गीता समीक्षा अध्याय १६
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ षोडषोऽध्यायः
पूर्वाध्याय में यद्यपि भगवान ने अपने उपदेश को ‘इति’कहकर विश्राम दे दिया तो भी साधनों की दृष्टि अभी उन तथ्यों की पहचान शेष रह गयी है जिनके कारण साधक अपने निर्धारित लक्ष्य से भटक जाता है । तुलसीदास जी कहते हैं― संग्रह त्याग न बिनु पहचाने । अर्थात यद्यपि संपूर्ण सृष्टि ब्रह्ममय है तो भी सिद्ध तो स्वरूप स्थित है, अतः उसकी तो कोई बात ही नहीं किन्तु साधक जो अभी स्वरूपस्थ नहीं हुआ है उसे संसार में दुःख भी देखना चाहिए और दोष भी दुःखदोषानुदर्शनम् १३/८ इसलिये हमारे लिए सुखदायी का संग्रह और दुःखदायी का त्याग आवश्यक है । साधक में प्रत्येक वह वृत्ति सुखदायी है जो सिद्ध का स्वभाव है । उसकी साधना करना चाहिए, उसी का संग्रह करना चाहिए । उससे भिन्न का त्याग करना चाहिए । इसी दृष्टिकोण को लेकर अध्याय सात में कहा था कि दैवी ह्येषागुणमयी ७/१४ मेरी माया दैवी गुणों से संपन्न है इसका आश्रय लेकर जो मेरी शरण लेते हैं वे माया अर्थात प्रकृति को पार कर जाते हैं । दूसरी बात कहा― मम माया दुरत्यया ७/१४ अर्थात मेरी दुर्लंघ्य है । यह किसके लिए है ? इसके लिए कहते हैं― न मां दुष्कृतिनो मूढः प्रपद्यन्ते नराधमाः ७/१५ अर्थात जो दुष्कृती हैं अर्थात मेरी दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर जिन्होंने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त न करते हुए मेरी शरण ग्रहण नहीं की है उनके लिए मेरी माया दुर्लंघ्य है ।
हम यहाँ यह बताना चाहते हैं कि यद्यपि माया और प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तथापि पहलू दो हैं एक तो नहीं है न…? यहाँ जिस प्रकृति को दैवी और गुणवाली कहा, है तो यह प्रकृति ही परमेश्वर का या सिद्ध का स्वभाव है जो परमेश्वर/आत्मस्वरूप की ओर स्वतः अग्रसर करता है, जबकि माया भ्रमित करती है और जितना उसका बल चलता है उतने प्रयत्न से मुमुक्षु को भ्रष्ट करने में लगी रहती है । यह दोनो प्रकृति और माया में थोड़ा अन्तर है । चूंकि सिक्का एक ही है और कोई न कोई एक पहलू ही सामने होगा दोनो ही हो नहीं सकते । इसलिये दैवी गुणों की बड़ी महिमा शास्त्रों में कही गई है जिसका वर्णन अध्याय दो में स्थित प्रज्ञ के लक्षण, अध्याय दश में बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः १०/४-५ आदि से विभूति रूप से, अध्याय बारह में ज्ञानीभक्त के लक्षण, अध्याय तेरह में ज्ञान नाम से और अध्याय चौदह में त्रिगुणातीत के लक्षणों के रूप में विस्तार से कहा गया है ।
इन दैवी गुणों का यदि परमेश्वर की शरण लिये बिना ही आश्रय लिया जाये तो ये भी सुख और ज्ञान में आसक्ति उत्पन्न कराकर उसमें ही बांध देती हैं । जिससे उच्चयोनियों को बारंबार प्राप्त होकर उसी में लगे रहो और कहीं थोड़ा भी प्रमादवश धोखा हुआ तो सातों पाताल के नीचे चले गये । इसलिये देव के स्वभाव यानी प्रकृति का आश्रय देव की शरण लिये बिना लिया तो देव प्रसन्न नहीं हो सकते और पतन निश्चित है । जैसे किसी का किसी पुरुष से कोई मतलब नहीं और उसकी पत्नी से चोली-दामन की तरह दोस्ती हो तो क्या होगा ? मारकाट….! यही यहाँ समझना चाहिए । अतः प्रकार दैवी संपत्ति का आश्रय लेने वाला भी परमेश्वर की शरणागति के बिना अजितेन्द्रिय जैसा ही दुष्कृति होता है । अतः वह निस्त्रैगुण्य २/४५ नहीं हो सकता है ।
यदि हम ऐसा नहीं करेंगे इन्द्रियों पर विजय नहीं प्राप्त करेंगे तो हम दुष्कृती अर्थात अजितेन्द्रिय होंगे और अजितेन्द्रिय होने पर उसी देव से अभिन्न माया जो सबको अपनी ओर आकर्षित करके संसार चक्र चला रही उसके द्वारा मेरा हरण कर लिया जायेगा और हम एक मात्र प्राण पोषक आसुर भाव को प्राप्त हो जायेंगे― माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ७/१५, तो आसुरी भाव से प्राप्त होने से क्या होगा ? इससे यह होगा कि हमारी प्रत्येक आशा, प्रत्येक कर्म, और व्यर्थ के ज्ञान वाला हो जायेगा अर्थात सब स्वार्थपरता वाला हो जायेगा जिससे हमारी बुद्धि माया द्वारा मोहित होने के कारण नष्ट हो जायेगी, फिर हम वह कहेंगे जो नहीं कहना चाहिए और वह करेंगे जो नहीं करना चाहिए अर्थात वही आसुरी भाव ही हमें राक्षस बना देगा । फिर हम वही करेंगे जो राक्षस परंपरा है― मानहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन ते करवावहिं सेवा । जिन्हके अस आचरन भवानी । तेइ निसिचर जानेहु सब प्रानी ।। ऐसी स्थिति आ जायेगी जिसका फल क्या होगा ? जो भी होगा इसी अध्याय के उन्नीसवें और बीसवें श्लोक में बता दिया जायेगा ।
अतः इसी पहचान के लिए पीछे सांकेतिक रूप से कहे गये प्रसंग को यहाँ पहचान के लिए कहा जाता है जिससे साधक अपने जीवन को जो त्याज्य है उसे त्याग कर और जो ग्राह्य से उसे ग्रहण करके अपना जीवन सार्थक कर सके । दैवी संपत्ति का कोई लक्षण शेष छूट न जाये इसलिये पीछे विस्तार से कहने के बाद भी पहले तीन श्लोकों में दैवी संपत्ति के लक्षण कहते हैं―
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्तवसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायं तप आर्जवम् ।।१६/१।।
श्रीभगवान बोले― निर्यभता, बुद्धि का भलीभांति शुद्ध होना, ज्ञानयोग में भलीभांति स्थित, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय तप, सरलता ।
इस श्लोक के पूर्वार्ध में सर्वप्रथम जो साध्य होना चाहिए वह बताया है, इस निवृत्ति मार्ग की सबसे पहली साधना है निर्भयता इसीलिये संन्यास में सबसे पहली प्रतिज्ञा करायी जाती है― अभयं सर्वभूतेभ्यः ददाम्येतद्व्रतं मम अर्थात मेरा यह व्रत है कि संपूर्ण प्राणियों को निर्भय करता हूँ यह दान ही नहीं महादान है निर्भयता । जब तक हमसे दूसरा निर्भय नहीं हो जाता है तब तक मुझे भी भय रहेगा ही । अतः पहला साध्य है निर्भायता । दूसरा साध्य है बुद्धि का भलीभांति शुद्ध होना, क्योंकि शुद्धबुद्धि ही सत्,असत्, आत्मा अनात्मा का विवेक कर सकेगी तभी वैराग्य प्रबल होगा और जब प्रबल वैराग्य होगा तभी आत्मनिषठा बनेगी । अतः तीसरा साध्य होगा ज्ञानयोग अर्थात आत्मा में भली प्रकार स्थित होना, अपने व्यापक स्वरूप में स्थित होना । ये क्रमशः मुमुक्षु के तीन साध्य हैं ।
इन साध्य के साधनों का इस श्लोक के उत्तरार्ध से लेकर तीसरे श्लोक के पूर्वार्द्ध तक साधन बताये जा रहे हैं जिससे साध्य की प्राप्ति होगी― दम का अर्थ है इन्द्रिय दमन, यज्ञ की व्याख्या अध्याय तीन-चार में कर चुका हूँ, स्वाध्याय का अर्थ श्रुति और आचार्य के उपदेशों का निरंतर मनन करना और तप की व्याख्या अध्याय सत्रह में आयेगी । आर्जवम् का सहजभाव का होना, छोटे अबोध बच्चे की तरह सरलता ।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ।।१६/२।।
अहिंसा, सत्य, क्रोध रहित, त्याग, शान्ति, चुगुली न करना, प्राणियों पर दया, लालच रहित, मार्दवं यानी हृदय की कोमलता अर्थात विनम्रता, कर्तव्य का पालन करने पर भी प्रशंसा पाने में संकोच, और चंचलता रहित अर्थात एकाग्र वृत्ति ।।२।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।१६/३।।
तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर भीतर की पवित्रता, झगड़ा न करना, अधिक सम्मान की अपेक्षा न रखना, हे भरतवंशी अर्जुन ! ये सभी गुण दैवी संपत्ति को लेकर उत्पन्न हुए व्यक्ति में होते हैं ।
अतिमानितः का अर्थ यह है कि इस प्रकार रहे कि जो कार्य करे उसमें कोई मेरी प्रशंसा करे यह भाव नहीं होना चाहिए, यदि कोई प्रशंसा करता है तो उसमें संकोच होना चाहिए । इसलिये कहा कि अधिक सम्मान की इच्छा न करे क्योंकि व्यक्ति का यदि निरंतर अपमान होता रहे तो व जी भी नहीं सकेगा, शीघ्र चिन्ता से ही मर जायेगा अथवा आत्महत्या कर लेगा, इसलिये अतिमानी नहीं होना चाहिए यह साधक को विशेष ध्यान रखना चाहिए । यह इसका भाव है । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।३।।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।।१६/४।।
हे पार्थ ! दंभ, दर्प यानी घमंड और अभिमान एवं क्रोध तथा कठोता भी, और अज्ञान ये आसुरी संपत्ति को लेकर उत्पन्न हुए मनुष्य के लक्षण हैं ।।४।।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ।।१६/५।।
दैवी संपत्ति संसार के बन्धनों से मुक्ति के लिए और आसुरी संपत्ति बन्धनकारी मानी गई है । हे पाण्डव तू दैवी संपत्ति को लेकर उत्पन्न हुआ है इसलिये शोक मत कर ।
जो संसार बंधन से मुक्त करे वह दैवी संपत्ति ग्राह्य है और जो बंधन करे वह आसुरी माया त्याज्य है । अर्जुन के बहाने कृष्ण मुमुक्षुओं को संदेश देते हैं कि जिनका संबंध मुझ सर्वात्मा से हो गया है वे दैवी संपत्ति वाले ही हैं, अतः उन्हें शोक बिल्कुल नहीं करना चाहिए । इसी का स्पस्टीकरण करते हुए ही १८/६६ में शोक न करने की बात कहते हैं । यह इसका भाव है ।।५।।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ।।१६/६।।
और हे पार्थ । इस संसार में दो प्रकार के प्राणियों की ही सृष्टि है― दैव और आसुर । दैवी संपत्ति वालों का विस्तार से वर्णन कर दिया (अवतरणिका देखें) अब आसुरी संपत्ति वालों को सुन ।।६।।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।।१६/७।।
प्रवृत्ति क्या है ? निवृत्ति क्या है ? आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य यह भी नहीं जानते । तथा उनमें न तो पवित्रता होती और न ही श्रेष्ठ आचरण ही होता है । उनमें सत्य तो होता ही नहीं है ।।७।।
असत्यमप्रतिठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ।।१६/८।।
वे आसुरी प्रकृति वाले कहते हैं कि जगत की कोई प्रतिष्ठा अर्थात मर्यादा नहीं है, यह तो बिना ईश्वर के है अर्थात कोई ईश्वर नहीं है इसलिये सब (यज्ञ, दान, तप आदि) झूठ है । परस्पर स्त्री-पुरुष के संयोग से अपने आप उत्पन्न हुआ जागत है उसमें भी स्वाभाविक ही काम हेतु है । इसके अतिरिक्त अन्य क्या कारण हो सकता है ? अर्थात जगत् की उत्पत्ति का कारण स्त्री-पुरुष के संयोग से अतिरिक्त कोई और ईश्वर आदि कारण नहीं है, क्योंकि ईश्वर है ही नहीं ।।८।।
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ।।१६/९।।
इस प्रकार की दृष्टि यानी विचारों का आश्रय लेने के कारण नष्ट यानी लोक परलोक से भ्रष्ट हो चुके हैं । ये अल्पबुद्धि वाले हिंसा आदि उग्र कर्म करने वाले अकारण ही दूसरे का अहित करने वाले संसार के नाश के लिए ही उत्पन्न होते हैं ।।९।।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ।।१६/१०।।
कभी पूरे न होने वाले काम (कामनाओं) का आश्रय लेकर दंभ से, अभिमान से और घमंड से भरकर अपवित्रता का व्रत करने वाले मोह(अज्ञान) के कारण दुराग्रही होकर विचरण करते हैं ।।११।।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ।।१६/११।।
प्रलयान्ताम् यानी मृत्युपर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेकर शिश्नोदर के भरण पोषण को ही परम सुख मानने वाले ‘बस इतना ही जगत है । यही सब कुछ है, इससे भिन्न कोई स्वर्ग, नर्क या ईश्वर नहीं है’ ऐसे दृढ निश्चय वाले होते हैं ।।११।।
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ।।१६/१२।।
सैकड़ों आशाओं की फांसियों पर लटके हुए कामक्रोध के आधीन रहने वाले शिश्नोदर से संबंधित वस्तुओं का संग्रह करने की ईच्छा वाले अन्याय से भी धन संग्रह करते हैं ।।१२।।
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।।१६/१३।।
यह मेरे द्वारा प्राप्त लिया गया है और यह मनोरथ भी प्राप्त कर लूंगा । इतना धन मेरे पास है एवं इतना और भी हो जायेगा ।।१३।।
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।।१६/१४।।
यह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया है और उस दूसरे को भी मार डालूंगा । क्योंकि मैं समर्थ हूँ, भोगों पर मेरा अधिकार है, मैं सर्वसमर्थ हूँ, बलवान हूँ, सूखी हूँ ।।१४।।
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।।१६/१५।।
मैं धनवान हूँ, मेरे पास जनबल है, मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूंगा, दान दूंगा, प्रसन्न रहूंगा । इस प्रकार के अज्ञान से मोहित रहते हैं ।।१५।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।।१६/१६।।
अनेक प्रकार की कामनाओं से भ्रमित, भलीभांति मोह के जाल में फंसे हुए, शिश्नोदर पोषण में अत्यंत आसक्त रहने वाले ये असुर अपवित्र नरक में गिरते हैं ।।१६।।
आत्मसत्सम्भाविताः स्तब्धाः धनमानमदान्विताः ।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ।।१६/१७।।
अपने आपको सम्मानित, पूज्य मानने वाले, स्तब्ध यानी अकड़ रखने वाले, विनय रहित, धन, अभिमान, घंमड से भरे हुए वे मनुष्य दंभ अर्थात पाखंड पूर्ण विधि रहित मनमानी ढंग से नाम मात्र के यज्ञ का यजन करते हैं ।।१७।।
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ।।१६/१८।।
अहंकार, बल, घमंड, काम तथा क्रोध, के आश्रित रहने वाले दूसरे शरीर में रहने वाले मुझ सर्वात्मा से ही द्वेष करने वाले, दूसरों में दोष देखने वाले ।
अहंकार का मतलब आता-जाता कुछ नहीं और बात बात में ‘मैं मैं’ करने की आदत, काम का मतलब स्त्री विषयक काम, सभी प्राणियों मैं ही आत्म रूप से रहता हूँ इस बात से अनभिज्ञ दूसरों को अनावश्यक पीड़ा देना, और भगवान की गीता आदि उपदेश के विरुद्ध ही भगवान से द्वेष करना है, सद्मार्ग में प्रृवृत्ति साधु सन्तो में जो हैं ही ऐसे दोषों को आरोपित करना ऐसे दोषों का अनुसंधान करने वाले । शेष का अर्थ स्पष्ट है ।।१८।।
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।।१६/१९।।
संसार में ऐसे क्रूरकर्मा उन मुझसे कहा द्वेष करने वाले नराधमों (मनुष्य रूप में अधम यानी पशु सर्प आदि आधम योनि वाले) को निरंतर आसुरी योनियों में ही डालता रहता हूँ ।
आगे त्रिविध नरक का वर्णन आ रही और यहाँ अशुभ योनियों में डालने की बात कहा है । इसका मतलब यह हुआ कि वे ऐसी पापकर्मा योनियों को प्राप्त होते हैं जहाँ जाकर जन्म से ही पाप करें और नरक जायें, वहां से निकलें फिर ऐसी ही योनि में जाकर नरक जायें और इस प्रकार यहाँ पर कहे गये अजस्र का तात्पर्य निरंतरता बनी ही रहती है कभी समाप्त न होने वाली इस अशुभ निरंतरता को प्राप्त होते हैं यही बात बातने के लिए अजस्रमशुभान् पद दिया गया है । तात्पर्य यह है कि नरक प्राप्ति मार्ग रूप योनियों को प्राप्त होते रहते हैं ।।१९।।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।।१६/२०।।
ऐसे मूढबुद्धि जन्म-जन्मांतर आसुरी योनि को प्राप्त करते हैं । हे कुन्तीपुत्र ! मुझे प्राप्त न करके वे उससे भी अधिक अधम गति को प्राप्त करते हैं ।
उन अधम योनियों में, श्रुति, शास्त्र, आचार्य, साधन चतुष्टय का अभाव होने से भगवान की प्राप्ति हों नहीं सकती तो जिस पहले अधम योनि में थे वे उससे भी अधम योनि को प्राप्त होते हैं, जैसे पहले कोई हिंसक मनुष्य था तो उसमें भी क्रमशः निम्न से निम्न योनियों को, शेर गीदड़ आदि पशु, तो गिद्ध चील आदि पशु, सर्प बिच्छू, आदि योनियों के क्रम से निम्न से योनियों जाते रहते हैं । उनकी कभी मुक्ति नहीं होती ।
सारांश― परमात्मा ही सर्वात्मा है उसे आत्म रूप से न जानना ही आत्महत्या है इसी दृष्टिकोण को लेकर कहा था कि न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् १३/२८ अर्थात जो अपनी आत्महत्या नहीं कर लेता है वह संपूर्ण प्राणियों में सर्वत्र समान रूप से स्थित मुझ परमेश्वर को सभी प्राणियों में समान रूप से देखता है, इसके पश्चात वह परमगति को प्राप्त करता है । इसी बात को और अधिक यहाँ स्पष्ट करते हैं कि मामप्राप्यैव अर्थात मुझे प्राप्त न करके ही नरक एवं अधमाधम गति को जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि परमेश्वर को प्राप्त करना ही मनुष्य मात्र का लक्ष्य है । ऐसा न करने वाला समान रूप से संपूर्ण प्राणियों में स्थित मुझ परमेश्वर को इसलिये नहीं देख सकेगा कि वह स्वयं में भी आत्म रूप से स्थित मुझ परमेश्वर को नहीं देखता इसीलिये सर्वत्र उसके क्रूरकर्मा हो जाते हैं यही आत्महत्या जो संसार का सर्वाधिक बड़ा पाप कहा गया है और ऐसा आत्महत्यारा नरक को जायेगा ही । यह इसका भाव है ।।२०।।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।१६/२१।।
आत्मनाश अर्थात विवेक के नाश करने वाले नरक के तीन द्वार अर्थात मार्ग हैं― काम, क्रोध, तथा लोभ, इसलिए प्रयत्नपूर्वक इन तीनों को त्याग देना चाहिए ।
अध्याय २/६२ में काम का हेतु विषयों का चिन्तन बाताया गया है अध्याय ३/३६ में काम क्रोध को ही प्रधान माना गया है और अन्त में काम नाश३/४३ के लिए कहा गया है । वस्तुतः विषयों का चिन्तन यानी भोगों की कामना ही क्रोध और लोभ का जाननी है । अतः भोगलिप्सा का मन से त्याग कर देना ही काम का नाश कहा गया है इसी को सङ्कल्पप्रभान्कान् ६/२४ संकल्प यानी मन में भोग की इच्छा के उत्पन्न होते ही काम की उत्पत्ति हो जाती है, इसलिए त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ६/२४ अर्थात उन सभी कामनाओं को अशेष रूप से त्याग दे अर्थात मन से उनका स्मरण करना ही बंद कर दे । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ यही उपाय एकमात्र है इन तीनो नरक के मार्ग के त्याग का । यह इसका भाव है ।।२१।।
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ।।१६/२२।।
हे कौन्तेय ! इन तीनो तमोद्वार अर्थात नरक द्वार से मुक्त होकर अर्थात त्यागकर मनुष्य श्रेष्ठ आत्मामार्ग का आचरण करे, इसके पश्चात परम् गति को प्राप्त कर लेता है ।
तीनो नरक मार्ग का त्याग करने के बाद श्रेष्ठ आत्ममार्ग का आचारण करने का तात्पर्य यह है कि जिन साधनों के माध्यम से सभी प्राणियों में स्थित आत्मा को अपने में और उसके पश्चात उन प्राणियों के सहित स्वयं को भी मुझमे अर्थात मुझसे अभिन्न देखता है― येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ४/३५ अर्थात जिससे तू सभी अशेष यानी जड़ चेतन प्राणियों को मुझमें देखेगा, फिर स्वयं को मुझमें देखेगा, यही श्रेय प्राप्त का श्रेष्ठ मार्ग है । जब इस प्रकार सभी प्राणियों के अन्दर सन्निहित आत्मा को और मुझको अपने अभिन्न एकमेवाद्वितीम्, पूर्णमदः पूर्ममिदं, वासुदेवः सर्वम्, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, आयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मामि की जीते जी अस्मि रूप में अनुभव करता हुआ शरीर त्याग कर एक मात्र नाम, रूप आदि विकारों से रहित सर्वात्मा होकर असि सत्ता मात्र में स्थित हो जायेगा, यही परम अर्थात सर्वश्रेष्ठ गति है । इससे बढ़कर मनुष्य की और कोई अन्य गति नहीं होती । जन्म मृत्यु के बन्धन सदा सर्वदा के लिए नष्ट है जाते हैं ।
भावार्थ― भावपक्ष इसका यह है प्रत्येक दशा में आत्मयोग को प्राप्त कर लेना ही मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य है अर्थात मनुष्य वही है जो अपने परमार्थ लक्ष्य को प्राप्त कर ले, यदि ऐसा न कर सका तो वह मनुष्य ही नहीं है, वह आत्महत्यारा है ।।२२।।
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।१६/२३।।
जो शास्त्रविहित कर्मों का कामनाओं से प्रेरित होकर त्याग करता है वह न तो आत्मसिद्धि (चित्तशुद्धि) ही प्राप्त करता है, न सुखी होता है और न ही परम् गति अर्थात मोक्ष को ही प्राप्त करता है ।
यहाँ पर शास्त्र विधि क्या है इस बात का खुलासा किया गया है । शास्त्र विधि के विषय में कहा था― येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधि पूर्वकम् ।।९/२३।। अर्थात अविधि यह है कि मैं ही संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ― अहं हि सर्वज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ९/२४ इसलिये संपूर्ण यज्ञों और कर्मों की विधि एक मात्र मेरी उपासना ही है, किन्तु ऐसा न करके अन्य देवताओं का यजन करते, अन्य को पूजते हैं यही शास्त्र अर्थात श्रुति सिद्धांत के विरुद्ध अविधि है । इसका परिणाम यह होता कि― तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ९/२४ वे तत्त्वज्ञान से पतित हो जाते हैं । तत्त्वज्ञान से पतित होने के कारण ही ऐसे लोग न तो आत्म सिद्धि प्राप्त पाते, आत्म सिद्धि प्राप्त न होने के कारण वे नित्य सुख को भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं अर्थात देवताओं की उपासना से क्षणिक सुख की प्राप्ति के लिए जन्म-जन्मान्तर दुःखी रहते हैं, जब सुख ही नहीं मिल सका तो परम् गति अर्थात मोक्ष प्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं है ।।२३।।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।१६/२४।।
इस लिए कार्य क्या है अकार्य क्या है इस शास्त्र द्वारा व्यवस्थित होने से तेरे लिए शास्त्र ही प्रमाण है । शास्त्र के विधान को जानकर यहां पर अपने अधिकारानुसार इस संसार में उसमें कहे गये विधान के अनुसार कर्म कर ।
कार्य और अकार्य को ही किं कर्म किमकर्मेति ४/१६ अर्थात शास्त्रीय कर्म क्या है, और अकर्म अर्थात कर्म का त्याग क्या है, यानी निष्काम कर्म क्या है ? का प्रश्न स्वयं भगवान ने उठाकर समाधान किया है विस्तृत विवरण वहीं देखना चाहिए । फिर कर्म, अकर्म और विकर्म को जानकर अर्थात प्रवृत्ति मार्ग, निवृत्ति मार्ग और प्रमाद के विषय में शास्त्र से जनकार करने करने करना चाहिए । यहाँ विकर्म का अर्थात प्रमाद किया है क्योंकि प्रमाद ही प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग से भ्रष्ट करके या तो निकम्मा बना देता है या कामनाओं के आधीन सकाम कर्मों मे ही प्रवृत्त हो जाते हैं । यह इसका भावा है ।।२४।।
समीक्षा― यद्यपि इस अध्याय का भाव अवतरणिका में प्रकट कर दिया है तो भी इसका संक्षेप यह है कि दैवी गुणों को ही यहाँ दैवी संपत्ति कहा गया है इससे भिन्न आसुरी वृत्ति से संबंध होने पर कहीं भी संपत्ति शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है वस्तुतः यही माया है । जो नरक का जाता जागता द्वार है । दैवीगुण वही है जो देव अर्थात गुण अपने स्वामी परमेश्वर से मिलाकर हमें अचिन्य नित्य सुख की प्राप्ति करा दें । इसीलिये पहले दैवीगुण का वर्णना करते हुए कहा गया है कि जिनमें में दैवीगुण हैं या उनका अनुष्ठान करते हैं उन्हें किसी शोक करने की आवश्यकता नहीं होती है ।
इसके बाद आसुरी संपत्ति का विस्तार से वर्णन करते हुए आसुरभाव के प्राप्त मनुष्य का दूसरे शरीरों में स्थित मुझ सर्वात्मा के तिरस्कार और उनके इस अपराध से परमात्मा को प्राप्त किये बिना ही नारकीय अधमाधम गति की प्राप्ति बताया । इन सब अनर्थों की जड़ नरक के मार्ग काम, क्रोध और लोभ को बताते हुए इनका त्याग करके परमगति के मार्ग का श्रेष्ठ आत्मागर्ग का आचरण करने की आज्ञा दी और उसके लिए बताया कि आत्ममार्ग पर प्रस्थान शास्त्र विधि का त्याग करके मनमानी आचरण से आत्मसिद्धि, सुख और परमगति तीनों की अप्राप्ति बताया । इसीलिये प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग की व्यावस्था कैसी होनी चाहिए, किस प्रकार प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग पर आरूढ होना चाहिए यह शास्त्र ही बताएगा अतः शास्त्र विधान में कहे के अनुसार ही आचरण करना श्रेष्ठ है इस बात का साधकों के प्रति कथन करते हुए अध्याय का उपसंहार किया ।।१-२४।।
सूचना― संक्षिप्त व्याख्या को श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखें ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडषोऽध्यायः ।।१६।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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