गीता समीक्षा अध्याय १३
ॐ श्री परमात्मने नमः
अथ त्रयोदशोऽध्यायः
अध्याय एक में अनात्मपदार्थ का चिन्तन करने वाले जीव की स्थिति का वर्णन व्यास जी ने किया । अध्याय दो से छः और सात से बारह तक त्वम् एवं तत् पदार्थ के स्वरूप को समझाते हुए यह बताया कि वस्तुतः दोनो भिन्न नहीं है बल्कि एक सत्तामात्र औपाधिक भेद के दो नाम मात्र हैं । अब यहां से आगे बतायें के कि वह सत्तामात्र कैसे है ? जीव-ब्रह्म के बीच की रेखा अर्थात परिच्छिन्नता कैसे मिटेगी ? जीव की ‘अस्ति’ नामक सत्ता में प्रतिष्ठा कैसे होगी ? इन्हीं सभी बातों का निराकरण इन छः अध्यायों में करने के लिए यह प्रकरण आरम्भ किया जाता है ।
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।।१३/१।।
श्रीभगवान बोले― हे कुन्तीपुत्र ! यह शरीर ‘क्षेत्र’ इस ऐसा कहा जाता है इस प्रकार जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ ऐसा उसके जानने वाले कहते हैं ।
यहाँ पर जीव के स्वरूप का वर्णन किया गया है । जो भी तत्त्वदर्शी ऋषिगण क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के स्वरूप से जानकार हैं यहाँ पर उनका मत दिया गया है । जो भी इदं अर्थात ‘यह’ करके जानने में आ जाये वह अनात्मपदार्थ पदार्थ है और जो इस अनात्मपदार्थ को ‘मैं जानता हूँ’ करके जानने वाला ‘मैं’ का अर्थ है वह क्षेत्रज्ञ कहा गया है ।।१।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।१३/२।।
किन्तु हे भारत ! सभी क्षेत्रों मेंं वह क्षेत्रज्ञ मुझे जान, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है वही ज्ञान है ऐसा मेरा मत है ।
प्रथम और द्वितीय श्लोक में अन्तर यह है कि प्रथम श्लोक में बताया ‘तद्विदः’ और यहाँ बता रहे हैं ‘मतं मम’ मतलब यह कि जो अब आगे कहा जाने वाला विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का है यह न तो अकेले ऋषियों ने ही कहा है और न ही मैं अकेला कह रहा हूँ बल्कि हम सभी का एक ही मत है जो मेरा मत है और वह मत यह है कि क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ ऐसा जानो । अपि यहाँ पर निश्चयात्मक है अर्थात इसमें मेरी या ऋषियों की बात में संशय नहीं करना चाहिए । यहाँ जो च दिया गया है वह पक्षान्तर करने के लिए है । अर्थात क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को विभागपूर्वक जानो ‘गुणकर्मविभागयोः’ ३/२८ किन्तु यह विभागपूर्वक सीमित इदंता रहित व्यापक इदंता वाला जो क्षेत्रज्ञ है वह और कोई नहीं मैं ही हूँ । यद्यपि च और अपि से विद्वान यह मानते हैं कि भगवान कहते हैं क्षेत्रज्ञ तो मैं हूँ ही किन्तु क्षेत्र भी मुझे जानो, यह अर्थ मैं भी पहले कर चुका हूँ तथापि वह विचार उस समय के अनुसार ही ठीक लगा किन्तु इस समय च पक्षान्तर में चला गया और अपि निश्चय में तो क्षेत्र भी मैं हूँ इसके लिए कोई शब्द बचा ही नहीं ।
इसका यह भी एक कारण है कि यहाँ विभाग करने का तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु को आत्मपदार्थ का बोध कराना है इसलिये अभी तो आत्मपदार्थ से भिन्न और सत्तामात्र दिखाना ही भगवान का उद्देश्य है । इसी उद्देश्य पूर्ति को लेकर आगे परमात्मा को भी जीव कोटि की संज्ञा दी गई है ।
अब आती है बात द्वैतवादियों के इस तर्क की कि भगवान जीव कैसे हो सकते हैं ? यहां जीव और ब्रह्म ऐसा दो प्रकार का क्षेत्रज्ञ अलग अलग कहा गया है । यह बातें तो आपकी बच्चों वाली दिखती हैं, क्योंकि यदि च और अपि पर विचार कर लेते तो इतना परिश्रम न करना पड़ता । इसके लिए अध्याय २/१७ की व्याख्या देखें । तथापि यहाँ संक्षेप में देखें― येन सर्वमिदं ततम् २/१७, जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ७/५, मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७, गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा १५/१३ ये गीता से और श्रुति― तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्, तदैच्छत बहुस्यां प्रजायेयेत इत्यादि पर भी विचार करो । साथ ही यह भी विचार करो कि जीव वह है और मृत्यु वह है, मन वह है आदि तो आप क्या बचे ? क्या भगावन के इन बचनों के भगवान के बचन मानते हैं ? मैं गरुड़ हूं, सर्प हूँ, राजा हूँ इत्यादि विभूतियां जो गिनाया क्या ये जीव नहीं हैं जिन्हें कृष्ण मैं हूँ कहते हैं ? इत्यादि पर अविचार त्यागकर विचार करो ।
रही आपके तर्क मम साधर्म्यमागताः १४/२ की तो साधर्म्य किसका होगा देशकाल परिच्छिन्न का या अपरिच्छिन्न का ? अपरिच्छन्न है तो जीव का आधार क्या है जहाँ वह स्थित है ? और ब्रह्म की सीमा क्या है ? जब नदी समुद्र के समान धर्म को प्राप्त कर लेगी तब वह नदी की नदी ही होगी या समुद्र ? यदि नदी नदी रही तो किस प्रकार का साधर्म्य और अगर समुद्र ही हो गई तो कैसी नदी ? अतः विचारशील को इन प्रश्नों और विषयों पर विचार अवश्य करना चाहिए ।
सारांश― ईश्वर से भिन्न जीव की कोई सत्ता नहीं है यह प्रातिभासिक अनादिकाल से चला आ रहा भ्रम है जिसका निवारण आत्मा-अनात्मा के विवेक से होगा उसी के लिए यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग नामक प्रसंग उपस्थित किया गया है ।।२।।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।।१३/३।।
वह क्षेत्र जैसा है, जिस प्रकार का अर्थात उसका जो स्वरूप है, और जिससे है अर्थात जिससे उत्पन्न हुआ है एवं वह क्षेत्रज्ञ जो है, जिस प्रभाव वाला है वह सब संक्षेप में सुनो ।
जिसे इदं से प्रथम श्लोक से क्षेत्र और और उसे जानने वाला क्षेत्रज्ञ का आगे स्वरूप और उत्पत्ति का हेतु संक्षेप से बताया जायेगा । अर्जुन सुन रहा है फिर भी सुनने को कहने का मतलब है कि विषय सूक्ष्म और गंभीर है अतः चित्तवृत्ति को एकाग्र करके सावधानी पूर्वक सुनने को कहते हैं । ताकि ठीक से श्रवण मनन कर सके ।।३।।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।१३/४।।
ऋषियों ने बहुत प्रकार से गाया (कहा) है, नाना प्रकार से अलग अलग छन्दों में वेद गाते हैं, युक्ति पूर्वक ब्रह्मसूत्र में चार पादों (चरणों) में मुझे सर्वात्मा का निश्चय किया गया है ।
परमेश्वर तत्त्व के चारो प्रामाणिक तथ्य हैं, मैं ही नहीं कहता हूँ बल्कि उन प्रामाणिक तथ्यों ने जो विस्तार से कहा है उसको ही सार अंश संक्षेप से कहूँगा ।।४।।
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।।१३/५।।
अव्यक्त मूल प्रकृति, पांच महाभूत, और बुद्धि (समष्टि), अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ एवं एक मन इस प्रकार ग्यारह इन्द्रियाँ, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पांच इन्द्रियों के विषय ।
यहाँ गणना यद्यपि व्यष्टि में दिया गया है तथापि समष्टि सहित व्यष्टि को भी समझना चाहिए । क्योंकि जो शरीर में है उससे भिन्न बाहर कुछ नहीं है । इस प्रकार ये चौबीस तत्त्व क्षेत्र कहे गये हैं ।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारिमुदाहृतम् ।।१३/६।।
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर, उसमें प्रातिभासिक चेतना अर्थात जीवत्व (प्राण शक्ति) धृति अर्थात धारणा शक्ति― जिससे संपूर्ण लोकों को धारण करता है, यह क्षेत्र संक्षेप से विकारों सहित कहा गया है ।
यहाँ पूर्व श्लोक में मूल प्रकृति तो मुख्य क्षेत्र है, उससे उत्पन्न महाभूत उसके विकार ह़ै, उन महाभूतों को क्षेत्र और उनसे उत्पन्न शब्दादि विषय विकार हैं, महाभूतों के स्वांश में इन्द्रियां विकार हैं बुद्धि का विकार अहंकार है । और इस श्लोक में सभी विकार हैं । इस प्रकार संक्षेप में समझना चाहिए । विस्तार के लिए पंचीकरण देखना चाहिए ।।६।।
अब यद्यपि क्षेत्र के बाद क्षेत्रज्ञ का वर्णन करना चाहिए था तथापि उस क्षेत्रज्ञ की प्राप्ति के जो साधन हैं उन्हें आत्मप्राप्ति के निमित्त ज्ञान नाम से पहले कहेंगे―
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।।१३/७।।
मान सम्मान की कामना से रहित, दंभ यानी दिखावे से रहित अन्तर्वृत्ति, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक तीनों प्रकार का क्लेश किसी को न देना, क्षान्ति यानी क्षमा, सरलता, आचार्य की उपासना अर्थात समयोचित तन मन धन तीनों प्रकार की सेवा से आचार्य को संतुष्ट करना, बाहर भीतर की पवित्रता, एकमात्र परमत्त्व से अन्य चिन्तन न करना अर्थात एकनिष्ठ, और शरीर सहित चौदह इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला ।।७।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एवं च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।१३/८।।
तथा इसी प्रकार इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य के लिए अहंकार से रहित अर्थात सीमित अहंता का त्यागकर के व्यापक अहंता में स्थिर होना, जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, शरीर में उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के नाना प्रकार से कष्ट देने वाले रोगों से उत्पन्न होने वाले दोषों को बारंबार देखना अर्थात उनका चिंतन करना ।।८।।
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचितत्तवमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।।१३/९।।
विषयों के प्रति आसक्ति न होना, स्त्री, पुत्र, घर आदि में आत्मभाव का न होना अर्थात इतनी अधिक घनिष्ठता न होना कि उनके नाश से अपना ही नाश मान ले, इष्ट यानी अनूकूलता एवं अनिष्ट यानी प्रतिकूलता में नित्य अर्थात अनवरत, निरंतर समरस रहना ।।९।।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।।१३/१०।।
मुझमें अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारी भक्ति, एकांत क्षेत्र का सेवन करने वाला, जनसमुदाय से प्रीति न होना अर्थात जन समुदाय से दूर ।
अनन्योग अर्थात वासुदेवः सर्वम् से भिन्न अनात्मपदार्थ का न मन से चिंतन न होना, अर्थात अभिन्न भाव में स्थित होना, अनात्मपदार्थ का चिन्तन ही व्यभिचार है अर्थात एक मात्र आत्मनिष्ठ होना ही भक्ति है । भाव यह है जिसे मैं का अर्थ आत्मा जाना जाता है उस आत्मा का सर्वात्मा परमेश्वर में विनियोग करके एक हो जाना ही अनन्ययोग है ।।१०।।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।१३/११।।
नित्य अध्यात्मज्ञान का चिन्तन, तत्त्वज्ञान का सर्वत्र दर्शन करना यही ज्ञान कहा गया है इससे भिन्न जो कुछ भी है वह अज्ञान है ।
नित्य अर्थात निरंतर अध्यात्मज्ञान में स्थित होना । अध्यात्म उन साधनों का नाम है जिन साधनों से आत्मा का साक्षत्कार किया जा सकता है । अर्थात आत्मा और अनात्मा का विवेक कराने वाले साधनों श्रुति, शास्त्र, आचार्य का निरंतर सेवन करना, उस अध्यात्मज्ञान से जो तत्त्वनिर्णय होगा उसका जो अर्थभूत आत्मपदार्थ है उस आत्मा अर्थात परमतत्त्व को ही सर्वत्र देखना, यही ज्ञान कहा गया है । इससे भिन्न जो ज्ञान है वह ज्ञान नहीं अज्ञान है । अनात्मपदार्थ से संबद्ध प्रत्येक विषय अज्ञान है । इस प्रकार अमानित्वमदम्भित्व १३/७ से लेकर यहां तक ज्ञान नाम से ज्ञान प्राप्ति के साधन कहे गये हैं इससे भिन्न अज्ञान का परित्याग पहले ही कर देना चाहिए ।।११।।
क्षेत्रज्ञ का स्वरूप और प्रभाव का वर्णन―
ज्ञेयं यतत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।।१३/१२।।
जिसके जान लेने मात्र से मोक्ष को प्राप्त कर लेगा, जो ज्ञेय स्वरूप है उसको कहूंगा । वह ब्रह्म अनादिवाला है उसे न सत् कहते हैं न असत् कहते हैं ।
वस्तुतः संसार में कुछ भी जानने के योग्य है तो वह है आत्मा । आत्मा को जाने बिना, समझे बिना, और आत्मभाव में स्थित हुए बिना संसार के दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति हो ही नहीं सकती है । वस्तुतः संसार में दुःख के अतिरिक्त और है ही क्या ? अपनी की तुच्छ आवश्यकता की क्षणिक प्राप्ति हो गई तो हम सुखी हो गये । वस्तु नष्ट हो गई हम दुःखी हो गये । वास्तव में दुःख का थोड़ा कम होना ही सुख है, वस्तुतः जिस समय हम सुख का अनुभव करते हैं उस समय भी दुःख ही है ।
स्थायी सुख के लिए आत्मा का स्वरूप क्या है ? उसकी उत्पत्ति कैसे हुई ? और उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? इस पर कहते हैं कि उसकी उत्पत्ति होती है नहीं है वह तो अनादि है । अनादि अर्थात जो आदि वाला होता है उसी का जन्म होता है और जो अनादि है वह अजन्मा है । अजन्मा कह देने मात्र से सभी छः विकारों का अभाव आत्मा में स्वतः हो जाता है क्योंकि अन्य विकार बिना जन्म के हो ही नहीं सकते । अब कहते उसका स्वरूप न सत है न असत है । क्योंकि सत् या असत् वह होता है जो इन्द्रियों से ग्राह्य है वह सत है और जिसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकती हैं वह असत है, जबकि उसकी अनुभूति होती है और वश में की गई इन्द्रियों के माध्यम से ही होती है इसलिए सत है और अजितेन्द्रिय को उसकी अनुभूति नहीं होती है इसलिए असत है । अर्थात जो आत्मा ज्ञानी के सत् स्वरूप है वही अज्ञानी के लिए असत् स्वरूप और जो अज्ञानी के लिए सत् स्वरूप है― या निशा सर्वभूतानां तस्यां जाग्रति संयमी । यस्यां जागर्ति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः २/६९ वही ज्ञानी के लिए सद्रूप है यह भाव है । इसके अन्य भी कई पक्ष हैं जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखना चाहिए ।
भावार्थ― वह ब्रह्म नाम से कही जाने वाली विधि निषेध से परे प्रत्यगात्मा ही है । यह भाव है ।।१२।।
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।।१३/१३।।
उसके सभी ओर हाथ, पांव हैं, सभी ओर नेत्र, शिर, मुख हैं । सभी ओर कानवाला है, संपूर्ण संसार को व्याप्त करके स्थित है ।
व्यापक से व्याप्य भिन्न नहीं होता है यही अभिन्नता दिखाने के लिए संसार को व्याप्य और आत्मा को व्यापक बताया है । जैसे सभी ओर क्रियाशील है वैसे ही परमेश्वर का चेतन्य प्रकाश सभी जगह, सभी शरीरों को चैतन्यता प्रदान कर रहा है इसीलिये वह सभी जगह हाथ, पांव आदि वाला है । यह भाव है ।।१३।।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रिविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।।१३/१४।।
क्योंकि सभी इन्द्रियगुणों में आभास रूप, सभी इन्द्रियों से रहित, आसक्ति रहित, सबका भरण-पोषण करने वाला, एवं निर्गुण, और गुणों का भोग करने वाला है ।
वह ज्ञेय आत्मा सभी इन्द्रियगुणों में चैतन्य प्रकाश का आभास रूप में अनुभव होने वाला । अर्थात जड़ इन्द्रियों को जो प्रकाशित करके चैतन्यरूपता प्रदान करने वाला है प्रातिभासिक रूप है । जिसका अनुभव बुद्धि में पड़ने वाले उसके प्रकाश ही सत् असत् के विवेक पूर्वक किया जाता है, वह चौदह इन्द्रियों का प्रकाशक, चूंकि इन्द्रियों के लिए शरीर चाहिए, जबकि आत्मा अनादि वाला अशरीरी है इसलिये सभी इन्द्रियों से रहित है । वह प्रकृति के गुणों से कोई संबंध नहीं रखता तो भी स्वभाव से ही संपूर्ण जगत का भारण करता है यानी धारण करता है । वह निर्गुण अर्थात तीनो गुणों का अधिष्ठान है, अर्थात उसे तीनो गुणों का स्पर्श भी नहीं होता है तथापि वही गुणों गुणों का भोक्ता है । अर्थात जब अपने मूल स्वरूप में निर्विकार भाव में होता है तो गुणों का स्वामी अर्थात उन पर शासन करता है यही स्वरूप निस्त्रैगुण्य २/४५ है और जब वह इच्छा करता है मैं एक हूँ बहुत हो जाऊं और वह सृष्टि करके उसमें प्रवेश कर जाता है उस समय वही जीव रूप होकर संपूर्ण गुणों का भोग करता है । यह भाव है ।।१४।।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वातदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ।।१३/१५।।
तथा संपूर्ण चराचर में बाहर भीतर वही ज्ञेयतत्त्व व्याप्त है सूक्ष्म होने जानने में न आने वाला एवं दूर और पास में स्थित है ।
संपूर्ण चराचर में जो प्रातिभासिक जड़ और चैतन्य है वह भी वही ज्ञेय तत्त्व ही है । वह अत्यंत सूक्ष्म होने जानने (दैखने) में नहीं आता और अविद्या ग्रस्त अज्ञानियों के लिए वह बहुत दूर है । जैसे अपनी छाया को पड़ना चाहो तो कभी हाथ आने वाली नहीं है चाहे जितना पीछे दौड़ा जाये । जितना दौड़ो उतना ही दूर होगी किन्तु रुक जाओ तो वह आपसे भिन्न नहीं वहीं की वहीं रहेगी । इसी प्रकार जिनका अनात्मपदार्थ संबंधित अज्ञान नष्ट हो गया है उनके पास में स्व-स्वरूप ‘मैं’ के अर्थ में सदैव प्राप्त ही है ।।१५।।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।।१३/१६।।
एवं वह ज्ञेय आत्मा सभी प्राणियों अखंड होते हुए खंड यानी विभागों में बंटे के समान स्थित है । प्राणियों का भर्ता एवं उत्पन्न करने वाला तथा उन्हें अपना ग्रास बना लेने वाला है ।
आत्मा देशकाल परिच्छेद रहित अखंड अनन्त एकरस, नित्य आनन्दस्वरूप है तथापि अविद्या कल्पित वही परमतत्त्व विभक्त अर्थात टुकड़ों में कि ये पृथ्वी है, ये आकाश है, यह मैं हूँ, वह तू है इत्यादि टुकड़ों में बंटे हुए के समान अनन्त के स्थान पर अन्तवाला अर्थात मरने वाला, एक रस के स्थान पर परिवर्तनशील, नित्य के स्थान पर अनित्य, आनन्दस्वरूप के स्थान पर दुःखी हुआ सा दिखता हुआ स्थित है । संपूर्ण प्राणियों का भर्ता अर्थात स्वामी अर्थात अनुशासन करने वाला ईश्वर कोटि का सभी के शुभाशुभ कर्मों का फलदाता, और स्वयं ही सबको उत्पन्न करने वाला ब्रह्मा रूप एवं जो काल सबको खा जाता है उसे भी खा जाने वाला महाकाल है, वही ज्ञेय तत्त्व है । यह श्लोक और बाइसवां श्लोक लगभग औपाधिक कार्य प्रणाली को लेकर समान भाव वाले हैं ।।१६।।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।।१३/१७।।
वह आत्मा ज्योतियों का भी ज्योति, अन्धकार से परे, कही गई है । ज्ञानस्वरूप, ज्ञेय रूप, ज्ञानगम्य, एवं सबके हृदय में स्थित है ।
अभी तक क्षेत्रज्ञ का स्वरूप बताया और अब उसका प्रभाव बता रहे हैं जिसकी भूमिका श्लोक तीन में कहा था । ज्योतियों की ज्योति सूर्य मैं हूँ १०/२१ भगवान ने कहा था और यहाँ प्रत्यगात्मा को ही ज्योतियों का ज्योति अर्थात सूर्य को भी प्रकाशित करने वाला प्रकाश बताया है । और इस प्रकाश का केन्द्र बताया सभी प्राणियों का हृदय । हृदय में इस प्रकाश का स्वरूप बताया अन्धकार अर्थात अज्ञान से परे । यही परमप्रकाश स्वरूप आत्मा ज्ञान रूप ही है । ज्ञान रूप होने से वह स्वरूपभूत ही ज्ञेय अर्थात जानने योग्य परमतत्त्व है जो ज्ञानगम्य है अर्थात उसे ज्ञान से ही जाना जा सकता है ।
शंका होती है कि जब वह ज्ञान रूप है और उसे ही जानना है तो उसे उसी से कैसे जाना जा सकता है ? तो इसका समाधान यह है कि वह ज्ञेय यद्यपि ज्ञानस्वरूप है तथापि ज्ञान प्राप्ति के जो साधन अमानित्वादि कहे गये हैं उन्हें भी ज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से वे भी ज्ञान रूप ही कहे गये हैं । उन्हीं ज्ञान के साधनों के द्वारा ही ज्ञानस्वरूप ज्ञेय को जाना जा सकता है यह भाव है ।
दूसरे पक्ष में हृदय का उपलक्षण यदि बुद्धि करें तो बुद्धि द्वारा जो सत् और असत् का विवेक है वही ज्ञान है उसी ज्ञान के द्वारा वह ज्ञानस्वरूप ज्ञेय तत्त्व अज्ञानान्धकार का नाश करके स्वयं प्रकाश सबके परमप्रकाश आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है यह इसका भाव है ।।१७।।
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ।।१३/१८।।
इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान एवं ज्ञेय संक्षेप में कहा । मेरा भक्त इसे जानकर मेरे भाव को प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार महाभूतान्यहङ्कारो से लेकर चेतना धृतिः तक क्षेत्र एवं अमानित्वमदम्भित्व से लेकर तत्त्वज्ञानदर्शनम् तक ज्ञान तथा अनादिमत्परं से लेकर हृदि सर्वस्य विष्ठितम् तक ज्ञेयतत्त्व क्षेत्रज्ञ का संक्षेप से वर्णन किया गया । मेरा भक्त अर्थात मुझ गीता के इस क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के उपदेष्टा जगद्गुरु पर अतिशय प्रेम रखने वाला एकनिष्ठ मेरा अनन्य भक्त इस प्रकार तत्त्व से जानकर मेरे भाव को अर्थात मेरे स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । यहाँ पर भेदवादियों की मान्यता के अनुसार आराध्य का परिच्छिन्न स्वरूप नहीं प्राप्त करता बल्कि वह परमेश्वर का साक्षात्स्वरूप हो जाता है ज्ञानी त्वात्मैव मे ७/१८ ज्ञानी मेरा आत्मा अर्थात स्वरूप ही है भगवान के कथन के इस भाव को प्राप्त हो जाता है यह भाव है ।।१८।।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ।।१३/१९।।
प्रकृति और पुरुष ही अनादि जानो तथा विकारों को और गुणों को भी प्रकृति प्रकृति से उत्पन्न जान ।
अध्याय सात में प्रकृति परा और अपरा दो स्वरूप बताया था । उन्हीं को पुनः यहाँ समझाने के लिए कि चैतन्य प्रकाश किस प्रकार अपरा अर्थात जीव बन जाता है और किस प्रकार वही जीव असंग एवं निर्विशेष मूल स्वरूप को प्राप्त होता है । यद्यपि यह विस्तार अनादिमत्परं ब्रह्म से किया जा चुका है तथापि वह स्वरूप समझाया गया है और यहाँ उसका गुणों से मोहित होना७/२७ और निवृत्त होने का विस्तार किया जा रहा ।
प्रकृति और पुरुष दोनो यद्यपि अनादि अर्थात अजन्मा मैं तो भी जितने भी गुण और विकार हैं वे प्रकृति के हैं यह प्रकृति का स्वरूप१३/३ है ।।१९।।
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।।१३/२०।।
कार्य, करण, कर्तृत्व की उत्पत्ति का कारण प्रकृति कही गई है । सुख दुःख के भोगने में हेतु पुरुष कहा गया है ।
कार्य यानी पंचमहाभूतों और शब्दादि पंच विषय से निर्मित शरीर शरीर कार्य है, चौदह इन्द्रियां करण ये पहले १३/५ कहे जा चुके हैं और कर्तापन भी प्रकृति का ही कार्य है । प्रकृति का गुण है सुख और दुःख यद्यपि यहाँ पर ये दो कहे गये किन्तु पहले इच्छा, द्वेष भी साथ में ही १३/६कहा जा चुका है । ये सभी गुण प्रकृति हैं फिर भी इन्हें भोगने पुरुष ही कारण है । इस विषय में पहले प्रकृतेः क्रिमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।३/२७।। अर्थात सभी गुण और कार्यक्रम प्रकृति के हैं । प्रकृति सब करती है लेकिन पुरुष संज्ञक कहे गये चैतन्य प्रकाश जब प्रकृति के इन गुण कार्यों का अध्यारोप स्वयं में करके आसक्त हो जाता है तब उसका स्वरूप ज्ञान कर्तापने के आवरण से ढक जाता है और वह अपनी व्यापक अहंता को सीमित अहंता के साथ जोड़कर सुखी और दुःखी होने लगता है यह उसकी स्वतंत्रता है ।
यहाँ पर श्रुति के द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया…., समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नो…..। मुण्डक, श्वेता।.उ. की इन दोनो श्रुतियों को इस दृष्टांत से समझा जा सकता है ।।२०।।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।।१३/२१।।
पुरुष प्रकृति में स्थित होकर प्रकृति से उत्पन्न गुणों का भोग करता है इस पुरुष यह गुणों की संगति ही सत् असत् योनियों में जन्म का कारण है ।
पुरुष का प्रकृति में स्थित होना अर्थात अपने को कार्यकरण संघात मानकर मैं यही और इतना ही हूँ, मैं जन्मने मरने वाला हूँ । इस प्रकार अनात्मा को अविद्या के कारण आत्मा मानकर तदनुसार प्रकृति के । गुणों में असक्त होना ही देव और तिर्यगादि ऊंच नीच योनि में जन्म मृत्यु रूप सुख दुःख भोगता रहता है ।।२१।।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।।१३/२२।।
अत्यंत समीप से देखने वाला, सबको साक्षी भाव से अनुमति देने वाला, सबका भरण-पोषण करने वाला, शासकों का भी शासक, परमात्मा अर्थात सामान्य जीव की अपेक्षा मुक्त पुरुष मायोपाधिक हिरण्यगर्भ नाम से इस शरीर में रहने वाले परम पुरुष को कहा गया है ।
अर्थात उपरोक्त उपद्रष्टा से लेकर परमात्मा तक अलग अलग कार्यों के अनुरुप स्थूल, सूक्ष्म कारण शरीर को धारण करने वाला एक परमपुरुष निर्विशेष आत्मा ही है ।
भावार्थ यह है कि आत्मा निर्विकार है तथापि अपनी नाट्यलीला में स्वयं ही अविद्या ग्रस्त होकर उपरोक्त जीव-ब्रह्म आदि उत्कृष्ट-निकृष्ट नाम एक आत्मा के ही हैं और रही असंग पुरुष प्रभाव है कि वह कुछ भी करने में समर्थ है जबकि प्रकृति का स्वरूप गुण कार्य है, पुरुष निष्क्रिय है और निर्लिप्त है यह भाव है ।।२२।।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ।।१३/२३।।
जो इस प्रकार पुरुष और प्रकृति को गुणों सहित जान लेता वह सदैव सर्वकालिक सभी व्यहवार करता हुआ भी पुनः जन्म नहीं लेता ।
भाव यह है कि जब गुणों सहित प्रकृति को जान लेता है और अपने नित्यस्वरूप को भी समझ लेता है तब वह असंग हो जाता है, वह जान लेता है कि अध्याय तीन में कहे के अनुसार गुण कार्य प्रकृति के हैं मेरे नहीं । इस प्रकार अनासक्त होकर सभी आवश्यक कर्म करता हुआ भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता अर्थात मुक्त हो जाता है ।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।।१३/२४।।
कोई आत्मा में आत्मा को ध्यान के द्वारा देखते हैं । अन्य सांख्योग, तथा दूसरे कर्मयोग के द्वारा देखते अर्थात प्राप्त करते हैं ।
ध्यान अर्थात मन को आत्मपदार्थ में ही निरंतर केन्द्रित करके स्वयं से स्वयं को देखते अर्थात अनुभव करते हैं । स्वयं से स्वयं में देखने का तात्पर्य है कि आत्मा से भिन्न कुछ है ही नहीं, इस प्रकार आत्मा मे ही रमण करते हैं क्रीड़ा करते― यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्…..३/१७, इससे भिन्न दूसरा साधन सांख्ययोग अर्थात ज्ञानयोग है । यह विचारों की प्रधानता वाला साधन है । इसमें अलग से ध्यान करने की बजाय सर्वत्र सहज अनात्मपदार्थ का बाध करके आत्मपदार्थ का दर्शन यानी अनुभव करते हैं । और दूसरे लोग कर्मयोग अर्थात नित्य नैमित्तिक कर्तव्य पालन निष्काम अहंता रहित करते हुए परमेश्वर का अनुभव करते हैं ।
हम यदि क्रम परिवर्तन करके आत्मानमात्मना को ध्यानयोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग के बाद में रखें तो अर्थ यह होगा कि उन सभी साधनों के द्वारा स्वयं से स्वयं में ही आत्म स्वरूप का दर्शन करते हैं क्योंकि आत्मा से भिन्न कोई परमात्मा नहीं है और जिसे परमात्मा स्व से भिन्न माना भी जाये तो वह मायोपाधिक होगा, वास्तविक स्वरूप नहीं । यही अर्थ मुझे अधिक ठीक लगता है ।।२४।।
अन्ये त्वेवामजान्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ।।१३/२५।।
किन्तु अन्य जिन्हें शास्त्र का ज्ञान नहीं है किन्तु गुरुजनों का उपदेश श्रवण किया है और उस सुने हुए उपदेश का ही संकल्प विकल्प रहित होकर वैसा का वैसा ही अनुष्ठान कर लेने वाला भी मृत्यु को पार कर जाता है । अर्थात आत्मस्वरूप को जानकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार दो श्लोकों में चार साधन, चार प्रकार के साधको के लिए आत्मसाक्षात्कार के लिए कहे गये हैं ।।२५
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ।।१३/२६।।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! जितने भी जड़ चेतन प्राणी उत्पन्न होते हैं वे सभी क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए जान ।
य एवं वेत्ति १३/२३ में जो प्रकृति-पुरुष को जो जानने की बात कही थी उसे यहाँ शैली भेद से पुनः पुष्ट किया और इसका तत्त्वतः जान लेने का फल भी १३/२३ का ही होगा यही भाव है ।।२६।।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।१३/२७।।
संपूर्ण प्राणियों में एकमात्र अविनाशी परमेश्वर स्थित है, उनके विनाश होने पर भी परमेश्वर का विनाश नहीं होता इस प्रकार जो जानता है वही तत्त्वतः जानता है ।
यहाँ परमेश्वर शब्द भी आत्मा का ही वाचक है । नाश तो नाम रूप का होता है और नाम रूप परिच्छिन्न और उत्पन्न होने वाले का होता है, जबकि आत्मा तो जन्मादि छः विकारों से रहित है अतः वह नाम रूप से भी रहित है, अतः उसका विनाश नहीं होता इस प्रकार जो जानता है वही तत्त्वतः जानता है पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः १५/१०, यही तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् १३/११ है ।।२७।।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।।१३/२८।।
जिसने प्रकृति के गुणों की सगंति से अपना विवेक नष्ट नहीं कर लिया है, संपूर्ण प्राणियों में एक ही ईश्वर को समान रूप से स्थित परमेश्वर को देखता है वह परम गति को प्राप्त करता है ।
यहां प्रकृति पुरुष के विवेचन में ईश्वर शब्द समष्टि का वाचक उपस्थित हो गया है जिसका तात्पर्य यह है कि जिसे अभी तक आत्मा गया उसे हु यहाँ परमेश्वर कहा गया व्यष्टि का समष्टि में विलय ही यहाँ का लक्ष्य है क्योंकि इस श्लोक में आत्मा दो बार आया है जिसका अर्थ एक आत्मा का अर्थ विवेक दूसरा मैं के अर्थ में जाना जाने वाला आत्मा । जो अहमर्थक आत्मा अपना विवेक अनात्मपदार्थ में न लगाकर उससे अलग अपने स्वरूप का निश्यच करता है वही स्वरूप का ज्ञान होने पर त्वम् पदार्थ का लक्ष्यार्थ आत्मा तत्पदार्थ के लक्ष्यार्थ ईश्वर के साथ एकता को प्राप्त होकर जिस समय सभी प्राणियों मेे― यहाँ सर्वत्र का अर्थ है जड़ चेतन सभी प्राणियों में स्थित एकमात्र सत्तात्मक आत्मा को देखता है― यहाँ पर अध्याय ७/१-२ में जिसे समग्र रूप से ज्ञान विज्ञान सहित जानने की बात कही थी और जिसे कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ७/२९ अर्थात संपूर्ण कर्मों के सहित अध्यात्म को पूर्णतः जान लेने को और जिसे साधिभूत, साधिदैव, साधियज्ञ को मुझ परमेश्वर को जानने वाला कहा था ७/३० वह जो समग्र भाव था वही यहाँ सर्वत्र के अन्तर्गत समझना चाहिए । इस प्रकार समग्र रूप से जानने के पश्चात तत्क्षण परम् गति अर्थात मोक्ष को मोक्षार्थी प्राप्त कर लेता है, यह भाव है ।।२८।।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ।।१३/२९।।
जो संपूर्ण कर्मो को प्रकृति द्वारा क्रियमाण देखता है तथा स्वयं को अकर्ता देखता है, वही देखता है ।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रिमाणानि सर्वशः ३/२७, गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ का ही यहाँ अनुवाद समझना चाहिए । एवं यः पश्यति स पश्यति― तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागशः ३/२८ का अनुवाद समझना चाहिए । इस प्रकार संपूर्ण क्रियमाण कर्म परिवर्तनशील प्रकृति के हैं और आत्मा अकर्ता अर्थात निर्विकार, निष्क्रिय है ऐसा जो जानना है वही तत्त्व से जानता है अर्थात इस प्रकार जानकर तत्त्वारूढ होकर मुक्त होता है यह भाव है ।।२९।।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।।१३/३०।।
तथा जिस समय मुमुक्षु भिन्न भिन्न प्राणियों की स्वतंत्र सत्ता को एक ही आत्मा में देखता है और उसी से विस्तार देखता है उसी क्षण ब्रह्म रूपता को प्राप्त हो जाता है ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ७/६, मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७, अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते १०/८ इत्यादि के भाव ही यहाँ समन्वित हैं । भाव यह है कि एक सत्ता भिन्न भिन्न रूपों में प्रतिभासमान होकर भी एकमात्र परम सत्ता एकमेवाद्वितीम् से भिन्न कुछ है ही नहीं । उसी एक आत्मा के संकल्प से इस संसार का विस्तार होता है और उसी में लय होता है इतना अध्याहार कर लेना चाहिए । ऐसा अभिन्न तत्त्वदर्शी ब्रह्म से अभिन्नता को प्राप्त कर लेता है ।।३०।।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।।१३/३१।।
हे कौन्तेय ! अनादि होने से निर्गुण, निर्गुण होने से अविनाशी परमात्मा शरीर मे स्थिति होते हुए भी न तो कुछ करता है, न लिप्त होता है ।
यहाँ पर आत्मा की निर्लिप्तता का कारण बताते हैं कि आत्मा अनादि है यह अनादिमत्परं ब्रह्म १३/१२ से पहले आत्म स्वरूपता को कह चुके हैं और यहाँ कर्मों निर्लिप्तता बताना हेतु है अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है । अनादि अर्थात जिसका आदि है ही नहीं अर्थात जन्म कभी होता ही नहीं अजन्मा है, जन्म ही सभी अनर्थों की जड़ है । जन्म है तो सभी विकार हैं किन्तु जो परम सत्ता आत्मरूप से सभी शरीरों में विद्यमान है वह अजन्मा है । अजन्मा होने के कारण प्रकृति के गुणों से वह लिप्त नहीं होता है अर्थात गुणों से निर्लिप्त यानी निर्गुण है । चूंकि वह निर्गुण है इस लिए स्थूल, सूक्ष्य और कारण रूप में सीमित अहंता वाला मैं का अर्थ है उससे भी श्रेष्ठ सबको सत्ता देने वाली आत्मा ही परमात्मा नाम से से कही गई है । ऐसी जो परमसत्तात्मक त्रिगुणोपरि आत्मा है वह इस शरीर में रहते हुए भी न तो कोई कर्म करती है और न ही उसके फलस्वरूप जन्म मृत्यु रूप बंधन से बंधती ही है ।
यह जो यहाँ पर सत्तात्मक आत्मा के विषय में कहा यही तत्त्वमसि का असि पद है जिसमें प्रतिष्ठित होने के लिए कहा था― निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन २/४५ इस प्रकार जब निस्त्रैगुण्य हो जायेगा तो न तो बुद्धि कर्मों में आसक्त होगी और न ही कर्मफल उसे बांधेंगे ही― यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते १८/१७ ऐसा आगे भी कहेंगे ।
भावार्थ― निरासक्त और कर्तृत्वपने का अभाव ही मुक्ति का हेतु है ।।३१।।
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ।।१३/३२।।
जैसे आकाश व्यापक होकर भी वह उन उन आकृतियों आदि से नहीं बंधता वैसे ही आत्मा सर्वत्र शरीरों में स्थित होकर भी उनसे नहीं बंधता ।
आकाश घट में भी है पट और मठ में भी तथापि वह उन आकृतियों और उनके गुणों से निर्लिप्त रहता है वैसे ही एक ही आत्मा सभी जड़ चेतन वस्तुओं को प्रकाशित करते हुए भी उन उन आकृतियों और उनके गुणों से नहीं बंधता ।।३२।।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कत्स्नं प्रकाशयति भारत ।।१३/३३।।
हे भारत ! जैसे एक ही सूर्य संपूर्ण लोकों को प्रकाशित करता है, वैसे ही संपूर्ण क्षेत्र को क्षेत्री अर्थात क्षेत्रज्ञ प्रकाशित करता है ।
भिन्न भिन्न आकृतियों और स्वभाव को एक ही आत्मा एक ही काल में सबको कैसे प्रकाशित करती है यह सूर्य के उदाहरण से बताया कि सूर्य संपूर्ण भिन्न जगत को जैसे एक ही समय में प्रकाशित कर देता है वैसे ही संपूर्ण इदं करके जाने जाने वाले क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मा प्रकाशित करती है । यहाँ यह निर्विवाद है कि अलग से कोई ईश्वर नहीं बल्कि सीमित और व्यापक अर्थात व्यष्टि और समष्टि आत्मा एक ही है भिन्न नहीं, उसे चाहे आत्मा कहो या परमात्मा । यहाँ पर द्वैतवादियों के विवाद का कोई कारण ही नहीं दिखता ।।३३।।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।।१३/३४।।
इस प्रकार ज्ञाननेत्र से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के अन्तर को एवं प्राणियों के प्रकृति से मोक्ष को जो जान लेते हैं वे परमगति को प्राप्त करते हैं ।
ज्ञाननेत्र से प्राणियों के प्रकृति से मुक्त होने का अर्थ श्रुति, शास्त्र, आचार्य से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को ठीक ठीक समझकर स्वयं को प्रकृति के गुण कार्यों से मुक्त होने का जो उपाय जान लेते हैं वे ही ब्रह्मस्वरूपता को प्राप्त हो जाते हैं । इसी को पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः १५/१० कहा जायेगा ।।३४।।
समीक्षा― पूर्व अध्याय में अर्जुन द्वारा पूछे गये सकार उपासकों का उत्तर देकर ज्ञानियों के लक्षणों का नित्यज्ञान नाम देकर उनकी उपासना करने को कहा था । जब उस उपासना से चित्तशुद्धि हो जायेगी तब क्या करना है यही बताने के लिए जो प्रतिज्ञा किया था― तेषामहं समुद्धर्ता १२/७ उसी बचन का यहां पर पालन करते हुए वे कैसे उद्धार करेंगे ? इसके लिए जो पहले कहा था ददामि बुद्धियोगं तम् १०/१० वह अब यहाँ मोक्ष के साधन रूप में क्षेत्र क्षेत्रज्ञ नामक प्रसंग उपस्थित करते हैं―
इदं अर्थात ‘यह’ करके जहाँ तक वृत्ति जाये वह सब क्षेत्र है और उस क्षेत्र को जो जानने वाला ‘मैं’ का अर्थ है वह क्षेत्रज्ञ है । इस प्रकार दो विभाग करके संपूर्ण क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ मैं स्वयं परमात्मा ही हूँ ऐसा जानने वाला ज्ञान ही तात्त्विक ज्ञान है ऐसा कृष्ण का अपना मत बताते हैं । आगे क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के स्वरूप उत्पत्ति और प्रभाव की प्रतिज्ञा करते हुए यह बताते हैं कि यह मत अकेले मेरा ही नहीं, ऋषियों, वेदों, ब्रह्म सूत्र द्वारा मुझ परमात्मा का भी युक्तिपूर्ण तत्त्व निश्चय है । फिर दो श्लोकों में विकारों सहित क्षेत्र का, पांच श्लोकों में आत्मा की प्राप्ति के ज्ञान नामक साधनों का वर्णन करते हुए नित्य आत्मा संबंधित ज्ञान के साधनों में रमण करते हुए परमतत्त्व का अनुभव करना ही ज्ञान है । इससे भिन्न कोई अन्य ज्ञान नहीं है ।
आगे के छः श्लोकों में ज्ञेयतत्त्व आत्मा के जान लेने पर अमृतत्व की प्राप्ति की प्रतिज्ञा करते हुए ब्रह्म नामधारी प्रत्यगात्मा को न सत् कहते हैं न असत् कहते हैं की भूमिका पूर्वक अध्यारोप-अपवाद पूर्वक प्रत्यगात्मा का स्वरूप निश्चय करते हुए उसका प्रभाव बताते हुए ज्ञान द्वारा ही जानने योग्य, ज्ञानस्वरूप अज्ञान से परे अर्थात अज्ञानी के जानने में न आने वाला ज्योतियों का ज्योति सबके सत् असत् का निर्णय करके सत् स्वरूप आत्मा में ही आरूढ विवेक द्वारा प्राप्तव्य बताया । इस प्रकार, क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को संक्षिप्त कहकर उसका तत्त्व से जानने अर्थात तत्त्व निश्चय करके आरूढ होने वाले की ब्रह्मरूपता की प्राप्ति बताया ।
आगे के पांच श्लोकों में आत्मा के बंधन और मुक्ति का हेतु प्रकृति का प्रभाव बताते हुए सभी नाम रूपात्मक परमात्मा पर्यन्त औपाधिक जीव कोटि बताते हुए स्वसंवेद्य आत्मा को निर्विकार और नाम रूपादि से रहति सबसे विलक्षण एवं श्रेष्ठ बताते हुए प्रकृति-पुरुष के इस रहस्य को जानने वाले का कर्मों के करते हुए भी पुनर्जन्म का न होना बताया । अगले तीन श्लोकों में आत्मा की प्राप्ति के चार भिन्न भिन्न साधन बताते हुए संपूर्ण स्थावर जंगम की उत्पत्ति प्रकृति-पुरुष के मिलन से बताते हुए आगे संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय में भी एकरस नित्य आत्मा को देखने वाले को तत्त्वदर्शी, और अपना विवेक अनात्मपदार्थों में नष्ट न करके सर्वत्र स्वसंवेद्य आत्मा का अनुभव करने वाले की परमगति, संपूर्ण कर्मों में प्रकृति का ही कर्ता होना और आत्मा को अकर्ता बताया बताते हुए सभी भिन्न भिन्न स्वभाव वाले जड़ चेतन सभी प्राणियों की सत्ता को एक ही सत्ता में देखने वाले की ब्रह्म से अभिन्नता का कथन किया ।
इसके बाद आत्मा के कर्मों से निर्लिप्तता और बंधन रहित होने का कारण अनादित्व अर्थात अजन्मा बताते हुए आकाश के दृष्टांत से पुनः निर्लिप्तता और सूर्य के दृष्टांत से आत्मा कैसे क्षेत्र को प्रकाशित करती है यह बताते हुए ज्ञाननेत्र अर्थात श्रुति शास्त्र एवं आचार्य से प्राप्त तत्त्वनिर्णय के द्वारा क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के विभाग को जानने वाला संपूर्ण प्राणियों को प्रकृति से मुक्त देखने अर्थात स्वयं को प्रकृति से मुक्त जानने वाला परम् पद यानी मोक्ष की प्राप्ति का कथन करके अध्याय का उपसंहार करते हैं । ओ३म् ।।१-३४।।
सूचना― संक्षेप व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखें ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।।१३।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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