गीता समीक्षा अध्याय १५

   ॐश्रीपरमात्मने नमः
   अथ पञ्चदशोऽध्यायः
               
     
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१५/१।।
          ऊपर जड़, नीचे शाखा वाला  अश्वत्थ नाम का अविनाशी वृक्ष कहा गया है । जिसके पत्ते वेद वेद हैं ऐसा जो जानता है वही वेदवित् है ।
         अध्याय ११ के अन्तिम दो श्लोक अध्याय १२-१३ के हेतु बने । अध्याय १२ के पांचवें श्लोक में अजितेन्द्रिय देहाभिमानी के अव्यक्तोपासना में अव्यक्त की अप्राप्ति बताया, जिसका विवेचन अध्याय १४ में किया गया । अन्त में त्रिगुणातीत होने का उपाय सगुणोपासना के द्वारा आत्मनिष्ठा से बताते हुए अन्त में ब्रह्म आदि की प्रतिष्ठा अहं के अर्थ में सुनिश्चित करके अस्ति पद का प्रतिपादन किया । चूंकि अव्यक्त की उपासना के सभी अधिकारी नहीं होते हैं । इसलिए अव्यक्त में स्थिति कैसे बने ? यह समझाने के लिए इस रूपक का वर्णन किया है ।
            ऊपर की जड़ वाले अर्थात संसार वृक्ष का कारण मायोपाधिक हिरण्यगर्भ है । वह संसार वृक्ष का जो अश्वत्थ अर्थात जो कल तक भी नहीं रहने वाला है, ऐसे अविनशी संसार वृक्ष की जड़ है । जिसके पत्ते वेद अर्थात काम्यकर्मों का वर्णन करने वाली जगत रूप वृक्ष के रक्षक पत्ते रूप में कहे गये हैं । इस प्रकार जो संसार वृक्ष के स्वरूप को जानता है वही तत्त्वतः जानता है अर्थात वह सर्वज्ञ हो जाता है ।
          यहां शंका हो सकती है कि जो अश्वत्थ है अर्थात जो कल तक स्थित रहने वाला नहीं है उसको अविनाशी क्यों कहा ? इसका उत्तर यह है कि अविनाशी इसलिए कहा कि संसार अनादि काल से चला आ रहा है इसके प्राकट्य का कोई प्रमाण नहीं है कि कब उत्पन्न हुआ ? और कब तक चलेगा ? यह भी पता नहीं है इसलिए अविनाशी है लेकिन जिस समय इसके मूल का ज्ञान हो जाता है उसी समय यह संसार नष्ट हो जाता है । अर्थात जब तक स्वरूप ज्ञान नहीं होता है तब तक अन्य किसी उपाय से नष्ट न होने का कारण अविनाशी है और जिस समय स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा उसी समय नष्ट हो जायेगा इसी अनिश्चितता के कारण अश्वत्थ कहा, यही इसका भाव है ।
           यहाँ पर हम पुनर्विचार करेंगे । कुछ लोग ऊर्ध्वमूल का अर्थ परमात्मा करते हैं तो उनके अनुसार जैसे वृक्ष की जड़ का भी नाश देखा गया है वैसे ही संसार के नाश से परमात्मा के नाश का भी भय उपस्थित हो जायेगा । तो इसका उत्तर यह है कि जहाँ भी सृष्टि क्रम होगा वहां भी परमात्मा का अर्थ हिरण्यगर्भ ही लेना चाहिए अन्यथा श्रुति विरोध होगा । 
            आचर्य शंकर ने कठोपनिषद में ऊर्ध्वमूल का अर्थ किया है ऊर्ध्व है मूल में जिसके वह । ऊर्ध्व का अर्थ विष्णु का परमपद किया है― यहाँ पर यह भी समझ लेना आवश्यक है कि परमपद विष्णु से भिन्न नहीं बल्कि निर्विशेष लक्ष्य को लक्षित कराने के लिए परम पद कहा है । जैसे सूर्य का प्रकाश सूर्य से भिन्न नहीं है बल्कि सूर्य ही प्रकाश और प्रकाश ही सूर्य है । ऐसे विष्णु ही वह पद अर्थात स्वरूप जिसे निर्विशेष ब्रह्म नाम से जाना जाता है । यदि साकार सविषेश विष्णु मानते हैं तो अध्याय ७/३० में जो तामस, राजस और सात्त्विक स्वरूप में क्रमशः अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित जिस माम् की बात कही उसका विरोध उत्पन्न होगा । अध्याय आठ में कृष्ण ने कहा अधियज्ञ मैं हूँ और यदि कृष्ण ही अधियज्ञ हैं तो अलग से वहां माम् को लक्षित क्यों किया ? अर्थात उन तीनो के सहित जो मृत्युकाल में भी मुझे जान लेता है वह परम पद प्राप्त करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि यह माम् ही हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और ब्रह्मा का भी कारण विष्णु से भिन्न निर्विशेष ब्रह्म है । अतः यह जो माम् का अर्थ वहां पर कहा गया है वही यहाँ आचार्य जी ने विष्णु पद से कहा है, अतः यह सुनिश्चित हो गया कि विष्णु का अर्थ निर्विशेष ब्रह्म ही है । अतः अर्थ यह हुआ कि निर्विशेष ब्रह्म है जिसके मूल में वह मायोपाधिक हिरण्यगर्भ । गीता में भी ऊर्ध्वमूल का अर्थ मायोपाधिक हिरण्गर्भ ही किया है ।
           अब ऊर्ध्व और मूल का अन्वेषण गीता में करते हैं― अध्याय १४/३ में कृष्ण कहते हैं कि जिससे संपूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं उस संसार की कारणभूता विस्तार करने वाली महत् प्रकृति का गर्भाधान मैं करता हूँ । फिर कहते हैं― जिससे संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है वही प्रकृति मेरी योनि है और मैं बीज प्रदान करने वाला पिता हूँ । गर्भाधान कोई सामान्य स्त्री-पुरुष संसर्ग की तरह तो होता नहीं है । जड़ प्रकृति पर चिद्प्रकाश का पड़ना ही गर्भाधान है और यही गर्भ यानी बीज हिरण्गर्भ गर्भ संपूर्ण जगत को उत्पन्न करने वाला सबका कारण है । यह गीता ही सुनिश्चित कर देती है कि ऊर्ध्व अर्थ ब्रह्म है जिसका मूल हिरण्गर्भ । यह समष्टि व्याख्या है ।
           अब व्यष्टि में देखिए― चैतन्य आत्मा का प्रकाश बुद्धि पर पड़ा जिससे अहं की उत्पत्ति होती और इस अहं के उत्पन्न होते ही त्वम् की उत्पत्ति स्वतः हो जाती है । इसके बाद अहं त्वम् को धारण करने वाले सूक्ष्म विषय और उसके बाद उन विषयों को ग्रहण वाली इन्द्रियां और उसके बाद कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं । इस प्रकार संसार बुद्धि और उससे उत्पन्न अहं के संयोग से सृष्टि क्रम चल पड़ा, यही बुद्धि का अहं के साथ संयोग ही कारण शरीर है, इन्द्रियों का समूह सूक्ष्म शरीर है और उन कारण और सूक्ष्म शरीर के रहने का स्थान स्थूल शरीर है । स्थूल शरीर के नष्ट होने पर कारण शरीर सहित सूक्ष्म शरीर होता है जिसे हम स्वप्न के माध्यम और सूक्ष्म शरीर के नाश होने पर कारण शरीर शेष रहता है जिसे हम सुषुप्ति में अनुभव करते हैं । यही बुद्धि समष्टि में महत् यानी प्रकृति कहलाती है और इसमें पड़ने वाले चित्प्रकाश से अहं की उत्पत्ति होती है और यही महत् प्रकृति और समष्टि अहं मिलकर संपूर्ण जगत का कारण हिरण्गर्भ कहलाता है । जैसै व्यष्टि में कारण शरीर का नाश होता है वैसे ही समष्टि प्रलय में जगत का कारण हिरण्गर्भ का नाश होता है ।
           इस प्रकार परम प्रकाश निष्क्रिय ब्रह्म या जिसे व्यष्टि में आत्मा कहते हैं वह हिरण्गर्भ नामक कारण शरीर से लेकर स्थूल शरीर पर्यंत संपूर्ण जड़ चेतन जगत जिसकी (कारण शरीर रूप)  जड़, सूक्ष्म शरीर संपूर्ण इन्द्रियां शाखाएं, एवं कार्म्यकर्म का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियाँ ही जिसका पालन करने वाली हैं वे ही इस संसार वृक्ष के पत्ते हैं ऐसा जो समष्टि, व्यष्टि रूप से जो जानता है वही तत्त्वतः जानता है यह भाव है ।।१।।             

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।१५/२।।
         तथा इस संसार वृक्ष की शाखाएं गुणों से बढ़ी हुई हैं, इसकी कोंपलें विषय हैं । कर्मों से बंधी हुई जड़े मनुष्य लोक में नीचे और सब ओर फैली हुई हैं ।
        कर्मों से बंधे हुए― कर्म करने का एक मात्र मनुष्य का ही अधिकार है इसलिये मनुष्य लोक कहा । गुणों से संसार ऊपर नीचे बढ़ा है ? सदसद्योनिषु १३/२१ और अध्याय १४ में विस्तार से बताया गया है । इसकी दो ही जड़े हैं जो ऊपर नीचे सब ओर फैली हुई है, वे हैं पुण्य और पाप, जो इन तीनो गुणरूपी जल से बढ़ती हैं और विषय ही सुन्दर, कोमल, आकर्षक इसकी कोंपलें हैं । यह संसार वृक्ष का वर्णन हिरण्गर्भ से लेकर तृणपर्यंत नीचे की ओर का है । 
          भावार्थ― कर्मों के अनुसार पाप पुण्य होता है उसी से देव मनुष्य तिर्यगादि योनियों का विस्तार है । यह भावार्थ है ।।२।।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।।१५/३।।
            इस संसार वृक्ष का विचार करने पर जैसा दिखता वैसा रूप उपलब्ध नहीं होता, इसका न आदि है न अन्त है, न ही इसकी भलीभाँति स्थिति ही है ।  इस अश्वत्थ वृक्ष का, जिसकी जड़ें अत्यन्त दृढ अर्थात मजबूत हैं असंग रूपी शस्त्र से दृढतापूर्वक काटकर ।
           यह तो सबके अनुभव का विषय है कि संसार जितना आकर्षक दिखता है उतना है नहीं अन्त में दुःख ही इसका परिणाम होता है । अनादि काल से इसी प्रकार चला आ रहा है और अनादि काल तक चलता रहेगा । तथापि इसकी कोई स्थिरता भी नहीं है कि कल तक रहेगा भी या नहीं । इस लिए असंग रूप शास्त्र पाप-पुण्य रूप जड़ो को अत्यंत दृढतापूर्वक काट देना चाहिए । असंग रूपी शास्त्र का मतलब है पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य…..१३/२१ अर्थात पुरुष तो सदैव मुक्त ही है वह प्रकृति में बैठ गया है जिसका कारण है उसके गुण । गुणों के लोभ से प्रकृति का आश्रय ले लिया और बंध गया । 
             आज भी संसार का नियम है कि आपके पास अगर कंचन और कामिनी है तो चार यार आपके दरवाजे पर हमेशा आपके चरणों की धूल चाटने आयेंगे और यदि इनमें से एक भी नहीं है तो मरते समय मुंह में पानी भी कोई डालने वाला नहीं दिखेगा । इसी प्रकार यह मुक्त पुरुष प्रकृति के गुणों की ओर खिंच गया तो प्रकृति ने इसे बंधक बनाकर जन्म-मृत्यु नामक संसार रूप जेल में ठूंस दिया । अतः यह यदि पुनः निश्चण करके गुणों की संगति छोड़ दे इस संसार की जड़ें ही नष्ट हो जायेंगी । जड़ें नष्ट हुईं तो वृक्ष स्वतः सूख जायेगा ।।३।।

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।।१५/४।।
       उसके पश्चात वह उस पद की खोज करना चाहिए जिसे प्राप्त करके पुनः इस संसार में वापस नहीं आता । इसके लिए जिससे पुरातन पुरुष से सृष्टि का विस्तार हुआ है उसी आदि पुरुष की शरण ग्रहण करना चाहिए ।
          यह विषय बड़ा ही मार्मिक है संसार वृक्ष के रूप का ज्ञान ही तत्त्वतः परमार्थ स्वरूप का ज्ञान करा देता है । उसका ज्ञान हो जाने पर संसार वृक्ष की जड़े असंग रूपी शस्त्र से काटना है । जड़ें यहां दो प्रकार की कही गई हैं, एक पाप और पुण्य रूप और दूसरी इस जगत का मूल कारण हिरण्गर्भ । यह हिरण्गर्भ ही हमारा कारण शरीर है जो बुद्धि और उसमें पड़ने वाले चैतन्य प्रकाश के संयोग से स्फुरित होने वाला अहं है । जब अहं का स्फुरण बुद्धि से अगल हो जायेगा तब बुद्धि का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा । अर्थात तब कारण शरीर भी नष्ट हो जायेगा और ‘अहं’ स्वरूपगत होकर मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी । यही वह पद है जिसको प्राप्त करके कोई वापस संसार में नहीं आता । 
           जैसे स्थूल मनुष्यादि लोक और सूक्ष्म स्वर्गादि लोकों का मूल कारण और यहाँ रहने वाले प्राणियों की अपेक्षा इस समष्टि जगत से मुक्त पुरुष हिरण्गर्भ है, उसी प्रकार व्यष्टि में स्थूल और सूक्ष्म शरीर की अपेक्षा सबको व्याप्त करके स्थित जो बुद्धि में स्फुरित होने वाला चैतन्य अहं के सहित जो कारण शरीर है वह भी मुक्त पुरुष है । यह बात यहीं मन में बैठा कर रखना चाहिए जिससे कि सोलहवें श्लोक में अक्षर पुरुष का अर्थ मुक्त पुरुष या कारण शरीर कहने पर भ्रम उत्पन्न न हो ।
        यहाँ हम अध्याय तीन का अवलोकन करते हैं― इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।३/५२ अर्थात शरीर से परे इन्द्रियां, इन्द्रियों से परे मन और मन से परे बुद्धि एवं बुद्धि परे आत्मा है । बुद्धि कारण शरीर है यही सबसे ऊपर, इससे नीचे सभी शाखाएं हैं, किन्तु आत्मा तो बुद्धि का भी अधिष्ठान है अतः आत्मा में स्थित होने पर ही बुद्धि का विलय आत्मरूपता में हो जाता है तो अन्य संसार बचेगा ही कहाँ ? इसी प्रकार यहाँ पर कहा कि हमें उस आदि पुरुष की शरण लेनी है जिसके सान्निध्य मात्र से कारण अर्थात बुद्धि की चेष्टा विस्तार को प्राप्त हुई है । वही आदि पुरुष व्यष्टि में आत्मा और समष्टि में परमात्मा कहा जाता है । वस्तुतः ‘पर’ भी संसार जिस स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर को ही आत्मा मान लेता है उससे व्यापक आत्मा की विलक्षणता दिखाने के लिए ही पर शब्द का प्रयोग किया गया है । यह आत्मा ही पुराणपुरुष है और इसी की शरण ग्रहण करना चाहिए । आत्मन्येवात्मा तुष्टः २/५५, यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ३/१७, आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ यही आदि पुरुष की शरण लेने का तात्पर्य है कि बुद्धि में प्रतिफल सीमित अहंता का विनियोग व्यापक अहंता में करके उसी व्यापक अहंता में निर्विकार रूप से स्थित होना ही उस मार्ग की खोज है जहाँ जाकर पुनः इस अशुभ संसार का मुख नहीं देखना पड़ता है ।
          भावार्थ― एकनिष्ठ आत्मभाव में स्थित होना ही संसार रूपी वृक्ष की जड़ें काटना है ।।४।।

निर्मानमोहः जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।।१५/५।।
        मान, मोह से रहित, प्रकृति के गुणों की संगति यानी आसक्ति का त्याग, नित्य, अविरल आत्मभाव में स्थित, सभी कामनाओं से रहित, सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से भलीभांति मुक्त हुआ विवेकशील पुरुष अविनिशी पद को प्राप्त करता है ।
         अध्यात्म नित्या का अर्थ हमने ऊपर भी एकमात्र आत्मनिष्ठ किया है और वही अर्थ यहाँ भी है । ऊपर में पुराण परुष तत् पदार्थ का वाचक है और यहां त्वम् पदार्थ का वाचक है । पहले तत् पदार्थ की शरण ग्रहण करने को कहना और फिर त्वम् पदार्थ में निरंतर स्थित होने के लिए कहना इससे तत् और त्वम् पदार्थ में एकत्व का भगवान स्पष्टीकरण करते हैं । इसी को― अध्यात्मचेतसा ३/३० कहा था जिसमें परमेश्वर में सभी कर्मों का त्याग करके प्रकृति के गुणकर्मविभाग का ज्ञान प्राप्त करके आत्मभाव में स्थित होना बताया था । उसी को यहाँ अध्यात्मनित्या कहा गया है । विनिवृत्तकामाः का अर्थ मनोगत २/५५ सभी कामनाओं से शून्य हो जाना । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।५।।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।१५/६।।
           उस आत्मपद को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा, न अग्नि ही प्रकाशित करता है । जहाँ जाकर विवेकशील यानी तत्त्वज्ञ वापस नहीं आता वही मेरा परम् प्रकाशमय स्वरूप है ।
      ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते १३/१७ के समान प्रभाव और व्याख्या समझें अथवा श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन  देखें ।।६।।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।१५/७।।
          जीवलोक में जीव बना  हुआ मेरा सनातन अंश है । प्रकृति में स्थित हुआ यह मेरा अंश मन सहित छहों इन्द्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है ।
          इसमें अधिक व्याख्या की आवश्यकता नहीं है । अध्याय १० में बहुत से जीवों को बताते हैं कि यह मैं हूँ , यह मैं हूँ, और अन्त में कहते बहुत कहने का कोई प्रयोजन नहीं है, जहाँ कहीं भी ऐश्वर्य और बल की प्रधानता दिखाई देती है वह मेरे ही तेज के अंश से― तेज यानी प्रकाश और अंश यानी परावर्तित प्रतिबिंब― जैसे घड़े में सूर्य का प्रतिबिंब वैसे ही परमेश्वर के तेज का परावर्तन ही अंश है । पहले कहते रहे ‘मैं’ हूँ । फिर कहते हैं मेरे तेज का अंश है और फिर कहते हैं कि मेरे एक अंश में संपूर्ण जगत स्थित है । इसका अर्थ क्या हुआ ? इसका अर्थ यह हुआ कि भागवान और उनका तेज, तेज का अंश, भगवान का अंश ये सब एक ही हैं भिन्न नहीं । उसी को यहाँ भगवान से अभिन्न जो परावर्तित अंश, कल्पित अंश है वह मुक्तस्वरूप होकर भी सगंति के कारण मन और इन्द्रियों को अपनी ओर खींचता है क्योंकि इनके बिना वह विषयों का भोग नहीं कर सकता है । यह भाव है ।।७।।

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्ववरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।१५/८।।
            जैसे वायु पुष्पादि की गंध को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है वैसे ही इस शरीर और इन्द्रियों का स्वामी जब दूसरा शरीर प्राप्त करता है तब इनको पकड़ कर ले जाता है ।
         एतानि का अर्थ है पूर्व श्लोक में कही गई छहों इन्द्रियां ईश्वर यानी शरीर और इन्द्रियों का स्वामी  । अर्थात पूर्व श्लोक में पहले छहों इन्द्रियों को अपनी ओर आकर्षित किया यानी खींचा फिर पकड़ लिया और लेकर एक शरीर के अनुपयोगी होने पर दूसरे शरीर में चला गया ।।८।।

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुप सेवाते ।।१५/९।।
          श्रोत्र, चक्षु, स्पर्श, रसना यानी जिह्वा और घ्राण के द्वारा मन का आश्रय लेकर यह जीवात्मा विषयों का सेवन करता है ।
        पांचों ज्ञानेन्द्रियों के शब्दादि पांच विषयों का मन का आश्रय लेकर यह जीव विषयों का सेवन करता है ।
        शंका होती है कि बिना कर्मेन्द्रियों के कैसे विषयों का ग्रहण होगा ? क्योंकि यहाँ कर्मेन्द्रियाँ नहीं कही गई है । तो इसके समाधान में यह समझना चाहिए कि कर्मेन्द्रियां ज्ञानेन्द्रियों के अन्तर्गत ही कह दी गई है क्योंकि बिना ज्ञानेन्द्रियों के कर्मेन्द्रियों की अपनी कोई सत्ता नहीं होती ।।९।।

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।१५/१०।।
        शरीर का त्याग करते हुए, शरीर में रहते हुए, भोग करते हुए, गुणों का अनुसरण करते हुए भी ज्ञाननेत्र वाले ही एक अविनाशी आत्मा को ही जानते हैं, किन्तु विमूढ अर्थात अज्ञानी लोग नहीं जानते ।
            गुणान्वितम् का अर्थ तामस, राजस और सत्त्व प्रधान गुणों के कार्य में प्रवृत्त होने पर भी । बाकी अर्थ स्पष्ट है । 
       यहां ज्ञाननेत्र उन्हीं को कहा है जो तीसरे चौदहवें अध्याय के अनुसार गुणकर्मविभाग को जानते हैं और अध्यात्मचेतसा एवं अध्यात्मनित्या हैं । विमूढ़ो अर्थात अज्ञानियों के लिए अध्याय सात एवं नौ में भेददर्शी के रूप में कह दिया है और आगे अध्याय सोलह में आसुरी संपत्ति में कहेंगे ।।१०।।

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यामान्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।।१५/११।।
         प्रयत्नशील योगीजन इस आत्मा से आत्मा में स्थित आत्मा को जानते हैं किन्तु विवेकहीन अकृतात्मा प्रयत्न करने पर भी नहीं देखते ।
          ज्ञानी क्यों देख लेता है अज्ञानी क्यों नहीं देखता इसका विवरण देते हैं― यहाँ योगी को यतन्तः कहने का अर्थ साधन-चतुष्टय संपन्न आत्मा को आत्मा से आत्मा में स्थित देखने का तात्पर्य यह है कि पहला आत्मा जिसे यहाँ एनम् से कहा गया है वह पूर्व श्लोक में कहे गये विभिन्न परिस्थितियों में भी एक अविनाशी आत्मा, दूसरे और तीसरे में आत्मा का आत्मा में स्थित देखने का तात्पर्य है कि उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं है उसकी ऐसी महिमा है कि वह स्वमहिमा में ही स्थित रहता है । इस प्रकार गुणविभाग पूर्व स्वमहिमा में स्थित अध्यात्मचेतसा आत्मा के नित्यत्व, अजत्व, निर्विकारित्व, निर्गुणत्व आदि लक्षणों वाला देखते हैं ।
           जबकि जिनका चित्त अचेत है अर्थात द्वैत भ्रम रूपी मूर्छा में चला गया है ऐसे अविवेकी अर्थात गुणकर्मविभाग को न जानने वाले जो अकृतात्मा अर्थात साधन चतुष्य संपन्न नहीं हैं वे आत्मा के नित्यत्व को लाख प्रयत्न करके भी नहीं जानते । यह भाव है ।।११।।

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धिमामकम् ।।१५/१२।।
         जैसे संपूर्ण जगत को सूर्य में स्थित तेज प्रकाशित करता है वैसे ही जो चन्द्रमा में, जो अग्नि में तेज है वह मेरा ही तेज जान ।
         यहाँ सूर्य के भिन्न भिन्न पदार्थ को भिन्न भिन्न रूप में प्रकाशित करने वाले सूर्य के दृष्टांत से यह बता रहे हैं कि जहाँ कहीं भी जो कुछ प्रकाश― चैतन्यता दिखती है वह मेरी ही चैतन्यता, मेरा ही प्रकाश जान । यह उदाहरण क्यों दिया ? इसलिये दिया कि जिस जीव को अनेक रूपों में नाश होता हुआ प्रत्यक्ष देखा जा रहा है, वह ब्रह्म के समान स्वमहिमा वाला कैसे हो सकता है ? स्वमहिमा में स्थित तो एक मात्र ब्रह्म है । इतने भिन्न भिन्न अलग अलग जन्म मरण वाले सभी जीवों में एक ही आत्मा कैसे हो सकती है ? यदि एक आत्मा हो तो सभी को एक ही साथ मरना, पैदा आदि होना चाहिए ? इसी शंका के निवारण के लिए सूर्य के दृष्टांत से यह समझाया तथापि फिर से निरीक्षण करते हैं― जैसे किसी कमरे में अंधेरा है और बाहर सूर्य के प्रकाश की ओर दर्पण का मुख भाग करके कमरे की ओर मोड़ देने से जो दर्पण द्वारा परावर्तित प्रकाश कमरे में जाकर प्रकाश करेगा वह प्रकाश दर्पण का होगा या सूर्य का ? स्वाभाविक है कि वह प्रकाश दर्पण का नहीं सूर्य का है भले माध्यम दर्पण हो ।
           इसी प्रकार इसी अध्याय के सातवें श्लोक में अपना सनातन अंश कहा, जो जीवभूत है । इसका तात्पर्य यह है कि वह चिद्प्रकाश जीव रूप दर्पण में परावर्तित होने वाला और कोई नहीं सबको प्रकाशित करने वाला परम प्रकाश ही वहाँ प्रकाशित हो रहा है । अतः परावर्तित चिद्प्रकाश और स्वमहिमा वाला प्रकाश दोनो एक ही हैं अन्य नहीं । इस प्रकार और भी भगवती गीता अध्याय १४ सहित अनेक प्रमाण देती है विस्तार न हो अतः विवेकशील जीवब्रह्म की एकता इतने से ही समझ लेंगे और अविवेकी को समझने की आवश्यकता नहीं है ।
               अतः यहाँ सिद्ध हुआ कि जीव नामक परावर्तित आत्मांश जब गुणविभाग पूर्व अपने को जान लेता है तब देशकाल अपरिच्छन्न ब्रह्मस्वरूप हो जाता है । उसी ब्रह्मस्वरूपता को ज्ञानीजन उत्क्रामन्तं आदि सभी अवस्थाओं में एक रस देखते और विचारहीन अजितेन्द्रिय त्रिकाल में भी प्रयत्नशील होकर भी नहीं देख सकते हैं यह भाव है ।।१२।।

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।।१५/१३।।
          पृथ्वी में प्रवेश करके  संपूर्ण प्राणियों को अपने तेज अर्थात प्रभाव से धारण करता हूँ । चंद्रमा होकर रसमय संपूर्ण औषधियों को पुष्ट करता हूँ ।।१३।।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।१५/१४।।
         मैं ही वैश्वानर (जठराग्नि) होकर प्राणियों के शरीर का आश्रय लेक अर्थात शरीर में स्थित होकर भक्ष्य, भोज्य, पेय और चोष्य इन चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ ।।१४।।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः समृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्चसर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।१५/१५।।
          संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित होकर मुझसे ही स्मृति, ज्ञान एवं अपोहन होता है । सभी वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ, वेदान्त का कर्ता, वेद के तात्पर्य को जानने वाला मैं ही हूँ ।
           सबके हृदय में स्थित होने का अर्थ यह है कि बुद्धि पर जिस चैतन्य का प्रकाश पड़ रहा है वह आत्मप्रकाश मैं ही हूँ, पूर्व में किये गये क्रिया कलापों की स्मृति, स्वरूप विषयक ज्ञान एवं विस्मृति अर्थात ज्ञान पर पर्दा डालने की विपरीतता भी मुझ सर्वेश्वर से ही होती है । 
          वेदों में विभिन्न देवो की भिन्न भिन्न आराधना दिखने पर भी उन सबका तात्पर्य जानने योग्य इन्द्र, वरुण, वायु, सूर्य आदि के माध्यम से मैं ही जानने योग्य हूँ । वेदान्तकर्ता अर्थात वेदान्त की परंपरा का रचयिता मैं ही हूँ । यही गीता के चतुर्थ अध्याय में इमं विवश्वते योगम् से स्वतः सिद्ध है, प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । वेदों का जो तात्पर्य है वह मैं ही जानता हूँ । अर्थात वेदों का जो भी तात्पर्य जानता है वह साक्षात् नारायण ही है ।
             यहां पर द्वैतवादियों को पहले ही यह समझना होगा कि अभी इसी श्लोक में भगवान ने कहा कि प्राणियों के हृदय में आत्मप्रकाश रूप से मैं ही हूँ इसके साथ ही पूर्व के दो श्लोकों में विभूति रूप से जीव रूप में स्वयं को स्वीकार किया है अर्थात जीव से अभिन्न माना है और इससे भी पहले बाहवें और छठे श्लोक में भी अभिन्नता सिद्ध की है । संपूर्ण गीता ही अभिन्नता से परिपूर्ण है ।।१५।।

            अतः अब यहाँ से आगे का तात्पर्य विवेक पूर्व समझने का प्रयत्न करें कि ये दो प्रकार के पुरुष क्या हैं ? इन दोनों से भिन्न तीसरा पुरुष क्या है ? अस्मि एवं माम् से क्या तात्पर्य है ? श्रुति शास्त्र पहले अध्यारोप और फिर अपवाद करके तत्त्व निर्णय करता है यही प्रक्रिया आगे प्रारंभ हो रही है―
द्वामिमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।१५/१६।।
         संसार में दो प्रकार के क्षर और अक्षर पुरुष कहे गये हैं । सभी प्राणी क्षर कहे गये हैं एवं हिरण्गर्भ को अक्षर कहा गया है ।
         क्षर प्राणियों के अन्तर्गत संपूर्ण आकाश आदि महाभूत, मन सहित छः इन्द्रियों का समूह सूक्ष्म जीव, ये सभी निरंतर क्षरण को प्राप्त हो रहे हैं यही सर्वाणि भूतानि से अर्थ उचित प्रतीत होता है । प्रथम श्लोक में जिसे मायोपाधिक हिरण्गर्भ कहा गया है यह संसार में यद्यपि देखने में नहीं आता है । तो भी सभी प्राणियों की समझ से विलक्षण संपूर्ण सृष्टि का कूट यानी छिपा हुआ कारण है । संसार के प्राणियों का नाश होने पर भी उसका नाश नहीं होता अर्थात संसारी प्राणियों अपेक्षा से वह मुक्त एवं अक्षर पुरुष है इसलिये समष्टि में हिरण्गर्भ को ही गीता  के इसी अध्याय में अविनिशी कूटस्थ कहा गया है । समष्टि में समष्टि नायक जानें, किन्तु शरीर और मन सहित संपूर्ण इन्द्रियों के लय हो जाने पर भी मनुष्य प्राणियों का कारण शरीर ज्यों का त्यों रहता है और यह कारण शरीर ही संपूर्ण विस्तार का बीज है । होने पर भी कूट भाव में स्थित है, अतः यह कारण शरीर ही अविनिशी पुरुष कहा गया है ।
            सर्वाणिभूतानि को विशेषण मानकर उड़िया बाबा ने क्षर के अन्तर्गत कारण शरीर का नाश मानते हुए आचार्य शंकर के अनुसार माया को अक्षर कूट माना है । यह अर्थ उचित है तथापि मेरा प्रश्न यह है कि जिस समय कारण शरीर का ही नाश हो गया तो फिर माया किसको लेकर अक्षर है ? क्योंकि माया तभी तक है जब तक कोई भी उपाधि है भले वहां अहं के उत्पत्ति का केन्द्र कारण शरीर ही क्यों न हो । अतः अक्षर माया मानने में कोई आपत्ति नहीं है किन्तु व्यष्टि में कारण शरीर के नाश का अर्थ हुआ हिरण्गर्भ गर्भ का नाश । हिरण्गर्भ का नाश होने पर माया अपने अधिष्ठान में स्वतः प्रविष्ट हो जाती है अर्थात नष्ट हो जाती है । फिर माया अक्षर कैसे हुई ?  अतः यहाँ कूटस्थ का अर्थ कारण शरीर का नाश मेरे लिए सर्वथा अमान्य है । और कूटस्थ का अर्थ समष्टि में हिरण्गर्भ और व्यष्टि में कारण शरीर ही अपेक्षित है ।
            इसे समझने के लिए पुनः श्लोक एक से लेकर श्लोक चार तक की समष्टि और व्यष्टि में व्याख्या देखें । साथ ही श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन अवश्य देखें ।।१६।।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।१५/१७।।
           किन्तु उत्तम पुरुष तो अन्य ही है जिसे ‘परमात्मा’ ऐसा कहा जाता है । जो तीनो लोकों में प्रवेश करके संसार का भरण पोषण करता है ।
          यहाँ पर जिसे उत्तम पुरुष कहा गया है वही तीनो लोकों में प्रवेश करके सबका भरण पोषण करने वाले ईश्वर के नाम से कहे गये हैं । यह जो क्रिया भाव है, इस भाव को लेकर भले कोई ईश्वर का अर्थ शुद्ध ब्रह्म करता हो तथापि मुझे इससे भिन्न कुछ और ही दिखता है । अध्याय ७/३० में अधिभूत और अधिदैव का अर्थ क्रमशः संपूर्ण क्षरणशील स्थूल स्थावर जंगम प्राणी, एवं कारण/हिरण्गर्भ । हिरण्यगर्भ का अर्थ अधिकांश रजोगुण प्रधान ब्रह्मा को ही माना गया है । इसके बाद तीसरा आता है अधियज्ञ जिसका अर्थ सत्त्वगुण प्रधान विष्णु किया गया है जिस स्पष्टीकरण अध्याय आठ में दिया गया है । अर्थात ब्रह्मा को भी जन्म देने वाले विष्णु या वैदिक शब्दों में विराट कहा गया । इस प्रकार पूर्व के दो पुरुष जो अधिभूत और अधिदैव नाम से जाने जाते हैं और पुरुष अर्थात शुद्ध ब्रह्म के चैतन्य प्रकाश से सम्बद्ध होने के कारण पुरुष नाम से कहे गये हैं इन तामस और राजसे से सात्त्विक यज्ञपुरुष श्रेष्ठ है क्योंकि यही सबको धारित और पोषित करता है एवं सब पर शासन करने वाला सबका स्वामी होने से ईश्वर नाम से जाना जाता है । इस प्रकार यहाँ पर अध्याय सात के अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ की व्याख्या इन दोनो श्लोकों में पूर्ण हुई ।।१७।।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।१५/१८।।
         जिसमें क्षर से अतीत एवं अक्षर यानी कारण शरीर वाला पुरुष अथवा हिरण्गर्भ नाम पुरुष और ईश्वर से भी अतीत, यहां पर दिया गया च शब्द से ईश्वर संज्ञक उत्तम पुरुष भी ले लेना चाहिए । यह मैं ही नहीं अन्य भाष्य एवं टीकाकारों न भी च का अर्थ अनेक जगह अलग से पूर्व के प्रसंगों से अध्याहार किया है, अतः हमने भी वर्तमान प्रसंग से ही ईश्वर का समुच्चय कर लिया है । अर्थात क्षर, अक्षर और ईश्वर से भी जो उत्तम पुरुष अर्थात जिसकी उत्तमता से बढ़कर कोई उत्तम नहीं है ऐसा अनुत्तम पुरुष ही लोक और वेद में पुरुषोत्तम कहा गया है । यहाँ हम यह भी बता दें कि अध्याय १३/२२ में इसी पुरुषोत्तम को ही पुरुषः परः कहा गया है जबकि परमात्मा औपाधिक नाम होने के कारण जीव कोटि के अन्तर्गत कहा गया है । 
              इस प्रकार अध्याय ७/३० के उत्तरार्ध में में कहा गया था कि मृत्यु के समय भी जो मुझे अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित जानकर शरीर छोड़ता है वह परमगति प्राप्त करता है- का विवरण यहां निर्विरोध पूर्ण होता है । अन्यथा वहां के प्रसंग से यहां विरोध उत्पन्न हो जायेगा और शास्त्र की अनर्थता सिद्धि होगी । यही अध्याय सात का परमेश्वर का समग्र रूप है असंशयं समग्रं माम् ७/१ इसी समग्रता को ही दर्शाने के लिए अगले श्लोक में सर्वभावेन और यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ७/२ अर्थात जिसे जानकर कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा को अगले ही श्लोक में सर्ववित् अर्थात सर्वज्ञ कहकर अध्याय सात की प्रतिज्ञा को पूर्ण करते हैं ।।१८।।

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्विद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।।१५/१९।।
          हे भारत अर्थात राजा भरत जैसे तत्त्वदर्शी के वंश में उत्पन्न हुआ अर्जुन ! जो तत्त्वदर्शी मुझको ही पुरुषोत्तम जानता है वह सर्वज्ञ होकर सर्वभाव से मेरा भजन करता है ।
          पूर्व श्लोक में जो अस्मि का अर्थ किया गया उसी का यहां पर स्पष्टीकरण करते हैं कि जो इस प्रकार गुणकर्मविभाग द्वारा मेरे अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के क्रमशः तामस, राजस और सात्त्विक भेद को जानते हैं ऐसे जो विवेकशील तत्त्वदर्शी मुझको ही पुरुषोत्तम करके अर्थात उन तीनो पुरुषों से भी श्रेष्ठ पुरुष मुझ सर्वात्मा को ही जानते हैं । ऐसा जो जानने वाला है वही सर्ववित् अर्थात सर्वज्ञ है उसे अब कुछ जानना शेष नहीं रह गया है । इस प्रकार जब सर्वरूप से, समग्र रूप से सगुण, निर्गुण के स्वरूप को भलीभाँति जान लेता अर्थात अनुभव कर लेता है तब सर्वभाव से अर्थात उसमें चाहे सत्त्वगुण बढ़े, या रजोगुण अथवा तमोगुण सभी परिस्थितियों में वह मुझे ही भजता है अर्थात सभी भावों में मुझे ही आत्मरूप से ही जानता है ।
           इस श्लोक में माम् शब्द दो बार आया है । जिसमें पूर्वार्ध का माम् तत् पदार्थ का प्रति निधित्व करता है और दूसरा माम् त्वम् पदार्थ का प्रतिनिधित्व करता है । अर्थात तत् पदार्थ को त्वम् पदार्थ अर्थात मुझ सर्वात्मा के आत्मा अर्थात स्वयं से अभिन्न करके जानता है यही सब कुछ जानकर सब प्रकार से सभी भावों में उसका भजन करना है । यह पराभक्ति की चरमसीमा है । यहाँ भजता है का अर्थ यद्यपि जानना होता है तथापि जानकर जब तक प्रारब्धवश शरीर है तब तक उसमें स्थिरता की निरंतरता बनाये रखना, प्रमाद न करना ही भजन करता है कहने का उद्देश्य है ।
            इस प्रकार यहाँ पर तत् पदार्थ का त्वम् पदार्थ में विलय करके न तत् बचता है न त्वम् बचता है ते अस्मि १५/१८ नाम की शरीर रहते अनूभूति बचती है और शरीर छूटने पर यही अस्मि असि में परिवर्तित होकर नित्य परमशांति स्वरूप स्वमहिमा में प्रतिष्ठित हो जाता है ।
                यहां पर जिस प्रकार से तत् पदार्थ का त्वम् पदार्थ में विलय किया गया है इसी प्रकार अध्याय १८ में तमेव शरणं गच्छ १८/६२ का विनियोग मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ में करते हुए तत् पदार्थ का त्वम् पदार्थ में विनियोग करके निर्विशेष केवलाद्वैत असि पद में प्रतिष्ठित करेंगे ।
        यहां एक विशेष बात यह है कि अध्याय दो से लेकर छः तक तत् पदार्थ का त्वम् पदार्थ में विनियोग किया गया है, जबकि अध्याय सात से बारह तक त्वम् पदार्थ का तत् पदार्थ में विनयोग हुआ है । और यहाँ अध्याय तेरह से लेकर उपदेश के अन्तिम भाग अध्याय पंद्रह तक पुनः तत् पदार्थ का त्वम् पदार्थ में विनियोग करके असि या अस्ति नामक सत्तापद में विनियोग किया गया  है । इसका कारण यदि खोजा जाये कि परमात्मा का विनियोग आत्मा में ही क्यों किया गया है ? तो इसका उत्तर अध्याय १४/२७ होगा जहाँ पर अहं के अर्थ में ही ब्रह्म, ज्ञान आदि की प्रतिष्ठा अर्थात सब कुछ अहमर्थ के ही आश्रित है । त्वम् का तत् में विनियोग करने पर भी अहं का ही अर्थ बचता है और तत् का त्वम् में विनियोग करने पर भी अहं का ही अर्थ बचता है अतः अन्तिम अहं का ही अर्थ शेष बचने के कारण ही अहं में ही विनियोग किया गया है ।।१९।।

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत १५/२०।।
         हे अनघ ! मेरे द्वारा कहा गया यह शास्त्र अत्यंत गोपनीय है । हे भारत ! इस प्रकार जानकर विवेकशील कृतकृत्य हो जाता है ।
    ‘इति’ शब्द उपदेश की परिपूर्णता के लिए और ‘इदं शास्त्रम्’ से अशोच्यानन्वशोचस्त्वं २/११ से लेकर यहाँ तक दिये गये उपदेश से है । अनघ का अर्थ है जो पाप रहित अर्थात नित्यसत्त्वस्थ २/४५ है वही विवेकशील इसका भलीभांति विचार करके कृतकृत्य हो जाता है अर्थात कुछ भी करना और पाना शेष नहीं रहता है― सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३ इस निर्विशेष अस्मि पद में प्रतिष्ठित होने पर ही वह निस्त्रैगुण्य २/४५ हो जाता है, यही अस्मि में स्थित हुआ मुमुक्षु ही आत्मवान् २/४५ है । आत्मन्येवात्मा तुष्टः २/५५ अर्थात पूर्ण काम भी हो जाता है । यही इस शास्त्र की महिमा है ।।२०।।

                 समीक्षा― चूंकि यह अध्याय पीछे सभी अध्यायों का सारभूत है इसलिये भगवान ने सहज भाव से समझ में आ सके इसके लिए संसार के अविनाशित्व के कथन पूर्वक इसकी न तो ठीक स्थिति ही है और न ही यह कल तक टिकने वाला है, ऐसे अश्वत्थ वृक्ष के रूपक द्वारा संसार की स्थिति समझते हुए प्रकृति के गुण कार्यो से असंग रूपी शस्त्र से दृढतापूर्वक इसकी राग द्वेष रूपी जड़ो को काटकर उस मार्ग की खोज का निर्देश दिया जिसे प्राप्त करके पुनः संसार का मुख न देखना पड़े । वह पद और कोई नहीं बल्कि हमारे संकल्प की जड़ बुद्धि में भी जिस आत्मप्रकाश के पड़ने पर अहं की स्फूर्ति पूर्वक संपूर्ण संसार के कारण कारण भाव को भी जो प्रकाशित करता है उस सबके आदि आत्मपद की शरण लेना बताया और उसकी महिमा बताया कि वह पद स्वयं प्रकाश रूप मेरा स्वरूप ही है जहाँ जाकर वापस नहीं होना पड़ता है ।
          फिर जीव को अपना सनातन अंश कहते हुए छः इन्द्रियों के लेकर अन्य शरीर में जाना और तत्त्वदर्शी द्वारा उन परिवर्तनशील परिस्थितियों में एक अपरिवर्तनीय नित्य स्वमहिमा में साधन चतुष्य संपन्न होकर जान लेना जबकि अजितेन्द्रिय के प्रयत्न करने पर भी उसे न जानना और सूर्य की उपमा द्वारा उस आत्म प्रकाश को स्वयं से अभिन्न जानने की बात भगवान ने कहा । 
          इसके आगे पृथ्वी में प्रवेश, प्राणियों को धारण करना, चन्द्रमा रूप में रसमय औषधियों का पोषण करना, प्राणियों की जठराग्नि के रूप में प्राणियों के खाये अन्न को पचाने एवं सभी प्राणियों में स्थित होकर स्मृति, ज्ञान और उनके विरुद्ध स्वयं को क्रिया करने, वेदों से जानने योग्य, वेदान्त परंपरा के प्रथम आचार्य और वेदों के रहस्य को जानने वाला स्वयं को बताकर जीवों से अपना एकत्व सिद्ध किया ।
         इसके बाद क्षर, अक्षर और उत्तम पुरुष द्वारा अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ का संक्षिप्त वर्णन करते हुए इन तीनो उपाधियों से भिन्न निरुपाधिक अनुत्तम ७/१८ एवं ७/२४ पुरुष के नाम से लोक और वेद में प्रसिद्ध होना बताते हुए इस प्रकार के सर्वरूप अर्थात समग्र रूप में जानने वाले को सर्वज्ञ और सब प्रकार से सभी भावों को जानकर उनमें स्थित होकर अस्मि पद की अनुभूति करता है । इस प्रकार मुझ सर्वात्मा कृष्ण के द्वारा कहे गए इस अत्यंत गोपनीय शास्त्र का विवेकशील भलीभांति विचार करके कृतकृत्य हो जाता है अर्थात जीते जी कुछ भी करना और पाना शेष उसके लिए नहीं बचता और शरीर छूटने पर अस्ति नामक परम पद में प्रतिष्ठित हो जाना बताकर अपने उपदेशों का उपसंहार कर दिया ।।१-२०।।
        इस प्रकार कृष्ण का तत्त्व तो कृष्ण ही जाने और मुझ पर कृपा बनाये रखें । इसी के साथ ये विचार भी कृष्ण को ही समर्पित हैं । ओ३म् !

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ।।१५।।
हरिः ॐ तत्सत् !                      हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु

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