गीता समीक्षा अध्याय १४
ॐ श्री परमात्मने नमः
अथ चतुर्दशोऽध्यायः
अध्याय सात में जिस दो प्रकार की प्रकृति और और उसके निमित्तोपादन कारण का वर्णन किया था उसे क्षेत्र क्षेत्रज्ञ इन दो भागों में विभागपूर्वक पूर्व अध्याय में वर्णन करके अब उसी अध्याय में तीनो गुणों से संपूर्ण संसार के व्याप्त होने की जो बात कही थी जिसके मोह में पड़कर अविनाशी परमात्मा को नहीं जाना जा सकता७/१३ है और जो दुर्लंघ्य दैवी गुणों वाली माया है और केवल मेरा ही आश्रय लेने वाला उसे पार कर सकता है ७/१४ ऐसा जो कहा था, अब इस अध्याय में उसी गुणमयी प्रकृति का विवेचन करके वह कहा हुआ मामेव क्या है ? इसका विवेचन यहाँ पर भगवान फल सहित करते हैं―
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ।।१४/१।।
श्रीभगवान बोले― पुनः परम् तत्त्व को कहूंगा जो सभी ज्ञानों में में श्रेष्ठ है । जिसे जानकर सभी मुनि परम् सिद्धि को प्राप्त होते हैं ।
परम् तत्त्व अर्थात जो अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण चतुर्दश इन्द्रियों की पहुंच से दूर है और ज्ञानियों का स्वरूप होने अत्यंत पास है― सूक्ष्मत्वातदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् १३/१५ ज्ञान वेद, शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, देव विद्या, भूत विद्या अदि सभी तो अपने आप में उत्तम ज्ञान है लेकिन वह मोक्ष विद्या नहीं है जबकि यह मोक्ष विद्या है । अतः गोपनीय होने से उन सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ विद्या है । इस मोक्ष विद्या को जानकर मननशील तत्त्वतः मनन करके परम् आत्म सिद्धि को प्राप्त हुए हैं । सर्वे का अर्थ है जिसने भी मनन किया है । यह आवश्यक नहीं है कि कौन ? यह इसका भाव है ।।१।।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।।१४/२।।
इस ज्ञान की उपासना करके मेरे साधर्म्य को प्राप्त करता है । वह सृष्टि काल में भी उत्पन्न नहीं होता और प्रलय में व्यथित नहीं होता ।
पूर्व श्लोक में मनन की बात कही गई और यहाँ उपासना करके अर्थात उस ज्ञान के अत्यंत समीप स्थित होकर यानी इस मोक्ष विद्या को स्वरूपगत बनाकर, उस पर आरूढ़ होकर मुमुक्षु मुझ निर्विशेष ब्रह्म की साधर्म्यता प्राप्त कर लेता है अर्थात पूर्णता को प्राप्त कर लेता है― पूर्णमदः पूर्णमिदम् हो जाता है । इस पूर्ण भाव को प्राप्त हो जाने पर ब्रह्मा नारद आदि की तरह भी उत्पन्न नहीं होता है और जब उत्पन्न ही नहीं होगा तो प्रलय महाप्रलय का भय नहीं होगा तो व्यथित भी नहीं होगा यह भाव है ।।२।
इस प्रकार दो श्लोकों में इस श्रेष्ठ मोक्ष विद्या की स्तुति करके अब आगे सृष्टि सहित गुणों का विस्तार करते हैं―
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भावः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।१४/३।।
हे भारत ! महद्ब्रह्म मेरी योनि है, मैं उसमें गर्भाधान करता हूँ, जिससे संपूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं ।
चैतन्य ब्रह्म प्रकाश से संबद्ध होने के कारण ब्रह्म कही गई है, अवथा रसमयी मृदुता के कारण जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने वाली अवथा विस्तार करने वाली बृंहण रूपा होने से ब्रह्म एवं संपूर्ण प्राणियों को व्याप्त करके स्थित होने के कारण महत् नाम से जानी जाने वाली प्रकृति ही महद्ब्रह्म है । इसी जड़ प्रकृति में में चैतन्य परमेश्वर का चित्प्रकाश पड़ना ही गर्भाधान है । इसे पश्चात अण्डज, पिण्डज, उद्भिज और जरायुज इन चार प्रकार के प्राणियों के अन्तर्गत चौरासी लाख योनियों की उत्पत्ति होती है― स्थावरं विंशतिर्लक्षं जलजं नवलक्षकं । कृमेश्च रुद्रलक्षं च दशलक्षं च पक्षिणः ।। त्रिंशल्लक्षं पशूनां च चतुर्लक्षं च वानराः । ततो मनुष्यतां प्राप्य ततः कर्माणि साधयेत् ।। अर्थात स्थावर यानी वृक्षादि बीस लाख, जल में उत्पन्न होने वाले नौ लाख, कीड़े मकोड़े ग्यारह लाख, पक्षी दस लाख, तीस लाख पशु, चार लाख बन्दर उसके पश्चात मनुष्य योनि में प्राणियों का जन्म होता है और तब वह अपने उत्कृष्ट कर्मों के द्वारा आत्म सिद्धि प्राप्त करने का अधिकारी होता है ।
इस प्रकार चिद्प्रकाश का प्रकृति में पड़ना ही गर्भाधान है न कि सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह संसर्ग से गर्भाधान का होना ।।३।।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।१४/४।।
हे कौन्तेय ! जिससे संपूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं उस ब्रह्मरूपा विशाल योनि में मैं बीज प्रदान करने वाला पिता हूँ ।
यहाँ मूर्तयः बहुवचन में दिया गया है इससे सभी अशेष प्राणियों की उत्पत्ति समझना चाहिए । क्योंकि ऊपर दी गई चौरसी लाख योनियों का वर्णन तो पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले प्राणियों का है देवादि योनि का उसमें वर्णन नहीं है । इससे ऐसा लगता है कि वे देवादि योनियां भी मानव योनि के अन्तर्गत ही कर्मसाध्य हैं इसीलिए अलग से नहीं दिया । पूर्व श्लोक में मम योनि शब्द का प्रयोग किया गया है इससे परमेश्वर से अभिन्न माया का वर्णन यहां प्रतीत होता है । यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् १४/२ को पुष्ट किया गया है । यही माया संसार की उत्पत्ति का हेतु होने से संपूर्ण जगत की माता और उसमें गर्भाधान करने वाले परमेश्वर ही संपूर्ण जगत के पिता हैं, अन्य नहीं यह भावार्थ है ।।४।।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ।।१४/५।।
हे महाबाहो ! सत्त्व, रज, तम ये तीन प्रकार के गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं जो अविनाशी आत्मा को शरीर से बांधते हैं ।
आत्मा अविनाशी है क्योंकि वह अविनाशी चैतन्य प्रकाश का अंश है किन्तु वह मुक्त पुरुष होकर भी तीनों गुणों के कार्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के विभिन्न स्वरूपों में रस लेने लगता है जिसके कारण देव, तिर्यगादि शरीरों में बंधकर शरीर अर्थात यह इन्द्रियों सहित शरीर ही मैं हूँ ऐसा मानकर बंधन को प्राप्त हो जाता है ।।६।।
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुख सङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।।१४/६।।
हे पाप रहित अर्जुन ! उन में सत्त्वगुण तो होने से निर्विकार प्रकाशस्वरूप है । यह सुख के साथ बांधता है और ज्ञान के साथ भी बांधता है ।
सत्त्वगुण यद्यपि स्वयं ही अपने आपमें विकार है तभी तो निस्त्रैगुण्यो २/४५" का आदेश दिया था तथापि रजोगुण की तरह इसमें लोभ, क्रोध आदि नहीं होता है और न ही तमोगुण की तरह प्रमाद होता है । इस दृष्टि से निर्मल कहा गया है । इसी निर्मलता के कारण ही सत्त्वगुण प्रकाश रूप यानी जो वस्तु जैसी है वैसी की वैसे यथार्थ का बोध होता है । तथापि इसस उत्पन्न जो सुख है, इससे जो वस्तु निर्णय के विवेचन का ज्ञान है उसमें आसक्ति के कारण शरीरों से बंध जाता है ।।६।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।१४/७।।
हे कौन्तेय ! रजोगुण आसक्ति रूप है यह विषयों के चिन्तन से तृष्णा रूप में उत्पन्न जान । वह रजोगुण कर्म का संग करने वाले शरीरों से बांध देता है ।
तृष्णा यानी लोभ, अपने पास आवश्यक वस्तु होने पर भी और अधिक की कामना ही मनुष्य के सुख दुःखादि बंधनों का हेतु है ।।७।।
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्य निद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।।१४/८।।
हे भारत ! अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण संपूर्ण देहाधारी को मोहित करने वाला जान । यह प्रमाद आलस्य और निद्रा से बांध देता है ।
व्यक्ति का यह निर्णय न कर पाना कि हमें जो करना है अभी कर लें यह प्रमाद है, और कोई निर्णय न ले पाना यह अज्ञान से उत्पन्न मोह यानी मूढता है ।
सत्त्व गुण यथार्थ वस्तु निर्णुण, रजोगुण संशय-विपर्यय युक्त और तमोगुण का मूढता रूप कार्य है । तीनो गुण शरीर से बांधते हैं लेकिन कौन गुण किस शरीर से बांधता है यह श्लोक १८ में बताया जायेगा ।।८।।
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ।।१४/९।।
हे भारत ! सत्त्वगुण से सुख उत्पन्न होता है । रजोगुण कर्म में लगाता है । किन्तु तमोगुण ज्ञान को ही ढककर भलीभाँति विजयी होता है ।
ऊपर तीनो गुणों के कार्यों का संक्षेप में कथन करके किसी भी प्रकार निर्विकार आत्मा को सविकारी बनाकर विजयी होते हैं अर्थात विभिन्न शरीरों से बांधते यानी जन्म-मृत्यु में ढकेलते हैं यह बताया गया है ।।९।।
रजस्तमसि चाभिभूयः सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ।।१४/१०।।
हे भारत ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण बढता है । इसी प्रकार रजोगुण सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर बढता है, रजोगुण और सतोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है ।
यहाँ पर यह बताया गया है कि सभी चराचर प्राणियों में तीनो गुण होते होते हैं, तथापि जिस एक का अनुभव किया जाता है उस गुण की प्रधानता होती है और शेष दो गौड़ हो जाते हैं । इसी कारण तीनो गुण बन्धन का हेतु हो जाते हैं । अन्यथा शुद्ध सत्त्वगुण तो स्वरूप है, वह मुक्त है और उसमें स्थित होने वाले को भी मुक्त कर देता है । यह भावार्थ है ।।१०।।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ।।१४/११।।
इस शरीर की संपूर्ण इन्द्रियों में जब प्रकाश अर्थात निर्मलता और ज्ञान उत्पन्न हो जाये उस समय सत्त्वगुण बढा हुआ है ऐसा जानो ।
सभी द्वार का अर्थ पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ और मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त ये चार, इस प्रकार चौदह इन्द्रियों के द्वारा अपने अपने बिषयों का यथार्थ वस्तु का निश्चय होना ही प्रकाश है । और ज्ञान आत्मा अनात्मा का विवेक करने वाला, तात्त्विक विवेचन करने वाली बुद्धि वृत्ति का नाम ज्ञान है ।
इस प्रकार इन्द्रियों की प्रसन्नता और ज्ञान में प्रवृत्ति होने पर सत्त्वगुण की की वृद्धि जानना चाहिए ।।११।।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।।१४/१२।।
हे भरतश्रेष्ठ ! लोभ कर्म करने की प्रवृत्ति (आसक्ति) अशान्ति और स्पृहा अर्थात नाना प्रकार की कामनाएं ये सभी रजोगुण की वृद्धि से भलीभाँति बढते हैं ।।१२।।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ।।१४/१३।।
हे कुरुनन ! अज्ञान अर्थात वस्तु स्थिति का ज्ञान न होना, कर्मों में प्रवृत्त अर्थात चेष्टा न करना । प्रमाद यानी कर्तव्य बोध का ठीक से ज्ञान न होने पर, अरे ! कर लेंगे, करना ही तो है इस प्रकार टालते रहना विषादी दीर्घसूत्री च १८/२८, तथा मोह भी ये सब तमोगुण से बढ़ते हैं ।
इस प्रकार तीनो गुणों में कौन से गुण की किस में प्रधानता है इसका परिचय दिया ।।१३।।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ।।१४/१४।।
जिस समय शरीरधारी सत्त्वगुण की वृद्धि के समय शरीर त्याग करता है उस समय निर्विकार उत्तम लोकों को प्राप्त करता है ।
निर्मल यानी सांसारिक ईर्ष्या द्वेष से रहित, ब्रह्म, विष्णु, शिव आदि लोक एवं मनुष्य लोक की अपेक्षा स्वर्गादि सूक्ष्म ईर्ष्या द्वेष वाले उत्तम लोकों को प्राप्त करता है ।।१४।।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ।।१४/१५।।
रजोगुण की वृद्धि होने पर शरीर के त्याग करने पर कर्मासक्त लोक यानी मनुष्य लोक को प्राप्त करता है और तमोगुण बढने पर शरीर त्यागकर वृक्ष, सर्प, पशु, पक्षी आदि मूढ योनि में जन्म लेता है ।
इस प्रकार तीनो गुणों से प्राप्त होने वाली योनियों का वर्णन किया ।।१५।।
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ।।१४/१६।।
सात्त्विक गुण की प्रधानता से किये गये कर्मों का फल निर्मल अर्थात मन की प्रसन्नता । रजोगुणी कर्मों का फल दुःख और तमोगुण का फल अज्ञान है ।।१६।।
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एवं च ।
प्रमाद मोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ।।१४/१७।।
सत्त्वगुण से ज्ञान, रजोगुण से लोभ, और तमोगुण से प्रमाद एवं मोह एवं अज्ञान भी होता है ।।१७।।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्गुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।।१४/१८।।
सत्वगुण संपन्न ऊर्ध्व यानी देवलोक को जाते हैं, राजसी मध्य यानी मनुष्य लोक में यानी मनुष्य रूप में स्थित होते हैं जबकि जघन्य अर्थात पापमय कर्म करने वाले निम्न यानी जमीन पर वृक्ष, पशु, पक्षी आदि तो जमीन के अन्दर सर्प, चूहा आदि के निवास स्थान को प्राप्त करते हैं ।
इस प्रकार तीनो गुणों से प्राप्त होने वाले लोकों का संक्षिप्त वर्णन किया गया ।।२०।।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ।।१४/१९।।
जिस समय द्रष्टा गुणों का कोई अन्य कर्ता नहीं देखता तथा स्वयं को गुणों से ऊपर मानता है उसी समय मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है ।
ऊपर गुणों की उत्पत्ति, कार्य, गुण और उनका फल, गुणों की प्रधानता में छोड़ गये शरीर के बाद की प्राप्तव्य गति का वर्णन करके अब बताते हैं कि द्रष्टा यानी मोक्षार्थी जो तत्त्वतः इन प्रकृति के गुण कार्य आदि को जानकर उनसे भिन्न अपने को जिस समय देख लेता है वह मद्भाव अर्थात ब्रह्मी अस्ति सत्ता को प्राप्त कर लेता है ।।२१।।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतश्नुते ।।१४/२०।।
देहधारी देह की उत्पत्ति के हेतु तीनो गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था आदि दुःखों से मुक्त होकर अमृत को प्राप्त कर लेता है ।
अनात्मा शरीर को अब आत्मा नहीं मानता है बल्कि को धारण करने वाला मानता है इसी विवेक के कारण मुमुक्षु देहधारी कहा गया है । यहाँ पर तीनों गुणों का अतिक्रमण करने की बात आयी है इसलिये हम पीछे के भी प्रसंग को स्मरण करते हैं अध्याय सात के अन्तिम श्लोक में साधिभूत, साधिदैव और साधियज्ञ के सहित के जो परमेश्वर को जानते हैं वही वही वस्तुतः तत्त्व से जानने वाले परम् गति को प्राप्त होते हैं कहा गया था । उसी को यहाँ तमोगुण प्रधान अधिभूत लक्षित शरीर, अधिदैव लक्षित शरीर का अनुग्राहक देवता चौदह इन्द्रियों का समूह सूक्ष्म शरीर एवं अधियज्ञ लक्षित स्थूल और सूक्ष्य शरीर पर भी अनुग्रह करने वाला कारण शरीर । इन तीनो का अतिक्रमण, तीनो गुणों के अतिक्रमण के रूप में बताया गया है । साथ ही जिन दुःखों के नाश की बात यहाँ जन्मादि के रूप में कहा गया है, इन सभी विकारों का वैराग्य के लिए अहंकार रहित होकर अध्याय १३/८ बारंबार चिन्तन करने को कहा गया था उसका चिंतन भी यह तीनो गुणों के अतिक्रमण रूप में दिखाया गया है । इन तीनो का अतिक्रमण करके वहां पर बताए गये माम् के अर्थभूत तत्त्वमसि के असि पद का अनुभव करता हुआ जन्मादि सभी विकारों से मक्त होकर अस्ति नाम सत्तामात्र कहे जाने वाले अमृत पद को प्राप्त कर लेता है ।।२०।।
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीगुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ।।१४/२१।।
अर्जुन बोले― हे प्रभो ! तीनो गुणों का अतिक्रमण करने वाले का लक्षण क्या है ? उसका आचरण कैसा होता है ? तथा इन तीनो गुणों का अतिक्रमण कैसे करता है ?
तीनो गुणों से अतिक्रमण करने वाले सिद्ध की महिमा सुनकर उसकी पहचान कैसे की जाये ? क्योंकि स्वयं तो अपनी पहचान बतायेगा नहीं, अतः उसकी पहचान जानने के लिए ये तीन प्रश्न अर्जुन ने किये हैं ।।२१।।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ।।२२।।
हे पाण्डव ! तीनो गुणों के कार्य प्रकाश तथा प्रवृत्ति एवं मोह के प्राप्त होने पर, न उनमें प्रवृत्त होने की इच्छा करता है, न निवृत्त होने की इच्छा करता है ।
यहाँ सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते २/४८ की ही व्याख्या दिख रही है । प्रकाश यानी सत्वगुण का कार्य श्रवण मनन निदिध्यासन में सत्त्वगुण के बढने पर कभी अच्छा मन लग जाता है, फिर भी वह यह इच्छा नहीं करता कि और अधिक लगना ही चाहिए और यदि कभी ध्यान चिन्तन में मन नहीं लगा तो वह उससे द्वेष भी नहीं करता अर्थात दुःखी नहीं होता कि आज मन ध्यान में नहीं लगा । इसी प्रकार रजोगुण के कार्य चेष्टाओं के मन में बढ जाने पर कार्य को करते हुए यह लोगों के दबाव में किया ऐसा शोक नहीं करता और अच्छे स्वैच्छिक कार्य के न हो पाने से शोक नहीं करता । इसी प्रकार तमोगुण का कार्य मोह, प्रमाद बढ जाने पर देर तक सोते रहना या प्रमादवश समय से न उठ पाने पर शोक नहीं करता ।
सारांश― सत्त्वगुण के बढने की इच्छा नहीं करता और रजोगुण और तमोगुण के बढने पर उनकी प्रवृत्ति में द्वेष या शोक नहीं करता वरन् सब प्रकृति के कार्य स्वाभाविक हो रहते हैं मैं कुछ नहीं करता अपने निष्क्रिय स्वरूप में समभाव में स्थित रहता है । ये त्रिगुणातीत के आन्तरिक सहज लक्षण हैं ।।२२।।
उदसीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ।।१४/२३।।
जो गुणों से विचलित न होकर उदासीनवत् स्थित रहता है । सभी गुण ही कार्य कर रहे हैं इस प्रकार प्रकंपित न होकर ठूंठ की भांति बैठा रहता है अर्थात निष्क्रिय आत्मस्वरूप में स्थित रहता है ।
यहां अध्याय ७/२७ का पूर्वार्ध प्रकृतेः क्रिमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः एवं गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ३/२८ का ही पुनरावलोक है । इस प्रकार गुणकर्मविभागशः आत्मस्वरूप को जानकर उदासीन अर्थात निरपेक्ष भाव से स्थित होता है । यह त्रिगुणातीत के अन्तर्वाह्य लक्षण हैं ।।२३।।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।।१४/२४।।
सुख दुःख में समान रहना, मिट्टी और सोना में समान रहना, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मे अपनी निंदा और प्रशंसा में धैर्य धारण करके स्व-स्थ अर्थात निष्क्रिय निर्विकार आत्मभाव में स्थित रहना ।
इन सभी शब्दों की पहले जगह जगह व्याख्याएं की जा चुकी हैं । तात्पर्य यह है कि त्रिगुणातीत हुआ सिद्ध किसी भी परिस्थिति में स्वरूप से च्युत नहीं होता ।।२४।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वरम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ।।१४/२५।।
जो मान-अपमान, मित्र-शत्रु में पक्षपात रहित समभाव वाला, सभी कर्मों का स्वरूप से अर्थात मन से भी त्याग करने वाला है वह गुणातीत कहा जाता है । यह दूसरे प्रश्न का उत्तर त्रिगुणातीत के व्यवहार का है ।।२५।।
मां योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।१४/२६।।
तथा जो मेरी अव्यभिचारिणी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा करता है वह ब्रह्म होने का संकल्प करता है ।
सर्वत्र एक ही नियम है अव्यभिचार । अर्थात ध्येय वस्तु से भिन्न अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन व्यभिचार कहलाता है । अतः भक्तियोगो अर्थात आत्मनिष्ठा का सेवन करते हुए सेवन करना अर्थात आत्मा के स्वरूप का भलीभांति उपरोक्त प्रकार से अनात्मपदार्थ पदार्थ से भिन्न जानकार अनात्मपदार्थ का त्याग करके जो माम् अर्थात मैं के अर्थस्वरूप व्यापक मुझ सर्वात्मा का वासुदेवः सर्वम् करके जो नित्य अभिन्न भाव में स्थित रहता है वह तीनो गुणों को पार करके ब्रह्म होने की कल्पना का अर्थ परिच्छिन्न भाव को समाप्त करके जीवब्रह्मात्मैक्य स्वरूप में दृढ स्थित हो जाता है । अर्थात परम सत्ता के अस्ति भाव में स्थित हो जाता है ।
यह साधन मंद बुद्धि के साकार उपासना करते हुए आत्मस्वरूप और ब्रह्म स्वरूप को ठीक समझकर यह, वह और मैं सब वासुदेव ही है ऐसी अपरिच्छिन्न वृत्ति के अतिरिक्त अन्य किसी वृत्ति का उदय न होने पर ब्रह्म रूपता को प्राप्त कर लेता है ।।२६।।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखैकान्तिकस्य च ।।१४/२७।।
क्योंकि मैं ब्रह्म की और अविनाशी मोक्ष की प्रतिष्ठा अर्थात आश्रय हूँ, नित्यत्व और ज्ञान एवं ऐकान्तिक सुख का भी आश्रय मैं हूँ ।
यहां पर यह शंका हो सकती है कि आत्मा की उपासना करने वाले को ब्रह्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इस शंका के निवारण करने के लिए अहं अमृतस्य अव्ययस्य च कहा । अहं यानी मैं । मैं का जो अर्थ है वह मोक्षस्वरूप, अविनाशी, नित्य, आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को जिससे अभिन्न रूप से जाना जाता है वह ज्ञान, ऐकान्तिक सुख यानी एकमेवाद्वितीम् के अतिरिक्त अन्य कुछ भी न होना सभी संसार सुख दुःख का अभाव होकर नित्य एकरस होना ही ऐकान्तिक सुख है और ब्रह्म की प्रतिष्ठा भी उसी मैं के अर्थ में ही प्रतिष्ठित अर्थात आश्रित है इसलिये मैं के अर्थ व्यापक आत्मा के अनुष्ठान से एक ही अस्ति तत्त्व की प्राप्ति होती है जिसे एकमेवाद्वितीम् कहा गया है । इस प्रकार आत्मा से भिन्न कोई ब्रह्म नहीं है । यही भाव श्रीकृष्ण का है ।
मैं का अर्थ आचार्य शंकर दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में इस प्रकार समझाते हैं जानीमीति तमेवभान्तमनुभात्येतत्समस्ञ्जगत् अर्थात पहले मैं जानता हूँ इस प्रकार की वृत्ति बनती है फिर यह समस्त जगत प्रकाशित होता है । तात्पर्य यह है कि पहले मैं की अनुभूति होगी उसके बात त्वं की । फिर चाहे वह ब्रह्म हो, मोक्ष हे अविनाशीत्व हो नित्यत्व हो अथवा ज्ञानस्वरूपता हो । यदि मैं न हो तो इन सभी का कोई अस्तित्व ही नहीं है । इसलिए सभी ब्रह्म आदि का आश्रय स्थल मैं ही है । मैं से भिन्न कुछ भी नहीं है । इस श्लोक का मुझमें ही सब प्रतिष्ठित है का भाव भी इसी भाव से परिपूर्ण व्यापक है, न कि साढे तीन हाथ के यशोदानंदन कृष्ण नामधारी का ।
अब यदि कोई शंका करे सब मैं में कल्पित है तो ‘मैं’ किसकी अपेक्षा से होगा ? तुम की अपेक्षा से ही ‘मैं’ होगा तो यह तो आपका अद्वैत विषयक परिश्रम निरर्थक होगा ? यहाँ द्वैत स्वतः सिद्ध हो गया ?
हां ! ठीक ही कहा…., द्वैत तो अवश्य सिद्ध हो गया तथापि क्या आपने चौथा अध्याय पढ़ा है ? अगर नहीं तो हमारे साथ पढ़ लें― यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते करुते तथा ।४/३७ यहां कहा गया है कि जैसे प्रचंड अग्नि छोटी छोटी सूखी लकड़ियों को जलाकर उनकी पहचान ही समाप्त कर देती है वैसे ही ज्ञानाग्नि संपूर्ण कर्मों की पहचान ही समाप्त कर देती है । तो जब कर्मों की पहचान ही समाप्त हो गई तो अहं और त्वम् की भी पहचान स्वतः समाप्त हो जायेगी । अर्थात सब कुछ ज्ञान की व्यापक अग्नि मैं जीव और ब्रह्म नामक उपाधि सहित भस्म होकर अस्ति मात्र की सत्ता शेष रह जाती है । वह न मैं होता और न यह होता है होता है तो मात्र ‘है’ होता है । इसके अतिरिक्त यज्ञेनैवोपजुह्वति ४/२५ अर्थात जीव रूप समिधा का ब्रह्म रूप अग्नि में हवना हो जाने पर जब जीव ही नहीं बचा तो ब्रह्म कैसे बचेगा ? जब ईंधन समाप्त हो गया तो अग्नि को बुझना ही है । ब्रह्म की सत्ता ठीक उसी प्रकार जीव के ही कारण है, इसी प्रकार जीव की सत्ता ब्रह्म के कारण । इनमें एक के न रहने पर दूसरा स्वतः नहीं होगा । इस प्रकार पहले सब कुछ ‘मैं’ के अर्थ में सन्निहित होकर फिर स्वसंवेद्य स्व सत्ता में नाम रूप की उपाधि का त्यागकर स्थित हो जाता है जिसे श्रुति स्वमहिमा में स्थित बताती है । यही अस्ति पद है । अस्ति पद एकमेवाद्वितीम् है ही है । इस निर्विशेष, निर्विकार केवलाद्वैत ही सिद्ध हुआ ।।२७।।
समीक्षा― पूर्व अध्याय के अन्त में क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के ज्ञान का विवेक पूर्वक अनुशीलन करने वाले का अपने को प्रकृति के गुण कार्य से मुक्त जानने वाला परम पद को प्राप्त कर लेता है कहा गया था । अब प्रश्न यह है कि कैसे प्रकृति के गुण कार्य से अपने को मुक्त समझे ? उसके लिए इस अध्याय में कहे जानने वाले ज्ञान का मनन और उसकी उपासना अर्थात आरूढता के द्वारा ब्रह्म साधर्म्य अर्थात ब्रह्म पद प्राप्त करना बताया, जिससे त्रिकाल में भी जन्म मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है । इसके लिए प्रकृति में चिद्प्रकाश का पड़ना उसका गर्भधारण करना एवं चार प्रकार की चौरसी लाख एक योनि का उत्पन्न होना बताते हुए तीनो गुणों द्वारा उस गर्भस्थ चित्प्रकाश का शरीरों में बंधना बताते हुए कौन किस गुण के द्वारा किस शरीर से बंधेगा यह बताया ।
आगे गुणों के कार्य निर्मलता, मोह, प्रमाद क्रमशः तीनो गुणों के कार्यों का वर्णन करते हुए किस गुण की वृद्धि यानी प्रधानता से शरीर छोड़ने पर किस योनि और लोक को प्राप्त होगा यह बाताया । पश्चात मुमुक्षु जिस समय गुण यानी प्रकृति से भिन्न अन्य कर्ता न देखकर स्वयं को अकर्ता देखेगा उसी समय तीनो गुणों को पार करके जन्मादि विकारों से मुक्त होकर मोक्षस्वरूप ब्रह्मस्वरूपता को प्राप्त कर लेता है यह बताया ।
पुनः अर्जुन के त्रिगुणातीत के लक्षण पूछने पर चार श्लोकों में लक्षण और व्यवहार का वर्णन करते हुए साकार रूप ब्रह्म की आत्मरूप से एकनिष्ठ उपासना से ब्रह्म के साथ एकत्व बताते हुए बताया कि ब्रह्म, नित्य ज्ञान, ऐकान्तिक सुख इन सबकी प्रतिष्ठा अर्थात स्थिति मोक्षस्वरूप अविनाशी अहं के अर्थ आत्मा में ही सन्निहित है । इस प्रकार असि पद के अनुभव का अस्ति सत्ता में विनियोग करके अध्याय का उपसंहार किया ।।१-२७।।
सूचना― विस्तृत व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखें । ओ३म् !
ॐतत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रय विभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ।।१४।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !!! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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