पर लगा देने वाले क्षत्रियों को परमगति प्राप्त हो इसमें कहना ही क्या है अर्थात क्या प्रशंसा की जाये क्योंकि यह यदि वे प्राप्त करते हैं तो कोई आश्चर्य ही नहीं है क्योंकि यह उनका स्वभाव ही है । इसलिये इस दुःखदायी अनित्य शरीर को प्राप्त करके नित्य सुख प्राप्ति के साधन द्वारा आत्मस्वरूप परमेश्वर का भजन करना ही चाहिए अतः भजन कर । अन्त में अन्त में मन्मना अर्थात अति उत्तम अधिकारी अभिन्न भाव द्वारा निर्विशेष की, और उत्तम अधिकारी सगुण-निराकार की उपासना करे । मंद जो कर्माधिकारी हैं वे यज्ञादि कर्मों से एवं जो अतिमंद अधिकारी हैं वे सर्वत्र आत्मरूप की भावना करते हुए मुझे नमस्कार करते मुझ सर्वात्मा से अभिन्न आत्मा वाले अर्थात व्यपक अहंता में सीमित अहंता का विलय करके आत्मस्वरूप को ही प्राप्त होते हैं, यह कहते हैं सातवें अध्याय के पहले श्लोक में की गई प्रतिज्ञा को भगवान पूरी कर देते हैं ।।१-३४।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ।।९।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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