गीता समीक्षा अध्याय १८
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथाष्टादशोऽध्यायः
भगवान ने अध्याय दो में सांख्ययोग और कर्मयोग की विधिवत् प्रशंसा की, इस पर अर्जुन को लगा कि भगवान ही भ्रमित कर रहे हैं या मैं भ्रमित हूँ । इसीलिए अर्जुन ने कहा― बुद्धिं मोहयसीव मे ३/२ अर्थात बुद्धि मोहित होती हुई सी । अतः अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया ज्ञानयोगेन सङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ३/३ यह कहकर ज्ञानयोग पर कोई चर्चा ही नहीं करते हैं, सीधे ही कर्मयोग का वर्णन करने लगते हैं । पश्चात चौथे अध्याय में इस ज्ञान की परंपरा के विषय में स्वयं ही प्रवेश करके वहां भी ज्ञान का जो स्वरूप कहा वह भी कर्म प्रधान था अतः पंचम अध्याय में संन्यास और कर्म की श्रेष्ठता विषयक प्रश्न किया और उसी में पूरा छठा अध्याय तक समाहित हो गया । सातवें अध्याय की ऐसी भूमिका बनी कि पूरे सत्रहवें अध्याय तक अवसर ही नहीं मिला कि पुनः संन्यास और कर्म के विषय में स्वरूपतः पूछ सके । अतः अब संन्यास अर्थात ज्ञानयोग और कर्मयोग विषयक जो तीसरे अध्याय से संबद्ध है और अर्जुन एक श्रेष्ठ बात का अनुसरण करना चाहता है वह चाहे फिर भिक्षुकों का संन्यास मार्ग हो या फिर योगियों का कर्म मार्ग । अतः उसी के एक निश्चय की दृष्टि से अन्तिम प्रश्न करता है―
अर्जुन उवाच
सन्न्यास्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिशून ।।१८/१।।
अर्जुन बोले― हे महाबाहो ! हे हृषीकेश ! हे केशिनिशूदन ! संन्यास और त्याग का तत्त्व अगल अलग सुनने का इच्छुक हूँ ।
अर्जुन संन्यास और कर्मयोग के फल त्याग का स्वरूप जानना चाहता है ।।१।।
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।।१८/२।
काम्य कर्मों के त्याग को तत्त्वदर्शी संन्यास कहते हैं । सभी कर्मों के अशेष फल त्याग को सूक्ष्म विचारक त्याग कहते हैं ।
यहाँ पर काम्य कर्म के त्याग का अर्थ यज्ञादि जितने भी पूर्व मीमांसा से संबंधित सकाम प्रवृत्तिमार्गी कर्म हैं उनका स्वरूप से त्याग और निवृत्तिमार्गी उत्तरमीमांसा में कहे गये सभी कर्म ही आदरणीय हैं यह प्रथम पक्ष है जैसा कि― त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन २/४५ अर्थात पूर्वमीमांसा के त्याग और उत्तरमीमांसा के आचरणवाला हो जा, ऐसा जो तत्त्वदर्शी अर्थात परमेश्वर के निर्विशेष अक्रिय स्वरूप को तत्त्व जानने वाले हैं, वे कहते हैं
दूसरे पक्ष में कर्ममीमांसको की मीमांसा कहती है कि नहीं काम्यकर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं करना चाहिए, वे करने ही चाहिए, बल्कि उनके फल का त्याग करना चाहिए । भगवान भी कहते हैं कि ज्ञानी को भी अज्ञानी की ही भांति आसक्त हुआ सा कर्म करना चाहिए ३/२५ ।
इस प्रकार यहाँ पूर्वार्द्ध में संन्यास और उत्तरार्ध में कर्मयोग संबंधित अर्जुन के दोनो प्रश्नों का उत्तर संक्षेप में देकर विभिन्न मतों का वर्णन करते हुए अपने यत की प्रतिष्ठा करेंगे । साथ ही यहाँ पूर्वाध्यायों के सभी प्रधान विषयों का यहाँ समावेश करके संक्षिप्त स्पष्टीकरण करते हुए गीतोपदेश का उपसंहार किया जायेगा ।।२।।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।।१८/३।।
अन्य विद्वान कहते हैं कि कर्म भी दोषों के समान ही स्वरूप से ही त्यागने योग्य हैं अर्थात त्याग ही देना चाहिए । जबकि दूसरे विद्वान यज्ञ, दान, तप नहीं त्यागना चाहिए ऐसा कहते हैं ।
जैसे सुख भी गीता क्षणिक होने से दुःख ही मानती है । पुण्य भी जन्म मृत्यु की जड़ होने पाप ही है वैसे ही सकाम हों या निष्काम, सभी हैं तो कर्म ही और वे कभी भी पतन का हेतु हो सकते हैं अतः दोनो प्रकार केे कर्मों का त्याग करना ही चाहिए यह तृतीय पक्ष है । चतुर्थपक्ष लोकमर्यादा की दृष्टि यज्ञ, दान और तप इन कर्मों के त्याग का विरोधी है । प्रथम तृतीय पक्ष संन्यास विषयक और द्वितीय एवं चतुर्थ पक्ष कर्मफलत्याग विषयक ।।३।।
निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।।१८/४।।
हे भरतश्रेष्ठ ! इस त्याग के विषय में मेरा निश्चित मत सुनो― क्योंकि हे श्रेष्ठ बलवान पुरुष ! त्याग तीन प्रकार का कहा गया है ।
सबके मत के बाद भगवान त्याग का मत सात्त्विक राजस तामस इन तीन विभागों में त्याग का वर्णन करने की इच्छा से, कौन कर्म त्याज्य हैं और कौन नहीं इस विषय में अपना मत अर्जुन निश्चय सुनाने के लिए अर्जुन को सावधान करते हैं ।।४।।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।।१८/५।।
यज्ञ, दान, तप रूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए वरन् करना ही चाहिए, क्योंकि यज्ञ दान और तप भी मनुष्य को पवित्र करते हैं ।
यहाँ पवित्र का अर्थ चित्तशुद्धि समझना चाहिए ।।५।।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।।१८/६।।
क्योंकि ये कर्म आसक्ति और फल का भी त्याग करके ‘मेरा कर्तव्य है’ ऐसा समझ कर करना ही चाहिए ऐसा मेरा निश्चिच श्रेष्ठ मत है ।
भगवान ने कहा था― तेरा कर्म करने का अधिकार है इसलिए कर्म का हेतु कर्ता मत बन २/४७, उसी को यहाँ कर्म की आसक्ति त्यागने का तात्पर्य कर्तृत्वाभिमान से रहित होकर कर्म कर और कहा था तेरा फल पर कोई अधिकार नहीं है २/४७ इसलिये कहते कि फल का भी त्याग कर दें । ऐसा जो निरपेक्ष कर्म है जिसे एक मात्र समाज के प्रति कर्तव्य समझकर किया जाये वही मुझ वासुदेव कृष्ण निश्चय किया हूआ श्रेष्ठ मत है क्योंकि ऐसे ही कर्म मनुष्य को पवित्र बनाते हैं ।।।६।।
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ।।१८/७।।
जो शास्त्र विहित कर्म हैं उनका त्याग उचित नहीं है । मोह के आधीन होकर किया गया तप तामसी त्याग है यह प्रसिद्ध है ।
स्वरूप में प्रतिष्ठित ज्ञानी के लिए यद्यपि कोई कर्म नहीं है तथापि जिनकी स्वरूप में प्रतिष्ठा नहीं हुई उन जिज्ञासुओं की उपरोक्त कर्म से चित्तशुद्धि होती है । फिर भी मोह यानी अज्ञान से किये गये कर्म का त्याग तामसी प्रसिद्ध है । अर्थात तामसी कर्म का लोक परलोक कहीं कोई फल नहीं होता ।।७।।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।।१८/८।।
कर्मों में दुःख ही होता है ऐसा विचार कर शारीरिक कष्ट के भय से जो कर्म का त्याग करता है वह राजस त्याग करके भी त्याग का फल प्राप्त नहीं करता ।
तमसी का लोक परलोक कोई फल नहीं राजसी का हो सकता लेकिन चित्तशुद्धि रूपी जो कर्म का फल है वह नहीं प्राप्त करता जिससे संसार चक्र से नहीं छूटता, ऐसा तात्पर्य भेद दोनो में कर लेना चाहिए ।।८।।
कार्मित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ।।१८/९।।
हे अर्जुन ! ‘कर्म करना मेरा कर्तव्य मात्र है’ इस प्रकार निश्चय करे फलाकांक्षा से रहित होकर शास्त्रीय कर्म उसकी आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाने वाला कर्म सात्त्विक है ऐसा मेरा मत है । अर्थात ऐसे कर्म करना चाहिए ।।९।।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्न संशयः ।।१८/१०।।
जो सकाम कर्मों से द्वेष नहीं करता और निष्काम, नित्य-नैमित्तिक कर्मों में आसक्त नहीं होता, वही त्यागी है । मेधावी अर्थात आत्मा अनात्मा का विवेक करने वाला, जिसके के संशय नष्ट हो गये हैं वह स्व-भाव में प्रवेश कर जाता है ।
अकुशल यानी सकाम कर्मों से द्वेष न करना अर्थात आवश्यकता पड़ने पर लोकमर्यादा के निमित्त कर्मों में आसक्त हुआ सा दिखता हुआ कर्म भी करे ३/२५, कुशल यानी निष्काम कर्म में आसक्त न होना– ते सङ्गोस्त्वकर्मणि २/४७ अर्थात निष्कामता की अहंवृत्ति का भी कर्ता न बने ।
ज्ञान द्वारा संशय का नाश करके ४/४१, इस संशय का नाश करके ४/४२, जिनके कल्मष क्षीण है गये हैं जिनकी दुविधा नष्ट हो गई है अर्थात जीव-ब्रह्म के अभिन्नत्व विषयक संदेश नष्ट हो गया है, वे ऋषिगण ब्रह्मनिर्वाण अर्थात मोक्षस्वरूप अभिन्नता को प्राप्त करते हैं ५/२५, इस प्रकार जो पहले कह चुके हैं । उसी को यहाँ सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः से कहा है । सत्त्वसमाविष्टो अर्थात स्वरूप में प्रवेश, मेधावी यानी आत्मा-अनात्मा का विवेक करने वाला, छिन्नसंशयः यानी चित्तशुद्धि होने बाद एकत्व विषयक संदेह जिनके नष्ट हो गये हैं ।।१०।।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधायते ।।१८/११।।
क्योंकि देहधारियों के द्वारा संपूर्ण कर्मों का त्याग संभव नहीं । इसलिये जो कर्मफल का त्याग करने वाला है वही त्यागी है ऐसा तत्त्वदर्शियों द्वारा कहा गया है ।
यहाँ पर देहभृता― देहवद्भिः १२/५ का पर्यायवाची है । जो जिसमें यह भाव है कि मैं देहधारी हूँ वह अध्याय दो में कहे गये षड्विकारों से रहित आत्मा से भिन्न स्वयं को साढेतीन हाथ के शरीर वाला शिवाश्रम ही मानता है । यही देहाभिमान है । अतः अध्याय बारह में जो अव्यक्तोपसक की गति दुःखद कही गई है अर्थात अव्यक्त को प्राप्त न करके जन्म मृत्यु रूप गति को प्राप्त करना रूप अत्यंत दुःखद गति को ही प्राप्त करता है, एवं अयोगी अर्थात अजितेन्द्रिय के लिए संन्यास अर्थात ज्ञानस्वरूप अव्यक्त की प्राप्ति न होकर दुःख की प्राप्ति बताया दुःखमाप्मयोगतः ५/६, उसी का यहाँ स्पष्टीकरण करण करते हैं कि जब तक थोड़ा भी देहाभिमान है तब तक अशेष अर्थात स्वरूप से मानसिक और क्रियात्मक कर्म का त्याग संभव ही नहीं है ।
पूर्व श्लोक में बताया कि सकाम कर्मों से द्वेष न करे और यदि द्वेष करता है तो वह अपनी निष्कामता का अहंकार रखता है यह भी देहाभिमान का ही पर्याय है और उसी को स्पष्ट करने के लिए जो कहा था सङ्गोऽस्त्वकर्मणि २/४७ अर्थात अपनी निष्कामता का भी त्याग कर दे । उसी को स्पष्ट करते हुए सकाम और और निष्काम दोनो कर्मों का स्वरूप से त्याग कर पाना देहाभिमानी के लिए कदापि संभव नहीं है । जब तक, देहाभिमान नहीं जाता तब तक अव्यक्त तत्त्व की प्राप्ति खरगोश के सींग, वंध्यापुत्र आदि के समान है अर्थात वह सुगुण साकार से भी गया और निर्गुण निराकार से भी गया । अब उसकी प्राप्त होने वाली दुःखद गति जन्म मृत्यु के चौरासी के फंदे को कोई रोक ही नहीं सकता । इस प्रकार अध्याय ५/६ और १२/५ की दुःखद गति और अव्यक्त अप्राप्ति को यहाँ स्पष्ट करते हुए अब अध्याय १२/१२ में अतिमंद अधिकारी का चतुर्थ श्रेणी की साधना का स्पष्टीकरण करते हैं कि जिसे चतुर्थ श्रेणी अर्थात अत्यंत निकृष्ट साधना समझकर लोग हीन मन वाले हो जाते हैं वह उनका अविवेक ही है ।
जब स्वरूप से कर्म का त्याग हो नहीं सकता है तो भी यदि कर्म त्याग करेगा तो वह मूढ, मिथ्याचारी अर्थात दंभी है । अतः कर्म त्याग ही मत करो कर्म और उसके प्रति फल की जो अपेक्षा है उन दोनो का त्याग कर दो । जिसका फल अध्याय १२ में ही नित्य शान्ति बता चुके हैं । यही यहाँ सामान्य कर्मी अर्थात कर्मयोगी के लिए श्रेष्ठ है । यह तात्पर्य है ।।११।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधः कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ।।१८/१२।।
अनिष्ट, इष्ट एवं मिश्रित ये तीन प्रकार का फल जो कर्मफल का त्याग नहीं करते हैं उन्हीं को मिलता है, किन्तु संन्यासियों को कभी नहीं मिलता ।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्येतिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।।१४/१८ अर्थात जो कर्मफल का त्याग नहीं करते हैं उनको तीन प्रकार का फल मिलता पहला तो अनिष्ट फल है जो अजितेन्द्रिय भोगों में आसक्त दूसरों को पीड़ा देना ही जिनका स्वभाव बन गया है ऐसे तामसी प्रकृति वालों को अनिष्ट फल यानी नरक तो मिलना ही है, उसके अतिरिक्त भी नाना प्रकार की योनि में निरंतर भ्रमण करना अध्याय सोलह में बताया गया है । दूसरा फल यह है कि इष्ट फल अर्थात स्वर्गादि की कामना से किया गया सत्त्वगुण प्रधान कर्म, इससे वह स्वर्गादि लोकों में जाकर देवता आदि के भोगों को भोगकर ९/२०-२१ फिर इसी मृत्युलोक में ही आकर उसी दुःखद चक्र में पड़ना होता है । तीसरा फल मिलाजुला होता है जो पाप और पुण्य के सहित होता है, किसी का हित, तो किसी का अहित करने वाला होता है ऐसा व्यक्ति सीधे मनुष्य ही बनेगा । उसमें भी उत्तम मध्यम कनिष्ठ और अधम योनि का विधान है । अतः ये सभी तो दुःखद गति प्राप्त करने वाले अजितेन्द्रिय हैं ।
किन्तु संन्यासी को थोड़ा भी ऐसा कोइ फल प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि उसने कर्मों को स्वरूप से ही त्याग दिया है । जो कुछ दिखता भी है वे सभी कर्म प्रकृतिस्थ मैं और ज्ञानी स्वरूपस्थ है अतः उसके लिए ये कोई फल न होने का तात्पर्य है कि वह जीते जी मोक्षस्वरूप है । अतः यहाँ बताया गया है कि दंभाचार का आश्रय लेकर बाह्य कर्म का त्याग कर भी दो तो भी आपको उपरोक्त तीन में से कोई न कोई तो एक फल मिलेगा ही । अतः उन कर्मों को त्यागने के स्थान पर उन्हें करो किन्तु उसके फल की अपेक्षा और कर्तृत्व की अहं वृत्ति का त्याग कर दो । इससे चित्तशुद्ध होगा । फिर वह ज्ञानी के लक्षणों को ही नित्यज्ञान मानकर १२/२० उनका अनुसंधान करेगा और फिर नित्य शान्ति को प्राप्त कर लेगा यह भाव है ।
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यह सात्त्विक त्याग है । सात्त्विक त्याग तभी होगा जब जितेन्द्रिय दैवी गुण से संपन्न होकर आत्मनिष्ठ होगा तब । अन्यथा अजितेन्द्रिय भी दैवीगुण संपन्न ब्रह्मचर्य पालन, सत्य के त्रिविध आचरण के बिना सामान्य देवता को भी नहीं प्राप्त करता है जो फिर निर्विकार ब्रह्म की प्राप्ति कैसे कर सकेगा । आप कितने भी ब्रह्मचर्य, अहिसा, तप आदि दैवी गुणों का आश्रय लें, लेकिन जब तक मन में कोई भी कामना है तब तक मन जीता हुआ नहीं है । मन से पराजित हुआ इन्द्रियों के ही आधीन है । तो जब हमें नाशवान पदार्थों के लिए भी उन्हीं नियमों का पालन करना पड़ता है जिन नियमों से परमतत्त्व से अभिन्न अपना नित्यस्वरूप प्राप्त हो जाता है, तो फिर नित्यस्वरूप की प्राप्ति के लिए ही उन नियमों का पालन क्यों न करें ?.इसी बात को दृष्टि में रखकर मन पर प्रथम विजय पाने हेतु कर्मफल के त्याग की बात कही है, यह भाव है ।
भावार्थ― दंभाचार का त्यागकर आत्मकल्याण के लिए निकृष्ट साधन भी अपनाने में संकोच नहीं करना चाहिए ।।१२।।
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ।।१८/१३।।
हे महाबाहो ! कर्मों का अन्त करने वाले वेदान्त में सभी कर्मों की सिद्धि के लिए आगे कहे जाने वाले ये पांच कारण मुझसे सुन ।
यहाँ साङ्ख्य का अर्थ ज्ञान यानी वेदान्त से है क्योंकि वेदों के तात्पर्य को समझने के बाद ही कर्मों का नाश होता है― सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३, एवं कृतान्त का अर्थ कृत अर्थात किये गये कर्मों का अन्त । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।१३।।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ।।१८/१४।।
अधिष्ठान तथा करण और अगल-अलग इन्द्रियां एवं नाना प्रकार की चेष्टा और यहां पर पांचवां दैव ।
यहाँ अधिष्ठान का अर्थ निर्विकार परम सत्ता जिसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की स्थिति है । बिषयों को ग्रहण करने वाली चौदह इन्द्रियां, कर्तृत्व, भोक्तृत्व का अभिमान रखने वाला कर्ता जीव, हमारे द्वारा होने वाली नाना प्रकार की मानसिक चेष्टाएं, और पूर्व जन्म में किये गये कर्मों से बना दैव नामक प्रारब्ध । इन पाचों में चार की स्थिति जड़ है, वे स्वयं तो कुछ कर नहीं सकते, जब तक उनके अधिष्ठान चैतन्य का सहयोग न मिले । अतः यहां यह बताया गया है कि वस्तुतः जीव माना हुआ है वह स्वयं तो कर नहीं सकता है केवल निष्क्रिय सत्ता में प्रतीति मात्र हो रही है ।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्यायं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ।।१८/१५।।
मनुष्य शरीर से, मन से, वाणी से जो भी कर्म प्रारंभ करता है वे न्याय अवथा अन्याय दो प्रकार कर्मों के उपरोक्त पांच निमित्त होते हैं ।
न्याय अर्थात पुण्य, अन्याय अर्थात पाप । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।१५।।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।।१८/१६।।
किन्तु इस प्रकार उपरोक्त कर्म के पांच हेतु होने पर भी जो केवल अपने को ही कर्ता देखता है वह दुर्मति अकृतबुद्धि अर्थात चित्तशुद्ध न होने के कारण ठीक से नहीं देखता ।
आत्मा निर्विकार है फिर भी उनमें क्रिया का आरोप करना ये अविवेक है । अकृतबुद्धि वह है जो आत्मा अनात्मा का विवेक करके एकनिष्ठ आत्मा में स्थिर नहीं हुई है । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।१६।।
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।।१८/१७।।
जिसकी बुद्धि किये कर्मों की अहंवृत्ति से रहित, एवं कर्म में आसक्त नहीं है । वह इन सभी लोकों को मार कर भी न किसी को मारता है और न ही उसके फलस्वरूप जन्म मृत्यु रूप बन्धन को ही प्राप्त होता है ।
पहले बताया कि जो आत्मा को कर्ता देखता है वह विवेकहीन ठीक नहीं देखता है, तो प्रश्न उठता है कि कौन ठीक देखता है ? इस पर बताया कि सकाम, निष्काम दोनो के करने में, त्यागने में आसक्ति या अहंवृत्ति का न होना ही ठीक देखना है । क्योंकि वह नित्य आत्मभाव में स्थित है । वह न कर्ता है, न बद्ध यह भाव है ।।१७।।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधः कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ।।१८/१८।।
ज्ञान, ज्ञेय और उसको जानने वाला ये तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है । करण, कर्म और कर्ता तीन प्रकार का कर्म संग्रह है ।
जिससे जाना जाये वह ज्ञान, जो जाना जाये वा ज्ञेय और जो जाने वह परिज्ञाता यानी जानने वाला क्षेत्रज्ञ । ये तीन ही कर्म प्रेरणा के श्रोत हैं । करण यानी इन्द्रियां, क्रिया रूप में परिवर्तित कर्म और कर्ता के रूप में उन कर्म चेष्टाओं का संग्रह होता है । यह ज्ञाता ही कर्ता अपने आपको मानने लगा है अतः कर्ता हो गया । यह भाव है ।।१८।।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ।।१८/१९।।
गुणभेदतः = सत्त्वादिगुणभेदात्, त्रिधा = त्रिप्रकारेण, सङ्ख्याने = साङ्ख्यदर्शने, प्रोच्यते = कथ्यते
ज्ञानं कर्म च कर्ता च सत्त्वादिगुणभेदात् त्रिप्रकारेण साङ्ख्यदर्शने एव यथावत् कथ्यते, तानि (वेदान्तदृष्ट्या) अपि श्रृणु ।
ज्ञान तथा कर्ता एवं कर्म सत्वादि गुणों के भेद से तीन प्रकार से कपिल मुनि द्वारा कहे गये सांख्य दर्शन में भी कहा गया है उन भेदों को वेदान्त दृष्टि से सुन ।
मेरा भ्रम— यहां हमारी समस्या थी कि अगले श्लोक में कहे गये वेदान्त प्रतिपादित एक अविनाशी सत्ता के साथ किसी भी परिस्थिति में सांख्य मत के रूप में उदाहरण रूप में प्रस्तुत करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है । आचार्य शंकर सहित अनेक विद्वान यहां पर कपिल प्रतीत सांख्य शास्त्र से तुलना उचित नहीं है । हमने भाष्य के अतिरिक्त कई टीकाएं भी देखी, परस्पर चर्चा भी किया, किन्तु चर्चा में वही भाष्य और टीकाओं की पंक्तियां सुना दी जातीं जिनका भाव मेरे हृदय का स्पर्श भी नहीं करता था । मेरा मानना है कि जो बात समझ में न आये उसका उल्लेख मात्र इसलिए करना उचित नहीं है कि किसी महान दार्शनिक या आचार्य ने वैसा कहा है, जो समझ में न आये उसकी अपेक्षा जो समझ में आ रहा है निर्द्वन्द्व होकर उसी का उल्लेख करना चाहिए । अतः हमारा भाव यद्यपि तीसरे दिन विरुद्ध निर्णय इसलिए ले लेता है कि आचार्य शंकर का कोई आन्तरिक संकेत नहीं मिला । आज चौथे दिन जब शौच के समय इसी का चिन्तन कर रहा था तब जो संकेत मिला उसको ऊपर सामान्य भाव से लिख दिया है । तथापि मैं उसका स्पष्टीकरण इस लिए करूंगा कि मेरी ही तरह भ्रम उत्पन्न न हो—
भ्रम निवारण— कपिल दर्शन में जीव को अनेक माना जाने पर भी दीपक के प्रकाश की भांति परस्पर व्यापक माना गया और उनकी मुक्ति भी मानी गई है । मुक्ति वहां भी बिना सत्त्वगुण के नहीं होती है । उसी को श्रीकृष्ण यहां यह स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार तीनो गुणों का वहां भी सात्त्विक, राजस, तामस गुणों का विभाग करके शुद्ध सात्त्वगुण में ही मुक्ति मानी कहते हैं, जबकि यही वेदान्त भी कहता है कि बिना सत्त्वगुण यानी दैवी संपत्ति के बिना मोक्ष नहीं मानता है । अतः जो पहले नित्यसत्त्वस्थः २/४५ कहा था उसी सत्त्वगुण में स्थित करने के लिए कपिल शास्त्र के माध्यम से सत्त्वगुण की स्तुति करते हैं कि जब वेद बाह्य अनेकतावादी भी बिना सत्त्वगुण के मुक्ति नहीं मानते तो फिर हम वैदिक एवं एक मात्र अविनाशी परमसत्ता को मानने वाले हैं अतः हमें हर परिस्थिति में नित्य सत्त्वस्थ होना ही चाहिए । अतः अब वेदान्त की दृष्टि में सत्त्वादि का लक्षण क्या है वह मुझसे सुनो ।।१९।।
सर्वभेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।।१८/२०।।
सम्पूर्ण प्राणी को जिस एक अव्यय भाव को देखते हैं एवं संपूर्ण भिन्न भिन्न प्रणियों में अभिन्न आत्मा को जानते हैं । उस ज्ञान को सात्त्विक जान ।
कपिल शास्त्र में परमार्थ में ब्रह्म को नहीं मानते हैं वे आत्मा को वस्तु कहते हैं । इसलिये यहाँ भाव का अर्थ वस्तु यानी आत्मा है । अर्थात जिस एक आत्मा को संपूर्ण प्राणियों में देखा जाता है, और अनेक रूप आकृतियों वाले विभक्त यानी अलग अलग दिखने पर भी उन संपूर्ण प्राणियों को एक अविनिशी आत्मा में देखा जाता है वह ज्ञान सात्त्विक है ।
यहाँ पर आत्मा की व्यापकता का वर्णन है, अर्थात एक ही आत्मा इस जगत के प्राणियों के रूप में दिख रही है, संपूर्ण प्राणी एक आत्मा में ही सत्तावान हो रहे हैं । इसी कापिल शास्त्र के अनुसार भी आत्मा अनेक होकर भी परस्पर एक दूसरे में व्याप्त अर्थात अभिन्न है । इसलिये भी हम वेदान्त के सिद्धांतों का अनुसरण करने वालों को एक ही निर्विशेष ब्रह्म में सबको और सब में एक ब्रह्म को देखना― ईशावास्यमिदं सर्वम् इत्यादि श्रुति एवं वासुदेवः सर्वम् इत्यादि गीता सहित अन्य स्मृतियों के कथन में विश्वास करके एक ब्रह्म को ही सर्वत्र एकमेवाद्वितीम् देखना युक्ति संगता ही है ।
यहाँ प्रसंग कर्ता क्रिया और कर्म का उपस्थित किया गया था, बीच में पहले आत्मा को देखने यानी समझने का सात्विक राजस और तामस स्वरूप बताया जा रहा है जिसका कारण यह है कि हम एक परम सत्ता समझकर सात्त्विक भाव में स्थित हो सकें ताकि एक परम सत्ता का साक्षात्कार कर सकें ।।२०।।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावन्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।।१८/२१।।
परन्तु जिस ज्ञान से सभी प्राणियों में अनेक प्रकार से भिन्न भिन्न भाव (आत्मा को) देखता है वह राजसी ज्ञान जान ।
आत्मा की सत्ता को भेद दृष्टि से अगल अलग देखना राजसी और त्याज्य ज्ञान है यह भाव है ।।२१।।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तासमुदाहृतम् ।।१८/२२।।
किन्तु जिस ज्ञान से कार्य में ही पूर्ण के समान युक्ति रहित आसक्त होता है, और जो वास्तविकता से रहित तुच्छ है उस ज्ञान को तामस कहा गया है ।
अहैतुक यानी कारण रहित, युक्ति रहित । अतत्त्वार्थ यानी तत्त्व निश्चय से रहित अल्प अर्थात क्षणिक फल वाले, कार्य यानी प्रकृति का स्थूल कार्य शरीर या मूर्ति आदि ।
यहाँ यह बताया गया है कि जो एकमात्र अपने शरीर में ही आत्मा को देखता है, पूर्ण के समान देखता है कि यही साढेतीन हाथ का शरीर वाला मैं आत्मा हूँ, अवथा एकमात्र किसी मूर्ति को ही पूर्ण के समान― यह मूर्ति ही भगवान है अन्य नहीं । ऐसी युक्ति से भी जिसका कोई अस्तित्त्व नहीं है, जो तात्त्विक रूप से भी क्षणिक फल देने वाले हैं उसी शरीर, मूर्ति, देव (भूत, पिशाच, यक्षिणी ब्रह्मराक्षस) आदि में आसक्त होकर उसी के भरणपोषण या उपासना में लग जाना तामस गुण कहा जाता है ।
अर्थात जिसमें सत्त्वगुण बढता है वह एक आत्मा में सबको और सबमें एक आत्मा को देखता है, जब रजोगुण बढता है तब आत्मा तो अन्यत्र भी दिखती है लेकिन राग द्वेष की वृद्धि करने वाली भेद दृष्टि होती है जिससे आत्मा एक ही है ऐसा अनुभव नहीं होता और तमोगुण के बढने पर शरीर को ही आत्मा मानकर उसी के पालन पोषण के लिए आवश्यकतानुसार अन्याय मार्ग का भी चयन कर लेता है अथवा किसी मूर्ति को ही भगवान मानकर चैतन्य प्राणियों की उपेक्षा कर देता है इत्यादि । यह सांख्य मत मी मानता है तो हम तो वेदान्त परंपरा वाले हैं अतः हमें भी सात्त्विक ही होना चाहिए अर्थात आत्मा को एक और व्यापक देखना ही चाहिए और केवलाद्वैत की शरण ग्रहण करना चाहिए । इसीलिये भगवान् पहले ही नित्य सत्त्वस्थः २/४५ कह चुके हैं ।।२२।।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तसात्त्विकमुच्यते ।।१८/२३।।
जो कर्म शास्त्र विहित, राग द्वेष एवं आसक्ति रहित होकर किये जाते हैं वे सात्त्विक कहे गये हैं ।।२३।।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।।१८/२४।।
परन्तु जो कर्म कामनाओं की पूर्ति के लिए अथवा अहंकार पूर्वक उसमें भी बहुत परिश्रम से किया जाये उसे राजसी कहते हैं ।
कामनाओं की पूर्ति अर्थात भोगेच्छा से । अहंकार के सहित कहने का अर्थ है ब्रह्मतत्त्व के लिए जो किया जाता है विनम्रतापूर्वक किया जाता है लेकिन अहंकार का मतलब जो कर्म किया उसमें अहंवृत्ति का होना कि हमने ये किया, वो किया आदि, इसमें अपने स्वार्थ के स्थान पर समाज के लिए भी जो किया जाये उसमें भी दूसरे के ऊपर मानो एहसान कर रहें हों इत्यादि अहंकार पूर्ण वृत्ति । बहुलायास अर्थात कर्म के स्वरूप की जानकारी तो है नहीं अहंकारवश कि मैं किसी से भी कम नहीं हूँ, इस प्रकार जो काम एक दिन में होना चाहिए महीनों में भी अधिक परिश्रम करके भी पूर्ण कर लें तो बड़ी बात । ऐसे कर्म रजोगुण की वृद्धि से ही होते हैं ।।२४।।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।।१८/२५।।
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और अपना सामर्थ्य न देखते हुए मोह से कर्म आरम्भ करते हैं उसे तामस कहते हैं ।
जो हम कर्म करने जा रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा ? उससे हमारा या समाज का कितना नुकसान होगा ? इसमें कितने प्राणियों को शारिरिक या मानसिक या प्राणों को कष्ट होगा ? हमारा सामर्थ्य क्या है ? इस पर विचार किये बिना कर्म को प्रारंभ कर देना तमोगुण की उत्पत्ति के कारण समझना चाहिए ।।२५।।
मुक्तसङ्गोऽहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।।१८/२६।।
आसक्ति से रहित, कर्तापन के अभिमान से रहित, धैर्यवान, लक्ष्य के प्रति उत्साह से परिपूर्ण, कार्य की सफलता और असफलता दोनो स्थितियों में निर्विकार अर्थात सफलता में प्रसन्नता का स्पर्श भी नहीं और असफलता पर शोक का भी स्पर्श नहीं, ऐसा निर्विकारी कर्ता सात्त्विक कहा जाता है ।।२६।।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।।१८/२७।।
कर्मों के प्रति आसक्ति, कर्मफल की इच्छा वाला, लालची, अपना काम सिद्ध करने के लिए दूसरे की हिंसा करने वाला, अपवित्र स्वभाव वाला, क्षण में प्रसन्न और क्षण में दुःखी होने वाला कर्ता राजसी शास्त्रों में प्रसिद्ध है ।।२७।।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोऽनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।।१८/२८।।
अयुक्त अर्थात कर्तव्य के प्रति सावधान न रहने वाला, प्राकृत यानी बच्चों के जैसे स्वभाववाला यानी विवेकहीन, मूर्ख या जिद्दी, कृतघ्न अर्थात उपकार न मानने वाला, आलसी तथा दीर्घसूत्री अर्थात प्रत्येक कार्य को कल पर छोड़ने वाला अथवा एक दिन का काम महीनों में करने वाला कर्ता तामसी कहा गया है ।।२८।।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ।।१८/२९।।
हे धनञ्जय ! गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी पहले अशेष यानी पूर्णतः विस्तार से कहे गये को तीन प्रकार का भेद सुन ।
अध्याय १४ में तीनो गुणों का पूर्णतः विस्तार हो चुका है फिर उन्हें सुनने के लिए कहने का भाव है सूत्रवत् संक्षेप में सुन ।।२९।।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं चकार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।१८/३०।।
हे पार्थ ! प्रवृत्ति और निवृत्ति, और कार्य अकार्य, भय निर्भय, बन्धं और मोक्ष को जो बद्धि जानती है वह सात्त्विकी बुद्धि है ।
संक्षेप में आत्मा अनात्मा का विवेक करके जो आत्मपदार्थ के निर्णय में सक्षम है वह बुद्धि सात्त्विक है ।
अथवा शास्त्र विहित प्रवृत्ति यानी कर्म के स्वरूप को और निवृत्ति यानी आत्मा-अनात्मा का विवेक करके कर्म मार्ग से मुक्ति के स्वरूप को जानने वाली, तथा कार्य यानी कर्तव्य, अकार्य यानी अकर्तव्य को भी ठीक से समझने वाली बुद्धि सात्त्विकी है ।।३०।।
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।।१८/३१।।
जो वृत्ति धर्म और अधर्म, कर्तव्य तथा अकर्तव्य भी को ठीक से से नहीं जानती वह बुद्धि राजसी है ।
धर्म-अधर्म यानी ज्ञान और अज्ञान अर्थात आत्मा-अनात्मा का विवेक ठीक से न कर सकना । यहाँ धर्म-अधर्म का अर्थ ज्ञान अज्ञान लेने का कारण आगे कार्य और अकार्य है कार्य का अर्थ कर्तव्य है और कर्तव्य ही जिसे संसार धर्म करता उस धर्म को धारण करने के कारण वह स्वयं साक्षात् धर्म है । इसी प्रकार अकर्तव्य का अर्थ अकर्तव्य यानी अपने धर्म से च्चुत होना परधर्मी । अतः जो अपने कर्तव्य अकर्तव्य यानी धर्म-अधर्म का निर्णय कर पाने में सक्षम नहीं है ऐसी बुद्धि राजसी गुणों से परिपूर्ण समझना चाहिए ।
अर्थात शास्त्र विहित प्रवृत्ति-निवृत्ति, कर्तव्य अकर्तव्य का निर्णय न कर पाने वाली बुद्धि राजसी है ।।३१।।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।।१८/३२।।
हे पार्थ ! तमोगुण ढकी होने के कारण जो वृत्ति अधर्म को धर्म मानती है और सभी अर्थों को विपरीत मानने वाली तामसी बुद्धि है ।
अधर्म अर्थात निषिद्ध कर्म को ही धर्म अर्थात विधान मानना, इसी प्रकार धर्म यानी विहित कर्म को निषिद्ध माना । किसी भी वस्तु पदार्थ को उल्टा ही समझना । जैसे कोई किसी को समझाये, तो वह समझ लेता है कि यह मुझे अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए भ्रमित कर रहा है । ऐसी विपरीत वृत्ति तमोगुण से ढकी मूढ योनि का हेतु हैं ।।३२।।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।१८/३३।।
हे पार्थ ! योग के द्वारा जिस अव्यभिचाणी धारणा के द्वारा मन, प्राण, इन्द्रिय की क्रियाओं को धारण किया जाता है वह सात्त्विक धृति कही गई है ।
यहाँ योगेन अव्यभिचाणी धृत्या करने पर, योग का अर्थ होता है, निर्विकार एवं सम ब्रह्म ५/१९ । अर्थात अन्यत्र कहीं परमात्मा से भिन्न न जाकर मन, प्राण और इन्द्रियां की क्रियाओं के धारण करके अर्थात वश में करके एक मात्र परमात्मा में में समाहित हुई धारणा शक्ति को सात्त्विक धृति कहते हैं । मन को संकल्प से जहाँ का तहां रोक देना, प्राणों की चंचलता को नियंत्रित करना इद्रियों को उनके शब्दादि विषयों से अनुशासित करना इन सभी क्रियाओं को नियंत्रित करके एक मात्र परमात्मा में स्थिरता का नाम अव्यभिचार है ।।३३।।
यया तु धर्मार्थकामान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ।।१८/३४।।
किन्तु हे अर्जुन ! जिसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम धारण करता है, अत्यन्त आसक्ति पूर्वक उन धर्म, अर्थ, काम से फल की इच्छा करता है, हे पार्थ वह धृति राजसी है ।
चार प्रकार के पुरुषार्थों में प्रथम तीन प्रवृत्तिमार्गी पुरुषार्थ हैं जो रजोगुणी मनुष्य में स्वाभाविक होती हैं ।।३४।।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।।१८/३५।।
जिसके द्वारा निद्रा, भय, शोक, दुःख और घमंड को भी मनुष्य नहीं त्यागता है अर्थात उन्हें धारण किये रहता है, हे पार्थ ! वह धृति तामसी है ।।३५।।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ।।१८/३६।।
हे भरतश्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार का सुख सुन, और जिसमें अभ्यास से रमण करने पर दुःखों का अन्त हो जाता है ।
राजस तामस क्षणिक सुख संसार में स्वाभाविक है अभ्यास तो सात्त्विक पारमार्थिक नित्य सुख के लिए ही करना पड़ता है ।।३६।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।१८/३७।।
जो सुख आत्मबुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होकर पहले विष के समान, परिणाम में अमृत के समान होता है वह सात्विक सुख है
यहाँ पर आचार्य शंकर ने आत्मबुद्धि का अर्थ ‘अपनी बुद्धि’ किया है । जिस बुद्धि को जीत लिया गया है वह अपनी ही होती है इसमें संदेह नहीं है । तथापि यहाँ आत्मबुद्धि के साथ प्रसादजम् भी है । जिसका अर्थ होता है मन और बुद्धि की प्रसन्नता । प्रसन्न मन ही तत् पदार्थ का मनन करेगा, प्रसन्न बुद्धि ही आत्मा-अनात्मा का निर्णय करेगी । यह सब तब संभव है जब इन्द्रियां प्रसन्न हों । अतः इन्द्रियों के सहित मन बुद्धि को लेना चाहिए क्योंकि भगवान पहले कह चुके हैं― अपने वश में किये हुए मन के द्वारा राग द्वेष से रहित होकर अपने अपने विषयों में विचरण करती हुई प्रसन्नता को प्राप्त होती हैं २/६४ उसके बाद― प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।२/६५।। अर्थात इन इन्द्रियों की प्रसन्नता से सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं । (इन्द्रियों) मन की प्रसन्नता से बुद्धि शीघ्र आत्मभाव में भलीभांति प्रतिष्ठित हो जाती है । यह जो कहा था वही यहाँ पर कहते हैं कि इन्द्रियों की वृत्ति वाह्य विषयों में लगी है । साधन चतुष्य का आश्रय लेकर अभ्यास के द्वारा हम उनको जब अन्तर्मुखी बनाएंगे तो वह अभ्यास पहले तो बहुत ही कटुता से भरा विषवत् प्राणघात जैसा लगेगा किन्तु अभ्यास के द्वारा― यहाँ अध्याय छः में अर्जुन के प्रश्नों के उत्तर में बताये गये अभ्यास का संक्षिप्त पुनः उत्तर समझना चाहिए । निरंतर एक वृत्ति में बारंबार मन को लगाते रहने के अभ्यास से जब मन की मनन शक्ति और बुद्धि का एक निश्चय एकत्व को प्राप्त करके आत्मभाव में स्थिर हो जायेगी, वह एकनिष्ठ सुख सात्त्विक है । यह भाव है ।।३७।।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।१८/३८।।
विषय और इन्द्रियों के मिलन से उत्पन्न सुख जो पहले अमृत के समान आनन्द देने वाला और परिणाम में विष के समान घातक हो वह सुख राजस है ।।३८।।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।१८/३९।।
जो सुख कर्म के आरंभ से और परिणाम में भी मोहित करने वाला अर्थात अज्ञान से परिपूर्ण हो । निद्रा, आलस्य, प्रमाद, को बढाने वाला हो वह सुख तामसी है ।।३९।।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ।।१८/४०।।
पृथ्वी में अथवा स्वर्ग एवं देवताओं में अथवा अन्य किसी जड़ वस्तु में भी ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रकृति के इन तीनो गणों मुक्त हो ।
यहाँ पर भूत यानी प्राणी न देकर सत्त्व शब्द दिया गया है जो वस्तु का क्रियात्मक गुण होता है । इससे यह बताया गया है कि जड़ और चैतन्य जगत ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यंत सभी प्रकृति के तीनो गुणों से युक्त हैं । इसी को तुलसीदास जी कहते हैं― जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार । संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार ।। त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ७/१३ को ही यहाँ पर पुनः परिपुष्ट करते हुए प्रकृति के गुणों से परिपूर्ण बताया गया है । ताकि हम उन गुणों को पहचान कर त्रिगुणों से विलक्षण अपने आपको पहचान सकें । यह भाव है ।।४०।।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।१८/४१।।
हे परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र स्वभाव से उत्पन्न गुणों के कर्मों के आधार पर विभाजित किये गये हैं ।
यहाँ पर स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर ब्राह्मणादि की उत्पत्ति का कथन किया गया है । अध्याय चार में भी चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टा गुणकर्मविभागशः ४/१३ अर्थात गुणकर्म के आधार पर ही बनाये गये गुणों के अनुसार उन उन गुणों वाले कुल में जन्म होना बताया गया है । पिछले अध्याय में भी तीन गुणों की उत्पत्ति स्वभाव से ही बताया गया है । वहीं पर यह भी बताया गया है कि स्वभाव का निर्माण क्रमशः कुल से, संगति और शास्त्र से होता है । इन संगतियों में अन्तिम संस्कार शास्त्र का है । क्रमशः जिस संस्कारित गुणों को लेकर उन उन कुलों में जन्म होता है उन उन गुणों का वर्तमान शरीर में भी होना आवश्यक है ।
इसीलिये ब्राह्मण आदि कुल में उत्पन्न मनुष्य में स्वभाव से अर्थात जन्म से ही नौ आदि गुण होना आवश्यक है । यदि वे गुण नहीं है तो जन्म भले किसी भी कुल में हुआ हो लेकिन वह ब्राह्मण आदि बिल्कुल नहीं है । उसके पश्चात संगति के संस्कारों से उत्पन्न या शास्त्र के संस्कारों से उन गुणों को प्राप्त करके उस ब्राह्मादि के भाव को प्राप्त किया जा सकता है और उन गुणों से संपन्न वह वही है । इसमें शास्त्रों कहीं कोई मतभेद नहीं है । यही बताने के लिए कि तीनो गुणों से जगत कैसे व्याप्त है । इस प्रसंग को उपस्थित किया गया है ।
शंका होती है कि यहाँ इन गुणों को बताने की क्या आवश्यकता थी कि इन गुणों से इस कुछ का होता है । यह तो लोक प्रसिद्ध ही है कि इन गुणों वाला ब्राह्मण आदि वाला ही होगा ?
इसका समाधान यह है कि वैदिक संस्कृति में ही चार वर्णों की व्यावस्था है अन्यत्र नहीं किन्तु यवण, हूण, म्लेच्छ, शक आदि में ये वर्ण व्यवस्था नहीं है तथापि वहां भी ये तीनो गुण व्याप्त हैं, अतः वहां भी ब्राह्मण आदि की तुलना इन गुणों को लेकर कर लेना चाहिए । इसी दृष्टिकोण को लेकर पूर्व श्लोक में कहा कि जो कुछ भी जड़ चेतन जगत है वह सब कुछ गुणमय है । क्योंकि गीता संपूर्ण मानव जगत की उन्नति का श्रोत है ।
हठधर्मिता के कारण कुछ सामाजिक भेद उत्पन्न करने, और समाजिक एवं शास्त्रीय व्यवस्था को नष्ट करने, त्रैवर्णिक की जन्म अधारित डींग मारने, वालों को समझाने के लिए ही यहाँ यह बताया गया है, हठधर्मिता के शिकार न होकर वस्तुस्थिति को समझकर कल्याणमार्ग के पथिक बनकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करो ।
हठधर्मिता की सीमा तो तब पार हो जाती है जब भाष्यकारों और टीकाकारों ने अध्याय ९/३२ में वैश्य को भी पापयोनि कहकर वेदों पर अनधिकार बता दिया । ऐसे भाष्य या टीका, टिप्पणी की उपेक्षा करते हुए शास्त्र का शास्त्र सम्मत ही अनुकरण करते हुए अपना यदि उत्कर्ष चाहिए ही, तो ब्राह्मण के लक्षणों से संपन्न होकर ब्राह्मण ही बनना होगा । मात्र जाति के लिए झगडा करने से कुछ हल होने वाला नहीं है । यही इसका भाव है । श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन की व्याख्या भी देखी जा सकती है ।।४१।।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।१८/४२।।
शम, दम, तप, पवित्रता, क्षमा, और सरलता भी, ज्ञान, विज्ञान, आस्तिक्य भाव । ये नौ गुण ब्राह्मण के स्वभाव से उत्पन्न स्वाभाविक कर्म हैं ।।४२।।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।१८/४३।।
वीरता, तेज, धैर्य, युद्ध नीति में चतुर, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान और प्रजापालन ये सात गुण क्षत्रिय के स्वाभाविक होते हैं ।।४३।।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।१८/४४।।
खेती करना, गौपालन, व्यापार ये तीन गुण वैश्य के स्वाभाविक हैं । एकमात्र सेवा कर्म शूद्र का स्वाभाविक गुण है ।
ये जो सभी लक्षण कहे गये हैं स्वाभाविक का अर्थ बिल्कुल सहज हैं, समय आने पर विचार नहीं करना पड़ता है कि मैं ब्राह्मण हूँ, तो मेरा लक्षण क्या है ? यह विचार कर उस गुण में प्रवृत्त हो । वहां तो तत्क्षण वही वृत्ति उत्पन्न होगी जो वह वस्तुतः है । इसमें कुछ आदि बाधा नहीं हो सकती है । इस जन्म में इन गुणों का अभ्यास करना ही पड़ता है तभी ब्राह्मण आदि हुआ जा सकता है । इसलिये अपना उत्कर्ष चाहने वाले को ब्राह्मण बनना ही होगा, और उसके अनुसार अहंकार रहित होकर अभ्यास करना ही होगा । यह भाव है ।।४४।।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ।।१८/४५।।
इस प्रकार मनुष्य स्वभाव से ही सभी अपने अपने कर्मों में स्थित होकर भलीभांति सिद्धि प्राप्त करता है । अपने स्वभाविक कर्म में स्थित होकर जिस प्रकार सिद्धि प्राप्त करता है वह सुन ।
सिद्धि अर्थात आत्मसाक्षार, आत्मनिश्चय ।
यहां यह शंका हो सकती है कि हमने मनुष्य के उत्कर्ष के लिए ब्राह्मण बनने की बात कही है तो यहाँ अपने अपने गुण के अनुसार स्थित आत्म सिद्धि कैसे प्राप्त कर सकता है ?
इसका उत्तर यह है कि ब्राह्मण निवृत्ति मार्ग का प्रतिनिधि है शेष प्रवृत्तिमार्ग के । अतः अन्य भी जनक, सूर कबीर, रैदास की तरह प्रकृति के गुणों को प्रकृति में त्यागकर आत्म भाव में स्थित होकर कर्तापन का त्यागकरके अनासक्त कर्म करने से आत्मसिद्धि होना गीता के अनुसार स्वाभाविक है, अतः इसमें कोई विरोध नहीं है ।।४५।।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विदति मानवः ।।१८/४६।।
जिस व्यापक परमतत्त्व से संपूर्ण प्राणियों में श्वसन से लेकर प्रत्येक चेष्टाएँ हो रही हैं अध्याय ५/८-९ इत्यादि के अनुसार । एवं जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त हो रहा है । उसकी अपने स्वाभाविक गुणोत्पन्न कार्य को उसे समर्पित करके मनुष्य आत्मसिद्धि प्राप्त करता है ।
यत्करोषि यदश्नासि ९/२७, मच्चित्तः मद्गतप्राणा १०/९, मत्कर्मकृन् ११/५४ इत्यादि भी स्वकर्मणा के अन्तर्गत ही समझना चाहिए ।।४६।।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।।१८/४७।।
भलीभांति आचरण में लाया गया अपना गुणरहित धर्म दूसरे के गुणवान धर्म से श्रेष्ठ है । स्वभाव से ही नियत कर्म करने से पाप नहीं होता ।
जिस कर्म में सहज ही निपुणता हो वह कर्म स्वभाव नियत कर्म है । उसको करने से पाप नहीं लगता अर्थात वह कर्म विकृत नहीं होता है अतः प्रशंसनीय होने से दोष रहित ही होता है ।
अध्याय ३/३५ में जो स्वधर्म पालन में मृत्यु को भी श्रेष्ठ बताया था । उसके बाद अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था कि काम रूपी शत्रु को मार डाल, उसी का यहां स्पष्टीकरण समझना चाहिए कि वस्तुतः काम ही सभी पापों की जड़ है । जब तक मन में काम है तब तक पापों से निर्भय नहीं हुआ जा सकता है । उसी काम के नाश करने का यहाँ साधन बताया गया है कि जिस परमसत्ता से संपूर्ण चेष्टाएँ हो रही हैं वे स्वाभाविक होने वाली प्रत्येक उसी की चेष्टाएं को वापस कर देना बिना किसी आग्रह या दुराग्रह के यही काम नाश अर्थात इच्छाओं का नाश करना है । जब काम का ही नाश हो गया तो फिर पाप का नाश स्वतः हो गया क्योंकि आश्रय के नाश से आश्रयी का नाश स्वतः हो जाता है, यही यहाँ का भाव है ।।४७।।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।।१८/४८।।
हे कौन्तेय ! सहज अर्थात स्वाभाविक निपुणता वाले कर्म में यदि दोष हो तो भी त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसे अग्नि धुवें से ढकी होती है वसे ही सभी शुभ कर्मों में भी दोष होते ही हैं ।
जब सभी कर्म दोषयुक्त होते ही हैं तो फिर अपने कर्म में दोष देखकर उसे क्यों त्यागना ? यह भाव है ।।४८।।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्नयासेनाधिगच्छति ।।१८/४९।।
सर्वत्र आसक्ति रहित, जीते हुए मन वाला, इच्छाओं से रहित हुआ ज्ञानयोग के द्वारा नैष्कर्म्य नामक परा सिद्धि को प्राप्त करता है ।
यहाँ मुमुक्षु नैष्कर्म्यसिद्धि कैसे प्राप्त करेगा यह संक्षेप में बताया गया है क्योंकि विस्तार अध्याय तीन में हो चुका है ।
सर्वत्र बुद्धि का आसक्ति रहित होना― अर्थात स्त्री, पुत्र, आदि पारिवारिक मोह से ही नहीं बल्कि सर्वत्र शब्द पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत के सभी भोगों में भी आसक्ति रहित होना कहा गया है । जितात्मा― अर्थात शरीर सहित बुद्धि पर्यंत आत्मा का जिस अनात्मा में अध्यास हो गया है उस चौदह इन्द्रिय सहमूह को अपने आधीन करने वाला मुमुक्षु । विगतस्पृहः ―अर्थात ये स्पृहा ही काम है और भगवान पीछे भी दोहरा चुका हैं कि शुभाशुभ क्रियाओं का मन में उदय न होना ही कर्मबन्ध से मुक्ति का साधन है । इस प्रकार नैष्कर्म्यसिद्धि अर्थात चित्तशुद्धि के पश्चात ही आत्मस्वरूप को समझने की सामर्थ्य प्राप्त होती है ।
यहाँ नैष्कर्म्यसिद्धि का अर्थ निष्क्रिय आत्मा का साक्षात्कार बिल्कुल नहीं है, क्योंकि नैष्कर्म्यसिद्धि का अर्थ अध्याय तीन में चित्तशुद्धि के निमित्त ही कहा गया है तभी आगे उसकी शुद्धि के निमित्त वैदिक क्रियाओं का उल्लेख किया गया है । यहां भी अगले श्लोक में इसी नैष्कर्म्यसिद्धि के पश्चात ब्रह्म के स्वरूप को जानने की बात कही जा रही है । जो पराम् कहा है वह श्रेष्ठ वैराग्य को प्राप्त होने के पश्चात चित्तशुद्धि के लिए है न कि परम् पद के लिए जैसा कि यदा ते मोहकलिलम् २/५२ में निर्वेद की प्राप्ति कहा है, ठीक वैसा ही यहाँ पर चित्तशुद्धि के पश्चात होने वाला आत्यतिक वैराग्य पूर्वक आत्मपदार्थ का दृढ़ निश्चय समझना चाहिए । यह भाव है ।
विचारणीय तथ्य― यहाँ पर किसी को शंका हो सकती है कि संन्न्यास का अर्थ आपने ज्ञानयोग किया है तो नैष्कर्म्यसिद्धि का अर्थ मोक्ष ही होना चाहिए चित्तशुद्धि अर्थ कैसे किया ?
इसका समाधान यह होगा कि श्लोक में सर्वत्र आसक्ति का त्याग, शरीर सहित चौदह इन्द्रियों को वश में करना अर्थात उनके विषयों का त्याग, इसके अतिरिक्त स्पृहा रहित होना अर्थात जीने और मरने की इच्छा का त्याग, मोक्ष और बन्धन का त्याग । इस प्रकार पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत संपूर्ण अनात्मपदार्थ का मन से सम्यक् प्रकार से त्याग करने को लेकर ही सन्न्यास कहा गया है । इतना त्याग आत्मा अनात्मा का भलीभाँति ज्ञान हुए बिना संभव ही नहीं है । यह त्याग जिस वृत्ति से किया गया है वह वृत्ति ही ज्ञानयोग कहा गया है, जैसे अध्याय १२ में ज्ञान प्राप्ति के साधन को नित्यज्ञान कह दिया, जबकि वे स्वरूप ज्ञान प्राप्त होते ही नष्ट हो जायेंगे उसी प्रकार यहां समझना चाहिए कि यह आत्मा-अनात्मा का अपरोक्ष ज्ञान है । इसी शंका को मिटाने के लिए ही आगले श्लोक में ब्रह्म स्वरूप का जिस वृत्ति से मुमुक्षु साक्षात्कार करेगा उसे ज्ञान की परा निष्ठा कहकर इस संदेह की रेखा का निवारण करेंगे ।।४९।।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेन कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।।१८/५०।।
हे कौन्तेय ! सिद्धि को प्राप्त करके जिस प्रकार मुमुक्षु जिस ज्ञान की परानिष्ठा से ब्रह्म को प्राप्त करता है, उसे संक्षेप से सुनो ।
चित्तशुद्धि के बाद ज्ञान की परा निष्ठा कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक चित्तशुद्ध नहीं होता है तब तक आत्मा अनात्मा का विवेक करने की योग्यता नहीं होती है । तब शास्त्र ज्ञान ही ज्ञान है और चित्तशुद्ध होने पर जो विवेक बुद्धि अपरिच्छन्न भाव को एकनिष्ठ होती है वह आत्मनिश्चय श्रेष्ठ ज्ञान है । इस श्रेष्ठ ज्ञान के द्वारा ही स्वरूतः समग्र रूप से ७/१ जान जा सकता है अन्य किसी उपाय से नहीं । भगावन ने मच्चित्ता मद्गतप्राणा १०/९ कहने के बाद दादामि बुद्धियोगं तम् १०/१० कहा था वही यहाँ चित्तशुद्धि के पश्चात ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान देने की प्रतिज्ञा पूर्ण करने की इच्छा से उस स्वरूप को संक्षेप से सुनने की बात कहते हैं क्योंकि विस्तार पहले कर चुके हैं । यह भाव है ।।५०।।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।।१८/५१।।
शुद्ध यानी सात्त्विक बुद्धि का आश्रय लेकर धैर्य पूर्वक मन को वश में करके शब्दादि विषयों के प्रति राग द्वेष को त्याग कर ।
यहाँ पर शब्दादि पांचों विषयों का त्याग करने का तात्पर्य यह है कि जब तक शरीर है तब तक तो शरीर संबंधित कुछ न कुछ विषय तो रहेंगे ही किन्तु उनके प्रभाव का मन में न रहना ही उनका त्याग करना है । क्योंकि मन में प्रभाव होने पर विषय न होने पर भी उपस्थित हो जायेंगे । मन में प्रभाव न होने पर उपस्थित विषय भी प्रभावहीन हो जाते हैं । अतः विषयों के प्रति जो शरीर संचालन को लेकर राग है और उपस्थित विषयों से वैराग्य के कारण जो द्वेष है । ऐसे शब्दादि विषयों के प्रति राग द्वेष का त्याग करके आगे बताये गये साधन का अनुसरण करे । यह तात्पर्य है ।।५१।।
विवक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।।१८/५२।।
एकांत स्थान का सेवन, कम खाने वाला, वाणी, शरीर और मन को जीतकर निरंतर ध्यानयोग परायण, वैराग्य का आश्रय लेकर ।
यह विवरण अध्याय छः से संबद्ध है अतः वहीं देखना चाहिए । यतवाक्कायमानसः – जितात्मा १८/४९, एवं आत्मानं नियम्य १८/५१ का स्पष्टीकरण है ।।५२।।
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।१८/५३।।
अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध, इच्छा, संग्रह का त्याग, निर्मम होकर शान्त ब्रह्म होने का संकल्प करता है ।
अहंकार यानी शरीर, इन्द्रिय आदि अनात्मपदार्थ से सीमित अहंता का त्याग, बल― अर्थात विषयों के प्रति होने वाले बलात् आकर्षण का त्याग, जो दूसरे के पास न हो उस वस्तु विशेष के अपने पास होने पर उस पर घमंड का त्याग, इच्छाओं का त्याग अर्थात मन में उनका उदय ही न होना, संपूर्ण अनात्मपदार्थ का मन में कोई स्थान न होना, बाहर भी अधिक संग्रह साधना के विघ्न का कारण कई कारणों से होता है । अतः आवश्यक वस्तु का संग्रह तो है लेकिन मन में उसके अस्तित्व का न होना । इस प्रकार स्व से भिन्न प्रत्येक अनात्मपदार्थ से ममता का त्याग करके फिर शान्त ब्रह्म होने का संकल्प करता है ।
ऊपर असक्तबुद्धिः सर्वत्र १८/४९ एवं यहाँ पर अशेष रूप से अनात्मपदार्थ के त्याग का वर्णन आगे सर्वधर्मान्परित्यज्य १८/६६ का संकेत है । और ब्रह्म होने का संकल्प ही जो तत्त्वमसि की असि नामक अनुभूति है वही मामेकं शरणं ब्रज अहमर्थक संकेत है ।।५३।।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।।१८/५४।।
ब्राह्मीभाव को प्राप्त होकर आनन्दित हुआ ज्ञानयोगी न शोक करता है न इच्छा करता है । सभी प्राणियों में समान रूप से देखता हुआ मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है ।
ब्रह्मभूतः अर्थात जिस समय ब्राह्मीभाव का अनुभव कर लेता उस समय वह नित्य प्रसन्न अर्थात आनन्दित हो जाता है । यह आनन्द प्राप्त होने पर शोक का कोई स्थान रहता ही नहीं अतः शोक नहीं करता । शोक तो कामनों की पूर्ति न होने पर ही होता है अतः वह पूर्णतः कामनाओं से रहित हो जाता है । अध्याय २/७२ में ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हुए सिद्ध को पुनः मोहित न होना बताया गया था, उसी का अनुवाद यहाँ पर समझना चाहिए । अर्थात बिना ब्रह्मदर्शन के शोक मोह नष्ट होने वाला नहीं है ।
जब ब्राह्मी अनुभव हो जाता है तब संपूर्ण प्राणियों को अपने में और अपने को उनमें देखता है फिर उन सबके सहित स्वयं को मुझमें देखता है ४/३५। यही परमेश्वर में स्वयं के सहित सब कुछ देखना ही परमेश्वर की परा भक्ति प्राप्त करना है । अर्थात् इस परा भक्ति यानी इस अभिन्न अनुभव से ही आत्मा का स्वरूप कितना और कैसा है ? उसको जान लेता है । इसी भाव को आगे दर्शाया जा रहा है ।।५४।।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।।१८/५५।।
परा भक्ति के द्वारा मेरे अभिमुख हुआ― जो हूँ, जैसा हूँ, तत्त्वतः जान लेता है । फिर तत्त्वतः जानकार मुझमें तत्क्षण प्रवेश कर जाता है ।
पराभक्ति का लक्षण सर्वज्ञत्व एवं सर्वभाव अध्याय १५/१९ के अनुसार है । माम् यानी जो पुरुषोत्तम कहा गया है । उसका स्वरूप क्या है ? कितना है ? कैसा है ? इत्यादि तत्त्वतः जान लेता है । उसके बाद जो ब्रह्मभूयाय कल्पते कहा था उसी संकल्प का आश्रय लेकर माम् के अर्थभूत परमतात्त्वविक सत्ता में प्रवेश करता है । जो पहले कहा था― ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं ११/५४ उसी का यहाँ स्पष्टीकरण कर दिया । इस प्रकार शरीर रहते अहं त्वं अर्थात तत् और त्वं का भाव एकत्व को प्राप्त होकर अस्मि का अनुभव करते हुए शरीर त्याने पर अस्ति सत्ता में विलय होकर तत्त्वमसि के असि पद को सार्थक करेगा । इस प्रकार जिसे ज्ञान की परा निष्ठा १८/५० में कहा था, उसी को यहां पराभक्ति कहा गया है । पराभक्ति द्वारा ब्रह्म को जानने की प्रतिज्ञा पूर्ण हुई ।।५५।।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रासादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।।१८/५६।।
सभी कर्मों को भी सदैव मेरा आश्रय लेकर करने वाला मेरा भक्त मेरी प्रसन्नता से शाश्वत पद को प्राप्त करता है ।
यह श्लोक जो सर्वभाव से अर्थात सगुण-निर्गुण रूप का अनुभव करने वाले द्वारा की गई क्रियाओं के फल स्वरूप ज्ञानी की स्तुति है । किन्तु जो सगुण साकार रूप को ही सब प्रकार अपनी शरणागति का एक मात्र सूत्र मानते हैं, वे अपि चेत्सुदुराचारो ९/३०, येऽपि स्युः पापयोनयः, स्त्रियो वैश्यास्था शूद्राः ९/३१ का जो वर्णन आया था, जिसे ज्ञानी होकर परम् गति प्राप्ति बताया था । अथवा मच्चित्ता मद्गतप्राणा १०/९ बताकर ददामि बुद्धियोगं तम् १०/१० कहा था अथवा जिन्हें सभी कर्मों को मुझ सर्वेश्वर में अर्पण करने को कहकर शीघ्र उद्धाकर्ता १२/६-७ होने के लिए कहा था । जिन्हें शास्त्र का ज्ञान ही नहीं है वे सभी जब एक मात्र मझ शरण्य सगुण-साकार परमेश्वर को आधार बनाकर कर जब मुझसे अतिरिक्त, स्वयं के सहित अन्य कोई सत्ता नहीं देखता हुए संपूर्ण कर्म मुझमें ही स्थित होकर मुझमें ही करता है तब मैं परमेश्वर प्रसन्न होता हूँ । मेरी उसी प्रसन्नता से वे मेरी कृपा से ज्ञानयोग को प्राप्त करके नित्य आत्मस्वरूप निर्विशेष सत्ता ‘असि’ मात्र से कहे गये परमपद को प्राप्त कर लेता है ।।५६।।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।।१८/५७।।
मन से सभी कर्मों का मुझमें त्याग करके, मेरे परायण होकर बुद्धियोग का आश्रय लेकर निरंतर मुझमें चित्त वाला हो जा ।
मन के द्वारा मुझ सगुण सकार में सभी कर्मों को त्याग दे अर्थात अर्पित कर दे । फिर आत्मस्वरूप मेरे परायण हो जा अर्थात सभी आश्रयों का त्यागकर एकमात्र आत्मरूप में स्थित मेरी शरण ज्ञानयोग का आश्रय लेकर मुझमें चित्तवाला अर्थात मुझसे अभिन्न हो जा ।
यहां द्वैतवादियों को आपत्ति नही होनी चाहिए कि मच्चित्तः का अर्थात अभिन्न कैसे कर दिया ? यहाँ पर बुद्धियोग अर्थात ज्ञानयोग का आश्रय लेने की बात स्वयं भगवान ने कहा है । ज्ञानयोग श्रुति प्रमाणित जीव-ब्रह्म की एकता में ही है भेद में नहीं । अतः अभिन्न अर्थ किया गया है ।।५७।।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।।१८/५८।।
मुझमें चित्त वाला होकर सभी दुर्गुणों को पार कर जायेगा । ऐसा जानकार भी तू मेरी बात नहीं मानेगा तो तेरा विनाश हो जायेगा ।
अर्जुन ने कहा था कि शिष्यसतेऽहं शाधि माम् २/७ अर्थात मैं आपका शिष्य हूँ मुझ पर अनुशासन करो । तो यहाँ पर भगावन का अनुशासन है । मैने कह दिया कि मेरी कृपा से शाश्वत पद को प्राप्त कर लेगा १८/५६, वही फिर कहता हूँ कि मुझसे अभिन्न मन वाला होकर स्वधर्म का पालन करने से सभी दुर्गुणों को पार कर जायेगा फिर भी यदि नहीं करेगा तो विनाश हो जायेगा । अध्याय दो में कहा था कि यदि युद्ध नहीं करेगा तो पाप लगेगा पापमवाप्स्यसि २/३३ और यहाँ कहते हैं विनङ्क्ष्यसि इस प्रकार युद्ध के लिए भय पूर्वक आगे कारण बताते हुए अनुशासित करते हैं ।५८।।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।।१८/५९।।
जो अहंकारवश मेरी बात को न मानकर युद्ध नहीं करूंगा, ऐसा मानता है तो यह तेरा निश्चय झूठा है क्योंकि प्रकृति यानी तेरा स्वभाव तुझे नियंत्रित करेगा ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह किं करिष्यति ३/३३ का स्पष्टीकरण है ।।५९।।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् १८/६०।।
क्योंकि हे कुन्तीपुत्र ! हर प्राणी संस्कारित बुद्धि द्वारा अपने कर्मों से बंधा है । इसलिये तू मोहवश नहीं करना चाहता तो भी प्रकृति के परवश हुआ करेगा ही ।
भगवान ने कहा था― कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ३/५ उसी को यहाँ पर स्पष्ट करते हैं कि तेरे चाहने न चाहने से कुछ नहीं होता, प्रकृति तो अपना कार्य करेगी ही । इससे अच्छा है कि स्वयं ही अपनी प्रकृति के अनुसार संपूर्ण इन्द्रियों और कर्म सहित स्वयं को मेरे अर्पण कर्म करो जिससे कल्याण होगा । अन्यथा प्रकृति कहां ले जायेगी यह कहना कठिन है ।
शिक्षा के स्तर पर भगवान कहते हैं कि मनुष्य पहले तो किसी आचार्य, गुरुजन आदि की बात हठ के कारण नहीं मानता है, फिर उसी कार्य को करने के लिए विवश होता है, तब अवसर हाथ से निकल चुका होता है, फिर करता अवश्य हैं लेकिन लोकनिंदा का भी पात्र बन जाता है और स्वयं भी समय पर न करने के कारणा पीड़ित होता है । यही उसका नाश होना है । अतः कर्तव्य में प्रमाद रहित होकर अनुभवी की बात मानकर समय पर ही कर लेना चाहिए ।।६०।।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।।१८/६१।।
ईश्वर संपूर्ण प्राणियों के हृदयदेश में स्थित है । वही अपनी माया द्वारा शरीर रूप यन्त्र पर आरूढ होकर संपूर्ण प्राणियों को घुमाता रहता है ।
हृदय में यानी बुद्धि में ही परमेश्वर का चित् प्रकाश पड़ता है । आत्मा-अनात्मा का विवेक करके आत्म पदार्थ में आरूढ होने वाले की वे सहायता करते हैं और जो उनके वचनों की उपेक्षा कर देता है उन सभी प्राणियों को उनकी माया चौरासी के चक्र में नचाती रहती है । अर्थात ईश्वर का शरणागत सभी क्लेशों से मुक्त होकर सुखी जाता है, और संसार का शरणागत सभी क्लेशों से युक्त होकर दुःखी रहता है । यह भाव है ।।६१।।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।।१८/६२।।
इसलिये हे भारत ! सर्वभाव से उसी एकमात्र परमेश्वर की शरण ग्रहण करो । उसकी प्रसन्नता से नित्य परम् शान्ति पद को प्राप्त करेगा ।
अध्याय पंद्रह में अध्याय ७/३० में जो अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ सहित जो अपने को जानने की बात कहा था, जिसका विस्तार अध्याय आठ है, जिसे अध्याय पंद्रह में सर्वविद्भभजति मां सर्वभावेन १५/२० से जो कहा था, उसी के निर्देश के लिए यहाँ पर सर्वभावेन कहा है । यहाँ का तत्तप्रसादात् को मत्प्रसादात् १८/५६ से अभिन्न समझना चाहिए । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।६२।।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृष्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।।१८/६३।।
इस प्रकार ते लिये यह अत्यंत गोपनीय अध्यात्मविद्या पूर्णतः बिना कुछ छिपाये तेरे लिए मेरे द्वारा कहा गया है । इसको भलीभांति चतुर्दिक् विचार करके फिर जैसी इच्छा हो वैसा कर ।
पहले भगवान ने कहा था यदि युद्ध नहीं करेगा तो पापमवाप्स्यसि २/३२, विनङ्क्ष्यसि १८/५८ और अब कहते हैं कि मैने तो विस्तार से कर्तव्य अकर्तव्य, एवं तेरी इच्छा के अनुसार मोक्ष शास्त्र का निरूपण कर दिया है । तू स्वयं विवेकशील है हर प्रकार आगे-पीछे, ऊंच-नीच आदि पर विचार कर ले और फिर जैसी तेरी इच्छा हो वैसा करा । यह कहकर मानो भगवान कहते हैं कि तुमने शिष्यता स्वीकार की इसलिये गुरु के नाते से एवं मित्र के नाते से भी हमने तुम्हें सब कुछ समझा दिया है । करने, न करने के लिए हर मनुष्य स्वतंत्र होता है, मैने जो भय दिखाया उसकी चिन्ता किये बिना अपने उत्थान और पतन का मार्ग स्वयं निश्चित करो अर्थात प्राणी स्वयं ही अपने उत्थान और पतन का उत्तर दायी है । यहाँ पर भगवान अशेष रूप से विचार करने को कहते हुए मानो यह कह रहे हैं कि जैसे मैने प्रतिज्ञा किया था― वक्ष्याम्यशेषतः७/२ अर्थात बिना कुछ छिपाए ज्ञान, विज्ञान अर्थात परोक्ष और अपरोक्ष ज्ञान बिना कुछ छिपाए पूर्णतः कहूंगा, वह तो कह दिया, जैसे मैने बिना कुछ छिपाए कह दिया वैसे ही बिना पक्षपात के तटस्थ तुम विचार कर लो कि जो प्रजा अपनी और धर्म की रक्षा की आशा से तुम्हारी ओर देख रही है उसके लिए तुम्हें क्या करना है ?
इस प्रकार अध्याय पंद्रह में जैसे इति कहकर अपने उपदेश का उपसंहार किया था उसी प्रकार अपने पीछे के सभी उपदेशों का सारभूत इस उपसंहार को इति कहकर विश्राम देते हैं ।।६३।।
सर्व गुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वाचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ।।१८/६४।।
पुनः सभी गोपनीयों का भी गोपनीय मेरे वचन सुन, तू मेरा अत्यंत प्रिय है इसलिये यह ज्ञान तुमसे कहूंगा ।
यद्यपि भगवान इति कहकर अपनी बात पूर्ण कर चुके हैं तो भी लौकिकता का आश्रय लेकर पुनः अर्जुन की प्रियता के लिए दो शब्द कहना चाहते हैं, क्योंकि जो अपना कोई प्रिय हो तो संसार का नियम है बात न माने जाने पर भी चलते चलते कह दिया जाता है कि मैने आपका भला सोचा था इसलिये कह दिया बाकी, तुम स्वयं विवेकशील हो अर्थात जैसा उचित समझो वैसा करो लेकिन मैं तो यही कहूंगा कि आपके हित ऐसा ही करना उचित होगा । वैसे भगवान कहते तू मेरा इष्ट अर्थात बहुत ही शिष्य, मित्र और बुआ का पुत्र होने से भाई भी होने के नाते प्रिय है इस लिए तुम्हारे हित के लिए कहता हूँ । यह भाव है ।।६४।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।१८/६५।।
मुझमें मन वाला हो, मेराभक्त हो, मेरा पूजन कर, मुझे नमस्कार कर । तू मुझे बहुत प्रिय है इसलिए तुमसे मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि मुझको ही प्राप्त होगा ।
यद्यपि हमने श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में जो अर्थ किया वह भी एक दृष्टिकोण ही है उसे अवश्य देखना चाहिए तथापि यह भी एक दृष्टिकोण है, अतः परस्पर दोनो में विरोध नहीं है ।
अध्याय ७/३० में भगवान ने अधिभूत, अदिधैव, अधियज्ञ सहित स्वयं को जानने के लिए कहते हैं अर्थात पूर्व के तीनो आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक स्वरूप से जानकर ‘मैं’ के अर्थ से अभिन्न जानने के लिए कहा था । उन्हीं चारों स्वरूपों को इस प्रकार समझना चाहिए―
नमस्कुरु― यह परमेश्वर का तमोगुण प्रधान स्थूल रूप है । इसमें कार्य करण संघात में दिखने वाले चाहे अवतार रूप परमेश्वर हो, अथवा शरीर को धारण करके गुरु, आचार्य, माता, पिता, अतिथि, एवं अन्य प्राणी ही क्यों न हों, उन सबको यथायोग्य नमस्कार करना, उन्हें अन्न, वस्त्र, धन आदि देकर क्षेत्र, समय, पात्र के अनुसार संतुष्ट करना ये मेरा ही नमस्कार आदि होगा । इस रूप में मुझे ही नमस्कार करने वाला हो जा । यह परमेश्वर का अधिभूत स्वरूप की उपासना है ।
मद्याजी अर्थात मेरा पूजन करने वाला हो जा― इस रूप में परमेश्वर के रजोगुण की उपासना की जाती है । इस शरीर और संसार के इन्द्र आदि अनुग्राहक देवता हैं । नित्य-नैमित्तिक कर्म अर्थात नित्य संध्या-वंदन, अग्निहोत्र आदि देव कार्य करके उन देवताओं की आराधना के रूप में मेरे ही रजोगुण स्वरूप की पूजा करने वाला बन । यह परमेश्वर के अधिदैव स्वरूप की उपासना है ।
मद्भाक्तः अर्थात मैं ही सगुण होकर मायोपाधिक ईश्वर संपूर्ण संसार पर शासन करता हुआ प्रजा को धारण करता हूँ, उनका पोषण करता हूँ अतः यही सत्त्वगुण प्रधान अधियज्ञ स्वरूप है । इस रूप में परमेश्वर के सगुण निराकार स्वरूप की उपासना होती है । इस प्रकार तीनो स्वरूपों में मेरी उपासना करता हुआ आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तापों को पार कर जायेगा । फिर मन निर्विषयी होकर अन्तःकरण की शुद्धि हो जाने पर मुझमें मन वाला हो जा अर्थात स्वयं को मुझसे अभिन्न अनुभव कर कि जो मैं हूँ वह तू है और जो तू है वही मैं हूँ अर्थात मैं तू है, तू मैं हूँ । इस प्रकार समग्र रूप से मेरी उपासना करने वाला मुझ सर्वात्मा को ही प्राप्त होगा यह सत्य प्रतिज्ञा तुमसे तुम्हारी प्रियता के कारण कह दी ।।६५।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।१८/६६।।
सभी धर्मों को त्यागकर एकमात्र मेरी ही शरण में चला जा । मैं तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा तू शोक मत कर ।
यहाँ पर सामान्य भाव यह है कि सभी अनात्मपदार्थ का त्यागकरके एकमात्र आत्मभाव में ही चला जा अर्थात स्थित हो जा । इसके बाद कहा कि मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा शोक मत कर । यह श्लोक का उत्तरार्ध आश्वासन मात्र है । क्योंकि आत्मा के लिए भगवान पहले ही कह चुके हैं― ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः १३/१७, न तद्भासयते सूर्यो १५/६, यदादित्यगतं तेजो १५/१२ एवं यस्य नाहङ्कृतो भावो…..१८/१७ इत्यादि । अतः जैसे सूर्य को अंधकार का नाश करने की आवश्यकता नहीं होती है, अंधकार भी होता उसे पता ही नहीं होता है । उसी प्रकार जब स्वयं ज्योति स्वरूप सबके प्रकाशक आत्म स्वरूप में स्थित हो जायेगा तो कोई पाप नाश करने के लिए बचेगा ही नहीं क्योंकि वह आत्मा तमसः परमुच्यते १३/१७ अंधकार के उस पार अंधकार को भी प्रकाशित करके स्थित है । अतः यह अनुवाद मात्र है । अधिक विवरण श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखना चाहिए । यहाँ पर मैं कुछ अलग से समीक्षा मात्र करूंगा―
अध्याय सोलह में भगवान कहते हैं― दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबंधायासुरी मता १६/५ हम पहले इस पूर्वार्ध का विचार करते हैं―अध्याय ७/१३ में संपूर्ण जगत का प्रकृति के गुणों से व्याप्त एवं उन गुणों से मोहित बताया गया उसके बाद दो श्लोक बड़े महत्वपूर्ण हैं― दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।७/१४।।, न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः । माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ।।७/१५।। इस प्रकृति के दो स्वरूप यहाँ पर स्पष्ट दिख रहे हैं । एक गुणमयी जिसे दैवी संपत्ति १६/५ कहा गया है, दूसरा स्वरूप छल प्रपंच माया का, जिसे अगले श्लोक में आसुर भाव संपन्न बताया गया है ।
यहाँ शंका हो सकती है कि मूल श्लोक में दो विभाग नहीं दिखते हैं और मान भी लें कि दो विभाग दैवी और माया है तो दैवी गुणमयी है, तो माया में भी तो गुण हैं ? उसी को दैवी गुण क्यों न मान लें ?
इसका उत्तर यह है कि जैसे देवता से संबंध होने के कारण गुणों को दैवी संपत्ति कहा गया है, वैसे ही इससे विरुद्ध दुर्गुणों का कहीं भी आसुरी भाव को संपत्ति गीता में नहीं कहा गया है । वह तो हम दैवी के विरुद्ध आसुरी संपत्ति जानकारी के लिए कहते हैं । अतः माया के गुण नहीं होते हैं, उस में छल प्रपंच का दुर्गुण होता है इसीलिये उसके साथ गुणमयी शब्द का विनियोग नहीं हो सकता है । इसलिये भगवान ने भी माया के छल प्रपंच से युक्त मोहमयी कार्य को दैवीगुण नहीं माना है । अतः इसका स्पष्टीकरण आगे करते हैं– राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ९/१२ अर्थात जो मोह में डाल दे वही मोहिनी प्रकृति है । किन्तु जो दैवी प्रकृति है― महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।।९/१३।। यहाँ पर स्पष्ट दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर व्यापक स्वरूप का अनुसंधान करने वाले महात्माओं द्वारा दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर संपूर्ण प्राणियों के आदि अर्थात अविनिशी अनादि परमेश्वर को अनन्यभाव से अर्थात ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ इस प्रकार जानने की बात भी आयी है । इसलिये यह स्पषट है कि दैवी ह्येषागुणमयी मम माया दुरत्यया ७/१४ में दो पक्ष एक मोक्ष प्रदान करने वाली दैवी प्रकृति को गुणमयी कहना और दूसरी प्रकृति को बन्धन देने वाली माया कहना । इस प्रकार अध्याय नौ में स्पष्ट रूप से अध्याय ७/१४ की व्याख्या कर दी गई है । जिसके बाद दैवी संपद्विमोक्षाय १६/५ सूत्रवत् कह दिया गया है क्योंकि भगवान ने कहा― दैवो विस्तरशः प्रोक्तम् १६/६ दैवी प्रकृति को विस्तार से मैं कह चुका हूँ अब जिसका विस्तार नहीं हुआ उसे सुन― आसुरं पार्थ मे श्रृणु १६/६ इस प्रकार सर्वधर्मान्परित्यज्य के रूप में जो सूत्रवत् कहा वह जिनमें दैवी संपत्ति है तो नहीं किन्तु परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं इसके लिए कहा तुम इसकी भी चिन्ता मत करो मैं हूँ न…..!
अतः इस श्लोक का दो प्रकार से अर्थ एक साथ समझना चाहिए―
देव का अर्थ होता है सत्त्वगुण । इस सत्वगुण का जो आश्रय लेगा वह सुख सङ्गेन बध्नाति ज्ञान सङ्गेन १४/६ सत्त्वगुण तो है, लेकिन उनके साथ देवता अर्थात जिनके अनुशासन में सभी गुणों का उदय होता उनकी शरण लिये बिना ही जो अनुसरण करेगा वह उसके सुख और शास्त्रीय ज्ञान के विवेचन में ही बंध जायेगा अर्थात उसका मोक्ष नहीं हो सकता है, फिर रजोगुण और तमोगुण की बात ही क्या किया जाये ? उसके लिए ये गुण भी माया का मोहिनी कार्य होगा ।
इसीलिये भगवान ने कहा है दैवीगुण बन्धन मुक्त अर्थात संसार के आवागम से मुक्त तो करते हैं लेकिन जो इन दैवी गुणों का आश्रय लेकर मुझसे भिन्न देवता या शास्त्र ज्ञान का आश्रय न लेकर एक मात्रा मेरी ही शरण में आ जाते हैं, वे इस संसार सागर को पार कर जाते हैं । इस प्रकार श्लोक का प्रथम चरण तृतीय और चतुर्थ चरण के साथ अन्वय होकर प्रकृति के गुण सात्विक देवता संबंधित होकर मोक्ष देने वाले हो जायेंगे । जिससे दैवी सम्पद्विमोक्षाय १६/५ की संगति ठीक लगेगी अन्यथा विरोध होगा ।
अथवा सत्त्वगुण प्रधान गुणों का भी यदि आश्रय लेने में समर्थ नहीं है तो एक मात्र मेरी शरण ग्रहण कर ले, चूंकि वे सभी मोक्ष के हेतु गुण मुझ सर्वेश्वर में हैं अतः मेरे अनन्य सान्निध्य से वे सभी दैवी गुण तुझमें स्वतः आ जायेंगे जिनके आचरण से मोक्ष को प्राप्त कर लेगा ।
दूसरा चरण मम माया दुरत्यया ७/१४ का अन्वय अगले श्लोक से करेंगे कि जिन कारणों से निबंधायासुरी मता १६/५ अर्थात आसुरी माया बंधन करने वाली मानी गई है उसका कारण स्पष्ट करते हैं, यहाँ दुरत्यया का जो अर्थ है, वही बंधन के रूप में कहा गया है । छल प्रपंच करने वाली माया के द्वारा इन नराधमों का विवेक आत्मा का बोध कराने वाली विषयवृत्ति के कारण हरण कर लिया गया है, इस कारण से ये मेरी शरण में आ नहीं सकते हैं, अतः ऐसे आसुरभाव वालों के लिए ही माया दुर्लंघ्य और बन्धनकारी है, यह भाव है ।
इसी भाव को स्पष्ट करने के लिए भगवान यहाँ कहते हैं कि सर्वधर्मान्परित्यज्य १८/६६ अर्थात यदि तुम दैवी गुणों का आचरण नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं । सभी प्रकृति से उत्पन्न गुणों का भी त्याग करके मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ अर्थात एकमात्र मुझ सर्वात्मा की अनन्य शरण ग्रहण कर ले तो वे सभी दैवी संपत्ति तुम्हारे में स्वतः आ जायेंगी, जिनसे युक्त होकर फिर ज्ञानियों के सहज स्वभाव का नित्यज्ञान स्वरूप मानर अनुसरण करके मुक्त हो जायेगा । यह इस श्लोक का पूर्वार्द्ध की व्याख्या हुई ।
उत्तरार्ध में कहते हैं मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव १६/५ यहां पर जो कहा कि हे पाण्डव शोक मत कर क्योंकि तू दैवी सम्पत्ति को सामने करके उत्पन्न हुआ है । इसका अर्थ यह है कि जिसका मोक्ष सुनिश्चित होता है वही दैवी सम्पत्ति को लेकर उत्पन्न होता है अन्य नहीं । इसी बात को पुनः स्पष्ट करते हैं कि अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः १८/६६ अर्थात जो दैवी संपत्ति को लेकर योगभ्रष्ट ६/४१-४२ उत्पन्न हुए हैं उन्हें शोक करने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि उनकी पापों से मुक्ति मैं करूंगा । यहाँ कहने का भाव यह है कि जिनमें दैवी गुण धारण करने की क्षमता नहीं है, वे मेरी एकमात्र शरण लेकर लेकर, मेरी कृपा से अव्यय पद १८/५६ प्राप्त कर लेते हैं तो फिर दैवी सम्पत्ति तो आत्मा अनात्मा का विवेक प्रदान कराकर आत्मस्वरूप में अभिन्न रूप से प्रतिष्ठित करती ही है । आत्मस्वरूप में कोई पाप होता ही नहीं है, वह निष्पाप है । अतः यह ज्ञानी के लिए अनुवाद मात्र है और अज्ञानी के लिए आश्वासन मात्र ।
इस समीक्षा के दो पक्ष प्राप्त हुए सगुण सकार के उपासक की अनन्य अव्यभिचाणी शरणागति और ज्ञानी के लिए अनन्य आत्म निष्ठा । यह आत्मनिष्ठा ही शरीर रहते हुए अस्मि का अनुभव होगा और शरीर विलय के पश्चत अस्ति सत्तामात्र में स्थित हो जायेगा ।
यहाँ पर शंकराचार्य जी ने माना है कि कर्मयोग के फल स्वरूप नैष्कर्म्यसिद्धि पूर्वक भगवान स्वरूप का ज्ञान कराकर आत्मभाव में प्रतिष्ठित कर देंगे ।
सैद्धान्तिक विचार― अब हमारा जो सिद्धांत पक्ष था आत्मवान् इस पर विचार करते हैं―
विचार गीता में यह करना है कि गीता का लक्ष्य क्या है । आत्मा से भिन्न कोई ईश्वर है ? या स्व-स्वरूप से अभिन्न निर्विशेष ब्रह्म ? इसके लिए भगवान ने सबसे पहले अशोच्यानन्वशोचस्त्वं २/११-३० तक अपने प्रवचन के द्वारा आत्मा का नित्य, शाश्वत, सनातन, अनादि, निर्विकार, व्यापक, अविनाशी, सत्तामात्र इत्यादि बताते हुए उसे जानने का साधन ज्ञानयोग के स्थान पर कर्मयोग को ही माना है क्योंकि कर्मयोग से ही चित्तशुद्धि संभव है और बिना चित्तशुद्धि के परमतत्त्व की प्राप्ति संभव नहीं है । अतः सकाम कर्म की निंदा करते हुए कहते हैं― त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन २/४५ इसमें त्रैगुण्यविषया वेदा कहकर निस्त्रैगुण्य होने की बात ही इस बात का साक्षी है कि उन वैदिक सकाम कर्मों के फलकथन के प्रति हमारा आकर्षण, उनकी प्राप्ति की इच्छा का समाप्त होना ही लक्ष्य है, कर्मत्याग लक्ष्य नहीं है, क्योंकि ठीक इसके आगे योग में स्थित होकर कर्म करने की बात करते हुए योग का अर्थ समभावस्थ अर्थात एकरस परमात्मा किया है समत्वं योग उच्यते २/४८ अतः साधन रूप से कर्म का वर्णन करते हुए तीनो गुणों से ऊपर ऊपर उठने के लिए जो कहा था उसी को यहाँ पर सर्वधर्मान्परित्यज्य कहा गया है अन्य कुछ अलग से नहीं । आगे जो भगवान ने यहाँ पर कहा मा शुचः इसके लिए ही पहले कहा था निर्द्वन्द्वः २/४५ क्योंकि शोक न करने का सीधा अर्थ निर्द्वन्द्व होना और निर्द्वन्द्व होने का अर्थ है नित्यसत्त्व गुण में प्रतिष्ठित होना ।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भगवान ने कहा है कि तीनो गुणों से ऊपर उठो और अब कहते हैं कि नित्यसत्वस्थः अर्थात जब सत्त्वगुण बन्धन (अ.१४/६) का हेतु है, फिर स्वयं कैसे कह सकते हैं हमेशा सत्त्वगुण में स्थित रहो ? यदि यह शंका हो तो यह भी विचार कर लेना कि सत्त्व के साथ नित्य पद दिया गया है और नित्य आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं होता है । अतः यहाँ आत्मा अनात्मा का निरंतर विचार करके आत्मपद में स्थिर होना ही नित्यसत्त्वस्थ होना है, जब अनात्मपदार्थ से भिन्न आत्मपदार्थ में स्थित होगा तो संसार की अनित्यता देखकर नित्य आत्मा को किसी योगक्षेम की आवश्यकता ही नहीं होगी तो निर्योगक्षेम भी स्वतः हो जायेगा । अतः मा शुचः से भगवान ने इन तीनो ही साधनों का संक्षेप में विवेचन कर दिया ।
अब मामेकं शरणं ब्रज एवं अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः आता है । इस पर आचार्य शंकर ने बड़ी ही युक्ति पूर्वक मामेकम् का अर्थ सगुण साकार के रूप में करते हुए भगवान के द्वारा आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष माना है । आपका यह विचार जो ज्ञान के अभी अधिकारी नहीं हैं उनके लिए सूर्य के समान प्रकाशिक करके अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला है । भगवान ने यहाँ कहा कि सर्वधर्मान्परित्यज्य अर्थात वे सभी जो कर्तव्य और अकर्तव्य प्रधान धर्म और अधर्म हैं उनका त्याग करके अनन्य भाव से मुझ सगुण साकार की शरण में आ जा । अनन्यभाव क्या है ? इस पर कहते हैं― मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।१०/९।। इसकी व्याख्या उसी स्थान पर देखें । इस प्रकार सर्वथा परमेश्वर से भिन्न वृत्ति जब अन्यत्र कहीं भी नहीं जायेगी तब के लिए ही भगवान यहाँ प्रतिज्ञा करते हैं― अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः । इसी प्रतिज्ञा को अनन्ययोग से जानने और उपासना करने वाले के लिए १२/६ कहते हुए कहते हैं― तेषामहं समुद्धर्ता १२/७ विवरण उसी स्थान पर देखें । कैसे उद्धारकर्ता बनेंगे ? दादामि बुद्धियोगं तम् १०/१० मैं ज्ञानयोग देता हूँ क्योंकि पहले ही कहा था― बुद्धौ शरणमन्विच्छ २/४९, अब ज्ञानयोग की प्राप्ति के लिए कहाँ जाये ? तो कहा मैं दे दूंगा । फिर बात ये आती है कि आप किसी न किसी के पास भेज दोगे आप स्वयं कैसे ज्ञान दोगे ? इस पर कहते हैं― तेषामेवाऽनुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।१०/१।। अर्थात मैं सर्वात्मा हूँ इसलिये तुम मुझे भिन्न मत समझो । मैं स्वयं ज्ञानदीप के रूप में हृदय में ही स्वयं प्रकाशित हो जाऊंगा । अतः मा शुचः अर्थात इसके लिए तुम्हें चिन्ता करने की आवश्यकता ही नहीं है । यह विचार आचार्य शंकर को साक्षी करके हैं ।
अब मैने जो सिद्धांत पक्ष आत्मवान् किया था । उसके विषय में कुछ अंश निर्द्वन्द्वः तक की व्याख्या ऊपर हो चुकी है अब आता है आत्मवान् २/४५ यह जो आत्मवान् होना कहा है, यही मामेकं शरणं ब्रज का अर्थ होगा । इसका विवरण हमने अध्याय दो के अन्त में पुनर्समीक्षा में दे दिया है । तथापि संक्षेप में कहता हूँ । अध्याय दो में सिद्ध के लक्षणों में आत्मनिषठ का लक्षण बताते हुए जब वह कैसे बैठता है का उत्तर देते हैं तब कहते हैं― युक्त आसीत मत्परः २/६१ अब जो आत्मनिषठा है उसे मत्परः कैसे कहा ? यही इस बात का प्रमाण है कि आत्मा और परमात्मा में अभिन्नता है । तो जब परस्पर एकत्व हो जायेगा तब ईश्वर तो अपने को ईश्वर रूप में ही जानेगा किन्तु अभिन्नत्व को प्राप्त उपाधि रहित जीव भी अपने को ईश्वर रूप में ही जानेगा । जैसे समुद्र तो स्वयं को समुद्र तो जानता ही है किन्तु उसमें प्रविष्ट नदी भी अपने को समुद्र करके ही जानती है । वह वहां यह जानती ही नहीं है कि मैं पहले नदी थी और अब समुद्र हो गई हूँ । मात्र समुद्र ही होता है । ठीक ईश्वर और जीव के मिलन में भी यही होता है । जैसे अग्नि में जली लकड़ियों की राख का कोई परिचय नहीं होता है वैसे ही । जीव और ब्रह्म के मिलन पर जीव ब्रह्म का अलग से कोई परिचय नहीं होता है । वहाँ तो असि मात्र कह सकते हैं । यही आत्मा का अहमर्थक परमपद है । यही आत्मवान् होना है । जहाँ आत्मा से भिन्न अन्य कोई सत्ता ही न हो ।
उसी प्रकार यहाँ भी पहले कहते हैं― तमेव शरणं गच्छ १८/६२ अर्थात एक मात्र उस परमेश्वर की शरण में जा और यहाँ कहते हैं कि मामेकं शरणं ब्रज यदि ईश्वर और कृष्ण एक हैं तो या तो उसकी शरण में जा अथवा मेरी शरण में आ, इन दो में से एक ही बात कहते, किन्तु ऐसा न कहकर एक बार वह कहना और एक बार यह कहना भी यही दर्शाता है कि ब्रह्म माम् अर्थात ‘मैं’ के अर्थ से भिन्न नहीं वरन् अभिन्न है जैसा कि अध्याय १४/२७ में ब्रह्म आदि का अधिष्ठान अहमर्थक बताया गया है । उसी प्रकार माम् कहकर अहमर्थ के अन्तर्गत तम् को बताया गया है ।
इस प्रकार जो ज्ञानयोग की प्राप्ति के निमित्त ज्ञानयोग के द्वारा नैष्कर्म्यसिद्धिं १८/४९ को प्राप्त कर चुके हैं वे ब्रह्म के साथ एकत्व का संकल्प करके सब कुछ अहमर्थक आत्मा में देखते हुए अभिन्न रूप से असि सत्ता में स्थित होने वाला ही आत्मवान् है यह सिद्धि हुआ ।
विस्तार भय से संक्षेप में अपने सिद्धांत पक्ष आत्मान् को ही लक्ष्य करके तत्त्वमसि के शोधन रूप भगवती गीता का अनुशीलन करते हुए असि पद में प्रतिष्ठित करने वाली के अद्वैत सिद्धांत को समझने में जो अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीम् के विषय में सुना था वह हमारी वैदिक और आचार्य परंपरा केे केवलाद्वैत का पोषण करनी वाली भगवती गीता और उनके स्वामी कृष्ण ! चूंकि आपका रहस्य, आपका तत्त्व आपके अतिरिक्त और कोई नहीं जानता है, सिर्फ आप ही जानते हो, अतः इस अबोध बालक पर भी कृपा बनाये रहें । यही हमारी सबसे विशिष्ट कामना है ।।६६।। ओ३म् !
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।१८/६७।।
यह गीता ज्ञान तेरे लिए कहा है । इसे जो शरीर से तपस्वी न हो, जो मेरा भक्त न हो, जो सुनने की बिल्कुल इच्छा न रखता हों और जो मुझमें या गीता में दोष देखता हो उसे कभी भी नहीं देना चाहिए ।
यहाँ शरीर तप के बाद अभक्त कहने का तात्पर्य है कि जो मेरे समग्र स्वरूप के प्रति समर्पित न हो, सुनने की का इच्छुक न हो और गीतोपदेश एवं गीतोपदेशक मुझ कृष्ण में दोष देखने वाला, इनमें बाद के तीनो साधन मानसिक हैं इसका तात्पर्य यह है कि गीता ज्ञान समझने के लिए शारीरिक अर्थात शरीर को सर्दी-गर्मी सहने के अनकूल बनाना, उसके बाद के तीन साधन मानसिक हैं, जिन दोष देखने वाले साधन में ऐसा भी समझ लेना चाहिए कि दोष देखेगा तो दूसरों से बुराई भी करेगा अथवा दोष देखने के परिणामस्वरूप ही अन्य तीन अपने आप आ जाते हैं । अतः यहाँ पर शारीरिक, मानसिक, और वाणी के संयम का ही गीतोपदेश में माना गया है । गीता का साधन चतुष्टय यही है । इसके लिए विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षा इन चार साधनों की आवश्यकता बताया गया है ।।६७।।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।।१८/६८।।
जो इस परमगोपनीय ज्ञान विज्ञान के अभिमुख मेरे भक्त को कहेगा वह मेरी पराभक्ति प्राप्त करके मुझको ही प्राप्त होगा इसमें संशय नहीं है ।
भगवान भक्त को गीता ज्ञान के अभिमुख कहने का तात्पर्य यह है कि मेरा भक्त तो है, लेकिन वह केवल साढेतीन हाथ के शरीर वाला ही समझता है अवथा मुझे केवल प्रतिमा तक सीमित जानता है, ऐसे मेरे भक्त को गीता के अनुसार मेरे स्वरूप का ज्ञान कराने वाला भी उस स्वरूप को पहले जानेगा तभी दूसरे को उसका ज्ञान कराने में सक्षम होगा । मतलब यह है कि योगवासिष्ठ में, शास्त्र को स्वाध्याय, मनन और निदिध्यासन एवं जिज्ञासु को उपदेश ये चार साधन वशिष्ठ जी ने ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति के साधन राम जी को बताया था । अतः वही चार साधन यहां भी कहे गये हैं ऐसा समझना चाहिए ।।६८।।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।।१८/६९।।
उस मनुष्य से बढ़कर और कोई भी मेरा प्रिय करने वाला है और न उससे बढ़कर अन्य कोई दूसरा प्रियतर होगा ।
पूर्व श्लोक में जो ब्रह्म ज्ञान के चार साधन बताए गये हैं उन चारों का अनुष्ठान करने वाला भगवान का प्रिय करने वालों में सबसे अधिक श्रेष्ठ क्यों है ? इसके लिए कहते हैं– ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं उपासते । श्रद्धधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ।।१२/२०।। अर्थात वह मुझसे अभिन्नता प्राप्त करने के लिए उद्यत हो चुका है, कृत संकल्प है । वह ज्ञानी के स्वभाव का आचरण करने वाला है । अतः अब वह ज्ञान को प्राप्त करके, साक्षात मेरा स्वरूप ही हो जायेगा, इसलिये प्रियतर है प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं च मे प्रियाः ७/१७ एवं ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ को ही यहां माहात्म्य के रूप में दुहरा कर यह बताया है कि मेरे सर्वज्ञ स्वरूप को सर्वभाव से जानने वाला ही मेरा प्रिततम है अन्य नहीं, यह अर्जुन के अध्याय १२/१ का स्पष्ट उत्तर दिया गया है ।।६९।।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।।१८/७०।।
और जो इस ज्ञानमय संवाद को पढेगा उसके द्वारा ज्ञानयज्ञ से मैं पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है ।
यहाँ गीताज्ञान की प्रशंसा करते हुए पढना भी देवयज्ञ के समान बताते हैं ।।७०।।
श्रद्धावाननसूयश्च श्रुणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ।।१८/७१।।
मुझमें श्रद्धावान होकर, मुझमें और इस श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप गीता को जो श्रवण भी करेगा वह भी पापों से मुक्त होकर पुण्यकर्म से प्राप्त होने वाले कल्याणकारी लोकों को प्राप्त करेगा ।
यद्यपि गीता पथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत की प्राप्ति को भी जन्म मृत्यु का हेतु मानती है, अतः कोई भी लोक शुभ हो ही नहीं सकता तथापि वह पहले अनिष्टोम, अश्वमेध, राजसूय इत्यादि यज्ञ होते थे, सालंकृत कन्यादान, स्वर्णदान आदि के फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते थे, वे लोक गीता ज्ञान को श्रद्धा से सुनने मात्र से प्राप्त हो जायेंगे उसके पश्चात उसका शुभ अर्थात कल्याण हो जायेगा ।
उसमें श्रद्धा है तो गीता ज्ञान श्रवण करके उसमें आसक्त होगा और उसी आसक्ति में उसकी मृत्यु हो जायेगी तो वह भी योगभ्रष्ट की गति वाला होगा । अतः ब्रह्मलोक आदि लोक जो गीता के श्रवण से मिलेगा उसके भोगों को भोगकर पुनः अध्याय छः के अनुसार किसी श्रीमान अथवा योगी के घर में जन्म लेकर पुनः गीताज्ञान का आश्रय लेकर मुक्त हो जायेगा, यही शुभ की प्राप्ति समझना चाहिए ।
यहाँ गीता के श्रुति फल में गीता का मनन करना, उपदेश करना, पढना, और सुनना ये चार साधन और गीतोपदेश एवं गीतोपदेशक में दोष दृष्टि का न होना यही बाहर भीतर की पवित्रता है । यही श्रुतिफल का उपदेश है ।।७१।।
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्छिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टते धनञ्जय ।।१८/७२।।
हे पृथापुत्र ! यह जो उपदेश दिया, क्या तुमने एकाग्रता पूर्वक सावधान मन से थोड़ा भी सुना । धनञ्जय ! क्या तुम्हारा अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ मोह भलीभाँति नष्ट हुआ ?
यहां सुनने के लिए पूछा गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान यह जानते ही नहीं थे कि पता नहीं अर्जुन ने सुना है या नहीं ? वे जानते हैं कि अर्जुन ने सुना है, इसके लिए बीच बीच में मे श्रृणु आदि कहकर सावधान भी करते रहते थे । इतना ही नहीं― कहा यदि युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म का नाश करने वाला होगा, तुझे पाप लगेगा ही पापमवाप्स्यसि २/३३ इतना ही नहीं कि केवल पाप ही लगेगा बल्कि न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि १८/५८ अर्थात मेरी बात नहीं मानेगा तो तेरा विनाश हो जायेगा भी कह दिया । इतने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर ही नहीं मिल रहा है । बिल्कुल मौन है । मानो कुछ सुन ही नहीं रहा है, अर्जुन के इसी मौन के कारण ही भगवान कृष्ण यह संदिग्ध बात बोल रहे हैं ।
भगवान की यह शंका निर्मूल नहीं थी जिसे अर्जुन के उत्तर में ही देखा जा सकता है कि भगावन के पूछे गए प्रश्न का उत्तर कैसे देता है– अर्जुन भगवान को श्लोक के पूर्वार्ध का उत्तर ही नहीं देता है, मात्र उत्तरार्ध का उत्तर देता है । यही भगावन की आशंका आगे चलकर अनुगीता को जन्म देती है ।।७२।।
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।१८/७३।।
अर्जुन बोले― हे अच्युत ! आपकी प्रसन्नता से मेरा मोह नष्ट हो गया है । स्मृति प्राप्त कर ली है । संदेह रहित होकर स्थित हूँ । आपके वचनों का पालन करूंगा ।
देखिए अर्जुन ने एक बार भी नहीं कहा कि हां, हमने ध्यान से आपकी बात सुना है, बल्कि भगवान ने अज्ञान से उत्पन्न मोह के विषय में पूछा उसका उत्तर दे रहा है कि आप तो अच्युत हो, अपने लक्ष्य से कभी पीछे हटने वाले नहीं हो और आपका लक्ष्य तो युद्ध ही दिख रहा है, ये आपकी मुझ पर कृपा है कि जो मुझे मेरा पारिवारिक मोह था, जिसके कारण भीष्म, द्रोण आदि के मोह में फंस गया था और अपने क्षत्रिय धर्म को ही भुला दिया था । आपकी कृपा से उस क्षत्रिय धर्म का स्मरण हो गया है जिसके कारण युद्ध में अपने पराये का मोह क्षत्रिय धर्म को आगे करके नष्ट हो गया है । अतः अब मैं जो युद्ध के विषय में संदिग्ध था कि इन्हें मारना चाहिए या नहीं मारना चाहिए ? यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः२/६ अर्थात मैं जीतूंगा या नहीं जीतूंगा ? ये सभी संदेह नष्ट हो गये हैं । जीतूं या हारूं, कोई मरे, चाहे जिये, मुझे धर्म, प्रजा की रक्षा के लिए मात्र क्षत्रिय धर्म का पालन करना है ।
इस प्रकार अर्जुन को अपने सर्वत्मा रूप की स्मृति नहीं हुई, ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इस बात की स्मृति नहीं हुई, जीव ब्रह्म है या नहीं इस संदेह की निवृत्ति नहीं हुई अथवा विचार ही नहीं किया, बल्कि क्षत्रिय धर्म की स्मृति हुई । मोह अनात्मपदार्थ का नष्ट नहीं हुआ, बल्कि मरने मारने को लेकर उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ है । यदि मोह नष्ट ही हो गया होता तो अभिमन्यु की मृत्यु पर जो मोह के कारण अर्जुन की दुर्दशा क्यों हुई ? पुनः अनुगीता के उपदेश का आधार क्या था ? यदि कर्म निष्पाप हैं तो पुनः पाप निवृत्ति के लिए अश्वमेध आदि यज्ञ युद्ध के पश्चात प्रायश्चित के लिए क्यों कृष्ण ने करवाया ?
ये सारे तथ्य इस बात का प्रमाण हैं कि अर्जुन को स्वरूप विषयक अज्ञान का नाश नहीं, बल्कि संदिग्ध युद्ध की स्थिति को लेकर अज्ञान का नाश हुआ । स्मृति स्वरूप की नहीं, बल्कि क्षत्रिय धर्म की हुई ।
बात कितनी भी अच्छी क्यों न हो, लेकिन उस बात की समझ सामने रखे गये लक्ष्य को लेकर ही बनती है । भगवान अर्जुन को उपदेश देते हैं किन्तु ज्यों ही तर्कपूर्ण युक्ति समाप्त होती है त्यों ही यह कह देते हैं– तो फिर युद्ध कर, इसलिये युद्ध कर, इसलिये युद्ध के लिए खड़ा हो जा । यहाँ तक युद्ध न करने पर पाप लगना एवं विनाश होना तक कह दिया । अतः अर्जुन इसी लक्ष्य को लेकर ही अज्ञान और मोह से निवृत्त होकर क्षत्रिय धर्म की स्मृति प्राप्त करता है स्वरूप विषयक नहीं । यह इसका भावार्थ है ।
साथ ही इस विश्लेषण से यह भाव भी स्पष्ट हो गया है कि ज्ञान प्राप्ति में सर्वकर्मसंन्यास अर्थात निवृत्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, प्रवृत्ति मार्ग कदापि नहीं ।।७३।।
सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मानः ।
संवादमिमश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ।।१८/७४।।
संजय बोले― महात्मा वासुदेव तथा पृथापुत्र अर्जुन का अद्भुत रोमांचकारी यह संवाद मैने सुना ।।७४।।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयं ।।१८/७५।।
व्यास श्रीकृष्णद्वैपायन जी की कृपा से यह अत्यंत गोपनीय रहस्य स्वयं परमात्मा मायापति कृष्ण द्वारा साक्षात् स्वयं ही कहते हुए सुना ।
व्यास जी की कृपा अर्थात उनकी प्रदान की गई दिव्यदृष्टि ।।७५।।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिमद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च पुनः पुनः ।।१८/७६।।
राजन् ! इस अद्भुत रोमांचकारी केवश और अर्जुन के पवित्र संवाद का स्मरण करते हुए बारंबार हर्षित हो रहा हूँ ।।७६।।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ।।१८/७७।।
हे राजन् ! श्रीहरि के उस अद्भुत विराट और चतुर्भुज रूप का स्मरण करके स्मरण कर करके मुझे बहुत विस्मय अर्थात आश्चर्य हो रहा है और बारंबार प्रसन्न हो रहा हूँ
बारंबार यानी अनवरत, निरंतर ।।७७।।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।१८/७८।।
जहाँ मायापति कृष्ण हैं, जहाँ अर्जुन जैसा धनुर्धर है वहीं विजय रूपी लक्ष्मी और साम्राज्य का ऐश्वर्य है, ऐसी मेरी न्याय वाली बुद्धि है अर्थात यह मेरा मत है ।
यहां पर यह समझना चाहिए कि जहाँ उपदेशक इन्द्रियों का स्वामी कृष्ण जैसा गुरु है और अर्जुन जैसा धनुर्धर अर्थात लक्ष्य का भेदन करने वाला आज्ञाकारी और समर्पित शिष्य है वहीं कामरूपी शत्रु पर विजय है और परमेश्वर को समग्र रूप से जानकर आत्मनिषठा रूपी ऐसा ऐश्वर्य कि अन्य ऐश्वर्य की आवश्यकता ही न पड़े । यही भगवती गीता का मत है ।।७८।।
समीक्षा― अर्जुन संन्यास और त्याग के स्वरूप को जानना चाहता है । भगवान पहले विभिन्न मतों को कहकर अपने मत में शास्त्रीय कर्म चित्तशुद्धि का हेतु मानकर कर्म का त्याग उचित नहीं मानते हुए त्रिविध त्याग का वर्णन करते हुए विवेक शील के सकाम निष्काम कर्म से राग द्वेष न रखते हुए संशय रहित होकर आत्मस्वरूप में प्रविष्ट होना बताया, क्योंकि देहधारी कर्म का स्वरूप से त्याग करने में समर्थ नहीं है । फिर इष्ट, अनिष्ट एवं मिलेजुले तीन प्रकार के फल का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ये फल कर्ता को अवश्य प्राप्त होते हैं किन्तु संन्यासी को प्राप्त नहीं होते कहकर सर्वकर्मसंन्यास की स्तुति की ।
अधिष्ठान, कर्ता, करण, नाना प्रकार की चेष्टाएँ, एवं प्रारब्ध इन पांच को कर्म का हेतु बताकर फिर ज्ञान, ज्ञेय, और उन्हें जानने वाला ये तीन प्रकार की प्रेरणा और कर्म को क्रिया रूप देने में करण, कर्म और कर्ता को हेतु बताया । गुण भेद से तीन प्रकार का ज्ञान, तीन प्रकार का कर्म, तीन प्रकार का कर्ता, बताकर बुद्धि और धृति के भी गुणभेद से तीन तीन भेद बताते हुए परिणाम में मिलने वाले सुख को भी तीन प्रकार का कहा । इसके बाद कर्मों के आधार पर जिन गुणों को लेकर उत्पन्न होने वाली मनुष्य की प्रकृति है उनके लक्षणों सहित चारों वर्णों का वर्णन करते हुए बताया कि ये लक्षण जहाँ भी मिलें उसे वही समझना चाहिए । पश्चात संपूर्ण जागत में व्याप्त परमेश्वर से ही संपूर्ण प्राणियों चेष्टाएँ होती हैं, अतः अपने इन्हीं स्वाभाविक चेष्टाओं को परमेश्वरार्पण करके चित्तशुद्धि की बात करते हुए स्वधर्माचरण की प्रशंसा करते हैं ।
अतः स्वाभाविक कर्म क्यों नहीं त्यागना चाहिए ? इसके उत्तर में कहते हैं कि आग में धुवां होता है, आंखों में बहुत लगता है, बहुत परेशान होकर भी धुवें की परवाह किये बिना अग्नि का एकमात्र संबंध रखते हुए भोजन बनाते उससे भूख का नाश होकर संतुष्टि मिलती है । ठंड दूर होती ही है । ऐसे ही जब परमेश्वर को अर्पित करके कर्म करेंगे तो चित्तशुद्धि होगी ही, कर्म स्वभाव से प्राप्त है अतः चित्तशुद्धि का हेतु है । अतः उसके दोष न देखकर चित्तशुद्धि होना ही है यही ज्ञानयोग का आश्रय लेकर नैष्कर्म्यसिद्धि प्राप्त करना है ।
सर्वत्र इच्छारहित, चतुर्दश इन्द्रियों को वश में करके आसक्ति रहित परोक्ष ज्ञान का आश्रय लेकर जब चित्तशुद्धि हो जायेगी, तब जिस पराज्ञान निष्ठा से मुमुक्षु ब्रह्म के साथ अभिन्नता प्राप्त करेगा उसके साधनों का वर्णन करते हुए अहंकार आदि से रहित होने पर चित्तशुद्ध होने पर ही ब्रह्मस्वरूपता का संकल्प करके शोक और इच्छाओं से रहित आत्मैक्यता का बोध कराने वाली पराभक्ति की प्राप्ति बताते हैं, जिसके माध्यम से परमात्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का बोध मुमुक्षु प्राप्त करके उसी में प्रवेश कर जाता है अर्थात ब्रह्मात्मैक्यता को प्राप्त हो जाता है ।
यह सब कर्मों का व्यापार अर्थात एकनिष्ठ परमेश्वर में स्थित होने पर उसी की कृपा से संभव होता है । भगवान की इन बातों पर जो विश्वास नहीं करता या ध्यान नहीं देता उसका चौरासी का चक्र कभी समाप्त नहीं होता यही उसका विनाश होना निश्चित बयाया, क्योंकि व्यक्ति स्वभाव के परवश होता है अगर आचार्य, गुरुजनों की बात नहीं मानेगा तो वह प्रकृति के आधीन होकर परवश करेगा क्योंकि संपूर्ण प्राणियों के हृदय में बैठे परमेश्वर की माया सबको यन्त्रवत नचा रही है । अतः उस परमेश्वर की शरण में जाने से ही माया का पीछा छूटेगा यह अत्यंत गोपनीय रहस्य बताकर भगवान कहते हैं कि हमने पूर्णतः बिना कुछ छिपाये सब बता दिया । अब तुम चतुर्दिक् विचार करके जैसा चाहो वैसा करो ।
पुनः सार रूप में परेश्वर के समग्र स्वरूप का वर्णन करते हुए भगवान ब्रह्म का अहं के अर्थ में विनियोग करते हुए उपक्रम के आत्मवान् का विनियोग मामेकं शरणं ब्रज के रूप में आत्मनिषठा में करते हुए ब्रह्म के ‘अस्ति’ पद की प्रतिष्ठा करते हैं। यही गीता के उपक्रम और उपसंहार का एकात्म सिद्धांत है― एकमेवाद्वितीम् । अतः बीच में भी यही समझना चाहिए ।
इस प्रकार सिद्धांत पक्ष की प्रतिष्ठा करके बताते हैं कि इस गीताज्ञान का अधिकारी मात्र साधन चतुष्टय संपन्न ही है एवं साधन चतुष्य संपन्न को पराभक्ति प्रदान करके मुझे ही प्राप्त कराने वाली परम गोपनीय ब्रह्मविद्या है । इसका मेरे भक्तों में प्रचार करने वाला मेरा अत्यंत प्रिय है एवं पढने, सुनने वाले का भी कल्याण को प्राप्त होना बताया ।
अब अर्जुन से एकाग्रता पूर्वक सुनने और मोह के निर्मूल होने की बात जैसा कि आचार्य का कर्तव्य है, वैसे ही पूछा जिसमें अर्जुन आगे प्रश्न का ही उत्तर देता हुआ युद्ध विषयक मोह के नष्ट होने और संशय रहित युद्ध के लिए मैं तैयार हूँ, आपने जैसा कहा है वैसा ही करूंगा, ऐसा कहकर युद्ध की स्वीकृति दे देते हैं ।
श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद की समाप्ति की सूचना देते हुए संजय का अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह सुनिश्चित करते हैं कि जहाँ भागवन मायापति वासुदेव और आज्ञाकारी लक्ष्य भेदने में निपुण अर्जुन है वहीं विजय नामक लक्ष्मी और चक्रवर्ती साम्राज्य का ऐश्वर्य है, यह मेरा अपना मत है ।
इस प्रकार संजय इस श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए ब्रह्मविद्या नामक उपदेश का उपसंहार करते हैं ।।१-७८।। ओ३म् !
अर्जुन के प्रश्न― अर्जुन ने प्रश्न किया था कि सन्न्यास का तात्त्विक स्वरूप क्या है ? यह पहला प्रश्न था । अर्जुन का दूसरा प्रश्न था कि त्याग का तात्त्विक स्वरूप क्या है ?
यहाँ पर पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि सन्न्यास्य का सीधा अर्थ होता है सर्वकर्मसंन्यास अर्थात स्वरूपतः कर्म का त्याग । जब स्वरूपतः संन्यासी कर्म का त्याग कर देगा उसका तात्त्विक स्वरूप का अर्थ है कि उसका अन्तिम फल क्या होगा ? यह पहले प्रश्न का स्वरूप है ।
दूसरे प्रश्न में त्याग संबंधित प्रश्न है, जबकि यहाँ कर्म का स्वरूपतः त्याग संभव ही नहीं है, अतः भगवान ने तो सभी कर्मों के फल त्याग की बात कहा था १२/१२ उसी को लेकर यह पूछा गया है कि आपने त्याग का फल नित्य शान्ति अर्थात मोक्ष कहा था । यदि मोक्ष ही कर्मफलत्याग का फल है तो संन्न्यास की निरर्थकता सिद्ध होती है, अतः मोक्षप्राप्ति किस प्रकार कर्मफलत्याग से हो सकती है यह तात्त्विक यानी इसका रहस्य क्या है ? ये दो प्रश्न अर्जुन के मुख्य बनते हैं । अवान्तर प्रश्न भी हो सकते हैं । तथापि यहाँ दो ही प्रश्नों के रूप में उत्तर उपस्थित किया जायेगा ।
भगवान का उत्तर― इसमें संक्षेप में दूसरे प्रश्न का पहले उत्तर देते हैं कि जब फल त्याग के कारण सर्वत्र इच्छाओं का शमन होकर सर्वत्र आसक्ति रहित होकर चतुर्दश इन्द्रियों को अपने आधीन कर लेगा तब उसे आत्मा-अनात्मा का परोक्ष ज्ञान होगा, जिससे वह अनात्मपदार्थ की अनित्यता और आत्मा की व्यापक नित्यता को देखेगा, उसी से उसे संपूर्ण कृत, अकृत कर्मों से पूर्णतः वैराग्य होकर नैष्कर्म्यसिद्धि प्राप्त कर लेगा, निष्कामता प्राप्त होना ही चित्तशुद्धि है । यही कर्मफल के त्याग का स्वरूप चित्तशुद्धि । यह दूसरे प्रश्न का उत्तर हो गया ।
अब पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि जब इस प्रकार चित्तशुद्धि हो जायेगी तो स्वाभाविक उन कर्मों से उपरति होकर सर्वकर्मसंन्यासी हो जायेगा । जिसका फल यह होगा कि नित्य साधन चतुष्ट संपन्न होकर सीमित अहंता आदि का त्याग करके ब्रह्मस्वरूप व्यापक अहंता के संकल्प में स्थित होकर तत्त्वतः अर्थात स्वरूपतः मेरे और अपने स्वरूप को उपाधि रहित जानकर फिर उसी तत्त्व में प्रवेश कर जायेगा अर्थात अहमर्थक असि पद में स्थित हो जायेगा । यह सर्वकर्मसंन्यास का स्वरूप अर्थात फल है ।
संक्षेप में― सर्वकर्मफलत्याग का स्वरूप अर्थात फल है चित्तशुद्धि एवं सर्वकर्मसंन्यास का स्वरूप यानी फल है मामेकं १८/६६ अर्थात एक मात्र अहमर्थक आत्मवान् या अस्ति पद में प्रतिष्ठा अर्थात जीव-ब्रह्म की एकता । इस प्रकार अर्जुन के अन्तिम दो प्रश्नों के उत्तर भगवान ने संपूर्ण गीता के सार के रूप में बता दिया । ओ३म् !
हे स्वामिन् ! आप क्या हो ? कैसे हो ? कौन हो ? कहाँ रहते हो ? इत्यादि कुछ नहीं जानता हूँ, तथापि इतना जानता हूँ कि कोई तो आप हो जो इस संपूर्ण संसार पर नियंत्रण करते हुए उसका भरण पोषण करते हो । आप जो भी हो जैसे भी हो, हम पर भी आपनी अहैतुकी कृपा बनाये रहें, आपको अविरल नमस्कार है । ओ३म् !
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः ।।१८।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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