गीता समीक्षा अध्याय १२

ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ द्वादशोऽध्यायः
               

अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्तानां ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।।१२/१।।
       अर्जुन बोले― इस प्रकार जो निरंतर समाहित चित्त होकर आपकी भलीभांति उपासना करते हैं अवथा जो अविनाशी अव्यक्त की ही उपासना करते उन दोनो में योगवित्तम कौन है ?
       एवं शब्द पूर्व अध्याय के अन्तिम श्लोक के अनुसार यहाँ साकार उपासना को लेकर प्रश्न किया गया है, जबकि उत्तरार्ध में निर्गुण निराकार के उपासक के विषय पूर्व अध्याय के श्लोक ५४ के उत्तरार्ध में तत्त्व से जानकर उसमें प्रवेश अर्थात जीवब्रह्मात्मैक्य संबंधित प्रश्न किया गया है । प्रत्येक व्यक्ति सर्वोत्कृष्ट मार्ग का चयन करना चाहता है । जो सरल भी हो और उत्कृष्ट भी ।  रही साकार रूप में विराट या चतुर्भुज की बात तो यह व्यक्तिगत विषय है । यहाँ मात्र साकार और निराकार विषयक प्रश्न है, यही स्पष्ट है ।।१।।

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्य युक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्त तमा मताः ।।१२/२।।
        तो मुझ सर्वात्मा साकार परमेश्वर में मन को रखकर कर जो नित्यसमाहित चित्त होकर मेरी पराश्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं मेरे मत में वही श्रेष्ठ हैं ।
        यहाँ साकार उपासक की स्तुति अर्थात प्रशंसा की गई । परा श्रद्धा का वर्णन अध्याय १७ में आयेगा । यहाँ पर जो ध्यान देने की बात है वह यह कि मन को परमेश्वर में पहले समाहित होकर रख दे यही उसकी नित्य निरंतर उपासना है । दूसरी बात कहा पराश्रद्धा से युक्त होकर । यहाँ साकार रूप की उपासना करने वाला भी वासुदेवः सर्वम् ७/१९ का ही अनुसरण करेगा, क्योंकि जब मन भगवान में चला गया तो वह बिना मन का हो गया अर्थात उसकी अपनी सीमित अहं यहीं समाप्त हो गई, फिर पराश्रद्धा से युक्त हो गया अर्थात वह सगुणस्वरूप की उपासना तो करता है तथापि उसी स्वरूप को अविनाशी अक्षर रूप से भी देखता है । उसके उस साकार परमेश्वर से भिन्न निर्गुण-निराकार परमेश्वर नहीं होगा । यही परा श्रद्वा है । यही वासुदेवः सर्वम् है । यही सर्वभावेन एवं परा भक्ति है ।
             जबकि अविनाशी अक्षर का उपासक भी वासुदेवः सर्वम् ही देखेगा तथापि वह निर्गुण निराकार का ही स्वरूप जगत को समझेगा अर्थात साकार (जगत सहित) को निर्गुण निराकार से अभिन्न ज्ञानी समझेगा और साकार भक्त साकार परमेश्वर से अभिन्न निर्गुण निराकार को देखेगा । वासुदेवः सर्वम् दोनो का लक्ष्य होने पर भी अधिकार भेद से इतना अन्तर होगा कि साकार में तो दूसरा निराकार में देखेगा । ऐसा जो पराभक्ति वाला साकार उपासक मेरा भक्त है वह सर्वश्रेष्ठ अर्थात जिससे बढकर कोई श्रेष्ठता नहीं हो सकती है ऐसा श्रेष्ठ है ।
            भावार्थ― चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हुए ज्ञानी भक्त को अपने से अभिन्न अतुलनीय अत्यंत प्रिय और भक्त सगुणोपासक को विशेष अर्थात श्रेष्ठ ७/१७ बताया था । इसका अर्थ यह है कि भक्त यानी जिज्ञासु एवं ज्ञानी । यही दो भक्त भगवान के लिए अभीष्ट हैं । शेष दो चूंकि अन्य किसी का आश्रय न लेकर भगवान की ही शरण लोक कामना से लेते हैं अतः वे मंद और मंदतर कोटि के उपासकों के अंतर्गत साधक समझना चाहिए, जबकि ज्ञानी और भक्त क्रमशः अति उत्तम और उत्तम कोटि के साधक समझना चाहिए । इन्हीं चारों को दृष्टि में रखते हुए ही पीछे अध्याय आठ और नौ की व्याख्या की गई । जो आठ लक्षणों वाला सहज अर्थात स्वभाव से ही सहज भाव में स्थित हो जाता है वह अति उत्तम और जो योग आदि उपासनाओं का आश्रय लेता है वह उत्तम कोटि का साधक है जबकि यज्ञादि के सहित नाना प्रकार के तपों का आश्रय लेकर उपासना करने वाला मंद और पत्रं पुष्पं के द्वारा मूर्ति आदि का आश्रय लेकर उपासना करने वाला मंदतर साधक है । इसके अतिरिक्त अन्य देवताओं की सकाम उपासना आसुरी और निषिद्ध गीता मानती है । इस अध्याय में भी इन चारों प्रकार के साधकों के लिए ही आगे चार साधन क्रमशः बताये जायेंगे । अपने अधिकार की पहचान करके उनका अनुशरण करने से कल्याण सुनिश्चित है ।।२।।

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।१२/३।।
         किन्तु जो अविनाशी, निर्देश रहित, निर्गुण-निराकार, सर्वव्यापी, अचिन्य, कूटस्थ, स्थिर, और नित्य स्वरूप की भलीभांति उपासना करते हैं ।
          अनिर्देश्य का अर्थ है कि उसका किसी उपमा के द्वारा यह नहीं निश्चित किया जा सकता है कि  यह बस ऐसा ही या इस प्रकार का ही है । जैसे नीलगाय गाय के समान दिखने पर भी गाय नहीं है किन्तु गाय की समानता को लेकर नीलगाय पहचानी जा सकती है, वैसे ही वह है तो अनिर्देश्य तथापि श्रुति प्रदत्त सामानाधिकरण न्याय से उस अनिर्देश्य का निर्देश मात्र पहचान बताने के लिए है, यह बताने के नहीं है कि वह ऐसा ही और यही है । कूटस्थ का अर्थ है कि संपूर्ण जगत में व्याप्त होकर भी वह जैसा है वैसा नहीं दिखता और जो है वह भी बिना ज्ञान के नहीं दिखता अर्थात बाहर कुछ और भीतर की समझ में कुछ और यह कूटस्थ का लक्षण है । अचल अर्थात स्थिर कह दिया गया है अतः ध्रुव का अर्थ अचल न होकर नित्य, शाश्वत होगा । शेष अर्थ स्पष्ट है ।
           यह अव्यक्त की निरंतर उपासना में साध्य का स्वरूप या सिद्ध की स्थिति बताया गया है, किन्तु उसके साधन को आगे श्लोक से समझकर कर फिर साधना करना चाहिए । या यूं कहें कि पहले अगले श्लोक का अर्थ करके फिर इस श्लोक का समझना चाहिए ।।३।।

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।।१२/४।।
        जो संपूर्ण इन्द्रिय समूह को अनुशासित करके सर्वत्र समबुद्धि के द्वारा संपूर्ण प्राणियों के हित में आसक्त हैं वे मुझ आत्मस्वरूप को ही प्राप्त होते हैं ।
          संन्नियम्येन्द्रियग्रामम् से यहां पूर्णतः साधन चतुष्टय का वर्णन कर दिया गया है । विवेकशील अन्यत्र से की गई व्याख्या से ही समझ लें बार बार एक ही बात दुहराया नहीं जा सकता है । सर्वत्रसमबुद्धयः यानी आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यः ६/३२ अर्थात मैं का अर्थ जो आत्मा है उस आत्मा को विवेक पूर्वक सुनिश्चित करके अनात्मपदार्थ से ऊपर उठकर संपूर्ण प्राणियों में स्वयं को आत्मरूप से देखना । प्राप्नुवन्ति का तात्पर्य है कि ऐसे जितेंद्रिय इसी जन्म में उसे शरीर रहते ही प्राप्त करके जीवन्मुक्त हो जाते हैं ।
       सर्वभूतहिते रताः का अर्थ सभी प्राणियों के हित के लिए अपनी साधना छोड़कर उनका हित करने में आसक्त नहीं हो जायेगे कि किसी को बच्चा नहीं है तो बच्चा दे दें, किसी को धन नहीं है तो धन दे दें, किसी को शत्रु परेशान कर रहा है तो उसे मार डालें― नहीं करेगा बल्कि वह अभयं सर्वभूतेभ्यः ददाम्येतद्व्रतं मम का अनुसरण करेगा । वह सबमें एक ही आत्मा स्व से अभिन्न देखने के कारण किसी भी परिस्थिति से भयभीत होकर विचलित नहीं होगा । वह यह समझेगा कि प्रत्येक घटना अनात्मपदार्थ की क्रियामात्र है, इससे हमारा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है और उस साधक से कोई भयभीत नहीं होगा क्योंकि वह आत्मभाव में स्थित होने के कारण ऐसा कोई कार्य करेगा ही नहीं कि जिस व्यवहार को वह स्वयं भी पसंद न करता हो यही उसके द्वारा सभी प्राणियों का हित करना है । वही मुझे प्राप्त करेगा मतलब यहाँ माम् का अर्थ आत्मप्रत्य है अर्थ त्वम् पदार्थ के लक्ष्यभूत तत् पदार्थ के साथ एकत्व को प्राप्त हो जायेगा । यही यहाँ पर ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ अर्थात ज्ञानी मेरा स्वरूप है के भाव से अविरुद्ध अर्थ होगा । यहां कुछ विशेष शब्दों का भाव दिया गया इस प्रकार भाव है । शेष शब्द सामान्य अर्थ वाले हैं अतः उनको मुख्य अर्थ से ही समझें ।।४।।

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।।१२/५।।
          जिनका चित्त अव्यक्त की उपासना में आसक्त है उन्हें अधिक कष्ट होता है क्योंकि देहाभिमान रहते अव्यक्त की प्राप्त दुःखद है ।
          यद्यपि अव्यक्त की उपासना में कष्ट होने का कारण हि पूर्वक उत्तरार्ध में स्वयं ही भगावन ने निर्णय कर दिया है और हमने भी उपरोक्त श्लोक में भगवान के कथन में अव्यक्त की सरलता से प्राप्ति का साधन― साधन चतुष्टय बता दिया है एवं श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में विस्तृत युक्तिसंगत तर्क भी प्रस्तुत किये हैं तथापि पुनः संक्षिप्त विचार करते हैं, क्योंकि जिनका विवेक मोह ग्रस्त होने के कारण द्वैत की हठधर्मिता रूप रात्रि में सुप्त हो गया है उनका वह विवेक कदाचित अंगडाई ले ले―
             जिन विवेकशील गीता प्रेमियों ने अध्याय पांच एवं छः को ठीक से पढा है वे देखें कि भगवान ने पहले भी दुःखमाप्मयोगतः ५/६ अर्थात सन्न्यास यानी ज्ञानयोग अयोगी अर्थात अजितेन्द्रिय को प्राप्त ही नहीं होता, जिसके कारण को वहीं देखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त अजितेन्द्रिय योगी के विषय में अर्जुन द्वारा पूछने पर भगवान ने स्वयं ही बताया असंयतात्मनः योगो दुष्प्राप्य इति मे मतिः ६/३६ अर्थात अजितेन्द्रिय को परमतत्त्व प्राप्त ही नहीं होता है । पीछे जिसे अयोगी,  असंयतात्मनः कहा गया है उसे ही यहां देहवद्भिः कहा गया है जिसका अर्थ होता है अजितेन्द्रिय, साधन चतुष्य से रहित, स्वेच्छाचारी । 
            मेरा मानना है कि स्वेच्छाचारी को तो साकार की भी प्राप्ति संभव नहीं है इसीलिये भगवान, अन्ययोग, अनन्य मन, अनन्य चित्त, अव्यभिचारिणी भक्ति आदि की बारंबार बात करते हैं और यहाँ भी पहले ही बता दिया कि श्रेष्ठ भक्त कौन है ? मय्यवेश्य मनः, नित्युक्ता, श्रद्धया परयोपेताः १२/१ यह अर्थ वहीं समझ लेना चाहिए । तो आप किस बल पर यह कहते हो कि अव्यक्त उपासना में अधिक क्लेश है ? बल्कि जिसका चित्त शुद्ध नहीं हुआ है उसका मन अव्यक्त अर्थात निर्गुण निराकार तो क्या सगुण साकार में भी टिक नहीं सकता है । इसलिये चंचल मन वाले साधकों का मन स्थिर हो उसके लिये यह साधन बताया है ताकि चित्त शुद्ध हो जाये और फिर मुझ अव्यक्त में वह भी आसक्त होकर मुझे सहज ही प्राप्त कर लेगा, क्योंकि क्लेश तो साधनकाल में ही होते हैं साधनसिद्धि में नहीं । अतः चित्तशुद्ध होने पर ही भगवान फिर जो ज्ञानी के लक्षण हैं वही इस जिज्ञासु साकार उपासक के स्वरूप प्राप्ति के साधन रूप नित्य ज्ञानस्वरूप उपासनीय भगावन कहेंगे १२/२०। यद्यपि यह ज्ञान नहीं है तो भी अक्षय अमृत स्वरूप ज्ञान का साधन होने के कारण ही धर्म्यामृतम् १२/२० अर्थात अक्षय ज्ञान यानी नित्यज्ञान इन साधनों को ही कह दिया जो आगे अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् १२/१३ से कहे जायेंगे । इतना ही नहीं अध्याय १३ में भी अमानित्वमदम्भित्वम् १३/७ आदि भी ज्ञान नहीं ज्ञान का साधन ही हैं तो भी उन्हें ज्ञान नाम से ही कहा है ।
               अतः विवेकशील को गीता के पूर्वापर का विवेकपूर्वक अनुशीलन करते हुए सत्य को स्वीकार करते हुए अर्थ का अनर्थ करके न तो स्वयं भ्रमित हों और न ही समाज को भ्रमित करें एवं सनातन संस्कृति की इस प्रकार रक्षा करते हुए अपना कल्याणमार्ग प्राप्त करें ।।५।।

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।।१२/६।।
         किन्तु जो सभी कर्मों को मुझमें त्यागकर मेरे ही आश्रित हो जाता है । अनन्योग से ही मेरे स्वरूप का चिन्तन करते हुए उपासना करता है ।
           यहाँ अनन्ययोग का अर्थ प्रथम श्लोक में ही वासुदेवः सर्वम् से समझा दिया है । सर्वाणि कर्माणि को अध्याय ११/५५ के अनुसार समझ लेना चाहिए । इसके अतिरिक्त यत्करोषि यदश्नासि ९/२७, एवं अध्याय ५/८-९ आदि के अनुसार समझ लेना चाहिए । यहाँ ध्यायन्त और उपासते ये शब्द आये हैं जिसमें ध्यायन्त का अर्थ परमात्मा के तात्त्विक स्वरूय का चिन्तन एवं उपासते का अर्थ पत्रं पुष्पं ९/२६ आदि से सकार उपासना । शेष स्पष्ट है ।।६।।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।।१२/७।।
             हे पार्थ ! उन उपरोक्त के अनुसार जिनका चित्त मुझमें प्रवेश कर गया है उन उपासकों का मृत्यु रूप संसार सागर से शीघ्र उद्धार कर्ता बन जाता हूँ ।
           यहाँ भगवान यह नहीं कहते हैं कि मैं स्वयं उद्धार करता हूँ, बल्कि करते हैं मैं उद्धार कर्ता बन जाता हूँ । कैसे उद्धार कर्ता बन जाते हैं ? इसके लिए कहा मय्यावेशितचेतसाम् अर्थात जिनका मन मुझमें प्रवेश कर गया है अर्थात मुझे सर्वात्मा रूप से जो देखने लगे हैं और स्वयं को भी मुझसे अभिन्न मानते हैं ऐसे मुझ से युक्त भाव वालों का उद्धार कर्ता बन जाता हूँ । इसका साधन मच्चित्ता मद्गतप्राणा १०/९  में कह दिया है । जब इस स्थिति वाला हो जायेगा तब― ददामि बुद्धियोगं तम् १०/१० अर्थात ज्ञानयोग आचार्य, श्रुति के माध्यम से देते हैं जिससे वह मुझ आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है । ज्ञान प्राप्त होने पर भी उसका आत्मसात् होने पर उसके प्रकाश का उद्भव हृदय में ही होकर अज्ञानान्धकार का नाश करके प्रकाशित होता है यानी अपरिच्छिन्न अनुभव होता है । 
         क्योंकि बिना ज्ञान के कर्मबीज नष्ट नहीं होते और कर्मबीज नष्ट हुए बिना मोक्ष नहीं होता, अतः  सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३, सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ४/३६ अर्थ वहीं देखना चाहिए । अतः यह भ्रम कभी नहीं पालना चाहिए कि बिना साधन चतुष्टय के, बिना जितेन्द्रिय हुए भोग लिप्सा का त्याग किये बिना कोई मुक्त हो जायेगा ।
         भावार्थ― भगवान् भी बिना शर्त किसी का उद्धार करने वाले नहीं हैं । कहते हैं तेषामहं समुद्धर्ता अर्थ इसी का उद्धार करने वाला बनता हूँ जो मेरी शर्त मानेगा और शर्त रखी है सभी कर्मों का त्याग मुझमें कर दे कर्मों का कर्मों से प्राप्त होने वाले फल से आने वाले रस को मेरे अर्पण कर दे यदि उद्धार चाहता है तो । जिस समय संपूर्ण चेष्टाओं और उसके रस से अहं वृत्ति हट जायेगी तो उसी समय मैं तुम्हारे उद्धार का तत्क्षण प्रबंध कर दूंगा । यहाँ यह भी समझना चाहिए कि कर्म करेंगे तो कर्मों में रस अर्थात उनकी फलश्रुति को लेकर आसक्ति उत्पन्न हो सकती है अतः कर्ममात्र का यहाँ परमेश्वर में त्याग बताया गया है । जब कर्म का त्याग हो जायेग तो फल के प्रति रस की संभावना ही समाप्त हो जाती है त्याज्यं दोषवदित्येके १८/३ यह अर्थ यहां इसलिये अपेक्षित है कि ग्यारहवें श्लोक में सभी कर्मों को करने को तो कहा गया है लेकिन त्याग मात्र उन कर्मों के फल का बताया है । अतः यहाँ कर्ममात्र का त्याग अर्थात सर्वकर्मसंन्यास अतिउत्तम अधिकारी के लिए उचित ही यहां पर है ।

           यही तो चौथे श्लोक में अव्यक्त उपासक के लिए कहते हैं सन्नियम्येन्द्रियग्रामं, अब द्वैतवादियों क्या कहेंगे ? किसे अधिक क्लेश होगा ? विचार करने पर यह निर्णय स्वतः हो जाता है कि क्लेश किसे होगा ? अतः पहले ही सच्चाई स्वीकार करके एकमेवाद्वितीम् केवलाद्वैत की शरण ग्रहण कर लो ।।७।।

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न शंसयः ।।१२/८।।
       मुझमें मन रख दो, बुद्धि का व्यापार मुझमें ही कर । इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा इसमें संशय नहीं है ।
        यहाँ पर भगवान में ही मन रखने का अर्थ है संपूर्ण कामनाओं की उत्पत्ति की जड़ है संकल्प ६/२४ इस लिए मन को भगवान में रखने का अर्थ है भगवान से भिन्न अन्य सब कुछ संकल्प-विकल्प का परित्याग करना न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ बुद्धि का व्यापार भगवान में ही करने का अर्थ है― व्यसायात्मिका बुद्धिरेकेह २/४१ अर्थात निश्चयात्मिका बुद्धि का व्यापार परमात्मा के स्वरूप चिन्तन से भिन्न और कुछ भी चिन्तन न करे, यही एक बुद्धि यानी एकनिष्ठ व्यापार वाली बुद्धि कही गई है । वैसे अन्तःकरण कहने मात्र से मन और बुद्धि एक साथ आ जाते हैं तो भी मन और बुद्धि को अलग कहने का तात्पर्य यही है कि बुद्धि अर्थात विवेक द्वारा एकमात्र आत्मा-अनात्मा अथवा ईश्वर-जगत के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप का अन्वेषण करके आत्मपदार्थ का निश्चय करके त्याग करके और मन उस आत्मा का मनन करके उसमें अभिन्न रूप से प्रवेश करे । इसलिये इन दोनो को अलग अलग कहा गया है । जब इस प्रकार भगवान की शर्त मान लेगा उसके पश्चात जीते जी भगवान में ही निवास करेगा अर्थात वासुदेवः सर्वम का अनुभव करेगा । इसमें संशय नाम का कोई स्थान नहीं है । यह साधन अति उत्तम अधिकारी के लिए कहा गया है ।।८।।

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।१२/९।।
             इस प्रकार चित्त का समाधान करने में समर्थ नहीं है तो मन को मुझमें स्थिर करके अभ्यासयोग के द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर ।
            शनैः शनैः परमेद्बुद्ध्या धृति ग्रहीतया ६/२५ अर्थात धीरे धीरे धैर्यपूर्वक पूर्वक मन पर नियंत्रण करते हुए― यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।६/२६ अर्थात अभ्यास यह करे कि जहाँ जहाँ मन जाये वहीं मन को आत्मा या परमात्मा में लगावे । यह जो चारों तरफ से मन को बारंबार खींचकर एक स्थान, वस्तु आदि में लगाने की वृत्ति का नाम ही अभ्यास है । इसी अभ्यास का आश्रय आचार्य, श्रुति, साधन-चतुष्य और अष्टांयोग आदि साधनों के निमित्त ही अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ६/३५ कहा था वही यहाँ शैली भेद से पुनरावृत्ति अभ्यास के लिए कहा है । यहा साधन उत्तम अधिकारी के लिए कहा गया है ।।९।।
अभ्यासेप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१२/१०।।
         अभ्यास में भी असमर्थ है तो मेरे लिए कर्म करने वाला होओ । मेरे लिए कर्म करने पर भी सिद्धि को प्राप्त कर लेगा ।
         उपरोक्त अभ्यासयोग में भी समर्थ न होने पर कर्म का ही जिनका अधिकार है वे यज्ञ, नित्यनैमित्तिक जो भी क्रियामात्र चेष्टाएँ, क्रियाएं हैं वे परमेश्वर के लिए ही करे मन में यह भावना करे कि― यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवाः ।।१८/४६।। अर्थात जिस परमेश्वर से संपूर्ण जगत व्याप्त है और जिससे संपूर्ण प्राणी चेष्टा अर्थात क्रिया करता है उसकी उन्हीं, उनके द्वारा ही की जाने वाली चेष्टाओं को उन्हें ही समर्पित करता हूँ । श्वास, भोजन, सहित जीवन और मृत्यु भी वही हैं जीवनं चैव मृत्युश्च ९/१९ अतः यह सब कुछ आपका है, इस शरीर, मन, बुद्धि के भी आपका होने से इनके द्वारा होने वाली प्रत्येक क्रिया अर्थात चौदह इन्द्रियों द्वारा होने वाली प्रत्येक चेष्टा आपके लिए ही है । इसमें मेरा कुछ नहीं है । इस प्रकार मेरे परायण अर्थात शरणागत होकर मेरे लिए ही कर्मों को करने से सिद्धि को प्राप्त कर लेता है अर्थात इन क्रियाओं से संपूर्ण इन्द्रिय कर्मों से अहंता वृत्ति नष्ट होकर चित्तशुद्धि होकर आत्मसाक्षात्कार रूपी सिद्धि प्राप्त कर लेगा । यह साधना मंद अधिकारी के लिए कहा गया है ।।१०।।

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मान् ।।१२/११।।
       अगर इसमें भी समर्थ नहीं है तो मेरा शरणागत होकर मेरे लिए चेष्टा अर्थात कर्म करता हुआ मन को आधीन करके सभी कर्मों के फल का त्याग कर दे ।
       यतात्मान् अर्थात जीते हुए मन वाला । अब यहाँ यह विचार करना चाहिए कि पांचवें श्लोक में देहाभिमान अर्थात अजितेन्द्रिय के लिए अव्यक्त की अप्राति का कथन किया । जबकि चौथे श्लोक में इन्द्रिय समूह को अनुशासित करने वाले द्वारा उसी अव्यक्त की प्राप्ति बताया । वही यहाँ प्रत्येक चारों प्रकार के साधकों के लिए सर्वत्र सामान्य नियम बताया है ।
         यहाँ कोई शंका कर सकता है कि पूर्व के तीन साधनों में तो मन को जीतने की बात नहीं की है तो चारों के लिए कैसे कह सकते हो ? तो इसका उत्तर यह है कि जो व्यक्ति पांचवीं कक्षा में पढ रहा है, दसवीं में पढ रहा है, और स्नातक आदि कर रहा है इन तीनो की अपेक्षा प्राथमिक कक्षाओं में ही स्वर-व्यंजन रटाने की बात की जाती है पांचवीं, दसवीं, और स्नातक इनको कहने की आवश्यकता इसलिये नहीं है कि यह रटने के बाद ही क्रमशः वहां पहुंचे हैं । अथवा कह दिया कि सन्न्यासी, तो संन्यासी कहते ही उसमें ब्रह्मचर्य की गणना अलग से कराने की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि वह स्वतः उसके अन्तर्भूत होता । इसी प्रकार यहाँ अतिमंद साधक में मन को वश में करने की बात कहने का तात्पर्य यह है कि वह जितेन्द्रिय स्वतः है तब उन अधिकारों में स्थित है । अतः यहाँ कर्म तो अतिमंद करेगा अवश्य मात्र उसके फल को परमेश्वर में अर्पण करेगा अर्थात फल नहीं चाहेगा मा फलेषु कदाचन २/४७ । यहाँ पर कर्मफल त्याग का कोई फल नहीं कहा गया है । अतः अगले श्लोक में क्रमशः कहेंगे ।।११।।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२/१२।।
         क्योंकि  अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान की अपेक्षा ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान की अपेक्षा कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है त्याग के पश्चात शान्ति प्राप्त होती है ।
       यह कर्मयोगी की स्तुति है । यहाँ एक शंका उठ सकती है कि नवें श्लोक में अभ्यासयोग की बात कहा है और यहां अभ्यास से ज्ञान को श्रेष्ठ बताया गया है यह तो विरोध प्रतीत होता है ? दूसरी बात ज्ञानादेव तु कैवल्यं अर्थात ज्ञान से ही मोक्ष की प्रसिद्धि है और गीता में भी न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ४/३८ अर्थात ज्ञान से बढकर और कुछ पवित्र नहीं है कहा फिर यहाँ ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान को क्यों कहा ?
           इसका समाधान यह है कि परमेश्वर निमित्तार्थ किया गया कर्म ही योग होता । वहां पर भगवान ने दो बातें कही हैं ‘मयि स्थिरम्’ एवं ‘मामिच्छाप्तुं’ अर्थात मुझमें स्थिर होकर एवं मेरी प्राप्ति की इच्छा कर यह अभ्यास योग है जबकि अन्य प्रणायामादि क्रिया मात्र है उनमें जड़ता है जड़ता का निवारण बिना श्रुति शास्त्र ज्ञान के नहीं हो सकता है, अतः शास्त्र ज्ञान उस अभ्यास से श्रेष्ठ है । यहाँ पर श्रुति शास्त्र विषयक ज्ञान की बात कहा गया है तत्त्व ज्ञान का यहाँ कोई प्रसंग नहीं है । शास्त्र ज्ञान से ध्यान अर्थात उसका निदिध्यासन, आरूढता श्रेष्ठ है । निदिध्यासन से कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है यह कहकर कर्मयोगी को कर्म में प्रवृत्त कराने के लिए स्तुति की गई है । क्योंकि निदिध्यासन का अर्थ है स्वरूप से ही कर्मों के त्यागपूर्वक आत्मतत्त्व में आरूढ होना । तो जहाँ स्वरूप से ही कर्म न हो तो वहां फल भी कैसे हो सकता है क्योंकि योगः कर्मशु कौशलम् २/५० अर्थात सभी कर्मों की कुशलता है परमात्मा की प्राप्ति । उसी कुशला की प्राप्ति के लिए जो जन्म मृत्यु रूप संसार का बीज है कर्मासक्ति उसका भी सूक्ष्म बीज है कामनाओं का होना और जब कामनाएं ही नहीं होंगी तो फल की चाह किसके लिए होगी ? अतः कहना तो है प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् २/५५ अर्थात मन में जितनी भी कामनाएं हैं उनका अशेष रूप से त्याग कर दे और जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ३/४३ अर्थात कामरूप शत्रु को मारडाल । तथापि ऐसा कहने पर फिर साधक विचलित न हो जाये कि मनोगत न काम नष्ट कर सकूंगा और न ही आपको प्राप्त कर सकूंगा, ऐसा हीन भाव मन में उत्पन्न न हो इसके लिए कहा तुम्हें कुछ नहीं करना है केवल जो कर्म करते हो उसके फल की प्राप्ति की मन में होने वाली इच्छा का त्याग कर दो बस तुम मुझे प्राप्त कर लोगे ।
         इस प्रकार जब फल त्याग करेगा तो मन स्वरूप से ही कर्मों के प्रति उदासीन हो जायेगा और कामनाएं नष्ट हो जायेंगी । कामनाओं के नष्ट होते ही चित्तशुद्धि हो जायेगी और चित्तशुद्धि होते ही तत्त्वमसि आदि महावाक्य श्रवण करते ही तत्क्षण ज्ञान प्राप्त होकर उसी काल में नित्यशांति अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेगा, जीवन्मुक्त हो जायेगा । इसी भाव को समझाने के लिए ही प्रथम तीन साधको का फल साथ में ही कह दिया था और इसमें संदेह की कोई जगह न रहे इसलिये बाद में कहा ।
         भावार्थ― फल त्याग के मूल में जितेन्द्रियता और काम नाश का लक्ष्य कराया गया है ।।१२।।

        अब प्रश्न उठता है कि तत्त्वमसि आदि महावाक्यों को वहां श्रवण कराने की बात आयी ही नहीं है सीधे शान्ति प्राप्ति की बात आयी है तो फिर आप महावाक्य आदि श्रवण की बात कैसे कर सकते हैं ? तो इस पर यही कहूंगा कि ठेके पर पहुंचे बिना ही नशा होना अच्छी बात नहीं है आगे ज्ञानी के लक्षण कहे जा रहे हैं और वही साधक के लिए अक्षय ज्ञान की प्राप्ति का हेतु होंगे १२/२० अतः आगे का भी चिन्तन करो―
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ।।१२/१३।।
           संपूर्ण प्राणियों से द्वेष न करना, मैत्रीभाव, स्वभाव से ही करुणा, संसार के प्रति अर्थात अनात्मपदार्थों में ममता यानी मोह का अभाव, सीमित अहंता से रहित अर्थात व्यापक अहंता वाला, सुख और दुःख आने जाने वाले होने से समान ही हैं अर्थात आज हैं कल नहीं इस प्रकार सम रहना अर्थात विचलित न होना, क्षमाशील ।।१३।।
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।।१२/१४।।
         योगी अर्थात परमात्मा की प्राप्ति करने वाला, जो कुछ प्रारब्धवश प्राप्त है उसी में संतोष, मन और बुद्धि को अपने जातने वाला, एकमात्र आत्मा में ही दृढनिश्चय वाला, मुझमें मन और बुद्धि को सदा के लिए समर्पित करने वाला जो मेरा भक्त है वह मुझे प्रिया है ।
          मन और बुद्धि का अपनी स्वतंत्र सीमित सत्ता न होकर व्यापक सत्ता भाव में स्थित होना अर्थात मैं ब्रह्म हूँ यही व्यापक भाव और इसी भाव में स्थित होना ही तत् पदार्थ में उनका अर्पित होना है ।।१४।।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकन्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ।।१२/१५।।
         जिससे प्राणियों में उद्वेग न हो और जो प्रणियों उस आत्मयोगी से उद्वेलित न हों एवं जो हर्ष, अमर्ष, भय, उद्वेग से जो मुक्त है वह भक्त मुझे प्रिया है ।।१५।।

अनपेक्षः शुचिर्दक्षः उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भाक्तः स मे प्रियः ।।१२/१६।।
           किसी से भी कोई अपेक्षा न रखना भले ही वह ईश्वर ही क्यों न हो, स्वभाव से ही बाहर-भीतर से पवित्र, आत्मा-अनात्मा का विवेक करने में चतुर, आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की व्याथाओं से रहित अर्थात उनका आत्मपदार्थ के अतिरिक्त किसी भी परिस्थिति में आने-जाने वाले क्लेशो को मन में स्थान न देना, संपूर्ण कर्मों का स्वरूप से ही त्याग करने वाला जो मेरा भक्त है वह मुझे प्रिय है ।।१६।।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ।।१२/१७।।
        जो अनुकूल की प्राप्ति में हर्षित नहीं होता, प्रतिकूल की प्राप्ति में शोक नहीं करता, जो प्राप्त नहीं है उसकी प्राप्ति की और जो प्राप्त है उसकी रक्षा की भी कामना नहीं करता, शुभ-अशुभ सभी कर्मों का स्वभाव से ही स्वरूपतः त्याग करने वाला सर्वकर्मसंन्यासी भक्त मुझे प्रिय है ।।१७।।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ।।१२/१८।।
         शत्रु मित्र में भी आत्मभाव से सम, मान-अपमान में सम, सर्दी, गर्मी, सुख, दुःख में सम, अनात्मपदार्थ के संग से रहित अर्थात एकमात्र आत्मस्वरूप में स्थित भक्त प्रिय है ।
          शंका होती है कि क्या कोई ज्ञानी का भी शत्रु या मित्र भी होता है ? इसका समाधान यह है कि ज्ञानी तो आत्मरूप है अतः उसका कोई शत्रु मित्र नहीं होता है तथापि ज्ञानी तो किसी का शत्रु, मित्र हो सकता है । अतः यहां शंका का स्थान नहीं है ।।१८।।

तुल्यनिन्दास्तुर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।।१२/१९।।
         निन्दा स्तुति को समान समझने वाला, जिस किसी भी अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति, आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति या नाश दोनो परिस्थितियों मे सन्तुष्ट रहने वाला, घर या कुटी के प्रति अनासक्त, एकमात्र आत्मा में ही जिसकी बुद्धि अविरल स्थित है वही मनुष्य मुझे प्रिय है ।
         यहाँ पर नर शब्द का प्रयोग किया गया है । इससे यहाँ दो बातें समझी जा सकती हैं एक तो यह कि भगवान अर्जुन को उसके नर स्वरूप का स्मरण करा रहे हैं और दूसरा यह कि मनुष्य वही है जो परमत्त्व को प्राप्त करके जन्म मरण के चक्र से छूट जाये । इसके अतिरिक्त जितने भी प्राणी हैं वे ही अपरा और परा प्रकृति हैं । यहाँ के नर शब्द से अध्याय पन्द्रह के पुरुषोत्तम स्वरूप का संकेत माना जा सकता है ।।१९।।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ।।१२/२०।।
         किन्तु जैसा ऊपर नित्यज्ञान की प्राप्ति रूप रूप साधन कहे गये हैं वैसा का वैसा ही जो जो श्रद्धापूर्वक मेरे परायण होकर भलीभाँति उपासना करता है वह मुझे अत्यंत प्रिय है ।
         यहाँ पर अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् १२/१४ से लेकर जो उन्नीसवें श्लोक तक ज्ञानी के लक्षण बताए गए हैं वही साधन मुमुक्षु अर्थात परमेश्वर की प्राप्ति के निमित्त नित्यज्ञान की प्राप्ति का साधन अर्थात परमेश्वर की प्राप्ति का साधन बताया और उन ज्ञानियों का जो वह सहज स्वभाव है उसी को मेरे आश्रित होकर भलीभाँति― यहाँ पर्युपासते शब्द है जिसका अर्थ हैं निरंतर उपासना करने वाला अत्यंत प्रिय है । ध्यान देने की बात यह है कि ज्ञानी को तो बार बार कहते हैं कि ज्ञानी भक्त मुझे प्रिय है और साधक जिज्ञासु भक्त को कहते हैं अति प्रिय है, क्यों ? जैसे पुरुष को पत्नी प्रिय होती है लेकिन आज्ञाकारी पुत्र पत्नी और स्वयं को भी बहुत प्रिय होता है । क्योंकि पत्नी पति से भिन्न नहीं होती है वह तो स्वरूप होती है । अध्याय ७ में ज्ञानी के लिए कहा था― प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थः ७/१७ अर्थात ज्ञानी इतना अधिक प्रिय है कि उसकी तुलना ही नहीं की जा सकती है । क्यों ? इस पर कहते हैं― ज्ञानी त्वात्मैव मे ७/१८ अर्थात ज्ञानी तो मेरा ही स्वरूप है । वह तो वासुदेवः सर्वम् हो चुका है । उसी को यहां कहते हैं― भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ज्ञानी मेरा स्वरूप है इसलिये प्रिय है और भक्त मेरा आज्ञाकारी है इसलिए अधिक प्रिय है । क्योंकि अब वह मेरे बताये ज्ञानी के लक्षणों का अनुष्ठान करके वह भी मेरा ही स्वरूप वासुदेवः सर्वम् का संकल्प ले चुका है । 
         इस प्रकार जिज्ञासु कोटि के मुमुक्षु की स्तुति करके भगवान ने अर्जुन के पूछे गये प्रथम प्रश्न का उत्तर अर्थात पहले श्लोक के पूर्वार्ध का उत्तर यहाँ देकर इस भक्तियोग का उपसंहार किया ।।२०।।

          समीक्षा― अध्याय ग्यारह के अन्तिम दो श्लोकों में अर्जुन के मन में उठे प्रश्नों के फलस्वरूप साकार और निराकार के उपासकों की श्रेष्ठता जानने के विषय में प्रश्न किया गया । जिसके फलस्वरूप पहले सगुणोपासक की स्तुति करते हुए पुनः ज्ञान की महिमा का गान करते हुए बताया कि जो इन्द्रियों के संयम पूर्वक मुझ अव्यक्त की आराधना करता है वह इसी जन्म में मेरी प्राप्ति कर लेता है प्राप्नुवन्ति १२/४ इसी बात का सूचक है, किन्तु सगुणोपासक की स्तुति में श्रेष्ठ कहने पर भी वह परमेश्वर को कब प्राप्त करेगा यह नहीं बताया वरन् अजितेन्द्रिय को अव्यक्त की प्राप्ति हो ही नहीं सकती और यदि वह सगुणोपासना छोड़कर श्रुत के आधार पर अव्यक्त की उपासना करता भी है तो अजितेन्द्रिय के जीवन में नाना प्रकार के कष्टों के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता है ।
          आगे बताते हैं कि यदि मेरी प्राप्ति यदि करनी ही है तो मेरी आज्ञा का पालन करो तो मैं तुम्हारा उद्धार तो नहीं कर सकता हूँ क्योंकि यह अधिकार गुरु यानी आचार्य का है लेकिन उद्धारक अवश्य हो जाऊंगा अर्थात वैसा में संयोग उपस्थित कर दूंगा जिससे ज्ञान प्राप्त होकर शीघ्र मुझ सर्वात्मा की प्राप्ति हो जायेगी योगक्षेमं वहाम्यहम् ९९/२२ अर्थ उसी स्थान पर देखना चाहिए मनमानी अर्थ मत करना । शीघ्र उद्धारक बनने की भूमिका में अति उत्तम, उत्तम, मंद, और मंदतर साधकों के लिए चार साधन बताते हुए कर्मफल के त्याग से ही अन्त में चित्तशुद्धि पूर्वक तत्काल नित्य शान्ति बताया । चित्तशुद्धि के साधन आगे अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् १२/१३ आदि से लेकर प्रियो नरः १२/१९ तक सिद्धों के लक्षण बताते हुए अन्त में उन्हीं ज्ञानियों के स्वाभाविक, सहज लक्षणों को ही श्रद्धापूर्वक परेश्वर की शरण होकर निरंतर भलीभांति उपासना करने वाले को अत्यंत श्रेष्ठ बताया । अर्थात व्यक्त और अव्यक्त उपासकों में कौन श्रेष्ठतम है यही बताने के लिए अतीव प्रियः कहा । तथापि प्रियता बताने पर भी मैं उसको कब प्राप्त होऊंगा यह नहीं बताया । यह जानने के लिए ही अगला अध्याय प्रारंभ करते हैं । पन्द्रहवें अध्याय तक प्रतीक्षा करें । अध्याय दो से छः तक त्वम् पदार्थ का शोधन करके अध्याय सात से यहाँ तक तत् पदार्थ का शोधन पूर्ण किया । आगे असि पदार्थ का विश्लेषण होगा ।।१-२०।। 

              सूचना― संक्षिप्त विवरण को समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन देखें । ओ३म् !

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ।।१२।।
हरिः ॐ तत्सत् !                हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

गीता समीक्षा अध्याय ६

गीता समीक्षा अध्याय १८