गीता समीक्षा अध्याय १०
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ दशमोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ।।१०/१।।
श्रीभगवान बोले― एवं हे महाबाहो ! मेरे श्रेष्ठ वचनों को पुनः सुनो, जिसे मैं तुम्हारी प्रियता और हित की इच्छा से कहूँगा ।
अर्जुन को अपने अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ सहित तात्त्विक स्वरूप अध्याय सात से नौ तक समझा चुकने पर भी अर्जुन को सुख पहुंचने वाले एवं तत्त्व का निर्णय करने वाले वचनों को पुनः यहां श्लोक दस तक बताएंगे कि किस प्रकार मैं सबका निमित्तोपादन ७/६ कारण हूँ ? किस प्रकार सभी मुझे में मणियों के धागे में पिरोये के समान मुझसे अभिन्न हैं ? किस प्रकार मैं ही संपूर्ण प्राणियों का बीज आदि हूँ ? मेरे समग्र रूप को जानने का साधन क्या है और किस प्रकार मुझे कोई भी प्राप्त कर सकता है । यह सब अर्जुन को प्रिय लगे अर्थात अर्जुन ने श्रेय का मार्ग अ.२/७,३/२ एवं ५/२ में पूछा था उसी श्रेय की प्राप्ति का साधन बताने में ही अर्जुन को सुख पहुंचेगा और उस साधन की प्राप्ति से ही उसका कल्याण भी होगा ऐसे परम वचन अर्थात जिन वचनों से बढकर और कोई वचन नहीं हो सकते ऐसे तत्त्व का निर्णय करने वाले वचनों को भगवान अब अर्जुन के बिना पूछे ही कहकर अर्जुन के प्रश्न का उत्तर पूर्ण करते हैं ।।१।।
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ।।१०/२।।
मेरी उत्पत्ति के विषय में न तो देवता ही जानते हैं और न ही सर्वज्ञ महर्षिगण ही जानते हैं क्योंकि मैं ही देवताओं, महर्षियों और संपूर्ण प्राणियों का आदि हूँ ।
यहाँ शंका होती है कि मनुष्याणां सहस्रेषु ७/३ के द्वारा करोड़ों में किसी एकाध के तो जानने की बात आती है फिर यहां कोई नहीं जानता कहने का क्या तात्पर्य है ?
इसका समाधान दो प्रकार से देखिए कि जो मेरा आत्मस्वरूप और मुझसे अभिन्न वासुदेवः सर्वम् करके जो अद्वितीय रूप से जानता है वही मुझे जानता है किन्तु जो मेरा गुणमयी अवतार आदि के हेतु के स्वरूप होता है उसको माया से मोहित मूढबुद्धि, अल्पबुद्धि और बुद्धिहीन कभी नहीं जानते । ७/२३-२५।। किन्तु जो मुझे अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ के सहित इन तीनो स अभिन्न किन्तु इनसे भिन्न जानता है वही मुझे जानता है है अन्य नहीं । यही बात अध्याय नौ में राक्षसी और आसुरी प्रकृति से अचेत हुए मूढबुद्धि द्वारा न जानने की बात ९/११-१२ कही है । अतः यहाँ पर जिन देवताओं और ऋषियों के द्वारा न जानने की बात कही है उसके साथ ही यह भी कह दिया है कि अहमादिः अर्थात मैं ही सबका आदि हूँ । मतलब जो देवता आदि ब्रह्मा पर्यंत रजोगुण प्रधान हैं वे मुझे नहीं जानते, और महर्षि सत्त्वगुण प्रधान होने के कारण मुझे नहीं जानते क्योंकि तीनो गुणों का प्रकाशक मैं ही हूँ और वे अभी तीनो गुणों से ऊपर नहीं उठ सके इसलिये अभी उनमें भेद दृष्टि होने के कारण वे नहीं जानते । इसका मतलब जो तीनो गुणों से ऊपर उठ चुका है जिसे भगवान अपनी आत्मा ७/१८ अर्थात अपना स्वरूप कहते हैं वह स्वरूप होने के कारण स्वसंवेद्य रूप से जानता है यही गीता का निर्णय समझ में आता है ।
दूसरी बात यह कि देवताओं और महर्षियों का आदि होने का अर्थ है देवत्व और ऋषित्व तो मैं ही प्रदान करता हूँ अतः जैसे बच्चा अपने पिता की उत्पत्ति नहीं जानता है वैसे ही ये भी मेरी उत्पत्ति नहीं जानते हैं ।
यहाँ जो द्वैतवादी यह कहते हैं कि वेदान्ती कहते हैं कि भगवान को कोई नहीं जानता, वे गीता के इस भगवद्वचन को वेदान्तियों का वाक्य कहकर गीता से बाहर अब तक क्यों नहीं किया ? या आपकी बुद्धि कहीं घास चरने गई है ? विचार करो कि भगवान कहते हैं― जो शरीर को तपाने वाला अर्थात गुरु के पास रहकर गुरु की सेवा न करने वाला हो, मेरा भक्त न हो, जो सुनने की इच्छा न रखता हो, मुझमें एवं मेरी वाणी में दोष देखता हो १८/६७ वह इस गीता ज्ञान का अधिकारी ही नहीं है । तो सोचो कि ये भगवान की वाणी में आपके द्वारा देखा जाने वाला दोष क्या भगवान में दोष देखना नहीं हुआ ? इस दोष के चलते अन्य तीन दोष भी स्वतः आ ही जाते हैं । ऐसे विचार कर दिया अपने क्षुद्र विचारों पर ध्यान दो और फिर बात करो क्योंकि ठीक इसके अगले ही श्लोक में भगवान को कौन जानता है अध्याय सात में निर्णय करके यहां भी निर्णय दिया जा रहा है अपने चर्म चक्षु की जगह विवेक चक्षु से अगले श्लोक का भी विचार कर लो ।।२।।
यो मामजमनादिं वेत्ति लोक महेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।१०/३।।
जो मुझ सर्वात्मा को अज अर्थात अजन्मा, अनादि अर्थात उत्पत्ति से रहित जानता है एवं संपूर्ण ईश्वरों का भी ईश्वर जानता है वह बुद्धिमान इस मृत्युलोक में ही अर्थात शरीर रहते ही सभी पापों से मुक्त हो जाता है अर्थात जीवनमुक्त हो जाता है ।
इस श्लोक में जिस प्रकार से भगवान जानने की बात कह रहे हैं उसके अनुसार पूर्व श्लोक में जो विद्वानों ने यह कहा है कि देवता और ऋषि अवतारों के रहस्य को नहीं जानते यह बात आपके अनुसार उचित है तो भी, अवतारों का लक्ष्य पहले से आंशिक रूप से निश्चित होता है अतः ऋषिगण उतना तो जानते ही हैं तभी श्रीराम के वन गमन पर भरतादि को भरद्वाज आदि ऋषियों ने वनगमन का लक्ष्य बताया था, किन्तु यहाँ जिस स्वरूप की बात कही है वह माया से मोहित त्रिगुणात्मक प्राणियों के संबंध में ही कहा है चाहे वे रजोगुणी देवता हों या सत्त्वगुणी ऋषिगण । क्योंकि जो निराकार का आदर करता है साकर की उपेक्षा करता है और जो साकार का आदर करता है और निराकार की उपेक्षा करता है वे ब्रह्म के एक एक भाग को ही जानते हैं पूर्णतः नहीं जानते यही उपरोक्त श्लोक का तात्पर्य प्रतीत होता है किन्तु जो साकार और निराकार में सर्वत्र एक ही परमसत्ता को जानता है वही सर्वत्र आत्मस्वरूप वासुदेवः सर्वम् के रहस्य को जानने वाला विवेकशील जीवनमुक्त साक्षात् मेरा आत्मा यानी मेरा स्वरूप है और स्वरूप स्वयं ही स्वयं को नहीं जानेगा तो और कौन जानेगा ?
सारांश― जो नित्य, एकरस, षड्विकारों से रहित, सबका आत्मा, प्रकृति के गुण कार्यों पर शासन करने वाला, चिन्मात्र, सत्तामात्र, स्वसंवेद्य आत्मरूप करके जो जानता है वही जानता है अन्य नहीं । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः ४/१८ की ही आवृत्ति यहाँ असम्मूढः से समझना चाहिए ।।३।।
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ।।१०/४।।
बुद्धि, ज्ञान, निश्चय, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, उत्पत्ति, प्रलय भय, और अभय ।
बुद्धि यानी सत् असत् का निर्णय करने वाली वृत्ति, ज्ञान अर्थात आत्मतत्त्व विषयक ज्ञान क्योंकि इसी ज्ञान को ही ज्ञान कहा गया है बाकी सब अज्ञान है १३/११, असम्मोह यानी आत्मतत्त्व में निश्चयात्मिका वृत्ति । दम यानी इन्द्रियों पर अनुशासन करना अर्थात वश में रखना, शम अर्थात अन्दर की वृत्तियों का शान्त होना । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।४।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ।।१०/५।।
अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश, अपयश ये प्राणियों में अलग अलग भाव मुझसे से ही उत्पन्न होते हैं ।
अहिंसा अर्थात शारीरिक मानसिक और अर्थित क्लेश न देना, अपनी आत्मा की तरह सभी प्राणियों के सुख दुःख का अनुभव करना, सामर्थ्य के अनुसार सहयोग करना अथवा ऐसा आचरण न करना जिस आचरण का उलट कर व्यवहार करने पर स्वयं को कष्ट हो यही समता है । तुष्टि अर्थात जो कुछ प्रारब्धवश प्राप्त है उसी में संतुष्ट होना । शेष अर्थ स्पष्ट है ।
ये सभी अलग अलग प्रकृति के प्राणियों उत्पन्न होने वाले बीस भाव परमेश्वर से उत्पन्न होते हैं अर्थात परमेश्वर की ही विभूतियां हैं । इनमें जो परमार्थ पथ के साधन रूप में हैं उनका तो आचरण करना, भय और निर्भय, जीवन और मृत्यु , सुख और दुःख आदि विपरीत स्थिति को परमात्मा की विभूतियों का अनुग्रह समझकर उनसे उद्विन न होना यही भाव इन विभूतियों से मुमुक्षु के लिए निर्दिष्ट हैं ।।५।।
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मनसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ।।१०/६।।
सात महर्षि, इनसे भी पूर्व के सनकादिक चारों भाई और चौदह मनु, ये सभी मेरे मानसिक संकल्प से मेरे ही भाव को प्राप्त हुए हैं जिनकी इन लोकों में प्रजा है ।
सप्तर्षि एक पद है, सनकादिक चारों भाइयों को जो जगद्गुरु का पद प्राप्त हुआ है, प्रत्येक कल्प में प्रजा की वृद्धि और संरक्षण एवं शासन करने वाले प्रत्येक मन्वन्तर के प्रथम शासक के मनु नाम का पद मेरे ही संकल्प से उत्पन्न होता है । जो साक्षात् मेरे ही स्वरूप हैं ।
यहाँ पर हम बता देना चाहते हैं कि जिन भी आचार्यों ने पूर्वे को सप्तर्षियों के साथ संलग्न करके चत्वारो को मनवः के साथ संलग्न करके सावर्णि आदि चार मनु की कल्पना की है । यह बात भले ही उचित हो तथापि मेरे गले के नीचे नहीं उतरती है कारण की चौदह में से सातवां वैवश्वत मन्वन्तर अभी चल रहा है और इसकी समाप्ति के बाद ही सावर्णि नाम से कहे जाने वाले अन्य सात मन्वन्तर प्रारंभ होंगे । किसी चर्चा के समय किसी विद्वान महात्मा ने आचार्य शंकर के सावर्णि आदि का पक्ष मजबूत करते हुए कहा कि वैवश्वत मन्वन्तर समाप्त हो गया है । तो हमने प्रश्न किया कि अगर वैवश्वत मन्वन्तर समाप्त हो गया है तो श्वेतवाराहकल्पे वैवश्वत मन्वन्तरे संकल्प वैदिक कार्यों में क्यों पढ़ा जाता है ? सावर्णि मन्वन्तरे क्यों नहीं ? इस पर उन्होंने कहा कि इस लिए पढा जाता है कि वैवश्वत मन्वन्तर समाप्त हो गया है और सावर्णि के प्रारंभ के पहले का संधि काल चल रहा है । हमने पुनः प्रश्न किया कि मन्वन्तर में कितने युग होते हैं क्योंकि वर्तमान संकल्प में पढे जाने वाले मन्वन्तर में अठ्ठाइसवीं चतुर्युगी चल रही है । इस पर वे महाराज भड़क गये बोले तुम आचार्य का विरोध करते हो अपनी जबरन बात मनवाते हो । यह सुनकर मैं मौन हो गया । जितने भी विवेकशील हैं वे थोड़ा विचार करें और जिन्होंने योगवाशिष्ठ पढ़ी है तो वे यह भी जानते हैं कि वशिष्ठ जी श्रीराम जी से कहते हैं कि हे राम ! तुम ब्रह्मकल्प के बहत्तरवें त्रेतायुग में उत्पन्न हुए हो । वशिष्ठ जी की इस बात के अनुसार कोई बता सकता है कि जब हम स्पष्ट श्वेतवाराहकल्प का अठ्ठाइसवां कलियुग पढते हैं अर्थात अठ्ठाइसवीं चतुर्युगी इस कल्प की चल रही है तो कल्प का निर्णय कौन करेगा कि प्रत्येक कल्प में कितने युग होते हैं और इस समय सावर्णि मन्वन्तर का पक्ष क्यों ? यदि कोई यह कहे कि कल्पभेद से ऐसा भी हो सकता है, तो मेरा प्रश्न होगा कि आचार्य शंकर ने जिस गीता की व्याख्या की वह किस कल्प के मन्वन्तर की होगी और ये आचार्य जी भी किस कल्प के किस मन्वन्तर में अवतरित हुए थे ? क्या इसका उत्तर भी किसी के पास है ?
हमने ये विचार विवेकशीलों के निमित्त रखा है । मैं इस विषय में अनभिज्ञ हूँ, अतः निर्णय आप लोग ही कर लें मैं यहाँ गीता अध्याय ८/१७ के आधार पर कल्प और मन्वन्तर का विवेचन कर रहा हूँ । ब्रह्मा जी का एक दिन एक हजार चतुर्युगी का होता और इतने ही युग की रात्रि होती है । यही एक हजार चतुर्युगी कल्प कहलाता है । इस एक दिन में चौदह इन्द्र और चौदह मनु एवं मन्वन्तर कहे गये हैं यह शास्त्र विधान करता है । अतः हम ब्रह्मा जी के एक दिन अर्थात एक कल्प की हजार चतुयुगी को चौदह से विभाजित करते हैं तो― १०००÷१४=७१.४२८५७१४ अर्थात ७१.४२८५७१४ चतुर्युगी होती हैं । जैसा कि योगवासिष्ठ का उदाहरण बहत्तरवीं चतुर्युगी का दिया । इसमें शंका हो सकती है कि यह गणित बहत्तर से कुछ कम पड़ रहा है तो इसमें सन्धिकाल की भी गणना की जा सकती है क्योंकि दो मन्वन्तरों के बीच सन्धिकाल का भी कुछ समय होता है । इस आधार पर वैवश्वत मन्वन्तर आधा भी नहीं गया है । सब ओर से विचार करके देखने पर चतुर्दिक् मात्र धर्म और धर्माचार्यों की श्रद्धा के नाम पर मुंह बंद करने की अवैदिकता, हठधर्मिता लोगों में अत्यंत व्याप्त है । वे यह भूल जाते हैं कि आचार्यों ने भाष्य टीकाएं जिन पर की हैं वे उनके उन पर अपने अनुभव हैं मुख्य शास्त्र नहीं । शास्त्र के अनन्त भाव हैं और उन भावों, विचारों पर नियंत्रण करना विचारहीनता है । यही विचारहीनता का बंधन आज हमारे समाज को ऐसी एक गहरी खाई में गिरा चुका है जिसका बचना तो अब परमेश्वर की कृपा पर ही निर्भर करता है । रूढिवादी विचार इसी को कहते हैं कि नये विचारों को ऊपर उठने न देना और पुराने जो देश काल का अनुगमन नहीं करते ऐसे विचारों को थोपना और उनके विचारों के नाम से समाज को गुमराह करना । आज के मानव समाज को ऐसे रूढिवादी विचारों से ऊपर उठना ही होगा यदि वह अपना कल्याण चाहता है तो ।
यह प्रमाण तो हमने भगवती गीता के आधार पर दिया जो स्वयं गीता की काल गणना का विरोधी है । अब हम नेट से लिए गये कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जो समय का निर्णय करेंगे । वह भी इसलिये कि आचार्य शंकर कभी श्रुति और शास्त्र के विरुद्ध नहीं बोल सकते, जबकि यह अंश शास्त्र की काल गणना के अनुसार सनातन संकृति के विरोधियों द्वारा प्रक्षेपित करके आचार्य को शास्त्र विरोधी बताकर समाज में भ्रम फैलाकर हमारी सनातन संस्कृति को विकृत करने का असफल प्रयत्न किया गया है । कुछ विचारों का विस्तार श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में भी देखना चाहिए ।
सृष्टि कि कुल आयु : 4294080000 वर्ष इसे कुल 14 मन्वन्तरों मे बाँटा गया है.
वर्तमान मे 7वें मन्वन्तर अर्थात् वैवस्वत मनु चल रहा है. इस से पूर्व 6 मन्वन्तर जैसे स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तमि, तामस, रैवत, चाक्षुष बीत चुके है और आगे सावर्णि आदि 7 मन्वन्तर भोगेंगे.
1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी 1 चतुर्युगी = चार युग (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग)
चारों युगों की आयु :-- सतयुग = 1728000 वर्ष त्रेतायुग = 1296000 वर्ष द्वापरयुग = 864000 वर्ष और कलियुग = 432000 वर्ष इस प्रकार 1 चतुर्युगी की कुल आयु = 1728000+1296000+864000+432000 = 4320000 वर्ष अत :
1 मन्वन्तर = 71 × 4320000(एक चतुर्युगी) = 306720000 वर्ष चूंकि एेसे - एेसे 6 मन्वन्तर बीत चुके है . इसलिए 6 मन्वन्तर की कुल आयु = 6 × 306720000 = 1840320000 वर्ष वर्तमान मे 7 वें मन्वन्तर के भोग मे यह 28वीं चतुर्युगी है. इस 28वीं चतुर्युगी मे 3 युग अर्थात् सतयुग , त्रेतायुग, द्वापर युग बीत चुके है और कलियुग का 5115 वां वर्ष चल रहा है . 27 चतुर्युगी की कुल आयु = 27 × 4320000(एक चतुर्युगी) = 116640000 वर्ष और 28वें चतुर्युगी के सतयुग, द्वापर, त्रेतायुग और कलियुग की 5115 वर्ष की कुल आयु = 1728000+1296000+864000+5115 = 3893115 वर्ष इस प्रकार वर्तमान मे 28 वें चतुर्युगी के कलियुग की 5115 वें वर्ष तक की कुल आयु = 27वे चतुर्युगी की कुल आयु + 3893115 = 116640000+3893115 = 120533115 वर्ष इस प्रकार कुल वर्ष जो बीत चुके है = 6 मन्वन्तर की कुल आयु + 7 वें मन्वन्तर के 28वीं चतुर्युगी के कलियुग की 5115 वें वर्ष तक की कुल आयु = 1840320000+120533115 = 1960853115 वर्ष . अत: वर्तमान मे 1960853115 वां वर्ष चल रहा है और बचे हुए 2333226885 वर्ष भोगने है जो इस प्रकार है ... सृष्टि की बची हुई आयु = सृष्टि की कुल आयु - 1960853115 = 2333226885 वर्ष । यह गणना महर्षिदयानन्द रचित ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के आधार पर है ।
मैं इस बात पर अडिग हूँ कि यह आचार्य का भाष्यांश प्रक्षिप्त है । ये शास्त्रीय विचार हैं इन पर जितना मंथन किया जाये कम है । अतः इन विचारों को यहीं विश्राम देते हुए आगे अपने लक्ष्य की ओर बढते हैं ।
सारांश― सप्तर्षियों से प्रवृत्तिमार्गी मैथुनी सृष्टि, सनकादिकों से निवृत्ति मार्गी और मनुओं से अनुशासनात्मक सृष्टि से जो त्रिलोकी व्याप्त है वह सब मेरे साक्षात् स्वरूप सात, चार, चौदह की संताति होने के कारण सब के मूल में मैं परमात्मा ही हूँ अतः संपूर्ण सृष्टि इस प्रकार से मेरा ही मुझ परमेश्वर से अभिन्न स्वरूप है यह इसका भाव है । अस्तु ।।६।।
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ।।१०/७।।
इस प्रकार ये मेरे विभूति और योग को जो तत्त्वतः जानता वह कभी विचलित न होने वाले योग से यजन करता है इसमें संशय नहीं है ।
विभूति का अर्थ विस्तार और योग का अर्थ प्रकृति या माया शक्ति । बुद्धि आदि बीस भाव, सात, चार, चौदह अर्थात पच्चीस, इस प्रकार कुल पैतालीस विभूतियों का यहाँ पर वर्णन किया जो परमेश्वर और प्रकृति के संयुक्त अभियान का अंग । यहाँ तत्त्व यह जानना है संपूर्ण जगत प्रकृति और पुरुष से ही व्याप्त है उससे भिन्न नहीं है । एवं प्रकृति का अधिष्ठान पुरुष प्रकृति की अपनी कोई सत्ता नहीं है । साथ ही वह इस इन विभूतियों की ही संतति से संपूर्ण जगत व्याप्त है, अतः जगत उनसे भिन्न नहीं और वे परमात्मा से अभिन्न हैं क्योंकि ये सभी भगवान के मन से के संकल्प से उत्पन्न इसीलिये कहा भद्भावा यानी मेरे भाव वाले अर्थात मेरी ही ऐश्वर्य अर्थात सामर्थ्य से युक्त साक्षात् मुझसे अभिन्न मेरा ही स्वरूप हैं । प्रकृति पुरुष के रहस्य को भलीभांति स्वरूपतः जानने वाला कभी विचलित नहीं होता योग के द्वारा यजन का अर्थात समत्व भाव में समाहित अर्थात स्थिर हो जाता है ।।७।।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।।१०/८।।
मैं ही संपूर्ण संसार की उत्पत्ति अर्थात मूल कारण हूँ सभी मुझे से चेष्टा करते हैं । इस प्रकार मानकर विवेकशील मेरे भाव से भावित होकर मेरा भजन करते हैं ।
ऊपर विभूतियों के अनुसार संसार का मूल कारण परमेश्वर हैं और संपूर्ण चेष्टाएँ उस परेश्वर से ही हो रही हैं ऐसा जानकर भावसमन्विताः का अर्थ है परेश्वर से अभिन्न भाव वाला होकर भजन यानी स्वरूप का चिन्तन करता है ।।८।।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः पररस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।१०/९।।
मुझमें मन वाला हो, मुझमें ही प्राण वाला हो, परस्पर मेरे ही स्वरूप और सामर्थ्य का अनुभव कहते हुए मुझमें ही नित्य संतुष्ट रहते हैं और मुझमें ही रमण करते हैं ।
यहाँ पर मन और प्राणों को परमेश्वर से अभिन्न कहा गया है, अर्थात समाहित होकर स्वयं को परमात्मा से अभिन्न मानता हुआ परस्पर स्वरूप के तात्त्विक अनुभव एक दूसरे मुमुक्षु को कहता हुआ मुझ स्वसंवेद्य सर्वात्मा में ही ही संतुष्ट रहे आत्मन्येवात्मा तुष्टः २/५५, मुझमें ही रमण करे यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।३/१७।। अर्थात आत्मयोगी का आत्मा से भिन्न संतुष्टि, रमण और कार्य कुछ और कहीं है ही नहीं । अतः आत्मा से भिन्न कोई भी वृत्ति बने ही नहीं यह भाव है ।।९।।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धयोगं तं येनमामुपयान्ति ते ।।१०/१०।।
उन पूर्वोक्त कहे गये प्रकार से निरंतर मुझमें ही समाहित चित्त वाले प्रेमपूर्वक भजन करने वाले मुमुक्षुओं को ज्ञानयोग देता हूँ जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
यहां पर भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि ज्ञानयोग द्वारा ही मुझको प्राप्त किया जा सकता है मेरी प्राप्ति का अन्य कोई साधन ही नहीं है ।।१०।।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।१०/११।।
उन मुझसे अभिन्न भाव रखने वाले मुमुक्षुओं पर अनुग्रह करने के लिए ही अज्ञान से उत्पन्न अंधकार का आत्मभाव में स्थित होकर ज्ञानदीप के द्वारा प्रकाश करके नाश कर देता हूँ ।
वे परमेश्वर जगद्गुरु हैं । आचार्य आदि के द्वारा उपदेश कराकर फिर आत्मभाव अर्थात अपने अन्दर में ही गुरुजनों के उपदेश की अनुभूति कराकर उसमें आत्मा अनात्मा के विचार रूपी ज्ञानदीप के प्रकाश अर्थात आत्मा में एकमेवाद्वितीम् का दृढ निश्चय कराकर अज्ञान से उत्पन्न अंधकार यानी मूढता का नाश कर देते हैं । मूढता यानी स्वरूपगत विस्मृति का नाश कर देते जिससे जीवब्रह्मात्मैक्य बोध हो जाता है यह भाव है ।।११।।
अध्याय सात से लेकर यहां तक श्रीभगवान ने ज्ञान-विज्ञान का विस्तृत वर्णन करते हुए जीवब्रह्मात्मैक्य के साधनों का विधिवत प्रतिपादन कर दिया । भगवान ने कहा था पश्ययोगमैश्वरम् ९/५ अर्थात मेरे योग यानी प्रकृति को और ऐश्वर्य अर्थात उसके और मेरे संयुक्त सामर्थ्य को जान लो । उसी का स्मरण करता हुआ अर्जुन विचार करता है कि योग और ऐश्वर्य का वर्णन तो भगवान ने कर दिया और हमने उस सामर्थ्य और परमेश्वर के निर्विकारी भाव को समझ भी लिया है तथापि और अधिक विस्तार समझ में आ जाये तो अच्छा हो, किन्तु सीधे तो बोल नहीं सकता था, इसलिए स्तुति पूर्वक विभूतियोग को देखने की प्रार्थना करता है―
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेमजं विभुम् ।।१०/१२।।
अर्जुन बोले― परम्ब्रह्म, परम् धाम अर्थात परम प्रकाशस्वरूप सबको सत्ता देने वाले सत्ता मात्र, परम् पवित्र, नित्य एवं दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा एवं सर्वव्यापी आप ही हो ।।१२।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।१०/१३।।
तुम्हारे विषय में सभी ऋषिगण, तथा देवर्षिनारद, असित, देवल, श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास जी, और आप स्वयं भी मुझसे कहते हो ।।१३।।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ।।१०/१४।।
हे केशव ! जो आप मुझसे कहते हो वह सब ज्यों का त्यों (संशय विपर्यय रहित होकर) सत्य मानता हूँ । क्योंकि आपकी उत्पत्ति को देवता, दानव कोई नहीं जानता ।
न मे विदुः सुरगणाः प्रवभं न महर्षयः १०/२ के भगवान के कथन की स्वीकृति ।।१४।।
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ।।१०/१५।।
हे पुरुषोत्तम ! हे भूताभावन ! हे भूतेश ! हे देवदेव ! हे जगत्पति ! आप स्वयं ही स्वयं से स्वयं को जानते हो ।
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः १०/७ की स्वीकृति करते हुए भगवान के बल, ऐश्वर्य, विस्तार लय आदि पीछे से लेकर यहाँ तक की स्वीकृति ।।१५।।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ।।१०/१६।
इसलिये अशेष रूप से अपनी दिव्य विभूतियों को कहने में आप ही योग्य हो जिन विभूतियों से इन लोकों को व्याप्त करके आप स्थित हो ।।१६।।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु च भावेषु चिन्त्योसि भगवान्मया ।।१०/१७।।
हे योगिन् ! मैं कैसे जानूं किस प्रकार निरंतर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ ? और हे भगवन् ! आप किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन के योग्य हैं ?
यहाँ अर्जुन कह रहा है यह बात तो ठीक है कि आपको न देवता जानते हैं और न ही ऋषिगण तथापि मैं आपको जानना चाहता हूँ और आप योगी अर्थात माया के स्वामी हो अतः उस माया को पार करके कैसे आपको जानूं क्योंकि माया के पार तो आप ही कर सकते हैं । दूसरी बात आप भग अर्थात ऐश्वर्यशाली हो तो आप का ऐश्वर्य का किन किन प्राणियों वस्तुओं आदि में चिन्तन करने योग्य है । यद्यपि संपूर्ण जगत परमात्मा का ऐश्वर्य है तो भी एक चिन्तन पतन की ओर ले जाता है और दूसरा चिन्तन उत्थान की ओर अतः चिन्तन के योग्य कहने का भाव है कि मेरा उत्थान जिन पदार्थों के चिन्तन से हो सके वह मुझे बताइए, इतना अध्याहार कर लेना चाहिए ।।१७।।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ।।१०/१८।।
हे जनार्दन ! चूंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनकर तृप्ति नहीं हो रही है इसलिए अपने योग अर्थात प्रकृति और विभूति अर्थात विस्तार को और अधिक विस्तार से कहो ।।१८।।
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।।१०/१९।।
श्रीभगवान बोले― ठीक है, चूंकि मेरी दिव्य आत्मस्वरूप विभूतियों का अन्त नहीं है अतः हे कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष ! प्रधानता अर्थात संक्षेप से विभूतियों को तेरे लिए कहूंगा ।
यहाँ दिव्य विभूति का अर्थ आचार्य जी ने देवलोक में रहने वाली विभूति किया है तथापि आगे कही जाने वाली लगभग सभी विभूति पृथ्वी पर ही अवतरित हुई अतः उन्हें पृथ्वी लोक से भिन्न नहीं किया जा सकता है ।।१९।।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।१०/२०।।
हे गुडाकेश ! संपूर्ण प्राणियों में शयन करने वाली अर्थात हृदय में अहमर्थक आत्मा मैं हूँ । संपूर्ण प्राणियों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ ।
सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा जिसे सीमित अहंता वाला ‛मैं’ करके जाना जाता है वह मैं और कोई नहीं स्वयं परमात्मा ही है अतः सीमित अहंता का त्याग करके व्यापक अहंता के साथ तादात्म करके संपूर्ण प्राणियों में स्थित आत्मा मैं ही हूँ इस प्रकार मुमुक्षु चिन्तन करे । ऐसा चिन्तन होने पर वह यह भी जान लेगा कि संपूर्ण प्राणियों का आदि अर्थात उत्पत्ति, मध्य अर्थात उसका जीवन, अन्त अर्थात विनाश मैं ही हूँ ।।२०।।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ।।१०/२१।।
द्वादश आदित्यों में विष्णु, ज्योतियों अर्थात प्रकाशित करने वालों में अंशुमान अर्थात किरणों वाला सूर्य, मरुतों में मरीचि, नक्षत्रों में चन्द्रमा मैं हूँ ।।२१।।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।१०/२२।।
वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, प्राणियों की चेतना मैं हूँ ।।२०।।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वासूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ।।१०/२३।।
एकादश रुद्रों में शंकर हूँ एवं यक्ष-राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ, शिखरों (पर्वतों) में मेरु नामक शिखर हूँ ।।२३।।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्धः सरसामस्मि सागरः ।।१०/२४।।
हे पार्थ ! पौरोहित्य कर्म करने वालों का प्रधान पुरोहित बृहस्पति मुझे जान, एवं सेनापतियों में स्कंध, सरोवरों में समुद्र मुझे जान ।।२४।।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जप यज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ।।१०/२५।।
महर्षियों में भृगु, वाणियों (उच्चारण करने वाले शब्दों) में एकाक्षर (ॐ) मैं हूँ, यज्ञों में जप यज्ञ, स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ ।।२५।।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ।।१०/२६।।
वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिलमुनि हूँ ।।२६।।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भावम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ।।१०/२७।।
अमृतमंथन के समय समुद्र से उत्पन्न घोड़ो में उच्चैःश्रवा एवं हाथियों का राजा ऐरावत और मनुष्यों में राजा मैं हूँ ।।२७।।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ।।१०/२८।।
आयुधों में वज्र, बछड़े सहित दूध देने वाली धेनुओं में कामधेनु हूँ, प्रजनन करने वालों में कामदेव, सर्पों में वासुकि हूँ ।।२८।।
अनन्तश्चाश्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ।।१०/२९।।
नागों में अनन्त अर्थात शेषनाग, जलचरों का स्वामी वरुण मैं हूँ, पितरों में अर्यमा और नियमन (शासन) करने वालों में यम हूँ ।।२९।।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।।१०/३०।।
दैत्यों में प्रहलाद, गणनां करने वालों का समय हूँ, पशुओं में सिंह, पक्षियों में वनितानंदन गरुड़ हूँ ।।३०।।
पवनः पवतामस्मि रामः शास्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।१०/३१।।
पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में राम हूँ, जलचरों में मगर हूँ, निरंतर प्रवाहित होने वाले जलश्रोतों में गंगा हूँ ।
श्लोक २९ में वरुणो यादसामहम् आया है जिसका अर्थ जलचरों का स्वामी किया है क्योंकि सरोवरों का स्वामी समुद्र किया नहीं जा सकता कारण कि सरसामस्मि सागरः १०/२४ कहा जा चुका है । अतः यहां यह समझना चाहिए कि जलचरों का स्वामी अर्थात संरक्षक वरुण है क्योंकि परस्पर भिन्न स्वभाव के एक दूसरे को खा जाने वाले जीव जल में एक साथ रहते हैं और अगर उनका संरक्षण नहीं होगा तो विनाश हो जायेगा, जबकि यहां पर जलचरों में अधिक बलशाली होने के कारण उनके राजा के रूप में यहाँ मगर कहा गया है ।।३१।।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ।।१०/३२।।
हे अर्जुन ! संपूर्ण सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ, विद्याओं में अध्यात्म अर्थात ब्रह्मविद्या, जल्प वितंडा और तत्त्व निश्चय नामक प्रतिवादियों यानी विवाद करने वालों में वाद अर्थात तत्त्व निश्चय हूँ ।।३२।।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।।१०/३३।।
(शाब्दिक) अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व समास हूँ, काल (समय) में अक्षय काल हूँ, सबको या सबके कर्मबीजों को धारण करने वाला, विश्वतोमुख अर्थात संपूर्ण विश्व ही जिसका मुख है वह मैं हूँ ।।३३।।
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ।।१०/३४।।
सब कुछ हरण कर लेने वालों में मृत्यु, मनुष्य का होने वाला उत्कर्ष, स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ ।।३४।।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्शोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ।।१०/३५।।
तथा गायी जानी वाली बृहत्साम नामक स्तुति विशेष, छन्दों में गायत्री छंद मैं हूँ, महीनों में अगहन और ऋतुओं में वसंत ऋतु मैं हूँ ।।३५।।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्वतामहम् ।।१०/३६।।
छल करने वालों में जुंवां, तेजस्वियों का तेज मैं हूँ, विजय चाहने वालों की विजय, आत्मा अनात्मा का विवेक करके एक मात्र आत्म का निश्चय हूँ, सात्त्विक पुरुषों का सत्त्वगुण मैं हूँ ।।३६।।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।।१०/३७।।
वृष्णिवंशियों में वसुदेव का पुत्र वासुदेव अर्थात कृष्ण, पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात तू स्वयं अर्जुन हूँ, मुनियों में श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास हूँ, परमार्थ तत्त्व के मर्मज्ञ त्रिकालदर्शी शुक्राचार्य हूँ ।।३७।।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ।।१०/३८।।
दमन करने वालों का दंड हूँ, विजय चाहने वालों की नीति अथवा उन्नत मार्ग की इच्छा रखने वालों का न्याय अर्थात उचित मार्गदर्शन हूँ, गोपनीयता में मौन एवं ज्ञानवानों का ज्ञान भी मैं ही हूँ ।।३९।।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।।१०/३९।।
हे अर्जुन ! संपूर्ण प्राणियों का जो बीज (मूल) है वह मैं हूँ । जो कुछ भी जड़ चेतन प्राणी हैं वह बिना मेरे नहीं है । अर्थात जो कुछ भी चर अचर देखने सुनने और समझने में आ रहा है वह सब मैं ही हूँ ।।३९।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ।।१०/४०।।
हे परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है । यह इतनी दिव्य विभूतियों का विस्तार मेरे द्वारा तेरे लिए कहा है ।
भगवान ने कहा था कि प्रधानता से अर्थात संक्षेप से कहूंगा क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है १०/१९, उसी को यहाँ पुनः बता दिया कि ये दिव्य विभूतियों का अन्त न होने अर्थात अनन्त होने पर भी संक्षेप से तुम्हारी प्रसन्नाता के कह दिया ।।४०।।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ।।१०/४१।।
जो जो वस्तु, पदार्थ, मनुष्य आदि प्रभावशाली, शोभासम्पन्न अथवा बल संपन्न भी है उस उस को तू मेरे तेज के अंश से उत्पन्न हुआ जान ।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्सनमेकांशेन स्थितो जगत् ।।१०/४२।।
अवथा हे अर्जुन ! इन विभूतियों को बहुत जानकर क्या करेगा ? मैं इस संपूर्ण जगत को एक अंश में व्याप्त करके स्थित हूँ ।
पूर्व श्लोक में भगवान ने कहा मेरे तेज के अंश संपूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है और अब कहते हैं कि अपने एक अंश से संपूर्ण जगत में को व्याप्त करके स्थित हूँ । इन दोनो बातों में परस्पर विरोध सा प्रतीत हो रहा है । जिसका समाधान यह है भगवान ने पहले ही कहा था कि मेरी विभूति और योग अर्थात मेरी माया और उसका विस्तार जो तत्त्व से जानता है १०/७ वहीं यहां पूर्व श्लोको में मम तेजोंऽश से यह कह रहे हैं कि मेरे तेज से संपन्न माया द्वारा संपन्न होने से माया मेरे समान ऐश्वर्य और सामर्थ्य संपन्न होने के कारण संपूर्ण जगत को उत्पन्न करती है यह इस जगत की उत्पत्ति का तत्त्व अर्थात रहस्य है और इस श्लोक में कहते हैं कि मेरे एक अंश से संपूर्ण जगत को व्याप्त करके मैं स्थित हूँ । अर्थात जैसे बर्फ के बाहर भीतर उपर नीचे इधर उधर संपूर्ण बर्फ ही पानी से ओतप्रोत है अथवा सूर्य बाहर भीतर प्रकाश से भिन्न कुछ नहीं है उसी प्रकार संपूर्ण जगत को मैं व्याप्त करके स्थित हूँ अतः मुझसे अतिरिक्त और कुछ जगत है ही नहीं । इस पर शंका होती है कि क्या आप जितना जगत है इतने ही हो ? तो इस पर कहते मैं इससे कहीं अधिक हूँ । मेरे एक एक रोम में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं― रोम रोम प्रति लागे जासु कोटि ब्रह्मंड । तो शरीर में साढे तीन करोड रोम होते हैं उनके ब्रह्मांड गिन लो । जब गणना हो जाये तब समझना कि वह मेरा एक अंश है जबकि मेरे चार अंश में से तीन अंश और भी हैं ।
इस प्रकार परमेश्वर तत्त्व की संपूर्ण प्राणियों की स्वरूपगत एकता स्वयं भगवान ही कहते हैं । अतः किसी द्वैत का गीता में कोई स्थान बचता ही नहीं है । अगर कोई स्थान बचता है तो वह है अविवेक का । ऐसे अविवेक प्रधान से हमारा कोई संबंध भी नहीं बनता ।
अध्याय दश में भगवान ने समग्र रूप का वर्णन करते हुए यह कहते हुए कि जीव मेरा अंश ही नहीं बल्कि मैं ही हूँ इस प्रकार जीवब्रह्मात्मैक्य से उपसंहार किया ।।४२।।
समीक्षा― श्रीभगवान ने अध्याय ९ में जिस योगमैश्वरम् को जानने की बात कहा था उसका शेष अंश साधनों सहित यहां वर्णन करते हुए स्व से भिन्न अन्य कोई सत्ता है ही नहीं यह कहते हुए अध्याय १० का उपसंहार करते हुए विश्राम किया ।।१-४२।।
ॐतत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ।।१०।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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