गीता समीक्षा अध्याय ६

     ॐ श्रीपरमात्मने नमः
                         
         
        अथ षष्ठोऽध्यायः
 श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।६/१।।
         श्रीभगवान बोले― जो कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्म करता है वही संन्यासी है और वही योगी है केवल अग्नि और क्रियाओं का त्याग करने वाला नहीं ।
            यहाँ पर कर्म में प्रवृत्त कराने के लिए कर्म की स्तुति करते हैं । फल समानता की दृष्टि से ज्ञानयोग अर्थात सर्वकर्मसंन्यास की तुलना की गई । इसके साथ ही संन्यासी के क्या नियम विहित हैं यह संन्यासियों के लिए संक्षेप में ही मार्गदर्शन कर दिया । चूंकि कर्म का फल चित्तशुद्धि पूर्वक ज्ञान फल होता है यह बात पहले तो कही जा चुकी है और आगे भी यही समझना चाहिए । तथापि यहाँ का कर्मयोग शरीर और मन की एकाग्रता के निमित्त कर्मयोगी गृहस्थ और जो योगारूढ होने के जिज्ञासु  गृहत्यागी संन्यासी हैं दोनो को ही समझ लेना चाहिए ।।१।।

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ।।६/२।।
            हे पाण्डुपुत्र ! जिसको संन्यास इस प्रकार कहा कहा गया है उसी को तू योग जान । क्योंकि बिना संकल्प का त्याग किये कोई भी सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी नहीं होता ।
              यहाँ पर पूर्वार्ध में में योग शब्द से वास्तविक संन्यासी अर्थात ज्ञानयोगी की समानता फल दृष्टि को लेकर बताया गया है । बिना संकल्प का त्याग किये कोई योगी अर्थात सर्वकर्मसंन्यासी नहीं हो सकता है मतलब ज्ञानयोगी पहले सभी कर्मों का स्वरूपतः त्याग कर चुका है और कर्मयोगी फल का त्याग करेगा । इसी त्याग की समानता को लेकर ही शास्त्रवित् कर्मयोगी को भी ज्ञानयोगी के समान ही फलदृष्टि से एक परमात्मा की प्राप्त के हेतुभूत कहते हैं इसलिए कर्मयोगी भी संन्यासी के समान ही है ऐसा समझना चाहिए । कोई कहे कि देवदत्त शेर के समान है या शेर है तो वह शेर नहीं हो जाता है बल्कि साहस की निर्भय समानता को लेकर तुलना की जाती है । इसी प्रकार कर्मयोगी संन्यासी के समान है, संन्यासी नहीं । समान इसलिये कि आज निरपेक्ष भाव से कर्म करता है तो कल चित्तशुद्धि होकर सर्वकर्मसंन्यासी भी हो जायेगा । इसीलिये संन्यासी के समान कहा गया है, संन्यासी नहीं ।।२।।

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।६/३।।
              मननशील के लिए योग में आरुढता के कारण को कर्म कहते हैं । उस योगारूढ का कारण शम कहते हैं ।
            मुनि यानी मननशील विचार प्रचार प्रधान जो ध्यान में आरूढ नहीं हो सका है उसके लिए योग अर्थात समत्व में स्थित होने के लिए सुखदुःखे समे कृत्वा २/३८ अर्थात सुख दुःख हानि लाभ आदि को समान समझकर कर्म करना ही परमात्मा में स्थित होने का हेतु यानी कारण है । किन्तु जो ध्यानयोग में आरूढ हो चुके हैं उसका हेतु शम अर्थात मन सहित इन्द्रियों का भलीभाँति वश में होना ही आत्मस्थिति का हेतु है । यहाँ शम शब्द इन्द्रियों को वश में करके इन्द्रियों और मन की प्रसन्नता का सूचक है । प्रसन्नचेतसो ह्याशुः बुद्धिः पर्यवतिष्ठते २/६५ अर्थात मन के प्रसन्न होने पर बुद्धि भलीभांति आत्मा में स्थिर हो जाती है । 
            यहां पर दो पक्ष दिख रहे हैं एक वह जो समत्व रूप योग या ध्यान में स्थित नहीं है और दूसरा वह जो समत्व रूप योग या ध्यान में स्थित है । ध्यान में स्थित होने के लिए कर्म योग है और जब ध्यान में स्थित हो जाये तब उसका परिचय बताया कि मन की प्रसन्नता ही आत्मा में स्थित होने का प्रमाण है, क्योंकि योगी की आन्तर स्थिति तो समझा नहीं जा सकता है किन्तु बहरी लक्षणों में उसकी इन्द्रियों की विषयों के प्रति उपरामता का होना और किसी भी परिस्थिति में प्रसन्न रहना यही आत्म प्रतिष्ठित योगी का लक्षण है ।
               सारांश― कर्म से ध्यान में लगना और फिर इन्द्रियों का विषयों से उपराम होना सर्वकर्मसंन्यास का प्रतिपादन करता है अर्थात कर्मयोग से ज्ञानयोग की प्राप्ति अर्थ ही यहाँ विवक्षित है ।।३।।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ।।६/४।।
           क्योंकि जब न ही इन्द्रियों के विषयों तथा न ही कर्मों में आसक्त होता है तब उस सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी को योगारूढ कहा जाता है ।
            पूर्व श्लोक में योग की आरूढता में शम को कारण बताया था उसी को यहाँ स्पष्ट करते हैं कि जब योगी शम को प्राप्त हो जाता है अर्थात जब इन्द्रियों के विषयों में उसका प्रयोजन नहीं रहता है और कर्मों की आसक्ति समाप्त हो चुकी होती है तब कर्म, उसके फल एवं विषयों की त्रिपुटी भी समाप्त हो जाती है तो संकल्प करेगा किसके लिए ? अर्थात संकल्प का हेतु ही समाप्त हो जाता है । संपूर्ण सृष्टि का हेतु कामना ही है । सोऽकामयत्, अकल्पयन्, इत्यादि श्रुति प्रमाण है एवं यहाँ भी आगे संकल्प को ही कामनाओं का हेतु बताएंगे । अतः सृजन का हेतु संकल्प का समाप्त होना ही योगारूढता है । सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी का तात्पर्यार्थ यह है कि कर्मों का, उसके फल का, उसके हेतु अहंता का, निष्कामता का इन सबका मन से ही स्वरूप से त्याग करके एकनिष्ठ आत्मा में स्थित होना ही योगारूढता है । ऐसा योग के ममर्ज्ञ कहते हैं ।।४।।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।६/५।।
             अपना उद्धार स्वयं ही कर ले, आत्मा का पतन न करे क्योंकि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है ।
           आचार्य द्वारा श्रवण करके मनन और निदिध्यासन करके आत्म पदार्थ की प्राप्ति कर लेना ही अपना उद्वार करना है । वस्तुतः आत्मा तो स्वतः शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव है उसका उद्वारा क्या करना ? तथापि अविवेक द्वारा हमने अनात्म पदार्थ से तादात्म्य बना लिया है इस लिए अवसाद प्राप्त हो गया है । इसमें पहले आत्मा का अर्थ हैं सत् और असत् विवेक का निर्णय करने वाली शुद्ध बुद्धि, दूसरी आत्मा का अर्थ मन है जो स्वसंवेद्य आत्मा पर औपाधिक जीवत्व का आवरण पड़ा हुआ है उसको नष्ट कर देना ही अपना उद्धार करना है क्योंकि आवरण नष्ट होते ही निर्विशेष स्वरूप में स्वतः पहले से ही जैसा स्वरूप है उसका स्मरण हो जायेगा । यह स्मरण होना ही स्व-स्वरूप की प्राप्ति या स्व-स्थ होना है यही अपने द्वारा अपना उद्धार करना है । तीसरी आत्मा का अर्थ है अविवेक पूर्ण अनात्पदार्थ में स्थित बुद्धि जिसके कारण सदैव शोक मोह को प्राप्त होकर नाना प्रकार की योनियों में जीव भ्रमण करता है । इसमें जो पहले पक्ष का मनुष्य है वह तो स्वयं ही अपना मित्र है क्योंकि गुरुजन तो मार्ग बताएंगे किन्तु चलना स्वयं पड़ता है और दूसरा पक्ष अपना ही शत्रु है क्योंकि पुरुषार्थ रहित अविवेक के द्वारा बड़े भाग्य से मिले मनुष्य शरीर को अपनी आवागमन की मुक्ति के यत्न न करके विषयों में पड़कर पुनः शोक मोह को प्राप्त कराने वाली चौरासी लाख योनियों के भ्रमण रूप पतना को स्वयं ही प्राप्त हुआ ।।५।।

बन्धुरात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।।६/६।।
           जिसने विवेक पूर्वक मन को जीत लिया है वह ही अपना बन्धु है । जिसने मनको नहीं जीता वह स्वयं ही स्वयं के साथ शत्रु की तरह वर्ताव करता हुआ शत्रु ही है ।
             मन को जीतने का मतलब मन सहित संपूर्ण इन्द्रियों को जिसने जीत लिया और मन को जीत कर संपूर्ण अनात्पदार्थ से स्वयं को अलग कर लिया है वही अपना मित्र है जो इन्द्रियाराम है वही अपना शत्रु है, क्योंकि जैसे शत्रु सदैव आपके नाश के विषय में सोचता रहता है वैसे इन्द्रियां मन को अपने आधीन करके किस गड्ढे में कब और कहाँ डाल दें कोई पता नहीं है । बाहर के शत्रुओं से तो बचा जा सकता है लेकिन इन शत्रुओं से बचना कठिन है । अतः इन पर ही विजय पाना चाहिए । यहाँ साधन चतुष्टय को भी समझकर रखना चाहिए ।।६।।

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।।६/७।।
          जीते हुए मन वाला परमशान्त परमात्मा में एकाग्रता को प्राप्त हुआ सर्दी, गर्मी सुख, दुःख तथा मान, अपमान में ।
            शीतोष्णादि से सभी दैहिक, दैविक, भौतिक तापों को समझ लेना चाहिए ।।७।।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।।६/८।।
             ज्ञान विज्ञान से तृप्त हुआ निर्विकार भलीभाँति इन्द्रियों को जीतने वाला योगी मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव रखने वाला युक्त अर्थात परमात्मा से अभिन्न हो गया है ऐसा मनीषी कहते हैं ।
             ज्ञान यानी आचार्य द्वारा शास्त्रों के अन्तिम लक्ष्य को भलीभांति समझना ज्ञान है और उसका भलीभाँति अपने में प्रत्यक्ष की भांति अनुभव करना विज्ञान है । ऐसे ज्ञान और विज्ञान से तृप्त हुआ अर्थात पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत कुछ भी न चाहने वाला मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को समान समझने का मतलब सर्वत्र सम भाव को प्राप्त हुआ योगी ब्रह्मात्मैक्य को प्राप्त हो गया है ऐसा अनुभवी जानकार कहते हैं ।।८।।

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ।।६/९।।
            सुहृद, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष करने वाले, कुटुंबी, साधु एवं पापी में भी समबुद्धि वाला श्रेष्ठ है ।
             सुहृद का अर्थ होता है बिना आपसे किसी प्रयोजन सिद्धि के स्वभाव से आपका हित करने वाला । शेष सभी अर्थ स्पष्ट है । पापी में भी जो कहा तो अन्य जगह मन मान जाता है लेकिन पापात्मा दुचारी के प्रति सहज ही घृणाभाव बन जाता है । किन्तु सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि होने से कार्य और गुण तो प्रकृति में होते हैं किन्तु एक ही आत्मा सर्वत्र सब में है अर्थात एक ही सत्ता सर्वत्र विद्यमान है ऐसा देखना श्रेष्ठ कहा गया है ।।९।।

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ।।६/१०।।
               योगी मन सहित इन्द्रियों एवं शरीर को वश में करके सभी आशाओं और परिग्रह का त्याग करके अकेला ही एकांत में रहता हुआ निरंतर आत्मा की उपासना करे ।
          सभी आशाओं का तात्पर्यार्थ सिद्ध असिद्ध सहित सभी आशाएं । एकांत में आत्मा का निरंतर उपासना का मतलब त्वम् पदार्थ का निश्चय करके उसमें निरंतर स्थित रहने का प्रयत्न करना । यहाँ योगी को अष्टांग योगी न समझकर समत्व द्रष्टा के लिए जैसा कि प्रसंग चल रहा कहा गया है ।।१०।।

              समीक्षा― कर्मयोग की स्तुति करते हुए संन्यास के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए बताया कि जो अशेष संकल्प का त्याग नहीं करता है वह कभी भी संन्यासी नहीं हो सकता । योग में आरुढता का निमित्त कर्म है और जो योगारूढ हो चुका है उसकी विषयों के प्रति उदासीनता, मन की प्रसन्नता अर्थात सभी संकल्पों का त्याग करने वाला ही ज्ञानयोगी कहा जाता है । अनात्म पदार्थ के त्याग पूर्वक आत्म पदार्थ में स्थिर होना ही स्वयं की स्वयं से मित्रता और इससे विरुद्ध जन्म मृत्यु की हेतु शत्रुता कही गई है । वस्तुतः शरीर सहित इन्द्रियां और अन्तकरण चतुष्टय पर विजय पाने वाला ही स्वयं का मित्र और इससे विरुद्ध शत्रु कहकर परमतत्त्व में एकाग्र एवं शीत उष्ण आदि द्वान्द्वों में विचलित न होने वाला निर्विकार ज्ञान विज्ञान से तृप्त हुआ सुहृद से लेकर पापी तक में एक ही परमेश्वर तत्त्व को देखने वाला योगी संपूर्ण आशाओं और अनावश्यक संग्रह वृृत्ति से रहित होकर एकांत में समाहित चित्त होकर आत्मानुसंधान करे । अर्थात मानव मात्र का कर्तव्य है कि वह एक मात्र स्वसंवेद्य परमतत्त्व को जाने ।।१-१०।।

            एकांत में रहकर स्वेच्छाचार का आचरण करके पतित न हो जाये उसके लिए अष्टांगयोग के साधनों का कथन…..
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।।६/११।।
             पवित्र एकांत स्थान में जो न अधिक ऊंचा हो और न ही अधिक नीचा हो ऐसे स्थान पर कुश, मृगचर्म, वस्त्र क्रमशः बिछाकर अपने उस आसन पर स्थिर होकर (बैठे) ।
            स्थिरमासनमात्मनः के द्वारा आत्मनः यानी स्वयं को आसन पर स्थिर करे अर्थात बिना हिले डुले बैठे, जिस स्थान को ध्यान के लिए चुने वह स्थान बार बार न बदला जाये, जिस कुश का आसन,  मृगचर्म― आज के समय में मृगचर्म मिलना कठिन है मिल भी जाये तो सरकार तस्करी के आरोप में जेल में डाल देगी अतः इसके स्थान पर शुद्ध भेड़ की ऊन का कंबल उपयोग करें और वस्त्र ये तीनो बार बार न बदले अर्थात ये आसन भी स्थाई होना । साथ ही जिस आसन पर सुख पूर्वक अधिक से अधिक बैठा जा सके वह पद्मासन, अर्धपद्मासन आदि कोई एक आसन भी सुनिश्चित होना चाहिए । इतनी बाते स्थिरमासनमात्मनः से समझ लेना चाहिए । बाकी अर्थ स्पष्ट है ।।११।।

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्विशुद्धये ।।६/१२।।
             उसके पश्चात मन को एकाग्र करके चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को अपने आधीन करके पूर्वोक्त कहे गये आसन पर बैठकर आत्मशुद्धि के लिए अनुसंधान करे ।
               यहां मन, चित्त और आत्मा तीन शब्द दिये गये हैं । मन यानी विषयों का मनन करने वाला, उनमें रमणीयता देखने वाला । चित्त अर्थात विवेक बुद्धि जिसके द्वारा सत् असत् अथवा आत्मा और अनात्मा का विचार किया जा सके यही चित्त यानी बुद्धि का अनुशासन है । तीसरा है आत्मा की शुद्धि, तो आत्मा तो स्वभावतः शुद्ध ही है किल्बिष तो उस पर लादा गया है । उस संगति दोष से आये विकार का निवारण करना ही आत्मशुद्धि है । इन्द्रियों की क्रियाओं पर अनुशासन का अर्थ है उन्हें उनके विषयों के विचार से शून्य कर देना । विषयों का चिन्तन न करना । इस प्रकार चित्तशुद्धि के लिए जो वेदान्त आदि गुरु परंपरा से प्राप्त उसका चिन्तन यानी साक्षात्कार के लिए स्थिर होकर निर्भय होकर बैठे ।।६/१२।।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।६/१३।।
             शरीर, सिर और गर्दन को समान अचल रखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ, अपनी नाक के अग्रभाग को देखता हुआ स्थिर होकर बैठे ।
            यहाँ नासिकाग्रं स्वं शब्द उपस्थित है । यहाँ हम दो प्रकार से विचार करेंगे । पहला विचार यह है कि चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ५/२७ एवं भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् ८/१० इस प्रकार जिस पांचवें अध्याय का योग विस्तार यहाँ किया जा रहा है उसके अनुसार नाक के अग्रभाग का अर्थ यहाँ आज्ञा चक्र यानी दोनो भौहों के बीच का भाग ही बनता है और अध्याय आठ में भी योग के अन्तर्गत यही अर्थ दिया गया है । वैसे भी नाक का ओठों के ऊपर का उठा भाग पुच्छ भाग है न कि अग्रभाग । अग्रभाग ध्यान से देखें तो भ्रकुटी के मध्य से ही दिखेगी अतः यहीं ध्यान का आदेश अन्यथा पूर्वापर से विरोध होगा । दूसरी बात यहाँ ध्यान का प्रसंग है यहाँ ध्यान का कोई लक्ष्य नहीं है जबकि आगे युञ्जन्नेवं सदात्मानं ६/१५ अर्थात सदा आत्मा का ही अनुसंधान करे । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा ६/२५ अर्थात मन को आत्मा में स्थित करके कुछ भी चिंतन न करे । इसके अनुसार नाक का अगला भाग उपलक्षण है और भ्रकुटी में मन को स्थिर करके स्वम् अर्थात अपने आत्मस्वरूप का चिंतन करे । अर्थात अनात्पदार्थ पदार्थ से भिन्न स्वयं को देखे । यहां आचार्य शंकर नासिकाग्रं के साथ इव जोड़ते हैं । यहाँ इव का लोप माना है । मतलब दोनो नेत्रों की दृष्टि को भलीभांति नासिकाग्र में स्थिर करके आत्मस्वरूप का चिंतन करे यह भाव है । विस्तार श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखें ।।१४।।

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चितो युक्त आसीत मत्परः ।।६/१४।।
             परम शान्त अन्तःकरण वाला, निर्भय, ब्रह्मचारी के व्रत में स्थिर होकर मन का नियमन करके चित्त को मुझसे युक्त करके मुझ परम आत्मस्वरूप में बैठे ।
            अन्तःकरण में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये चार कहे गए हैं तथापि यहाँ मन अलग कह दिया गया है इसलिए शान्त अन्तकरण का मतलब कृतभाव के अहंकार से रहित बुद्धि का सभी विषयों से उपराम होकर एकमात्र आत्मा का निश्चय करके उसमें ही स्थित हो जाना, चित्त में चंचलता का न होना । निर्भय का मतलब ऐसे स्थान का चयन करना जहाँ मुमुक्षु को किसी से और किसी को मुमुक्षु से भय न हो । ब्रह्मचारि व्रत का मतलब अष्टविध मैथुन का त्याग, सुगन्धित द्रव्य का उबटन, तेल आदि का लेप न करना, गुरु सेवा में तत्पर रहना, वेदान्त का श्रवण मनन और निदिध्यासन करना, इत्यादि यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति ८/११ । इन सभी भावों में अविचल स्थित होकर मन को कहीं इधर उधर न जाने देकर चित्त को मुझ सर्वात्मा में जोड़कर अर्थात अभिन्न भाव से मुझ परब्रह्म परमतत्त्व में बैठ जाये अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ ब्रह्म ही मैं हूँ इस भाव में अचल भाव से स्थिर हो जाये ।
               सारांश― यहां पर त्वम् पदार्थ लक्ष्य आत्मा का तत् पदार्थ लक्ष्य ब्रह्म से एकता का प्रतिपादन किया गया है ।।१४।।

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।।६/१५।।
            मन को वश में रखने वाला योगी सदैव आत्मा का अनुसंधान करता हुआ मुझस्थानीय परमनिर्वाण रूपा शान्ति को प्राप्त करता है ।
           जो आत्मा का अनुसंधान करे निर्वाण स्वरूप परमात्मा के स्थान को यानी ब्रह्म रूपता को प्राप्त होकर परम निर्वाण स्वरूपा शान्ति अर्थात जिसकी प्राप्ति के बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता ऐसी ब्रह्मस्वरूपा मोक्षस्वरूप शान्ति को प्राप्त कर लेता है । यहां भगवान यह स्पष्ट करते है कि आत्मा और परमात्मा में पूर्णतः अभेद है । भेद देखना यानी परमार्थ तत्त्व को न समझ पाना है ।।१५।।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।।६/१६।।
           हे अर्जुन ! यह योग न अधिक खाने वाले का, न कम खाने वाले का सिद्ध होता है । न अधिक सोने वाले का और न कम सोने वाले का सिद्ध होता है ।
            पूर्वश्लोक में आत्मा की उपासना करने वाले की ब्रह्म रूपता बताने के लिए है कि यह योग कैसे सिद्ध होगा । तो पहले तो योग का अन्तिम लक्ष्य बताकर अब प्राथमिक साधना बताते हैं, कि अधिक खाने से अजीर्ण सहित बहुत रोग उत्पन्न होकर बाधा पहुंचायेंगे, आलस्य प्रमाद होगा । कम खाने या न खाने से शरीर असक्त होगा तो भी बैठ नहीं सकते अतः उस स्थिति में भी योग सिद्ध नहीं होगा । कम सोने से ध्यान के समय नींद बाधा करेगी और अधिक सोने से भी आलस्य प्रमाद होगा । अतः ये सभी नियमित होना चाहिए ।।१६।।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।६/१७।।
         उचित मात्र में आहार, विहार, उचित मात्र में क्रियाओं की चेष्टा अर्थात कर्म करने का प्रयत्न और उचित मात्र में किया गया कर्म, उचित मात्र में सोना और जागना इस प्रकार का योग दुःख का नाश करने वाला होता है ।
            संसार का सबसे बड़ा दुःख जन्म ही है, कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार संयम पूर्वक की गई धैर्यपूर्वक योगसद्धि मोक्ष देने वाली होती है, जिससे जन्म का चक्कर ही हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है ।।१७।।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ।।६/१८।।
            जिस समय भलीभाँति अनुशासित किया गया मन आत्मा में ही स्थित हो जाता है उसी समय संपूर्ण कामना की के स्पर्श से रहित ब्रह्म के साथ अभिन्न हुआ कहा जाता है ।
              यहाँ पर भलीभांति यह समझ लेना चाहिए कि यहाँ युक्त का अर्थ परमात्मा बिल्कुल नहीं है बल्कि परमात्मा के साथ आत्मा की अभिन्नता का कथन है क्योंकि इसी श्लोक में आत्मा में स्थित होने की बात कही गई है । इसी अध्याय में भी इससे पूर्व ऐसे ही कई श्लोक देखा जा सकता है । आत्मा में स्थित होकर आत्मसाक्षात्कार करने वाला ब्रह्म से अभिन्न कहा गया है । आत्मा में स्थित होकर आत्मसाक्षात्कार का तात्पर्य यह है कि आत्मा को भिन्न भावा से नहीं जाना जा सकता है क्योंकि जैसे नेत्र स्वयं को नहीं देख सकते वैसे ही स्वयं को स्वयं से अलग करके नहीं देख सकते इसलिए आत्मा में स्थित होकर ही आत्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है । यहाँ दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि जब आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तभी सभी कामनाओं का स्पर्श समाप्त होता है एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति २/७२ पहले नहीं और जब भी काम का स्पर्श समाप्त हो जाता है उसी समय ब्रह्मात्मैक्य कर्म का अपरोक्ष अनुभव हो जाता है यथैधांसि ४/३७ को भी देख लेना चाहिए ।
            भाव यह है कि आत्मस्थिति के बिना काम नाश संभव नहीं है ।।१८।।

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।।६/१९।।
              जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की लौ नहीं हिलती उसी प्रकार आत्मयोग का अनुसंधान करने वाले योगी के अनुशासित चित्त की होती है ।  
             यहाँ वायु रहित दीपक की लौ कहने का अर्थ है कि वायु तो है लेकिन सम है और शान्त है । इसी प्रकार मुमुक्षु योगी में वासना तो है लेकिन मात्र शरीर निर्वाह के निमित्त अनुशासित और शान्त । क्योंकि यदि बिल्कुल वासना नहीं होगी तो शरीर ही नष्ट हो जायेगा । आत्मयोग का अर्थ हैं ब्रह्म के साथ अपनी सीमित अहंता को जोड़कर व्यापक अहंता की अनुभूति अहं ब्रह्मास्मि के रूप में करना ।।१९।।

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मानात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।।६/२०।।
             जिस समय योग के सेवन से निरुद्ध हुआ चित्त शान्त हो जाता है और जब स्वयं को स्वयं में देखकर स्वयं संतुष्ट होता है ।
             यहाँ पर चित्त का अवरुद्ध होकर पूर्णतः शान्त होना निर्बीज समाधि का कथन करता है । निर्बीज दशा में स्वयं से भिन्न और कुछ होता ही नहीं है । स्वयं को स्वयं में देखने का अर्थ है कि वह परमतत्त्व स्वसंवेद्य है उसे न दूसरा देख सकता है और न ही दूसरा करके जाना जा सकता है यही स्वयं को स्वयं में देखना है । स्वयं ही संतुष्ट होने का तात्पर्य यह है कि और कोई वहाँ है नहीं न तो ईश्वर न ब्रह्म और न ही जगत । अतः वह मात्र आत्मरति वाला है, आत्मक्रीड़ा वाला है । संपूर्ण जगत और ब्रह्म सब कुछ अभिन्न हो गया है । अतः वह स्वयं में संतुष्ट है आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५ । उसकी संतुष्टि का कारण अगले श्लोक में स्पष्ट करते हैं ।।२०।।

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।।६/२१।।
            आत्यंतिक सुख बुद्धि द्वारा ग्राह्य किन्तु इन्द्रियों से परे है ऐसा जानकर यह योगी तत्त्व से विचलित नहीं होता ।
              आत्यंतिक सुख का तात्पर्य है जो अनन्त और असीम अर्थात जो अपरिच्छिन्न सुख इन्द्रियों का विषय नहीं होता बल्कि बुद्धि यानी विवेक द्वारा अनुभव किया जा सकता है । जब ऐसे आत्मसुख को यह योगी जान लेता है तब तत्त्व से विचलित इसलिये नहीं होता है कि उसकी दृष्टि में अनात्पदार्थ है ही नहीं । आत्मा से भिन्न कुछ हो तो उसकी प्राप्ति के लिए आत्मा से भिन्न विचार करे । अतः आत्मा से भिन्न कुछ न होने के कारण स्वयं से स्वयं में विचलित होने का प्रश्न ही नहीं बनता ।।२१।।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरूणापि विचाल्यते ।।६/२२।।
         जिस आत्मलाभ को प्राप्त करके उससे बढकर दूसरा लाभ नहीं मानता । जिसमें स्थित होकर बड़े से बड़े दुःख से भी विचलित नहीं होता ।
             आत्मा के स्वरूप को जानकर उसमें स्थित रहने वाला योगी संसार के प्रत्येक सुख दुःख क्षणिक हैं यह समझकर उनसे विचलित नहीं होता । तात्पर्य संसार और शरीर अन्त में नष्ट तो होना ही हैं तो फिर किसी भय से अपना कर्तव्य पालन क्यों त्यागा जाये । जब मरना ही है तो कर्तव्य पालन करके मरो हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् २/३७ अर्थात सर्वकर्म संन्यासी को कभी जीवन के मोह में पड़कर अपने कर्तव्य से विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिए । क्योंकि सब आत्मरूप ही है । अगर भय है तो हम कहीं न कहीं कमजोर अवश्य हैं ।।२२।।

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।६/२३।।
             उस दुःख के संयोग के वियोग का नाम योग है ऐसा जानकर उस आत्मा का निश्चय करके बिना उकताये आत्मयोग का अनुष्ठान करे 
             दुःख का संयोग यानी दुःख किन कारणों से होता है उस कारण को जानकर उसके कारण का ही निवारण यानी कारण को ही नष्ट करना ही योग है । जब बीज नहीं तो वृक्ष नहीं । जब दुःख का कारण नहीं तो दुःख नहीं । अर्थात जन्म मृत्यु रूप दुःख का कारण है काम । अतः आत्मयोग काम को ही नष्ट कर देता है अतः निश्चय पूर्वक आत्मानुसंधान करना चाहिए बिना किसी जल्दबाजी के । क्योंकि जल्दबाजी में अनेक प्रकार के शारीरीरिक और मनसिक विघ्न उत्पन्न हो सकते हैं जिससे योगभ्रष्ट होने का भय है । अतः यह निश्चय करे कि निरंतर चिन्तन करता हुआ शान्त भाव से सिद्धि असिद्ध में सम भाव रखता हुआ योग करे अथवा यह समझे कर्म करना मेरा काम है अतः मैं योग नामक कर्तव्य का पालन मात्र कर रहा हूँ । अथवा इस जन्म में नहीं अगले जन्म में अथवा और अगले जन्म में तो आत्मसिद्धि मिलेगी ही जनम कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ सम्भु न तो रहहुं कुमारी ।। इतना निश्चय और धैर्य पूर्वक किया गया योग का अनुष्ठान बड़े से बड़े दुःख का नाश करने वाला है ।।२३।

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्क्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।।६/२४।।
            संकल्प से उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओं का पूर्णतः त्याग करके मन सहित सभी इन्द्रियों को चारों ओर से अनुशासित करके ।
              पूर्व श्लोक में दुःख का संयोग कराने वाले काम का नाश करने वाला योग बताया गया है । अब बताते हैं कि काम का भी मूल क्या है ? क्योंकि वृक्ष की जब तक जड़ का नाश नहीं होगा तब तक डालें और पत्ते तोड़ने से नाश नहीं होगा वरन् और अधिक फलीभूत होगा । इसीलिये यहाँ काम की उत्पत्ति का मूल श्रोत बताया संकल्प को । यदि मन संकल्प करना ही छोड़ दे तो काम तो अपने आप ही नष्ट हो जायेगा । इसके लिए कहते हैं कि पहले मन सहित सभी इन्द्रियों को अपने आधीन करके फिर…..।।२४।।

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।।६/२५।।
            धीरे धीरे विवेक पूर्वक धैर्य धारण करके बाहरी जगत से उपराम हो जाये फिर मन को आत्मस्वरूप में स्थिर करके कुछ भी चिन्तन न करे ।
          श्लोक २३ में अनिर्विण्णचेतसा कहा था उसी को यहाँ शनैः शनैः कहा है । बुद्धि के द्वारा यानी आत्मा और अनात्मा का श्रुति एवं आचार्य के अनुकूल नीर-क्षीर की भांति निश्चय करके बहुत ही धैर्यपूर्वक आत्मा में मन का विलय करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे मतलब स्वरूप से भिन्न किसी भी अनात्म पदार्थ का चिन्तन न करे । इसका अर्थ यह हुआ जब तक हम आत्मसाक्षात्कार नहीं कर लेते हैं तब तक न हो कामना का ही नाश होगा और नहीं संकल्प का अतः हमें हर प्रयत्न आत्मसाक्षात्कार के लिए ही करना चाहिए ।।२५।।

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।६/२६।।
            कभी स्थिर न रहने वाला चंचल मन जहाँ जहाँ जाये वहां वहां अनुशासित करके भलीभाँति आत्मा में ही लगाये ।
            मन का स्वभाव है कभी स्थिर न होना एवं चंचल होना अर्थात एक विषय की पूर्ति भी नहीं हुई और दूसरे तीसरे अप्राप्त विषय का चिन्तन करने लगना । ऐसे अस्थिर और चंचल मन को अनुशासित यानी अपने आधीन करके भलीभांति आत्मा में ही लगावे । उसे वश में कैसे करना इसके लिए परंपरा गत मिले मन्त्र में मन को लगा देना । श्वासों को जोर जोर से खींचना छोड़ना, आराध्य के स्तोत्र और उसके अर्थ पर विचार करना इत्यादि का आश्रय लेकर आत्मा अनात्मा का विवेक करके आत्मभाव में स्थित होना ही लक्ष्य है । चूंकि आत्मा सर्वव्यापक है अतः जहाँ कहीं मन जाये वहीं आत्मदर्शन करे ।।२६।।

प्रशान्त मनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।।६/२७।
            जिसका मन पूर्णतः शान्त हो गया है, जिसके रजोगुण शान्त हो गये हैं ऐसा निष्पाप ब्रह्मस्वरूप में स्थित योगी उत्तम सुख को प्राप्त करता है ।
             मन पूर्णतः तब शान्त होता है अर्थात जब रजोगुण से उत्पन्न कामनाएं, लोभ, मोह आदि पूर्णतः नष्ट हो जायें ऐसा परम शान्त मन वाला निष्पाप अर्थात जिसने न पुण्य रूप कल्मष हैं न पाप रूप कल्मष हैं वह ब्राह्मी भाव को प्राप्त योगी अर्थात आत्मैक्यता को प्राप्त योगी आत्यंतिक सुख को प्राप्त करता है ।
            यहां पर कुछ लोग रजोगुण की निवृत्ति होने के कारण सात्त्विक सुख को ही उत्तम सुख कह दिया है । यहाँ दो प्रकार से देखें कि अध्याय १४६ में सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ सात्त्विक सुख को बन्धन का हेतु बताया है क्योंकि ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था १४/१८ अर्थात सात्त्विक ऊर्ध्व लोक को यानी देवादि योनियों को प्राप्त होते हैं अतः वे उत्तम सुखवाले हो नहीं सकते । यदि सर्वभूतेषु येनैकं १८/२० के अनुसार कहें तो वहाँ साधना के समय की जाने वाली भावना है जो परिच्छिन्न है और परिच्छिन्न को अपरिच्छिन्न का सुख हो नहीं सकता इसलिये वह भी आत्यंतिक सुख नहीं हो सकता है जबकि यहां ब्रह्मभूतमकल्मषं अर्थात निर्विकार ब्राह्मीभाव को प्राप्त होकर अपरिच्छिन्न भाव का अनुभव कर रहा है । अतः अपरिच्छिन्न सुख को भी शरीर रहते ही प्राप्त करके अर्थात वह जीते जी ही जीवन मुक्ति का आनन्द लेता है, यह भाव है ।।२७।।

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।।६/२८।।
           इस प्रकार योगी संपूर्ण कल्मषों से रहित निरंतर आत्मानुसंधान करता हुआ सुखपूर्वक ब्रह्म का भलीभांति स्पर्श करता हुआ सुख को प्राप्त करता है ।
            श्लोक २३ से जो उपासना क्रम प्रारंभ हुआ था उसी क्रम से पूर्व श्लोक तक क्रमशः साधना करता हूआ ब्रह्मीभाव को प्राप्त हो जाता है । जैसे नदी जब जिस समय समुद्र के निकट पहुंच कर समुद्रत्व का अनुभव करते हुए डेल्टा बनाती है उस समय भी यद्यपि लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि यह नदी है और यह समुद्र तथापि नदी को अपने नदीत्व का ज्ञान बिल्कुल नहीं होता बल्कि वह समुद्रत्व का ही अनुभव करती है यही है नदी का समुद्रीभूत होना, किन्तु वहां से नदी का समुद्र से पीछे हटना संभव नहीं होता है और समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व को खोकर समुद्र हो जाती है वैसे ही पहले योगी ब्राह्मीभूत होकर आत्यंतिक सुख का अनुभव करता हुआ सभी कल्मषों से रहित होकर अपने लक्ष्य आत्मा का अनुसंधान करता हुआ ब्रह्म का भलीभाँति सुखपूर्वक यानी बिना किसी बाधा के सहज ही स्पर्श कर लेता है अर्थात जो अभी तक आत्मा और ईश्वर अलग है ऐसा जानता था वह भेद मिटाकर अब एकता को प्राप्त होकर जीवात्मैक्यता का अचिन्त्य सुख प्राप्त करता है । यहां पर भी पूर्वोक कहा गया उत्तम सुख ही है । 
           यहाँ सुखपूर्वक ब्रह्म को प्राप्त करने का तात्पर्य यह है कि श्लोक १० से लेकर अब तक जो साधन बताये गये हैं उनका आश्रय लेकर उसके अनुसार जो साधन करता है उसके मार्ग की संपूर्ण बाधाएं नष्ट हो जाती हैं, बाधाओं के नाश होने पर सहज ही अचिन्त्य सुखदायक ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है इन्हीं साधनों को सन्नियम्येन्द्रियग्राम १२/४ संक्षिप्त रूप में कहेंगे और जो इन साधनों को बिना अपनाये अव्यक्त ब्रह्म की उपासना करेगा उसके लिए दुःखमाप्तुमयोगतः ५/६ में कह चुके हैं और क्लेषोऽधिकतरस्तेषाम् १२/५  से आगे कहेंगे, इनकी व्याख्या उन्हीं स्थानों में देख लेना चाहिए ।।२८।।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शिनः ।।६/२९।।
              सर्वत्र समान रूप से अपने आपको देखने वाला योग से युक्त हुआ ज्ञानयोगी अपनी आत्मा को  संपूर्ण प्राणियों में और संपूर्ण प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है ।
               यहाँ संपूर्ण प्राणियों में स्वयं को और स्वयं में सबको देखने का तात्पर्य है एक अपरिच्छिन्न परमत्त्व को सबमें देखना । यह ध्यान के समय में इस प्रकार का अपरिच्छिन्न अनुभव करता है यह बताया गया है ।।।२९।।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।६/३०।।
             जो मुझको सबमें देखता और और सबको मुझमें देखता है उससे न मैं अदृश्य होता हूँ और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।
               इससे पूर्व श्लोक में सबमें स्वयं को और सबको स्वयं में देखने को कहा और यहाँ पर सबको में ईश्वर में और ईश्वर को सबमें देखने की बात कहते हैं । पूर्व श्लोक में समदर्शन की बात कही समत्वं योग उच्यते २/४८ अर्थात यदि समदर्शन नहीं हुआ तो समझो योग सिद्ध नहीं हुआ और सम दर्शन होने पर समत्व का लक्षण है निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ अर्थात समत्व दर्शन का अर्थ निर्विकार ब्रह्म में प्रतिष्ठा है । इसी प्रकार आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५ अर्थात आत्मा में स्थित होने के साथ ही युक्त आसीत मत्परः २/६१ अर्थात मुझसे अभिन्न होकर बैठे अर्थात शान्त हो जाये कहा । इसी प्रकार गुणकर्मविभागयोः ३/२८ अर्थात प्रकृति का ज्ञान करते हुए आत्मा में स्थित होने के लिए कहते हुए बीच में मयि सर्वाणि कर्माणि ३/३० अर्थात सभी कर्म आध्यात्मिक बुद्धि से मुझमें त्यागकर । तमेव शरणं गच्छ १८/६२ अर्थात उस परमेश्वर की शरण में सर्वप्रकार से जा । मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ अर्थात एकमात्र मेरी शरण में आ जा । इसके अतिरिक्त और भी बहुत जगह पर यह परस्पर विरोधी वाक्य अविवेक दशा में दिखने वाले हैं हैं किन्तु पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः १५/१० अर्थात इस रहस्य को तत् और त्वम् पदार्थ का ज्ञान रखने वाले तत्त्वदर्शी भलीभांति जानते हैं । यहाँ के दोनो श्लोकों का दर्शन अध्याय ४ मे करते हैं― येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ४/३५ अर्थात जिसे जानकर पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा एवं संपूर्ण प्राणियों को पहले अपने में और फिर मुझमें देखेगा । ठीक यही व्याख्या यहां के पूर्व लोक के साथ येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मनि की व्याख्या और अथो मयि की इसी श्लोक के साथ स्पष्ट तत् और त्वं पदार्थ की अभिन्न व्याख्या की गई है । 
               ये सभी प्रमाण इस बात को स्पष्ट करते हैं कि जो भी गीता में भेद दर्शन करते हैं वे भारतीय दर्शनशास्त्र में अभी नवजात शिशु हैं । हमें ऐसे शिशुओं की बातों की उपेक्षा करके ही अपना कार्य करना चाहिए । गीता आत्मा से भिन्न किसी अन्य ईश्वर को नहीं मानती, यही गीता का एकमेवाद्वितीयम्, सर्वं खल्विदं ब्रह्म,अयमात्मा ब्रह्म, वासुदेवः सर्वं, आदि श्रुति-स्मृति प्रतिपादित गीता का सिद्धांत है । जो कहीं भी ईश्वर या परमात्मा शब्द से वर्णन किया गया है वह मात्र व्यावहारिक और लक्ष्य तक अपने अपने अधिकार के अनुसार पहुंचने का मार्गदर्शन मात्र है । बल्कि गीता में परमात्मा, ईश्वर, और विराट को भी जीव कोटि में अध्याय १३,१४,१५ में उपाधि के कारण माना गया है । जिसे ब्रह्म नाम से अस्ति मात्र का लक्ष्य कराया गया है वही निर्विशेष केवलाद्वैत परमतत्त्व है  उसी का इन दोनो श्लोकों में प्रतिपादन किया गया है और अगले दो श्लोकों में भी किया जायेगा ।।३०।।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजेकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वतर्मानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।६/३१।।
           जो संपूर्ण प्राणियों में एकमात्र मुझ परमेश्वर को ही अपरिच्छिन्नरूप से स्थित देखता है वह इसी वर्तमान शरीर में ही सारे व्यवहार मुझमें ही करता है ।
             यहाँ पर अपरिच्छिन्न देखने का अर्थ यह नहीं है कि सबमें तो परमेश्वर देखे और स्वयं को परमेश्वर से भिन्न देखे । संपूर्ण जगत के प्राणियों सहित स्वयं को भी परमेश्वर से अभिन्न देखे कि मैं सीमित अहंता वाला देवदत्त नहीं हूँ बल्कि व्यापक अहंता वाला सबका आत्मा परम तत्त्व हूँ । यह सब, मैं और वह ये सब मैं ही हूँ और मैं ही वह है । ऐसा अपरिच्छिन्न भाव में स्थित योगी का सभी व्यवहार परमेश्वर में ही जीते जी होने का मतलब वह जीवन रहते ही मुक्त हो गया है, वह सद्यः मुक्त है । यहां पर द्वैतवादियों ने एकत्व के अर्थ में आत्मा को ब्रह्म के समान माना है अभिन्न नहीं माना है उनका यह अनुचित तर्क गीता के सिद्धांत के विरुद्ध है― न त्वत्समोऽस्त्भ्यभिधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ११/४३ यही प्रमाण है कि उसके समान कोई नहीं हो सकता है ।।३१।।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।६/३२।।
              हे अर्जुन ! अपनी आत्मा की उपमा से सर्वत्र एक आत्मा को जो देखता है, फिर चाहे दुःख हो या सुख वही परमयोगी है ऐसा मेरा मत है ।
              शरीर के भिन्न भिन्न अंग और भिन्न भिन्न कार्य होने पर भी सभी अंगों को मिलाकर उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हुए भी एक ही शरीर का भाव रहता है । वैसे ही उस विराट का संसार की विविधता ही शरीर हैं और उसमें चेतना या क्रिया शक्ति का जिस प्रकाश में स्फुरण होता है वह प्रकाश सबमें बराबर एक ही है ऐसा जो समझते हुए व्यवहार करता है कि किसी को कष्ट न हो, अगर किसी को भी कष्ट या भय हुआ तो परमेश्वर का हनन होगा ऐसा व्यवहार करने में व्यक्तिगत रूप से भले सुख हो या दुःख हर परिस्थिति में सम रहने वाला ही आत्मैक्य को प्राप्त करने वाला योगी है ऐसा भगवान का मत है । इन दोनो श्लोकों की व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखना चाहिए ।।३२।।

          समीक्षा― श्लोक १० में निरंतर ऐकान्तिक आत्मानुसंधान के लिए कहने के पश्चात मुमुक्षु के साधनों पर प्रकाश डालते हुए पवित्र देश, एकान्त, निरंतर समाहित चित्त होकर  परमेश्वर में बैठकर यानी परमेश्वर से अभिन्न होकर स्थित हो जाने पर सदैव मन पर अनुशासन करते हुए आत्मा का अनुसंधान करते हुए परमेश्वर से अभिन्न परम् शान्त निर्वाण पद को को प्राप्त करता है यह बताया, किन्तु यह योग सिद्ध कैसे होगा इसके लिए आहार, विहार सोना जागना इत्यादि चेष्टाओं के संयम पर भी प्रकाश डाला गया है ताकि योग में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो अन्यथा उचित क्रिया के अभाव में शरीर नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित होकर योग का बाधक बन जाता है ।
          जब मन आत्मा में भलीभांति प्रतिष्ठित हो जाता है तभी सभी कामनाओं की इच्छा समाप्त हो जाती है अर्थात सुने गये और सुने जाने वाले सभी शरीर के संबंध से प्राप्त होने वाले दुःख के हेतु सुखों से वैराग्य हो जाता है । तब वह स्पंदन रहित वायु के स्थान में रखे दीपक की लौ भांति अविचल आत्मा में स्थित होकर निर्विकल्प दशा में स्वयं को स्वयं में स्वयं ही देखता है अर्थात स्वयं से भिन्न कुछ भी नहीं देखता । जब समाधि से उपराम होता है तब भी स्वयं को स्वयं में ही देखकर संतुष्ट होता है कि हम जो पहले समझते थे उससे भिन्न ही सब कुछ निकला यह आश्चर्य करता हुआ स्वयं से भिन्न विचार न करना ही स्वयं से स्वयं में संतुष्ट होना है ।
                  यह आत्यंतिक सुख इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य किन्तु विवेकवती बुद्धि के द्वारा ही अभिन्न रूप से ग्रहण होता है, जिसे प्राप्त करके और कुछ भी प्राप्त करना आत्मा की प्राप्ति से बढकर न तो मानता है और न ही विचलित होता है । यह आत्मविद्या चंचलता का त्याग करके अनुष्ठान करने से जन्म मरण रूप दुःख के कारण काम का ही नाश कर देता है अतः बिना उकताए धैर्यपूर्वक धीरे धीरे मन को आत्मा में स्थित करके काम की जड़ संकल्प का ही त्याग कर देना चाहिए । फिर भी यदि मन बीच में पूर्व आसक्ति के कारण कहीं भागता है तो वहीं वहीं आत्म तत्त्व का दर्शन करके अनुशासित करते हुए निर्विकार ब्रह्म के आत्यंतिक सुख अनुभव करते हुए सुख पूर्वक बिना किसी बाधा के आत्मस्वरूप ब्राह्मी सुख को प्राप्त करता है ।
                  संपूर्ण प्राणियों को अपने में और अपने को संपूर्ण प्रणियों में देखता हुआ मेरे साथ एकीभाव को प्राप्त हुआ मेरा आत्मरूप ७/१८ मेरे लिए और मैं उसके लिए अत्यंत प्रिय होने के कारण ७/१७ कभी एक दूसरे से अदृश्य नहीं होते । इसी प्रकार सभी प्राणियों में अपनी ही आत्मा को और सभी प्राणियों को अपने में शरीर की दृष्टि से देखने वाला सर्वथा मुझमें ही सभी क्रियाओं को सुख दुःख की परवाह किये बिना जो आत्मभाव में स्थित है वही भगवान के मत में योगी है, अन्य नहीं ।।११-३२।।

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतास्याहं न पश्यामि चञ्छलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ।।६/३३।।
              अर्जुन बोले― हे मधुसूदन !  आपने जो भली प्रकार समत्वयोग कहा है, मन की चंचलता के कारण इसमें स्थिति को स्थिर नहीं देखता ।
            साम्येन अर्थात जो सम्यक यानी भलीप्रकार से, योग यानी समत्वयोग । अर्थ स्पष्ट है योग का अर्थ समत्व स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है समं पश्यति यो इस पूर्व श्लोक से लेकर पूर्व के प्रकरण स्वयं देखे जा सकते हैं ।।३३।।

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।६/३४।।
              क्योंकि हे कृष्ण ! मन प्रमथनशील, बहुत ही बलवान और दृढ निश्चय वाला है । उसको वश में करना मैं वायु को रोकने के समान दुष्कर यानी असंभव मानता हूँ ।
          यहां पर वायु से भी अधिक कठिन मन पर अनुशासन बताया गया है । प्रमाथि का अर्थ प्रमथनशील यानी जैसे दही को मथानी से मथते हैं वैसे ही यह मन मनुष्य को मथ डालता है । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।३४।।

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।६/३५।।
            श्रीभगवान बोले― हे महाबाहो ! इसमें संशय नहीं है कि मन चंचल और वश में न होने वाला है तथापि हे कौन्तेय ! अभ्यास पूर्वक वैराग्य से इसे रोका जा सकता है ।
            अभ्यास और वैराग्य द्वारा मन को रोकने की बात कही है अर्थात हमारा मन विषयी है अतः हमें विषयों से वैराग्य हो इसके लिए साधन चतुष्टय का आश्रय लेकर अभ्यास करना होगा, जब वैराग्य निर्वेद को प्राप्त हो जाये अर्थात वैराग्य की चरमसीमा संपूर्ण अनात्म पदार्थ से वैराग्य हो जाये मात्र आत्मपद के अतिरिक्त कुछ भी शेष न बचे ऐसा वैराग्य निर्वेद कहलाता है । ऐसा जब वैराग्य हो जाये तब मन को नियंत्रित किया जा सकता है ।।३४।।

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्माना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।।६/३६।।
           जिसका विवेक अनुशासित नहीं उसके लिए यह योग दुष्प्राप्य है ऐसा मेरा मत है, किन्तु जिसका मन वश में किया हुआ है वह प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करने में समर्थ है ।
            यहाँ पर प्रथम आत्मा का अर्थ विवेक किया है कारण कि योग प्राप्ति में बुद्धि का एकनिष्ठ होना अत्यावश्यक है व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह २/४१ जबकि व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते २/४४ यहाँ पर व्यवसायात्मिका में ‛अ’ का लोप विद्वानों ने माना है । ‘अ’ के सहित अव्यवसायात्मिका हो जायेगा जैसा कि २/४१ में है अर्थात चंचल बुद्धि आत्मा अनात्मा का विचार कभी नहीं कर सकती है बिना विचार के निश्चय नहीं होगा और बिना निश्चय के मन न स्थिर होगा और न वश में, किन्तु जो मुमुक्षु सर्वकर्म संन्यासी श्रुति एवं आचार्य के मार्गदर्शन में साधन चतुष्टय संपन्न होकर आत्मा अनात्मा का नीरक्षीर न्याय से विवेक करके एकमात्र आत्मा में ही एकनिष्ठ हो जाता है वह मन को वश में करने वाला ही इस समत्व रूप योग को प्राप्त करने में समर्थ होता है ।
            यहां पर विद्वानों ने शक्यः का अर्थ सकना यानी सामर्थ्य में किया है अर्थात वह समत्व को प्राप्त कर सकता है । ‛सकता है’ यह वाक्य संशय ग्रस्त है हो भी सकता है और नहीं भी, किन्तु यह अर्थ सकना के स्थान पर समर्थ कर देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो भगवान की वाणी का अक्षरशः क्रमशः पालन करता है वह समत्वयोग को बलपूर्वक या पुरुषार्थ से प्राप्त कर ही लेता है । अतः यही आधार मानकर हमने शाक्यः का अर्थ समर्थ किया है ।।३६।।

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।।६/३७।।
               अर्जुन बोले―  हे कृष्ण ! जिसकी समत्व रूप अव्यक्त ब्रह्मतत्त्व में श्रद्धा तो है लेकिन साधन में शिथिलता के कारण अन्त समय में मन विचलित हो जाने से अपरिच्छिन्न ब्रह्म का अपरोक्ष प्राप्त न कर सकने के कारण वह किस गति को प्राप्त होगा ?
         अयति अर्थात जो आत्मस्वरूप में भलीभांति प्रयत्न न करने वाला किन्तु उसमे श्रद्धा रखने वाला है ऐसे मुमुक्षु का मन विचलित होने पर― मन के विचलित होने के अनेक कारण हैं शरीर की असमर्थता से लेकर सभी तीनो प्रकार की बाधाएं हैं उनके कारण समत्व रूप आत्मप्रतिष्ठित न होने पर उसकी गति को पूछने का कारण यह है कर्म तो निष्काम करता रहा अतः कर्म का फल स्वर्गादि लोक भी मिलेगा नहीं और इसी निष्कामता के कारण मनुष्य के जन्म का भी हेतु नहीं दिखता तो उसकी स्थिति क्या होगी ? यह भाव है ।
           यहां पर मूल अयतिः शब्द है जिसका अर्थ विद्वानों ने प्रयत्न की शिथिलता किया है तथापि वास्तव में अर्थ अजितेन्द्रियता है । इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं किया बलात् सर्वकर्मसंन्यासी हो गया अतः इसी दंभ के चलते मन की आन्तरिक विषयासक्ति के कारण अंत में पतन हो गया । यह अर्थ अध्याय ३/६ के आधार पर समझना चाहिए ।।३७।।
            

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।६/३८।।
          स्वरूप में प्रतिष्ठित न होने के कारण ज्ञान मार्ग से मोहित होकर कहीं वह बादलों के छिन्न भिन्न होने की तरह उभय भ्रष्ट होकर नाश तो नहीं हो जाता ?
            ज्ञानमार्ग से मोहित अर्थात अव्यक्तनिर्विशेष ब्रह्म की उपासना में आसक्त होने के कारण उसने स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति के लिए सकाम कर्म किया नहीं अतः वे लोक भी उसे मिलने नहीं और ज्ञान मार्ग के फलस्वरूप ब्रह्म में भी भलीभांति स्थिर न हो पाने के कारण कहीं वह दोनो यानी कर्म मार्ग और ज्ञानमार्ग के फलस्वरूप मिलने वाली सिद्धि स्वर्ग लोक या आत्मप्रतिष्ठा में से किसी को भी न पाकर नष्ट तो नहीं हो जाता है । 
              यहाँ बादलों का उदाहरण इस लिए दिया गया है, बादलों से अलग हुआ एक टुकड़ा वायु प्रवाह के वेग के कारण अपने अगले और पिछले किसी समूह में बिना मिले बीच में ही छिन्न भिन्न हो कर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार का यहां उभय भ्रष्ट समझना चाहिए ।।३८।।

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वद्न्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ।।६/३९।।
               हे कृष्ण ! मेरे इस संशय का पूर्णतः नाश करने में आप ही योग्य हो । क्योंकि आपसे अतिरिक्त और कोई इस संशय का नाश करने वाला नहीं हो सकता है ।
          संपूर्ण ज्ञान तो स्वयं परमेश्वर हैं अतः उनकी अचिन्यशक्ति के फलस्वरूप ही अन्य भी आत्मा अनात्मा के संशय का निवारण करते हैं और वे ही परमेश्वर स्वयं कृष्ण रूप में सामने उपस्थित हैं तो और किसी के द्वारा संशय का निवारण हो भी नहीं सकता है अतः आप ही निवारण करें ।।३९।।

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।।६/४०।।
             श्रीभगवान बोले― हे पार्थ ! उस आत्मयोगी का न तो इस लोक में और न ही उस लोक में नाश होता है क्योंकि हे तात ! कल्याणकारी कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।
        अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर अध्याय समाप्ति पर्यंत भगवान देंगे । कल्याणकारी कर्म जगत में आने के बाद एक ही होता है और वह है आत्मस्वरूप में स्थित होकर जन्म-मृत्यु रूप बंधन को काट देना । यहाँ पर विनाश का अर्थ भाष्यकार आचार्य शंकर ने नीच जाति में उत्पन्न होना ही किया है तथापि आचार्य जी से मैं अंशतः ही सहमत हूँ पूर्णतः नहीं, क्योंकि आचार्य जी स्वयं भी सदन कसाई सहित अन्य महाभारत में वर्णित ब्रह्म को प्राप्त होने वाले निम्न जातियों का वर्णन आता है जो जानते भी होंगे । कबीर की जहाँ जाति पर ही ग्रहण लग जाता है वहीं सूरदास के विषय में सुना है कि वे मुसलमान थे जो वेदबाह्य थे और भी बहुत हैं विस्तार भय से संक्षिप्त ही समझ लेना चाहिए । ये सभी आप्त कामी थे, थोड़ा प्रकाश श्लोक ४२ में भी डालूंगा । यहाँ पर मेरा मानना है कि विनाश मानवेतर योनियों पड़कर पुनः चौरासी लाख योनियों का भ्रमण करना ही विनाश है । यह ज्ञानमार्ग में मोहित हुए के लिए नहीं होता । क्योंकि खेती आदि अन्य कर्म तो बड़ी बाधाओं वाले हैं कुछ भी करो किन्तु फसल का घर में आने तक संशय बना रहता है किन्तु इस आत्मयोगी के लिए ऐसा नहीं है ।।४०।।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।६/४१।।
             योगभ्रष्ट आत्मयोगी पुण्य कर्म करने वाले लोकों में बहुत वर्ष रहकर पवित्र और ऐश्वर्य संपन्न कुल में उत्पन्न होता है ।
              ‘शाश्वतीः समाः’ का अर्थ है बहुत अधिक दीर्घकाल तक, यहां पर पवित्र कुल और और लौकिक ऐश्वर्य अर्थात धन-धान्य सम्पन्न, समाज में प्रतिष्ठित कुल में योगभ्रष्ट का जन्म माना गया है । शास्त्रों में पवित्र कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही माने गये और शूद्रों को तो पापों का परिणाम माना गया है । अतः इन तीन कुलों में वैश्य लोभी रजोगुण प्रधान प्रकृति का होता है अतः धन होने पर भी ब्राह्मण और क्षत्रिय (राजा) के कुल, ऐश्वर्य और धन के सामने बिल्कुल नहीं टिकता । क्षत्रिय भी सत्त्व मिश्रित रजोगुण प्रधान है अतः यह भी कुल और ऐश्वर्य दृष्टि से ब्राह्मण के सामने नहीं टिकता । इस आधार पर जो स्वभाव से ही पवित्र और लौकिक एवं पारलौकिक ऐश्वर्य से संपन्न एवं कुल दृष्टि से भी यहाँ पर ब्राह्मण होने के ही अवसर अधिक हैं ।।४१।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ।।६/४२।।
          अथवा ऐसा योगभ्रष्ट बुद्धिमान योगी के ही कुल में जन्म लेता है । इस प्रकार का जो  यह जन्म संसार मे है निश्चय ही अत्यंत दुर्लभ है ।
        यहां पर किसी पवित्र कुल की भी बात नहीं की और किसी ऐश्वर्य की भी बात नहीं की । यहां पर यह भी नहीं कहा कि पुण्य करने वालों के लोक में जायेगा । इससे यह सिद्ध होता है कि पूर्व श्लोक में योगभ्रष्ट पहले बहुत ही सकाम कर्मों को करके अन्त में निष्काम भाव को प्राप्त हुआ किन्तु वे पूर्व के उसके पुण्य नष्ट नहीं हुए और आत्मभाव को भी प्राप्त नहीं हुआ और अन्त समय में प्रयत्न की शिथिलता के कारण पुनः उन कृत कर्मों का स्मरण हो आया और इसी समय शरीर छूट गया फलस्वरूप उन स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करके पुण्य क्षीण होने पर शेष पुण्य का भोग भोगने उपरोक्त कुल में उत्पन्न होकर पुनः साधना करके निष्काम हुआ सभी कर्म और उसके फल को ज्ञानाग्नि में दग्ध करता हुआ परमतत्त्व को प्राप्त कर लेता है । 
         अवथा कहकर उपरोक्त कथन से पूर्णतः विलक्षणता का वर्णन करते हैं कि जिसके सभी पुण्य जो स्वर्ग लोक को प्राप्त कराने वाले थे वे नष्ट हो गये अतः स्वर्ग तो मिलना नहीं, किन्तु आप्त कामी है, अतः पतन रूप मानवेतर अन्य योनियों में भी जाना नहीं है इसलिये जबकि उसकी संसार की आसक्ति समाप्त हो चुकी है तथापि आत्मा में भलीभांति प्रतिष्ठित नहीं हो पाया इस बीच में शेर, सांप, रोग आदि के कारण शरीर छूट गया तो वह कुल और ऐश्वर्य की अपेक्षा से भी रहित मात्र आत्मयोगी हो वह किसी भी कुल या जाति, वर्ण का हो अथवा निर्धन ही क्यों न हो उसके यहां जन्म लेता है । इस प्रकार का जो यह संसार में जन्म होता है वह दुर्लभ ही नहीं अत्यंत ही दुर्लभ है । ऐसे जन्म के लिए ही कृष्ण ने मनुष्याणां सहस्रेषु ७/३ कहते हुए वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ७/१९ कहा है ।।४२।।    

तत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ।।६/४३।।
              हे कुरु कुल को आनन्द देने वाले ! वहाँ पर वह पूर्वजन्म में किये गये साधनों के फलस्वरूप बुद्धियोग का संयोग को प्राप्त करता है और उससे वह पुनः पहले से और अधिक ज्ञानयोग की भलीभांति सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है ।
          चूंकि पहले के जन्म के संस्कार उसमें हैं ही अतः योगी के कुल में जन्म लेने के कारण सहज ही उसके पूर्व जन्म के संस्कार और योगी के कुल संस्कार दोनो मिलकर बद्धि को ज्ञान योग की सिद्धि के लिए विवेक को जाग्रत कर देते हैं हैं यही बुद्धि का संयोग प्राप्त करना है । अथवा कोई पारिवारिक या सामाजिक ऐसी घटना घटे जायेगी जो मन को झकझोर कर रख देगी, फलस्वरूप वैराग्य हो जायेगा और वह पुनः अपनी अधूरी साधना की पूर्ति के लिए प्राणपर्यंत जितनी सामर्थ्य होगी उतना प्रयत्न सिद्धि प्राप्ति के लिए करेगा ।।४३।।

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।।६/४४।।
            पूर्व शरीर में किये गये उस योगाभ्यास के द्वारा ही वह योगभ्रष्ट परवश हुआ आत्मयोग की ओर खींच लिया जाता है । जिज्ञासु होने के कारण भी योग के निमित्त सकाम कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है ।
            परवश का तात्पर्य यह है कि अधिक पुण्य हुआ तो स्वर्गादि जायेगा और अधिक पुण्य न हुआ तो तुरन्त जन्म लेकर उन पूर्व के संस्कारों का उदय होते ही अव्यक्त ब्रह्म की उपासना के लिए खींच लिया जाता है अर्थात स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है । दूसरी बात यदि पाप अधिक हुआ तो अजामिल आदि की तरह पहले तो पाप कर्म में प्रवृत्त होगा और पापों के क्षय होने पर वह फिर अव्यक्त की ओर स्वतः किसी घटना आदि के माध्यम से परवश खींच लिया जायेगा । यहां जिज्ञासु का अर्थात मुमुक्षु अर्थात सर्वकर्मसंन्यासी कहा गया है । चूंकि योग अर्थात निर्दोष निर्विशेष ब्रह्म प्राप्ति के निमित्त उसमें ब्रह्म जिज्ञासा के कारण-― यहाँ शब्द ब्रह्म कहिए― यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः २/४२ में कहे गये सकाम कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है । इस प्रकार ये चार विकल्प योगभ्रष्ट योगी के पुनः योग में प्रतिष्ठित होने के बताए गये हैं ।।४४।।

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।।६/४५।।
            पुनः अनेक जन्मों के पापों से भलीभांति शुद्ध हुआ योगी प्रयत्नपूर्वक चित्त को समाहित करके भलीभांति सिद्धि को प्राप्त करके फिर परमगति को प्राप्त करता है ।
            प्रयत्नात् और यतमानः इन दो शब्दों का यद्यपि अर्थ एक जैसा दिखा है तो भी जो पहले अयतिः ६/३७ अर्थात प्रयत्न की शिथिलता कहा था उसी के लिए यहां यह कहना चाहते हैं कि इस जन्म में उसका प्रयत्न शिथिल नहीं होता वरन् जिसनी उसमें सामर्थ्य है वह सब की सब योग साधना में ही लगा देता है । आगे जो बहूनां जन्मनामन्ते ७/१९ कहेंगे वहीं यहां अनेक जन्म कहा है । संसिद्धि जो यहाँ पर कहा है वही वासुदेवः सर्वम् ७/१९ कहेंगे । तात्पर्य यह है कि अनेक जन्मों के निरंतर अभ्यास से संपूर्ण पाप और उसके सहित पुण्यों का नाश हो जाने के पश्चात इस अन्तिम जन्म में योगी समत्वयोग नामक ज्ञान की सिद्धि प्राप्त करके स्व-स्वरूप नामक निर्विकार आत्मपद रूपी पद में प्रतिष्ठित होकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का अनुभव करता हुआ परमपद को प्राप्त करता है । यही बात अध्याय ७/१९ में भी अन्तिम जन्म में वासुदेवः सर्वम् के माध्मय से कहेंगे ।।४५।।

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्याश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।६/४६।।
         तपस्वी से योगी अधिक श्रेष्ठ है, ज्ञानी से योगी अधिक श्रेष्ठ है, कर्मयोगी से भी अधिक योगी श्रेष्ठ है ऐसा मेरा मत है । इसलिये हे अर्जुन तू योगी बन ।
          तपस्वी   से सकाम चान्द्रायण, कृच्छ्रचान्द्रायण आदि तप, ज्ञानी से मात्र शास्त्र ज्ञानी― वह चाहे जितनी सूक्ष्म व्याख्या करने वाला हो, एवं कर्मयोगी इन सभी से ज्ञानयोगी श्रेष्ठ है ऐसा भगवान का मत है । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि तप का निषेध किया, शास्त्रीय ज्ञान का निषेध किया, कर्म का भी निषेध किया और योगी बनने के लिए कहते हैं । 
        इससे यहाँ स्पष्ट अव्यक्त उपासक ज्ञानयोगी सर्वकर्मसंन्यासी का ही वर्णन किया गया है । योग की परिभाषा समत्वं योग उच्यते २/४८ अर्थात योग का अर्थ समत्व किया है और समत्व का अर्थ निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ अर्थात निर्विकार ब्रह्म किया है । यहाँ योगी होने के लिए कहने का अर्थ है तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ५/१९ अर्थात यहाँ स्पष्ट ब्रह्म में स्थित यानी अभिन्न होकर स्थित होने के लिए अर्थात अहं ब्रह्मास्मि के अर्थभूत सत्ता पद में स्थित होने का आदेश दिया गया है ।।४६।।


योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मनः ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ।।६/४७।।
         उन सभी योगियों में भी जिनका मन श्रद्धा पूर्वक मुझमें स्थित होकर मेरे स्वरूप का चिन्तन करते हैं वे ही अव्यक्त उपासकों में सर्वश्रेष्ठ हैं ऐसा मेरा मत है ।
            विशेष यह भी ध्यान रखना होगा कि इसके पहले योगी बनने को भी कहा है किन्तु वह आत्म स्थित अहंकार उत्पन्न करके परिच्छिन्न आत्म भाव में ही भ्रमित न हो जाये इसके लिए यहाँ मूल में आत्मा कहा गया है उस त्वम् पदार्थ को मत् आत्मप्रत्यय के साथ एक करके माम् यानी तत्पदार्थ के साथ एकत्व का लक्ष्य यहाँ निर्दिष्ट है । इस समझ को भी पक्षपात रहित होकर समझना आवश्यक है । यही समझ ज्ञान है और उसमें स्थित विज्ञान है जिसका वर्णन अब आगे अध्याय ७ से प्रारंभ होगा ।
            वस्तुतः यहाँ परकुछ विद्वानों द्वारा साकार विग्रह का निरूपण किया गया उसकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है क्योंकि अध्याय ११/५४ में भी अव्यक्त की उपासना की बात कहकर ११/५५ में सगुणोपासना की बात कहते हैं । इसी बात को लेकर अर्जुन द्वारा वहाँ अव्यक्त यानी निर्गुण निराकार एवं सगुण साकार के उपासकों में अधिक श्रेष्ठ कौन है पूछा गया है । वहाँ पर अर्जुन के प्रश्न और श्रीकृष्ण का साकार उपासक को श्रेष्ठ कहना एवं क्लेषोऽधिकतरस्तेषां १२/५ से जिस अव्यक्त की प्राप्ति की दुर्लभता कहेंगे वह सभी प्रसंग यहाँ श्लोक ३३ से लेकर अध्याय समाप्ति पर्यंत उपस्थित हैं । 
              अतः इसका अर्थ इस प्रकार भी कर लेना चाहिए उन समत्वदर्शी तत्त्ववेत्ताओं में भी जिसका मन मुझसे साकार परमेश्वर से अभिन्न होकर आत्मरूप से श्रद्धापूर्वक मेरा भजन करता है वह मेरे मत में श्रेष्ठ है ।।४७।। 

                समीक्षा― प्रश्न यह है कि संसार विषम है, उसमें समत्व कैसे देखा जा सकता है ? क्योंकि कोई ब्राह्मण तो कोई चाण्डाल, कोई पशु तो कोई सर्प, पक्षी, कोई स्वर्ण तो कोई पत्थर या मिट्टी । अतः क्या कोई ऐसी उपमा है जो इन सभी के साथ समता रखने वाली हो ? इस पर भगवान ने कहा बिल्कुल है― हमारा शरीर ही उपमा है । हम पैर से कुछ और व्यवहार करते हैं तो हाथ से कुछ और, मुख का व्यवहार कुछ और तो घ्राण नाक कान, गुदा, लिंग आदि का व्यवहार और, तथापि उन सबमें एक मात्र शरीर भाव रहता है । यह हाथ शरीर नहीं हो सकता, यह पैर शरीर नहीं हो सकता ऐसा कभी मन में भी नहीं आता क्योंकि ये सभी तो सप्तधातु के परिणामस्वरूप इन्द्रियों के सहित ही तो शरीर है और सभी जगह मैंपने की उपस्थिति रहती है, इसी प्रकार हमें सर्वत्र व्यापक एक परमतत्त्व को अलग अलग व्यवहार करते हुए भी देखना चाहिए । यह सुनकर अर्जुन को शंका होती है कि मन प्रमथनशील स्वभाव वाला है, इसको रोकना वायु से भी अधिक कठिन है कैसे रुक सकता है ? इसके उत्तर में कहा कि ये बात ठीक है कि जिसने मन को वश में नहीं किया है उसका मन पर नियंत्रण नहीं हो सकता है तथापि निरंतर गुरु एवं शास्त्रों के निर्देश के अनुसार अभ्यास करने से इस मन को रोकना संभव है ।
               अर्जुन पुनः शंका करता है कि जो अपने सकाम कर्म का त्याग कर दे और इस समत्व रूप योग को भी प्राप्त न कर पाये तो उसकी गति क्या होगी ? क्या उसका सर्वथा नाश हो जायेगा ? इस पर श्रीभगवान ने बताया कि यह योग जिसका पुरुषार्थ शिथिलता के कारण या अजितेन्द्रियता के कारण सिद्ध नहीं हुआ है उसका भी कभी विनाश नहीं होता है । वह पुण्यकर्मा के स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होकर पुनः मृत्युलोक में किसी ब्रह्मज्ञानी ऐश्वर्य संपन्न ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेकर अथवा बिना स्वर्गादि गये सीधे ही किसी योगी के घर में जन्म लेकर पुनः पहले से अधिक पुरुषार्थ पूर्वक चौदहों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके पूर्वजन्म के संस्कारों या किसी संयोग से सकाम कर्मों का उल्लंघन करके अनेक जन्मों के पश्चात संसार में ऐसे दुर्लभ अन्तिम जन्मवाला सभी शुभ और अशुभ विकारों से भलीभाँति शुद्ध यानी मुक्त होकर परम गति अर्थात स्व-स्वरूप से अभिन्न मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है ।
          अन्त में दो श्लोकों में पहले इस आत्म प्रतिष्ठित ज्ञानयोगी की प्रशंसा करते हुए उसी ज्ञानयोग में अर्जुन को स्थित होने का आदेश देते हैं और अगले ही श्लोक में अपने साकार विग्रह से मन को परमेश्वर में अभिन्न करके फिर श्रद्धापूर्वक परमेश्वर का भजन करने वाले को श्रेष्ठ कहते हुए त्वम् पदार्थ का तत् पदार्थ में एकीभाव वाले योगी को श्रेष्ठ कहते हैं । इसका भी कारण यह है कि यद्यपि त्वम् पदार्थ का लक्ष्यार्थ आत्मा और तत् पदार्थ का लक्ष्यार्थ ब्रह्म दोनो अभिन्न हैं तथापि त्वम् पदार्थ लक्ष्यार्थ आत्मा की उपासना में परिच्छिन्न अहं के उदय होने और ईश्वरीय सत्ता को नकार कर सांसारिक मर्यादा के हनन और पतन के अधिक अवसर हैं अतः तत् पदार्थ लक्ष्यार्थ ब्रह्म में त्वम् पदार्थ लक्ष्यार्थ आत्मा का उसी प्रकार विलय कर दे जिस प्रकार नदी अपना विलय समुद्र में कर देती है यह एक उत्कृष्ट विज्ञान बताया गया है । यहां पर त्वम् पदार्थ का तत्पदार्थ में लय करने की विधि क्या है यह न बताकर अगला सातवां अध्याय अलग से प्रारंभ करते हैं ।।३३-४७।।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ।।६।।





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