गीता समीक्षा अध्याय ११

ॐश्रीपरमात्मने नमः

अथैकादशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्संज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ।।११/१।।
         मुझ पर अनुग्रह करने के लिए जो आपके कहे गये अध्यात्म नाम वाले श्रेष्ठ और अत्यंत गोपनीय वचन कहा गये हैं उनके द्वारा मेरा यह अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया है । 
        परमगोपनीय तो भगवान की विभूतियाँ एवं योग ही हैं जिनके रहस्य को न जानने के कारण ही मैं मेरा करके मोह उत्पन्न होकर ज्ञानमय स्वरूप को ढक लेता है और अध्यात्म नाम से जो आपने बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह १०/४ से चत्वारो मनवः१०/६ तक की विभूतियों को कहा जिनको जान लेने से आत्मा का ज्ञान हो गया है, यह सब का सब योगैश्वर्य है मैं व्यर्थ ही शोक कर रहा था । यह जानने के बाद अब कर्तव्य-अकर्तव्य विषयक जो मोह था वह नष्ट हो गया है । अर्थात अब कर्तव्य विषयक ज्ञान हो गया है कि मुझे क्या करना है ।।१।।

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरसो मया ।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ।।११/२।।
         क्योंकि हे कमलनेत्र ! प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय को विस्तार से सुना तथा आपके अविनाशी माहात्म्य को भी सुना ।
          यहाँ पर अपने मोह के नाश का कारण अर्जुन ने बताया है ।।२।।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ।।११/३।।
          हे परमेश्वर ! आपने अपने स्वरूप के विषय जो यह ज्ञान कहा वह उसी प्रकार है । हे पुरुषोत्तम ! आपके रूप एवं ऐश्वर्य को देखने की इच्छा है ।
          यहां अर्जुन को भगवान की बात पर संदेह नहीं तथापि वह यह विचार करता है कि जब सब जगत ही ईश्वर रूप है तो जब ईश्वर ही मेरे सामने खड़ा है तो क्यों न इन नेत्रों से परोक्ष तो ही गया है लेकिन अपरोक्ष भी अनुभव किया जाये । इसलिये इतना विनम्र अर्जुन है कि वह यह नहीं कहता है कि अपना वह रूप दिखाओ बल्कि कहते है कि देखने कि इच्छा है । अर्थात मेरी इच्छा तो लेकिन जो उचित लगे तो वह रूप और ऐश्वर्य मुझे दिखाए ।।३।।

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ।।११/४।।
        हे प्रभो ! अर्थात आप तो सामर्थ्यशाली हैं यदि मेरे द्वारा देखा जाना संभव आप मानते हों तो हे योगेश्वर ! आप मुझे वह अविनाशी स्वरूप दिखाइए ।
          सब कुछ भगवान पर ही छोड़ दिया इच्छा मेरी है शेष आप जानो । यहाँ जिस प्रकार अर्जुन अपनी बात कहकर भगवान पर ही छोड़ देता है, कोई दबाव नहीं, इसी प्रकार भगवान भी अन्त में कह देंगे यथेच्छसि तथा कुरु १८/६३ अर्थात हमारे यहाँ न तो सेवक स्वामी पर और न ही स्वामी सेवक पर बलात् अपनी बात थोपते हैं । सभी अपनी अपनी बात कह देने में स्वतंत्र हैं और करने न करने के लिए भी स्वतंत्र, ये है हमारी भारतीय संस्कृति का गौरवशाली इतिहास । आज की शास्त्रीय व्यवस्था नष्ट होने के कारण तो स्थिति ही दयनीय है ।।४।।

श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।।११/५।।
            श्रीभगवान बोले― हे पार्थ ! नाना प्रकार की दिव्य रंगों और आकृतियों वाले रूपों को सैकड़ों हजारों रूपों को मेरे में अभी देखो ।

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चचर्याणि भारत ।।११/६।।
           बारह आदित्य, अष्ट वसु, एकादश रुद्र, दोनो अश्विनीकुमारों, तथा उनन्चासों मरुतों को देखो एवं हे भारत ! पूर्व में न देखे गये अन्यबहुत प्रकार के आश्चर्य देखो ।।६।।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि ।।११/७।।
        यह संपूर्ण चराचर जगत अभी इसी क्षण मेरे शरीर के एक स्थान पर हे गुडाकेश ! इसके अतिरिक्त भी जो कुछ देखने की इच्छा हो वह भी देखो ।।७।।

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य में योगमैश्वरम् ।।११/८।।
           किन्तु इन अपने चर्मचक्षुओं से मेरे दिव्य ऐश्वर्य को देखने में समर्थ ही नहीं है इसलिये तेरे को दिव्य अर्थात अलौकिक नेत्र देता हूँ जिससे मेरे योग के ऐश्वर्य को देख ।
          अर्जुन को यही पश्य मे योगमैश्वरम् ९/५ कहकर पहले योग क्या है, ऐश्वर्य क्या है इसका परोक्ष ज्ञान कराया । व्यक्ति जिस बात को पहले देखता और सुनता है उसी का मनन करता है अतः अध्याय नौ और दश में योग के ऐश्वर्य को भलीभाँति समझा और अब उसका अनुभव अलौकिक नेत्रों से करेगा । वस्तुतः आत्मा अनात्मा का विवेक न तो लौकिक बुद्धि से होता है और न ही जो इन्द्रिय गोचर नहीं है उसे प्राकृत इन्द्रियों से देखा भी जा सकता है । इसीलिये जब हम ध्यान करते हैं उस समय चर्म चक्षु को बंद करके आन्तरिक विवेक चक्षु से ही परम प्रकाश का अनुभव करते हैं  उसी बात की यहाँ पुष्टि मात्र है । साथ ही पश्य मे योगमैश्वरम् वाक्य यह भी सिद्ध करता है कि मेरे को तो कोई देख नहीं सकता केवल मेरी माया के ऐश्वर्य यानी विलास को ही देख सकता है अतः माया विलास ही अर्जुन को देखने के लिए कहते हैं । परमेश्वर को न देख पाने का कारण यह है कि वे संपूर्ण प्राणियों की आत्मा के रूप में उनके हृदय में ही रहते हैं १०/२० अतः उसे स्व से भिन्न करके देखा नहीं जा सकता वरन् अभिन्न आत्म रूप में अनुभव किया जा सकता है। ।
           यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि कुछ विद्वान यह मानते हैं कि अर्जुन के कहने से भगवान तुरन्त अपना विराट स्वरूप भावावेश में आकर उसी प्रकार दिखाने लगे जैसे एक गाय घास चरकर जंगल से लौटने पर तुरन्त वात्सल्य के कारण थनों में उतरे हुए दूध को तत्क्षण पिलाने लगती है, किन्तु अर्जुन जब उस रूप को देख नहीं सका तब दिव्य नेत्र प्रदान किये थे । यह मात्र विद्वानों की अपनी मान्यता और अतिसंयोक्ति है । इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान में भी अधिक राग है जिसके कारण विवेक खो बैठते हैं, फिर तो उनमें हम मनुष्यों की तरह द्वेष भी होना चाहिए और राग द्वेष के कारण हम मनुष्यों की ही तरह भगवान नामक जीव को भी जन्म मृत्यु के चक्कर में नष्ट होना स्वाभाविक है और उसका माया का अधिष्ठान होना, माया को अपने आधीन करके प्रकट होना, षड्विकारों से रहित और नित्यत्व एकरसत्व सिद्ध ही नहीं होता, तथापि ये आपके विचार हैं आवश्यक नहीं है कि आपके विचारों को विवेक रहित के समान मान ही लिया जाये । उपरोक्त भगवान के द्वारा कहे गये श्लोकों म़े ऐसा कहीं कुछ सिद्ध नहीं होता है कि जिससे अर्जुन को पहले विराट रूप दिखाया हो और बाद में दिव्यनेत्र दिये होंं, यह ईश्वर के भी अल्पज्ञत्व को सिद्ध करने वाला वाग्विलास मात्र है ।।११/८।।

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ।।११/९।।
        सञ्जय बोले― हे राजन् ! महायोगेश्वर भगवान् श्रीहरि ने इस प्रकार कहने के बाद पार्थ के लिए अपनी माया का श्रेष्ठ ऐश्वर्य का स्वरूप अर्थात विलास  दिखाया ।।९।।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ।।११/१०।।
         अनेक सिर, नेत्र, अनेक प्रकार के अद्भुत अर्थात आश्चर्य जनक रूपों का दर्शन किया । अनेक अलौकिक आभूषण, अलौकिक शस्त्र हाथ में उठाये  हुए ।
       उद्यत आयुध अर्थात जैसे वे सभी युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार खड़े हो इस प्राकार अपने अपने आयुध यानी शस्त्रों को हाथ में उठाये तैयार खड़े थे ।।१०।।

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ।।११/११।।
          दिव्य मालाएं, दिव्य वस्त्र पहने हुए, दिव्य पवित्र चंदान केशर आदि का लेप किये हुए सभी प्रकार के आश्चर्यमय विश्व ही जिनका मुख है जो अनन्त रूपों वाले देव हैं ।।११।।

दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ।।११/१२।।
           यदि हजारों सूर्य एक साथ आकाश में उदित हो जायें तो उन महात्मा के उस प्रकाश की समानता शायद ही हो । अर्थात हजारों सूर्योदय के एक साथ उदित होने पर भी महात्मा कृष्ण के उस तेज से तुलना नहीं हो सकती है ।।१२।।

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।।११/१३।।
         संपूर्ण जगत के विभाग पूर्वक अनेक प्रकार के रूपों को देवताओं के भी देवता भगवान कृष्ण के शरीर में उस समय अर्जुन ने एक ही स्थान में देखा ।
         भगवान ने एक ही स्थान पर देखने को कहा था उसी को यहाँ संजय ने परिपुष्ट करते हुए यह भी बता दिया कि अर्जुन भगवान के पूरे शरीर को उस समय नहीं देख सका शरीर के किसी एक ही भाग में यह सब विस्मय और भयकारी परिदृश्य देखा । इससे जो भगवान ने कहा था एकांशेन स्थितो जगत् १०/४२ उसकी भी यहाँ परिपुष्टि हो गई ।।१३।।

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषतः ।।११/१४।।
         इसके पश्चात अर्थात विराट रूप देखने पर अर्जुन के रोम खड़े हो गये एवं दोनो हाथ जोड़कर उन देव को सिर झुकाकर प्रणाम किया ।
        रोम दो प्रकार से खड़े होते हैं एक भय से, दूसरे अधिक अचिन्तनीय प्रसन्नता प्राप्त हो जाये । यहाँ अर्जुन के रोम खड़े होने का पहला कारण भय ही है जिसकी आगे स्वयं प्रव्यथितास्थाहम् ११/२३ कहकर पुष्टि करेंगे ।१४।।

अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ।।११/१५।।
        हे देव ! आपके शरीर में संपूर्ण देवताओं को तथा प्राणियों के समूह विशेष अर्थात स्थावर जंगम (जड़, चेतन) प्राणियों को देख रहा हूँ । कमल के आसन पर विराजमान प्राणियों के शासक ब्रह्मा जी, ऋषिगण, सभी दिव्य सर्पों को ।।१५।।

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ।।११/१६।।
      अनेक भुजाएं, पेट, मुख, नेत्र देख रहा हूँ । आपका सर्वत्र अनन्त रूप है, आपका न अन्त है, न मध्य है, न ही आदि है । हे विश्व के स्वामी आप को विश्वरूप देख रहा हूँ ।
          यहां पर परमेश्वर की अनन्तता का कथन किया गया है ।।१६।।

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ।।११/१७।।
          मुकुट, गदा और चक्र धारण किये हुए आपको चारों ओर से प्रकाशमान, तेज का समूह देख रहा हूँ । आपको देखना कठिन है क्योंकि चारों ओर प्रचंड अग्नि और सूर्य का प्रकाश है । आप अप्रमेय हो ।
         यहाँ अर्जुन ने अग्नि और सूर्य के प्रचंड स्वरूप से तुलना करने के बाद अप्रमेय बताया है । क्योंकि पहले द्वादश सूर्यों का उदय तो कह चुका है अतः द्वादश सूर्यों की उपमा कम पड़ने पर प्रचंड प्रलयकालीन अग्नि और प्रलयकालीन सूर्य के तपने से यहाँ तुलना करने पर भी उनका वह तेज फीका पड़ गया अतः कोई उपमा न मिलने पर अप्रमेय अर्थात अनुपमेय कह दिया । इसी बात को स्तुति करते हुए ११/४३ में पुनः अन्य विशेषणों के साथ कहेंगे ।।१७।।

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ।।११/१८।।
        आप अक्षर अर्थात षड्विकारों से रहित, जानने योग्य परमतत्त्व हो, आप ही इस संसार के एकमात्र आश्रय हो । आप अविनाशी, नित्य गुह्यतम ज्ञानस्वरूप हो, आप अनादि पुरुष हो ऐसा मेरा मत है ।
           निधान यानी सभी प्राणियों के सूक्ष्म कर्मबीजों का जहाँ संग्रह होता और भोग काल में जहाँ से प्राप्त होता है । शाश्वतधर्मगोप्ता अर्थात शाश्वत यानी नित्य, गोप्ता यानी जिसे भगवान बारंबार गुह्यतम कहते हैं और धर्म यानी ज्ञान, सनातन यानी अनादि, पुरुष यानी जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि पुरियों में शयन करने वाला सर्वात्मा । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।१८।।

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ।।११/१९।।
        आपका न आदि है, न मध्य है, न अन्त है । आपको अनन्त सामर्थ्य, अनन्त भुजाओं और चन्द्र एवं सूर्य नेत्र वाला देख रहा हूँ । आपके मुख से प्रज्वलित होने वाली अग्नि इस संपूर्ण विश्व को तपा यानी जला रही है ।
           आदि, मध्य और अन्त नहीं है यह कहकर परमेश्वर तत्त्व को देशकाल अपरिच्छिन्न बताया है ।।१९।।

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ।।११/२०।।
        क्योंकि द्यौ (ब्रह्म) लोक से लेकर पृथ्वी के बीच मे एवं सभी दिशाओं में एकमात्र आप ही व्याप्त हो । हे महात्मन् ! आपके इस अद्भुत उग्र रूप को देखकर तीनो लोक भय से व्यथित हो रहे हैं ।
          यहाँ पाताल को भी पृथ्वी के अन्तर्गत अध्याहार कर लेना चाहिए ।।२१।।

अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
 स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुन्वन्ति त्वां स्तुति पुष्कलाभिः।।११/२१।।
         क्योंकि वे देवताओं के समूह आप में प्रवेश कर रहे हैं, कोई तो भयभीत होकर हाथ जोड़कर कर गुणगान अर्थात स्तुति कर रहे हैं । महर्षियों और सिद्धों के समूह कल्याण हो ऐसा कहते हुए बहुत प्रकार की स्तुतियों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं ।
       युद्ध मनुष्यों में होना है और शास्त्र उठाये युद्ध के लिए तैयार देवताओं को देखा था ११/१० वही यहाँ पर उन्हीं को भगवान में प्रवेश होता देखने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वी का भार उतारने मानव रूप में जो देवगण आये थे उन मानवी योद्धाओं का विनाश इस प्रकार से पहले ही अर्जुन ने देख लिया, यही भाव प्रतीत हो रहा है ।।२१।।

रुद्रादित्यावसवो ये च साध्या विश्वेश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ।।११/२२।।
      एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, अष्ट वसु, उनन्चासों मरुत, उष्मपा अर्थात गर्म भोजन के आदी पितॄगण, गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्धों का समूह ये सभी आपके इस रूप को देखकर विस्मित हो रहे हैं ।।२२।।

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ।।११/२३।।
        हे महाबाहो ! आपके विशाल रूप में बहुत मुख, नेत्र, और बहुत भुजाएँ, जंघाएँ, पैर, बहुत पेट, बहुत भयंकर दाढें देखकर संपूर्ण लोक तथा मैं भी भय से व्यथित हो रहा हूँ ।।२३।।

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णोः ।।११/२४।। 
         क्योंकि हे विष्णो ! आकाश का स्पर्श करता हुआ अनेक रंगों से उद्दीप्त अर्थात जलता हुआ आपका मुख फैला हुआ है, विशाल अर्थात भयंकर नेत्र भी दीप्त हो रहे हैं अर्थात आपकी आंखों से भी मानो लपटें निकल रही हों, ऐसा भयंकर रूप देखकर अन्तरात्मा भयभीत हो रही है, न तो मैं धैर्य को धारण कर पा रहा हूँ और न ही मुझे शान्ति ही दिख रही है ।।
        विचारणीय तथ्य यह है पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत एक मात्र विराट रूप के अतिरिक्त दिशा विदिशा में अन्य कोई है नहीं ११/२० तो अर्जुन बीच में कहाँ से आ गया जो भयभीत हो रहा है ? यह भेद दृष्टि है सबमें तो परमात्मा को जीव देख सकता है किन्तु अपने में नहीं देख सकता, जिस कारण से उसके भय का निवारण कभी नहीं होता और अर्जुन की ही भांति एकमात्र परमेश्वर की शरण ग्रहण करके भी भय रहित नहीं हो पाता और धैर्य का त्याग कर योगभ्रष्ट हो जाता है । इस प्रसंग से यही शिक्षा मिलती है ।।२४।।

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ।।११/२५।।
        आपके मुख में कालाग्नि के समान प्रज्वलित अग्नि के समान भयंकर दाढें देखकर न दिशाओं का ज्ञान हो रहा है और न शान्ति प्राप्त हो रही इसलिये हे जगत के एकमात्र आश्रयस्थान प्रसन्न होइए ।।२५।।

अमी च त्वां धृतराट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ।।११/२६।।
        वे धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, सभी राजाओं के समूह आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं, भीष्म, द्रोण, तथा यह सूतपुत्र कर्ण हमारे भी प्रमुख योद्धाओं के सहित ।।२६।।

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि । 
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः  ।।११/२७।।
         आपकी भयंकर दाढों के कारण भयंकर मुख में शीघ्रता पूर्वक प्रवेश कर रहे हैं ।  किसी किसी के शिर आदि उत्तम अंग चूर्ण होकर अर्थात जगह जगह से टूटे फूटे दातों की सन्धियों फंसे हुए दिख रहे हैं  ।।२७।।

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ।।११/२८।।
        जैसे नदियों के जल का प्रवाह बहुत ही वेग से समुद्राभिमुख होकर अर्थात समुद्र की ओर दौड़ता है वैसे ही वे मनुष्य लोक के वीर यानी क्षत्रिय आपके प्रज्वलित मुख में प्रवेश कर रहे हैं ।।२८।।

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्ध वेगाः ।।११/२९।।
         जैसे प्रज्वलित अग्नि में अपने ही नाश के लिए पतंगे बड़े वेग से प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार से ही ये लोग बड़े वेग से आपके मुख में प्रवेश कर रहे हैं ।
         यहाँ पर यह बताया गया है कि जब व्यक्ति ईर्ष्या द्वेष संपन्न होता है तब विवेक रहित कार्य करता हुआ कब काल के गाल में जाता है पता ही नहीं चलता ।।२९।।

लेलिह्यसे ग्रसमाना समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ।।११/३०।।
       आप अपने जलते हुए सभी मुखों द्वारा चारों ओर से लोकों को निगलते हुए चाट रहे हों । हे विष्णो ! संपूर्ण जगत आपके तेज से परिपूर्ण होकर उग्र प्रकाश जला रहा है ।
         ग्रसमानः से यह प्रतीत होता है कि किसी को चबाये बिना ही सीधे निगल जाते हैं जैसा कि पहले भी राजाओं का सीधे मुख में प्रवेश बताया गया है । चूंकि विराट का मुख चतुर्दिक् है अतः सभी ओर जो दाढों में फंस गये, उन्हें चाट रहे हैं । जैसे सूर्य का तेज तो सूर्य में केन्द्रित होकर उसका प्रकाश लोकों को उष्णता प्रदान करता है वैसे ही विराट का तेज विराट में ही केंद्रित है तो भी उसका उग्र फैला हुआ प्रकाश लोकों को जलाये डाल रहा है ।।३०।।

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तुते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ।।११/३१।।
        हे देवश्रेष्ठ ! प्रसन्न होइए, यह नमस्कार आपके लिए है । आप उग्र रूप वाले कौन हो यह मुझसे कहो ।  युद्ध से पहले ही प्रकट हुए इस उग्र रूप के रहस्य को जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता ।
        जब कोई बल न चले तब जिससे भय हो उसी की शरण ग्रहण करने कि अनादि परंपरा है उसी का आश्रय लेकर दिशा और धैर्यहीन अर्जुन भय के कारण भगवान की ही शरण ग्रहण करके स्तुति करता हुआ प्रसन्न करके उनके स्वरूप और युद्ध से पहले ही भयंकर रूप धारण करने का अर्जुन कारण जानना चाहता है ।।३१।।

श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृतप्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ।।११/३२।।
        श्रीभगवान बोले― मैं काल हूँ, लोकों का नाश करने के लिए बढा हुआ हूँ, इस समय लोकों के नाश के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ तुम्हारे युद्व न करने पर भी जो सामने खड़े हुए विरोधी योद्धा हैं ये सभी नहीं रहेंगे अर्थात मारे जायेंगे ।
         अर्जुन के क्रमशः प्रश्नों का उत्तर देते हुए युद्ध के प्रारंभ में ही अपने इस बढ़े हुए विराट रूप का कारण लोगों यानी जो युद्ध में विरुद्ध अन्याय पक्ष में खड़े हैं इनके नाश के लिए आया हूँ । यहां गंभीर बात यह है कि ये जो विरोधी योद्धा खड़े हैं इनका नाश करने आया हूँ जिनमें भीष्म, द्रोण आदि भी सम्मिलित हैं किन्तु अर्जुन ने पहले कहा था सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ११/२६। अर्थात मेरी सेना के प्रधान योद्धाओं के साथ ये सभी आपके मुख में प्रवेश कर रहे हैं । अर्थात योद्धा तो दोनो ओर के ही मारे जायेंगे यह भी निश्चित अर्जुन ने देख लिया था जिनमें अभिमन्यु भी सम्मिलित था, फिर भगवान केवल विरुद्ध सेना के ही योद्धाओं को मारने की बात क्यों कही ? जबकि काल तो किसी भी पक्ष को नहीं छोड़ता है । भगवान् स्वयं को काल बता रहे हैं अतः बात विरुद्ध लगती है ? इसका एक ही उत्तर है कि भगवान को युद्ध तो कराना ही है जो अर्जुन के बिना संभव नहीं था । अर्जुन पहले ही शोकग्रस्त था और यदि दोनो पक्षों के सैनिकों के नाश का नाम लेते तो जो अर्जुन ने कहा था मोहोऽयं विगतो मम ११/१ तो पुनः मोहग्रस्त हो जाता और युद्ध होना कठिन हो जाता इसीलिये भगवान मात्र विरोधियों को ही मारने को कहते हैं ताकि युद्ध अबाध संपन्न हो सके ।  कुछ ऐसा ही उत्तर अन्त में अर्जुन भी आधा अधूरा उत्तर नष्टो मोहः १८/७३ में देंगे ।।३२।।

तस्मात्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।।११/३३।।
        इसलिये हे सव्यसाचिन् ! ये सभी पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं,  तुम निमित्त मात्र बनकर उठो, इन शत्रुओं को जीतकर यश को प्राप्त करो एवं समृद्ध अर्थात चतुर्दिक् शशि संपन्न राज्य का भोग करो ।
          मरे को मारो अर्थात जय और पराजय सब मुझ ईश्वर पर छोड़ो और अपने कर्तव्य का पालन करो ।।३३।।

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यान्यपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ।।११/३४।।
        द्रोण एवं भीष्म, जयद्रथ एवं कर्ण तथा और भी क्षत्रिय राजा मेरे द्वारा मार डाले गये हैं, तुम व्यथित मत हो युद्ध में शत्रुओं को जीतोगे ।
        अर्जुनने कहा था यदि वा जयेम यदि वा नो जयेयुः २/६ अर्थात यह निश्चित नहीं है कि मैं जीतूँगा अथवा ये, उसका उत्तर यहाँ भगवान देते हुए कहते हैं युद्ध तू ही जीतेगा ।।३४।।

सञ्जय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ।।११/३५।।
        संजय बोले― इस प्रकार केशव के वचन सुनकर भय से कांपता हुआ मुकुटधारी अर्जुन दोनो हाथ जोड़कर पुनः नमस्कार करके भयभीत होकर प्रणाम करके गद्गद वाणी द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोला― ।।३५।।

अर्जुन उवाच
स्थाने हृषिकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः ।।११/३६।।
        हे हृषीकेश !  आपके गुणों और लीला का गान करते हुए संसार हर्षित एवं अनुराग अर्थात प्रेम को प्राप्त हो रहा है । राक्षस लोग भयभीत होकर दशों दिशाओं में भाग रहे हैं एवं सभी सिद्धों के समूह आपको नमस्कार कर रहे हैं ।
         मूल में सर्वे दिया गया है किन्तु सिद्ध का एक ही समूह कहा गया है अतः यहाँ ऋषियों का अध्याहार कर लेना चाहिए जैसा कि स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः ११/२१ पहले कहा जा चुका है । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।३६।।

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादि कर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।।११/३७।।
       हे महात्मन् ! वे आपको नमस्कार क्यों न करें ? आप तो आप तो गुरुओं के गुरु ब्रह्मा आदि के भी कर्ता हो । हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप षड्विकारों से रहित एवं नित्य होने के कारण अक्षर हो, यह व्यक्त रूप से सत् सा दिखने वाला जगत्, और जो सामान्य लोगों की दृष्टि में न आने के कारण असत् सी दिखने वाली प्रकृति और उससे भी परे जो कुछ भी है वह आप ही हो । अथवा आप सत् यानी विधि और असत् यानी निषेध से परे जो कुछ भी शेष बचता है वह आप ही हो ।।३७।।

त्वमादि देवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमन्तरूप ।।११/३८।।
        आप आदिदेव, पुराणपुरुष हो, आप ही इस संसार के एकमात्र आश्रय स्थान हो । आप ही जानने वाले क्षेत्रज्ञ १३/२ हो, आप ही जानने योग्य हो, आप ही परमधाम अर्थात परमप्रकाश स्वरूप हो, यह संपूर्ण जगत आपकी अनन्त रूपता से विश्व व्याप्त है अर्थात विश्व में आपसे भिन्न कुछ है ही नहीं अथवा आप ही विश्वरूप हो ।।३८।।

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽतु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।।११/३९।।
        वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति और प्रपितामह ब्रह्मा जी आप ही हो । आपको नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है, हजारों बार नमस्कार करता हूँ, और पुनः नमस्कार है, फिर यह नमस्कार आपके लिए है ।
       अर्जुन ने जब विश्वरूप के प्राकट्य का लक्ष्य और अपनी विजय को समझ लिया तो प्रसन्नता से अत्यंत गद्गद हो गया है, अतः नमस्कार करते हुए तृप्ति नहीं हो रही है, इतने नमस्कारों से यही सूचित होता है ।।३९।।

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तुते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ।।११/४०।।
        आप को आगे से, पीछे से नमस्कार है, हे सर्वरूप यह नमस्कार आपके लिए सब ओर से है । अनन्त तेज वाले, अमित(अनन्त) पराक्रम वाले आपने सबको अपने में समेट रखा है इसलिये आप ही सब हो ।
          यहां द्वैतवादियों से पूछना चाहिए कि अर्जुन कहता है कि आप ही सब हो, उस सब में अर्जुन भी आता है या अर्जुन को छोड़कर सब ? यदि अर्जुन स्वयं को छोड़कर सबको कहता है तो अर्जुन झूठ बोल रहा है कि भगावन ही सब कुछ हैं । क्योंकि उसने कहा है सबको अपने में समेट रखा है तो फिर अर्जुन भगवान से बाहर खड़ा कहाँ है ? और यदि अर्जुन सहित सब कुछ भगवान हैं तो द्वैत आया कहाँ से ? अर्थात यहाँ अर्जुन ने ही द्वैत का निराकरण कर दिया ।।४०।।

 सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण् हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।।११/४१।।
       आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा इस प्रकार आपकी महिमा को न जानने के कारण मेरे प्रमाद अवथा खेल के समय भी जो कहा गया ।।४१।। 

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु  ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ।।११/४२।।
         जो विचरण करते समय, शय्या पर यानी एक साथ सोते हुए अवथा आपकी शय्या पर आपकी महिमा जानने के बराबर बैठने में, भोजन के समय मेरे द्वारा जो हास-परिहास किया, अकेले में अथवा बहुत लोगों के बीच में तिस्कार या अपमान किया गया है, हे अच्युत ! वह सब आप क्षमा करने के योग्य हो अर्थात क्षमा करो ।
         अवसाहार्थं अर्थात हास-परिहास― गांव की भाषा में हंसी-मजाक, दिल्लगी । असत्कृत यानी अपमान करना ।।४२।।

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्भ्यभिधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ।।११/४३।।
         आप इस जड़, चेतन जगत के पिता हो, गुरुओं के गुरु और पूज्य हो । आपके समान कोई नहीं है फिर अधिक कैसे हो सकता है ? तीनो लोकों में आपका प्रभाव अप्रतिम है अर्थात उपमा रहित है ।
        जो जीव को ब्रह्म के समान मानते हैं उनको इस श्लोक पर विचार करना चाहिए ।।४३।।

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ।।११/४४।।
       इसलिये आप पूजने योग्य ईश्वर की प्रसन्नता के लिए शरीर को पृथ्वी पर गिराकर अर्थात साष्टांग प्रणाम करके जैसे पिता पुत्र के, मित्र मित्र के, प्रेमी अपनी प्रेमिका अर्थात पति अपनी पत्नी के अपमान सह लेता है वैसे ही हे देव ! आप मेरे अपराध सहने के योग्य हैं । अर्थात वे अपराध आपसे क्षमा करवाता हूँ ।
        मनुष्य का स्वभाव है कि किसी की महिमा या महत्व जाने बिना समझाने पर भी मानता नहीं और अपमान करता ही है और बाद में पछताता है ऐसे ही अर्जुन को भगवान की महिमा का अब जब ज्ञान हुआ तो पछतावा हो रहा है ।।४४।।

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देवरूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ।।११/४५।।
       जो पहले कभी नहीं देखा उसे देखकर प्रसन्न हो रहा हूँ और मन भय से व्यथित भी हो रहा है इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइए, मुझे वही देवरूप दिखाइये ।
         वही का अर्थ क्या है वह आगे समझ में आयेगा । यहां तो इतना समझना चाहिए कि जिस रूप का भी पहले दर्शन किया उसी के विषय में ‛वही’ कहा है ।।४५।।

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्र बाहो भव विश्वमूर्ते ।।११/४६।।
        मुकुट पहने हुए, गदा और चक्र हाथ में लिए हुए आपके उसी रूप को ही मैं देखने की इच्छा करता हूँ । हे सहस्रबाहो ! हे विश्वरूप ! उसी चुर्तुभुज रूप वाले ही हो जाइए ।
          यहां केवल गदा और चक्र हाथ में लेकर और चार भुजाओं का वर्णन किया गया है, शेष दो पर मतभेद हैं । हमने श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में अन्य दो हाथों में लगाम और चाबुक का श्लोक बावन एवं अध्याय बारह की भूमिका में वर्णन कारण सहित किया है वहीं देख लेना चाहिए ।।४६।

श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ।।११/४७।।
        श्रीभगवान बोले― हे अर्जुन ! मेरी प्रसन्नता से तुमने यह विराट रूप श्रेष्ठ आत्मयोग के द्वारा देखा । यह तेजोमय विश्वरूप अनन्त सबका आदि है तुम्हारे से अतिरिक्त पहले और किसी ने नहीं देखा ।
         यहाँ आत्मयोगात् भगवान ने कहा है जिसमें आत्म स्वरूप तो स्वयं ब्रह्म है और योग माया शक्ति है । अर्थात मुझसे अभिन्न मेरी माया के द्वारा यह विराट स्वरूप जो आदि अन्त से रहित है दिखाया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि मेरी सत्तामात्र से यह जो भी मेरी अनन्तता का अनुभव किया यह माया ही है, मैं नहीं । इससे यह सिद्ध होता है जब तक माया स्वयं परमेश्वर का ज्ञान नहीं कराती है, तब तक उसका ज्ञान नहीं होगा । इसके लिए लिए परमात्मा अर्थात सर्वात्मा की शरण ग्रहणा करना चाहिए ७/१४ । परमात्मा एक आधार बन जाता है और समयानुसार ज्ञान भी उसकी कृपा से १०/१० हो जाता है इसी बात को आगे ११/५४ में स्पष्ट करेंगे ।।४७।।

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन करुप्रवीर ।।११/४८।।
        हे कुरुवंश के श्रेष्ठ वीर ! तुम्हारे अतिरिक्त न वेदों और यज्ञों के अध्ययन से, न दान से, न क्रियाओं से, न उग्र तप से ही इस प्रकार का विराट रूप को मनुष्य लोक में देखने में कोई समर्थ है । अर्थात यह रूप तूने ही देखा है इससे पहले किसी ने नहीं देखा ।
       इस कोई शंका कर सकता है कि वह विराट रूप व्यास जी और संजय ने भी देखा तो भगवान यह कैसे कह सकते हैं कि अन्य ने नहीं देखा ? तो इस उत्तर यह है कि व्यास जी त्रिकालज्ञ और साक्षात् स्वयं विष्णु का ही कृष्ण की ही तरह अवतार थे, अतः स्वयं तो स्वयं को देख ही सकते हैं, अतः यहाँ विरोध नहीं है । संजय को व्यास जी ने ही दिव्य दृष्टि दी थी मतलब स्वयं श्रीकृष्ण की इच्छा से ही वह रूप देखा । जैसे भगवान अर्जुन को कहते हैं तूने मेरी प्रसन्नता से यह विराट रूप देखा, वैसे ही संजय को अपनी प्रसन्नता से ही दिव्य दृष्टि देकर अपना विराट स्वरूप दिखाया, अतः यहाँ भी कोई विरोध नहीं है ।।४८।।

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।।११/४९।।
        तू व्यथित मत हो, मूढभाव को मत प्राप्त हो, मेरा यह विराट रूप देखकर भय को त्यागकर प्रसन्न मन से तू पुनः मेरा वही यह चतुर्भुज रूप भलीभांति अर्थात स्वस्थ होकर देख ।।४९।।

सञ्जय उवाच
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।।११/५०।।
       संजय बोले― इस प्रकार अर्जुन से भगवान वासुदेव कहकर वही (ऊपर कहे के अनुसार) अपना चतुर्भुज रूप दिखाया तथा पुनः महात्मा कृष्ण ने सौम्य अर्थात मानुषी रूप होकर भयभीत अर्जुन को आश्वासन दिया ।
        आश्वासन देने का मतलब अर्जुन का अपनी विजय पर जो संदेह था उसका निवारण किया कि चिन्ता मत करो विजय तुम्हारी ही निश्चित है ।।५०।।

अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ।।११/५१।।
        अर्जुन बोले― हे जनार्दन ! यह आपका शान्त मानुषी रूप देखकर इस समय स्वस्थ चित्त हो गया अर्थात स्थिर हो गया हूँ मेरा मोह चला गया है ।
         यहाँ संवृत्तः सचेताः का अर्थ होता है― स्थिर चित् होना । तो जब स्थिर चित्त हो गया तो फिर अलग से प्रकृतिं गतः का अर्थ अपनी स्वाभाविक प्रकृति को प्राप्त होना, यह कहना कुछ समझ में नहीं आता है तथापि आचार्य शंकर सहित अन्य कई विद्वानों ने यह अर्थ किया है तो ठीक ही किया होगा । विद्वानों को समझने का अधिकार चाहिए, संभवतः वह मेरा अधिकार ही कम पड़ गया । शंकरानंद जी ने प्रकृतिं गतः का अर्थ जो विराट रूप को देखकर भय के कारण स्थिरता नष्ट हो गई थी वह स्थिर होते ही स्वतः वापस स्वभाव की प्राप्ति हो जायेगी और स्थिरता तो तब होगी जब पहले मोह नष्ट होगा । अर्जुन ने अध्याय के प्रारंभ में ही कहा था मोहोऽयं विगतो मम ११/५५ अर्थात मेरा मोह नष्ट हो गया है उसी की भगवान का मनुषी रूप देखकर और आश्वासन प्राप्त करके यहाँ पुनरावृत्ति अर्जुन करते हुए कहते हैं कि आपका आश्वासन पाकर मेरा मन पुनः स्थिर हो गया है । विराट रूप के दर्शन से जो मेरा को मोह प्राप्त हुआ था वह चला गया यानी नष्ट हो गया यह अर्थ प्रकृतिं गतः का मुझे अभीष्ट है ।।५१।।

      श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टमानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ।।११/५२।।
         श्रीभगवान बोले― मेरा यह जो गदा चक्र, चाबुक और लगाम वाला चतुर्भुज रूप तुमने देखा यह अत्यंत दुर्दर्श है अर्थात देख पाना अत्यंत दुर्लभ है । इस रूप की देवता भी नित्य दर्शन करने की इच्छा करते हैं ।।५२।।

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शाक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ।।११/५३।।
        जैसा चतुर्भुज रूप तुमने देखा इस प्रकार का मेरा रूप न वेदाध्ययन से, न शारीरिक तप से, न दान से, न यज्ञ से ही देखा जा सकता है ।।५३।।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।।११/५४।।
        हे अर्जुन ! इस प्रकार के रूप वाला मैं अनन्य भक्ति से देखा जा सकता हूँ । हे परन्तप ! आचार्य एवं श्रुति से जानकर समझ कर तत्त्व में प्रवेश कर ।
        इस श्लोक के पूर्वार्ध में सगुण साकार का वर्णन करता है । यद्यपि आचार्यों की अपनी अपनी टीकाएं अपना अपना मत प्रस्तुत करती हैं तथापि यहां ‛एवं विधः’ अर्थात इस प्रकार का रूप― इस प्रकार यानी जो पहले कहा गया वह चाहे कोई विराट रूप समझें या चतुर्भुज । अनन्य भक्ति यानी अपने आपको पूर्णतः सगुण सकार आराध्य के अर्पण कर देना, अपनी कोई महत्वाकांक्षा न होना, यही है अनन्य का मतलब ।
           कहते कि अर्जुन और दुर्योधन दोनो ही कृष्ण से युद्ध में सहायता मांगने गये, तो कृष्ण ने शर्त यह रखी कि एक ओर हमारी संपूर्ण नारायणी सेना रहेगी और दूसरी ओर शस्त्र रहित मैं । मैं युद्ध नहीं करूंगा । अब पहले अर्जुन से मागंने को कहा तो अर्जुन ने कृष्ण को ही मांग लिया । बाद में पूछने पर बताया कि मुझे न युद्ध से मतलब है और न विजय से । मैं तो अपनी जीवन डोरी आपको ही सौपने आया हूँ । मेरे रथ के सारथी बनकर मेरी जीवन डोरी आप ही संभालिए । इस प्रकार जीवन की डोरी का यह प्रतीक लगाम और अनुशासन का नाम चाबुक एवं दूर के शत्रुओं के नाश के लिए जो आधिदैविक, आध्यात्मिक हैं उनके लिए चक्र और पास के शत्रुओं के लिए यानी आधिभौतिक तापों के नाश के लिए गदा । इस प्रकार का चतुर्भुज रूप तो अर्जुन की तरह आप ही सब जानो करके समर्पित करने वाला ही देख सकता है अन्य नहीं ।
           श्लोक के उत्तरार्ध में यह कहते हैं कि चाहे विराट रूप देखो या चतुर्भुज रूप देखो, है तो मेरा आत्मयोग अर्थात मेरी अभिन्न माया का ही रूप । मुझे देखना अर्थात समझना है तो आचार्य के पास जाकर तद्विद्धि प्रणिपातेन ४/३४ आदि के माध्यम से श्रुति के माध्यम से साधन चतुष्टय संपन्न होकर मेरे स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करो और ज्ञान प्राप्त करके फिर उसको देखो अर्थात साक्षात्कार करो और फिर मुझ परमतत्त्व में प्रवेश कर जाओ । इस प्रकार मुझसे अभिन्न होकर ही मुझे आत्मरूप से ही देखा जा सकता है, भिन्न नहीं ।।५४।।

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।।११/५५।।
        मेरे लिए कर्म करो, एक मात्र मेरे परायण हो जा, मेराभक्त हो जा, अनात्मपदार्थ नामक विषयों और कर्मों की आसक्ति का त्याग कर दे । हे पाण्डुपुत्र ! संपूर्ण प्राणियों से वैर रहित अर्थात निर्भय हो जा और निर्भय कर दे, इस प्रकार का जो मेरा भक्त है वह मुझे ही प्राप्त होगा ।।५५।।

            समीक्षा― इस अध्याय में अर्जुन ने प्रत्यक्ष अनुभूति करके परमेश्वर को जीव से अभिन्न अवथा जीव को परमेश्वर से अभिन्न अनुभव किया और जाना वेत्तासि वेद्यम् ११/३८ अर्थात सब कुछ जानने वाला सर्वज्ञ अर्थात क्षेत्रज्ञ १३/२ एवं जानने योग्य परम् तत्त्व परमेश्वर ही हैं । फिर शंका होता है कि जब अर्जुन ने क्षेत्रज्ञ रूप से परमात्मा को जान लिया तो भयभीत क्योंकि हुआ ? इसका उत्तर यह होगा कि अर्जुन एकमात्र परम् तत्त्व परमात्मा को यह तो जान लिया की यह परम् तत्त्व मैं के अर्थ रूप आत्मा ही है तथापि परिच्छिन्नता नहीं मिट सकी । उसी परिच्छिन्नता के कारण भय उत्पन्न हुआ, क्योंकि श्रुति भी कहती कि― ‘दो से ही भय होता एक अकेले नहीं’ उसी अपरिच्छिन्नता के नाश हेतु से पहले अध्याय छः तक त्वम् पदार्थ का अनुभव कराकर यहाँ तत् पदार्थ का अनुभव कराया । उसके बाद भगवान ने अपरिच्छिन्नता मिटाने के लिए ही श्रुत्याचार्य के माध्यम से तत्त्व का स्वरूप समझकर उसमें प्रवेश अर्थात अभिन्न होने की बात कहते हुए संपूर्ण कर्मों और फलों से असंग, निर्वैर, और परमेश्वर के परायाण होकर ही सभी कर्म एकनिष्ठ होकर करने की आज्ञा प्रदान की । शेष अगले अध्याय में... ।।१-५५।।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः ।।११।।

हरिः ॐ तत्सत् !                    हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत्!!!
    श्रीकृष्णार्पणमस्तु

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