गीता समीक्षा सिंहावलोकन
सिंहावलोकन
श्रीमद्भगवगीता की संपूर्ण समीक्षा, प्रथम अध्याय— भगवती गीता का प्रारंभ धर्म और क्षेत्र नामक दो संयुक्त शब्दों से होता है । जब कि जबकि विश्राम नीति और मम शब्द से होता है । विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि धर्म अर्थात ज्ञान का क्षेत्र क्या है ? अर्थात ज्ञान का वास्तविक स्वरूप क्या है ? हम जिसे युद्ध आदि व्यावहारिक सत्ता को लेकर कर इस जगत के भोगों को अर्जुन करने में लगे हैं वह ज्ञान है अथवा इससे भी हटाकर जिसे आत्मा या परमात्मा संज्ञा दी जाती है और जहाँ जाकर संपूर्ण विषयों से सदा सर्वदा के लिए तृप्ति मिल जाती है अर्थात निवृत्ति हो जाती है वह ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट क्षेत्र अर्थात स्थान है ? इस गीता में यह प्रश्न कहाँ अथवा यह भाव कहाँ से आ गया ? यदि यह प्रश्न किसी का हो तो धृतराष्ट्र का इससे पहले के संपूर्ण जीवन देखना चाहिए जब अनेक बार न्याय अर्थात जिसे गीता के अन्त में नीति और मम से विश्राम दिया गया है उसी अपनी नीति का आश्रय लेकर पाण्डवों के राज्य वापसी से लेकर अनेक स्थानों में पाण्डवों के पक्ष में न्याय देखते चले आये हैं तथापि वे लोकैषणा के वशीभूत होने के कारण उसका पालन करने में असफल रहे ।
अपनी उसी नीति का आश्रय लेकर महाराज धृतराष्ट्र ने विदुर से अनेक बार लोक और परलोक को लेकर मन्त्रणा करते रहे हैं, जिसकी परिणति महाभारत का युद्ध से पूर्व सनत्कुमार का उपदेश है, जिसे आज संसार सनत्सुजातीय दर्शन के नाम से जानता है, तथापि गीता अध्याय तीन में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए जिस काम और क्रोध का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने काम को महापापी और कभी पूर्ण न होने वाला कहा है, उसी काम के आधीन धृतराष्ट्र अन्दर से आज युद्ध के प्रारंभ होने पर जल रहे हैं । यहाँ यह मानना है पड़ेगा कि महाराज धृतराष्ट्र युद्ध से पूर्णतः परिचित थे । उनका गुप्तचर विभाग कमजोर नहीं था और न ही उनका विवेक इतना कमजोर था कि आज पूरे दश दिन हो गये हैं कुरुक्षेत्र में गये हुए और वे यह भी न विचार कर सके हों कि इतने दिन में भी कुरुक्षेत्र से वापस न होने का कारण युद्ध ही होगा । जैसा कि कुछ टीकाकार अति वाद करके कहते हैं कि धृतराष्ट्र को पता नही था कि युद्ध प्रारंभ हो गया है इसलिए संजय से पूछा था किमकुर्वत १/१ । यह संदिग्ध भाव पूर्णता अनुचित है ।
धृतराष्ट्र का धर्मक्षेत्र में मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया ? यह प्रश्न है धृतराष्ट्र का, किन्तु साथ में ही यह भी कहा कि धर्मक्षेत्रे यह वाक्य एक हुआ, कुरुक्षेत्रे यह दूसरा वाक्य हुआ और युयुत्सवः यह तीसरा वाक्य हुआ । इसके साथ में कहा समवेता । यह समवेता इस प्रकार समझना चाहिए कि पाण्डुपुत्र तो धर्म के क्षेत्र के मर्मज्ञ हैं यह तो प्रसिद्ध है ही, लेकिन मेरे पुत्र भी धर्मक्षेत्र के मर्मज्ञ पाण्डवों से कम नहीं हैं अर्थात वे भी धर्म के रहस्य को जानने वाले हैं । इसका उदाहरण दुर्योधन की ही बात से समझ सकते हैं जब भगावन श्रीकृष्ण से कहता है―
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ।
केनापि देवेन हृदि संस्थितेन यथा नियुक्तोऽसि तथा करोमि ।।
अर्थात धर्म तो जानता हूँ किन्तु मैं उसके लिए प्रवृत्त नहीं हो पाता और अधर्म भी जानता किंतु उससे मुक्त नहीं हो पाता । मानो कोई एक देवता हृदय में बैठा है और वह जैसा मुझे नियुक्त करता है बलात् मैं वही करता हूँ । यही प्रश्न तो अर्जुन का भी है अथ केन प्रयुक्तोऽयं ३/३६ अर्थात पाण्डवों के समान ही मेरे पुत्र भी धर्म को जानने वाले हैं, कुरुक्षेत्रे अर्थात कर्तव्य परायणता, प्रजापालन के क्षेत्र में भी पाण्डवों से कम नहीं हैं तभी तो पाण्डवों के वन गमन के पश्चात संपूर्ण प्रजा को अपनी कर्तव्य परायणता से अपने आधीन कर लिया है और जो पाण्डव युद्ध में कुशलता रखते हैं, तो मेरे पुत्र भी युद्धक्षेत्र में युद्ध नीति में भी पाण्डवों से कमजोर नहीं हैं, वे भी युद्ध नीति में उनके सामान ही निपुण हैं । अतः ऐसा क्या हुआ उस युद्धक्षेत्र में जिसके कारण धर्म और कर्तव्य के मर्मज्ञ पाण्डुपुत्रों ने युद्ध को ही यह जानकर भी चुना कि इस युद्ध में संपूर्ण उनके अपने ही कुटुंब का नाश हो जायेगा । अथवा मेरे ही पुत्र धर्म और कर्तव्य के मर्मज्ञ होकर भी युद्ध का ही निश्चय किया, वे भी तो युद्ध से विमुख होकर पाण्डवों को उनका अधिकार देकर संधि कर सकते थे । फिर भी दोनो पक्षों में ऐसा किसी ने क्यों नहीं किया ? इस प्रकार युद्ध प्रारंभ के पहले होने वाली प्रत्येक घटना का विस्तार से विवरण मुझसे कहो कि युद्ध के पहले मेरे और पाण्डुपुत्रों ने क्या किया ? यहां पर विद्वानों का मत है कि धृतराष्ट्र ने यहां तक पूछा कि पहले शास्त्र किसने चलाया ? यह भी मेरे और पाण्डुपुत्रों ने क्या किया ? के अन्तर्गत समाहित हो जाता है ।
इस प्रकार धृतराष्ट्र ने धर्मक्षेत्र शब्द का प्रयोग करके धर्म अर्थात ज्ञान के उस स्वरूप को जानने का संकेत करते हैं कि जिसके ज्ञान से संसार के ऐसे बीभत्स कर्मों से निवृत्ति होकर वैराग्य प्राप्त हो जाये । दूसरा प्रश्न कुरुक्षेत्र से मनुष्य की कर्तव्य परायणता को लेकर है कि वस्तुतः कर्तव्य पालन करने की ऐसी क्या मजबूरी है कि जिससे मनुष्य ऐसे बीभत्स कर्म करने को विवश हो जाता है ? तीसरा प्रश्न युयुत्सवः अर्थात युद्ध की इच्छा करना अर्थात इतना सब जानकर मनुष्य कर्म में बलात् क्यों प्रवृत्त हो जाता है ? जिससे आचार्य, गुरु, कुटुंबियों तक का नाश करने में भी संकोच नहीं करता है । इन तीनों प्रश्नों को लेकर ही संपूर्ण गीता का उपदेश है । धृतराष्ट्र के तीसरे प्रश्न का उत्तर अध्याय सोलह में आसुरी संपत्ति के रूप पहले ही देते हुए अन्त में नीतिर्मतिर्मम १८/७८ कहते हुए यह बताते हैं कि मनुष्य के धर्म का क्षेत्र आत्मज्ञान ही है एवं कर्मों की निवृत्ति परमेश्वर की शरणगति में ही सन्निहित है । यही अन्त में ‘माम्’ का भाव है । धर्म अर्थात ज्ञान एवं मम यानी अहमर्थक व्यापक आत्मा ।
यह हुआ धृतराष्ट्र और संजय के बीच का संवाद । अब अर्जुन भी इसी शोक को लेकर त्रस्त है जिससे लेकर धृतराष्ट्र त्रस्त हैं, तथापि धृतराष्ट्र साक्षात् कामनाओं के आधीन हुए इस समय आसुर भाव को प्राप्त हैं जिस कारण वे मेरा और तेरा में स्थित हैं मामकाः और पाण्डवाः ये दो शब्द ही मेरा तेरा का भेद पैदा करके धृतराष्ट्र की इस प्रकार की शोक को बढ़ाने वाली स्थिति उत्पन्न करती है, जबकि अर्जुन में मैं से संबद्ध मेरा कुछ है ही नहीं । वहाँ तो सब मेरे हैं और मैं जो भी कुछ करता हूँ वह सब इनके लिए ही है । इनको मारकर, क्षति पहुंचाकर मैं जीना भी पसंद नहीं करता― यानेव हत्वा न जिजीविषामः२/६ अर्जुन का यही भाव दैवी भाव से संपन्न है, अतः अर्जुन की शोक की निवृत्ति हो जाती है ।
गीता का लक्ष्य एवं संक्षिप्त विवरण, द्वितीय अध्याय— अर्जुन की यह विषम स्थिति में शोक दशा को देखकर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अनार्य, क्षुद्र और नपुंसक जैसे बहुत ही कटु शब्दों से शोक से अचेत हुए अर्जुन को सचेत करते हुए हैं । जिसके फलस्वरूप अर्जुन में चैतन्यता का संचार हो जाता है और भगवान की शिष्यता २/७ स्वीकार कर लेता है । इसके पश्चात भगवान का उपदेश का उपक्रम प्रारंभ होता है जीव के स्वरूप ज्ञान से और यह सुनिश्चित करते हैं कि जीवन और मरण दोनो ही परिस्थितियों में स्वधर्म अर्थात अपने कर्तव्य के पालन से किसी को भी विचलित नहीं होना चाहिए २/३१ । कर्तव्य का पालन इतनी कठोरता से करना चाहिए कि वह अपने जीवन और मरण को भी महत्व न देकर उससे ऊपर उठकर हर परिस्थिति में जब तक जीवन और संसार का ज्ञान हैं, विषयों से अन्तर्बाह्य निवृत्त न हो जाये तब तक करना ही चाहिए २/३७ । इसके पश्चात सकाम कर्मों की बहुत ही कठोरता से निंदा करते हुए गीता के उपदेश और मनुष्य मात्र का कर्तव्य निर्धारित करते हैं ।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२/४५॥
इसका विस्तृत विवेचन हमने उसी स्थान में दिया है, जो कुछ भाव छूट गये थे उनको भी उसी अध्याय के अन्त में पुनर्समीक्षा के लिए से दे दिया है, और वहीं यह लक्षित भी कर दिया कि इस श्लोक में ही मनुष्यमात्र का लक्ष्य आत्मवान् अर्थात आत्मा के स्वरूप को भलीभाँति जानकर अनात्म पदार्थ का त्याग करते हुए सबको सत्ता देने वाले आत्मपद में अर्थात ब्रह्म के सत्तात्मक ‘अस्ति’ पद में स्थित होना है यही ब्राह्मी स्थिति है । बिना इस स्थिति को प्राप्त किये कोई भी सर्वथा शोक रहित नहीं हो सकता है । यहाँ पर यह भी बताया गया है कि मनुष्य कर्म तो बड़ी कुशलतापूर्वक करता है किन्तु संपूर्ण कर्मों की कुशलता, सारी चतुराई, निपुणता तो एक मात्र परमेश्वर की प्राप्ति ही है २/५० । यदि परमेश्वर की प्राप्ति नहीं हुई तो आप कितने कर्म कुशल क्यों न हो जाओ, चंद्रमा और सूर्य पर चले जाओ लेकिन वह कर्म है ही नहीं । इसी कर्म की कुशलता का विस्तार यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् १८/४६ इत्यादि से आगे किया गया है । परमेश्वर की प्राप्ति का लक्षण यहाँ बताया गया समत्वं योग उच्यते २/४८ ये लक्षण परमात्मा की प्राप्त का है जिसे हम आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५ के रूप में ही अनुभव कर सकते हैं । अर्थात स्वयं से स्वयं में अनुभव कर सकते हैं, स्वयं से भिन्न अनुभव नहीं हो हो सकता । यही ब्राह्मी स्थिति है एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ २/७२ । इस प्रकार द्वितीय अध्याय का विश्राम होता है ।
तृतीय अध्याय— तृतीय अध्याय में अर्जुन ज्ञान और कर्म में श्रेय का वास्तविक मार्ग क्या है ? यह निर्णय कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं अतः भ्रम के निवारण के लिए भगवान से ही दोनो में से एक श्रेष्ठ मार्ग पूछते हैं । यहाँ पर भगवान ने बताया कि बिना कर्म किये नैष्कर्म्य सिद्धि अर्थात चित्तशुद्धि हो नहीं सकती और बिना चित्तशुद्धि के आत्मसाक्षात्कार का प्रश्न ही नहीं बनता । अतः कर्म तो करना ही चाहिए वह ज्ञान और अज्ञान दोनो ही दशा में करना चाहिए, इसके लिए जनकादि का उदाहरण दिया । दंभाचार से रहित होकर कर्म करते हुए प्रकृति और आत्मा के स्वरूप को जानकर आत्मा में ही दृढ़ होकर स्थिति होने वाले आत्मरति, आत्मतृप्त के लिए ही कोई कर्तव्य शेष नहीं होता बाकी सबके लिए कितना भी ज्ञानी हो उसके लिए कर्म का वैसा ही विधान है जैसा एक अज्ञानी संसारासक्त विषयी आसक्त होकर करता है, वैसे ही करना चाहिए । अन्दर हो होने वाली क्रिया को प्रकृति में और स्वयं को क्रिया रहित जानता हुआ कर्म करे गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ इसी अध्याय यज्ञ सहित संपूर्ण सृष्टि क्रम का वर्णन करते हुए वसुधैव कुटुम्बकम् का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह भी बताया गया है कि जो इन वैदिक कर्तव्य किये बिना, जिसका जो अधिकार है उसे व वह दिये बिना बिना अन्नादि का उपयोग करने वाला चोर एवं संपूर्ण पापों को करने वाला पापाचारी है वह शिश्नोदर परायण व्यर्थ ही जीवन धारण करता है अर्थात मात्र अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले और सामाजिक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान न करने वाले को तो आत्महत्या ही कर लेना चाहिए । अन्त में अर्जुन के प्रश्न आ उत्तर देते हुए स्व-स्वरूप को आवरण काम यानी नानाप्रकार की कामनाओं के कारण ही प्राप्त हुआ । इस दुर्जय काम को स्वरूप अर्थात आत्मज्ञान प्राप्त करके उसमें स्थित होकर मार डालना चाहिए । इस प्रकार तृतीय अध्याय का विश्राम काम नाश के उपाय द्वारा होता है ।
चतुर्थ अध्याय—चतुर्थ अध्याय में आत्मज्ञान की प्राप्ति के साधन का संप्रदाय परंपरा से वर्णन करते हुए जीव की अल्पज्ञता और ईश्वर की सर्वज्ञता का स्वरूप, गुणों को लेकर जन्म लेने वाले चारों वर्णों की व्यावस्था, कर्मों के स्वरूप का वर्णन करते हुए ब्रह्मयज्ञ के रूप में जीव-ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करते हुए संपूर्ण कर्मों की निवृत्ति ज्ञान से ही होना बताया और ज्ञान की प्राप्ति आ साधन संप्रदाय परंपरा से ही महापुरुषों की सेवा और उनकी संतुष्टि बताया । ज्ञान की स्तुति करते हुए पुनः मोह को अर्थात जन्म-मृत्यु के निवारक आत्मैक्य के ज्ञान से संपूर्ण पापों को करने वाला पापी भी नदी नौका न्याय से पार कर जाता है । वह किस प्रकार पापों और पुण्यों के विशाल समुद्र को पार करेगा ? इसके लिए कहते हैं कि—
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्भस्मसात्कुरुतेऽर्जन ।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।४/३७।।
अर्थात बहुत ही प्रचंड अग्नि जैसे सभी लकड़ियों को चाहे फिर वे सूखी लकड़ी हों अथवा गीली लकड़ी हों दोनो को ही क्षण भर में नष्ट कर देती है, ठीक वैसे ही आत्मस्वरूप का ज्ञान अर्थात आत्मस्वरूप का ज्ञान चाहे हमारे जल्दी नष्ट न होने वाले पाप कर्म हों अथवा भोगलिप्सा के कारण शीघ्र नष्ट होने वाले पुण्य कर्म हों सभी नष्ट हो जाते हैं । यहां यह भी समझ लेना आवश्यक है कि सबसे बड़ा पाप स्वरूप की विस्मृति ही है । यह विस्मृति ही संपूर्ण पापों की जड़ है । उसमें भी अपनी कामनाओं के कारण अपने स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप से भिन्न किसी ईश्वर आदि का आश्रय लेकर जन्म मृत्यु के चक्र को चयन करना दूसरा सबसे बड़ा पाप है इसलिए भगवान ने आत्मवेत्ता के लिए कहा है— न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ३/१८ अर्थात आत्मवित् अन्य प्राणियों की तो बात ही छोड़ो, वह किसी ईश्वर की भी सहायता नहीं लेता है, क्योंकि ईश्वर उससे भिन्न है ही नहीं । कारण कि वह— ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ४/२५ अर्थात वह विचार रूप यज्ञ अर्थात अग्नि में जीव और ब्रह्म रूप समिधा का हवन कर चुका है । अब वहां न तो जीव और ब्रह्म रूप समिधा ही बची है और न ही विचार रूप अग्नि ही बची है । वहां तो अस्ति रूप राख बची है । राख में कौन सी राख किस लकड़ी की है यह किसे किसे पता ? जीव गीली लकड़ी,ब्रह्म सुखी लकड़ी, विचार अग्नि है और ये तीनो ही नष्ट हो गये हैं । इसके बाद मैं ब्रह्म हूं ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को लक्ष्य कराने वाली ‘अस्मि’ की अनुभूति शरीर रहते बचती है और शरीर के लय होने पर उसी को तत्त्ववित् ‘अस्ति’ नामक सत्ता कहते हैं । इस प्रकार आत्मस्वरूप के ज्ञान द्वारा आत्मा-अनात्मा विषयक जिनके संशय नष्ट हो गये हैं ऐसे आत्मस्थ कर्म में नहीं बंधते ऐसा कहते हुए ज्ञानरूपी तलवार से द्वैत-अद्वैत नामक संशय का नाश करके आत्मस्वरूप में स्थित होकर अपने स्वाभाविक कर्त्तव्य का पालन प्रत्येक श्रेय मार्ग के पथिक को करना ही चाहिए । यह आदेश देते हुए चतुर्थ अध्याय को विश्राम देते हैं ।
पञ्चम अध्याय— अर्जुन ने अध्याय तीन में ज्ञान और कर्म से एक श्रेय अर्थात अत्यंत कल्याणकारी मार्ग पूछा था जिस पर भगवान ने बिना कर्म के नैष्कर्म्य की अप्राप्ति बताते हुए ज्ञान में विनियोग करके चतुर्थ अध्याय में कर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुए ज्ञान की स्तुति पूर्वक पुनः आत्मस्थ होकर कर्म करने का आदेश देते हैं । अर्जुन पुनः भ्रमित हो जाता है कि एक बार तो कहते हैं कि ज्ञान में सभी कर्म समाप्त हो जाते हैं, तो फिर पुनः कर्म क्यों करना ? ज्ञानार्जन ही करना चाहिए, किन्तु पुनः कर्म में लगाना मेरी समझ के बाहर है इसलिए पुनः ज्ञान और कर्म में एक ही श्रेय मार्ग अर्थात हमेशा हमेशा के लिए कर्मों से छुटकारा मिल जाये वह निश्चित और एक मत कहने के लिए आग्रह करते हैं । इस पर ज्ञान और कर्म की फल में एकता सिद्ध करते हुए दोनो में भेद करना बच्चों का काम है किसी प्रौढ का नहीं क्योंकि ज्ञान योग अजितेन्द्रिय के लिए दुःखद और अप्राप्त बताते हुए निष्काम, निरपेक्ष कर्मयोगी द्वारा ब्रह्म की शीघ्र प्राप्ति बताया । क्योंकि कर्मयोग के आश्रित होकर शीघ्र ही चित्तशुद्धि को प्राप्त करके इन्द्रियों सहित कर्मयोगी मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, जिसके कारण वह कर्म करता हुआ भी कर्म के फलस्वरूप जन्म-मृत्यु को प्राप्त नहीं होता । आगे श्वास से लेकर प्रत्येक क्रिया को प्रकृति में देखते हुए, स्वयं को निष्क्रिय देखने वाले कर्मयोगी का आत्मशुद्धि के निमित्त कर्म करना करना बताते हुए, जीवन मुक्त और अज्ञानी द्वारा उन्हीं कर्मों से बंधन प्राप्त होना बताते हुए, ब्रह्म प्राप्ति का सरल साधन बताया । परमेश्वर में समाहित चित्त होकर काम क्रोध से रहित होना बताया, जिसका सरल साधन नासा छिद्रों में विचारण करने वाली प्राण और अपान नामक वायु का नियंत्रण करके बाहरी संपूर्ण वृत्तियों को बाहर ही छोड़कर आज्ञा चक्र में स्थित होना बताया, जिससे संपूर्ण प्राणियों के सुहृद आत्मतत्त्व को जानकर नित्य शान्ति को प्राप्त कर लेता है । यह कहते हुए पंचम अध्याय को विश्राम देते हैं ।
षष्ठम अध्याय— छठे अध्याय में कर्मयोगी की प्रशंसा करते हुए संक्षिप्त संन्यास का स्वरूप वर्णन करते हुए आरुरुक्षु के लिए सबसे बड़ा साधन संपूर्ण संकल्प का त्याग बताते हुए मन पर विजय को पाने वाले को अपना ही मित्र और मन के वशीभूत को अपना ही शत्रु बताते हुए जगत से पूर्णतः नीरसता को प्राप्त हुए मन से सभी प्रकार के मानसिक संग्रह का त्याग करते हुए एकान्त स्थान में आहार, विहार, शयन आदि का ध्यान रखते हुए दीप न्याय से बिना उकताये धैर्य पूर्वक योग नामक दुःखों के संयोग का ही वियोग करने वाली आत्मविद्या के चिंतन में स्थिर हो जाने के लिए कहते हैं । पुनः संपूर्ण अनर्थों की जड़ संकल्प को को त्यागकर इन्द्रिय समूह पर अनुशासन करते हुए धीरे धीरे आत्मा अनात्मा का विवेक करने वाली बुद्धि का आश्रय लेकर मन को अनात्म पदार्थ से हटाकर आत्मस्वरूप में स्थित करके कुछ भी योगी चिंतन न करे ।
तथापि यदि पूर्व अभ्यास के कारण मन कहीं बाहर जाता भी है तो जहां कहीं मन विचरण करे, उस को वहीं आत्मा में ही लगा दे, यही उसके लिए अनुशासन होगा अर्थात सर्वत्र व्यापक आत्मा का दर्शन करे । इस प्रकार योगी रजोगुण से रहित होकर शान्त भाव में स्थित हुआ निर्विकार ब्राह्मीभाव को प्राप्त हो जाता है । वह वह स्वयं को ही शरीर की उपमा से सभी प्राणियों को मुझसे अभिन्न होकर देखता देखता है । जिस कारण से वह मुझसे और में उससे अभिन्न होने के कारण एक दूसरे से अदृश्य नहीं होते अर्थात आत्मा स्व से भिन्न कभी नहीं होती और मैं अहमर्थक रूप में सदैव अनुभव में प्रत्यक्ष रहता हूं । एक प्रकार एकत्व रूप से जानने वाला योगी प्रत्येक व्यवहार मुझसे अभिन्न होकर मुझमें ही सारे व्यवहार करता है ।
आगे अर्जुन ने अजितेन्द्रिय एवं किसी अज्ञात कारण से योगभ्रष्ट की प्राप्त होने वाली गति के विषय में जानने की इच्छा से कुछ प्रश्न करते हैं जिसका उत्तर भगवान पुनर्जन्म के माध्यम से उसका कल्याण होना निश्चित बताते हुए ऐसे कर्मयोगी को अपने से अभिन्न और श्रेष्ठ बताते हुए सकाम वैदिक कर्म करने वाले से निष्काम कर्मयोगी की श्रेष्ठता बताते हुए योगी बनने की आज्ञा प्रदान करते हैं । इस प्रकार बार बार श्रेष्ठ मार्ग पूछने का अर्जुन के अन्तिम प्रश्न अध्याय पांच का विवरण इस छठे अध्याय में विश्राम को प्राप्त होता है । अब यह प्रश्न गीता में दुबारा कहीं नहीं होगा ।
सप्तम अध्याय—अध्याय छः तक त्वम् पदार्थ विषयक उपदेश देकर भगवान अब यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आत्मा और अनात्मा का विवेक होगा कैसे ? कैसे मेरे स्वरूप का ज्ञान आत्मरूप से मैं जो हूं, जैसा, जिस स्वरूप वाला और जितना हूं, सगुण हूं या निराकार हूं, अथवा दोनों हूं ? मैं जीव से भिन्न हूं या अभिन्न हूं ? इत्यादि मेरे समग्र रूप अर्थात मेरे संपूर्ण भाव को कैसे जानेगा ? इन्हीं सभी उठने वाले प्रश्नों के समाधान के लिए ही सप्तम अध्याय का प्रारंभ करते हुए अपने समग्र रूप को ज्ञान यानी, आत्मा-अनात्मा, प्रकृति-पुरुष, जीव-ब्रह्म के स्वरूप को परोक्ष रूप से एवं विज्ञान अर्थात प्रत्यक्ष रूप में अनुभव और उसमें स्थित रूप से, जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है उस संशय रहित समग्र रूप के कथन की प्रतिज्ञा बिना अर्जुन की किसी जिज्ञासा या प्रश्न के ही करते हैं । यह समग्र रूप का कथन अध्याय १५/१९ का उपसंहार का बीज है ।
अब यदि कोई प्रश्न करे कि अर्जुन ने प्रश्न क्यों नहीं किया ? स्वयं ही श्रीकृष्ण बिना पूछे ही क्यों ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं ? क्या भगवान का यह मोह नहीं कहा जायेगा ? इसका उत्तर यह होगा कि जीव अल्पज्ञ है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ है, अथवा शिष्य अनुभवहीन अल्पज्ञ है और गुरु शिष्य की सभी कमियों को जानने वाला सर्वज्ञ है । अतः अल्पज्ञ जीव या शिष्य की अपनी एक सीमा होती है जिसके आगे उसके अन्दर प्रश्न उठते ही नहीं हैं । इस दशा में गुरु ही उन भविष्य में होने वाले प्रश्नों को स्वतः उठाये और उनका समाधान करे । प्रत्येक मनुष्य के अन्दर यह प्रश्न उठता है कि जीव ब्रह्म कैसे हो सकता है ? आपने अध्याय छः तक जीव को ब्रह्म सिद्ध करने में ही सारा का सारा परिश्रम लगा दिया है । ब्रह्म जीव एक है यह हम क्यों और कैसे मानें ? इनका समाधान करने वाला ही वास्तविक गुरु है । इस सप्तम अध्याय को ही ठीक से समझ लेने मात्र से आगे के संपूर्ण अध्यायों की समझ बलवान होगी क्योंकि अब तक जो उपदेश हुआ उसका एवं इस सप्तम अध्याय का ही आगे विवरण है अलग से अब कोई उपदेश आगे नहीं है ।
उपरोक्त उठने वाले सभी प्रश्नों के उत्तर देते समय सबसे पहले इस ज्ञान की दुर्लभता बताते हैं मनुष्याणां सहस्रेषु ७/३ से । फिर सांकेतिक पंचीकरण का कथन परा और अपरा प्रकृति के रूप में करते हुए संपूर्ण प्राणियों का निमित्तोपादान कारण ‘मैं’ के अर्थभूत ब्रह्म को बताते हैं । यहां पर जिसे अपरा और परा प्रकृति कहा गया है, इसी को अध्याय १३ के प्रथम श्लोक में अपरा प्रकृति को इदं और परा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है । जिसे यहां निमित्तोपादान कारण कहा गया है उसे ही वहां क्षेत्रज्ञ कहा गया है । इन्हीं दोनो प्रकृतियों को अध्याय १५ में क्षर पुरुष एवं अक्षर कूटस्थ पुरुष एवं निमित्तोपादान को ही उत्तम पुरुष कहा गया है । यह बात कभी नहीं भूलना चाहिए ।
यहां पर निमित्तोपादान जिसे कहा गया है, अध्याय १४ में इसका स्पष्टीकरण करण प्रकृति के गर्भाधान के रूप में किया गया है तथा दोनो प्रकृतियों से अपनी अभिन्नता दिखाने के लिए ही— मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ उदाहरण सहित कहा गया है । पश्चात दशम अध्याय के बीज रूप कुछ विभूतियों का वर्णन करते हुए चौदहवें अध्याय के बीज तीनो प्रकृति के गुणों से संपूर्ण चराचर जगत को व्याप्त बताते हुए उन गुणों से मोहित होने के कारण ही अविनाशी परमेश्वर को कोई भी गुणाधीन नहीं जानता, इसीलिए पहले ही तीनो गुणों से ऊपर उठने के लिए कह २/४५ चुके हैं, क्योंकि यह जो गुणों में दिखने वाली रमणीयता है यह परमेश्वर का आत्मरूप से आश्रय लिए बिना पार नहीं किया जा सकता है । वस्तुतः वही पुण्यकर्मा है जिसने आत्मस्वरूप जगन्नियन्ता का आश्रय ले लिया है इससे भिन्न कुकर्मी और पापी है, उसका परमेश्वर की माया अर्थात ऐन्द्रिक भोगों द्वारा आत्मा-अनात्मा का विवेक हरण कर लिया गया है वह आसुरी भाव को प्राप्त हो चुका है इस प्रकार अध्याय १६ के बीज का प्रत्यारोपण करके अब चार प्रकार के आर्त, जिज्ञासु, धन आदि ऐश्वर्य की कामना वाले एवं ज्ञानी भक्त का वर्णन करते हुए पहला और तीसरा छोड़कर दूसरे जिज्ञासु कोटि के भक्त को श्रेष्ठ बताते हुए ज्ञानी की आत्यंतिक प्रियता बताते हुए अपना स्वरूप ही बता दिया— ज्ञानीत्वामैव मे मतम् ७/१८ जिसका कारण बताया कि वह अनेकों जन्म निरंतर अभ्यास करके— वासुदेवः सर्वम् ७/१९ अर्थात में समग्र स्वरूप को जानकर व्यापकता को प्राप्त दुर्लभ ज्ञानी है ।
इस प्रकार ज्ञानी की दुर्लभता और स्तुति करके कामनाओं से प्रेरित नाशवान फल की कामना करने वालों को अल्पबुद्धि बताते हुए कहते हैं—
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥९/२४।।
मुझ अविनाशी अनुत्तम के परम भाव को न जानने वाले अर्थात मैं अनुत्तम हूं, मुझसे बढ़कर कोई श्रेष्ठ नहीं है, ऐसा जो मेरा परं भाव है अर्थात जिसे आप सत कहते हो तो वह भी उत्तम नहीं है क्योंकि असत मुझसे भिन्न नहीं है और यदि असत कहोगे तो बिना मुझ सद्भाव के असत् आयेगा कहां से ? अतः वह मेरा स्वरूप न सत्तन्नासदुच्यते १३/१२ है । उस असत् की सत्ता मुझसे से और इन्द्रियों (शुद्धि बुद्धि के विवेक) द्वारा सत्स्वरूप जानने मे़ भी आता हूं अतः सदसच्चाहम् ९/१९ । अतः जो मुझे केवल अव्यक्त अर्थात निर्गुण निराकार मानते हैं और जो मुझे साधारण स्त्री-पुरुषों के काम भाव से उत्पन्न साधारण मनुष्य, अथवा मात्र सगुण साकार, संपूर्ण प्राणियों की आत्मा रूप में न देखते हुए मात्र मूर्ति आदि में ही देखते हैं अर्थात मानते हैं, ऐसे दोनो ही अबुद्धयः अर्थात बुद्धिहीन हैं । उनको विवेक है ही नहीं । ऐसे मूढात्माओं को परमेश्वर तत्त्व भी भी जानने में नहीं आता है । ये लोग इच्छा और द्वेष के भलीभांति आधीन हुए जन्म-मृत्यु को ही प्राप्त होते रहते हैं । इसका स्पष्टीकरण अध्याय १६ में होगा ।
इससे भिन्न परमेश्वर तत्त्व को समग्र रूप से द्वन्द्व मोह से रहित होकर जो मुझ आत्मस्वरूप में दृढ व्रती अर्थात दृढ़ता पूर्वक स्थित हो गये हैं वे ही प्रयत्न पूर्वक संपूर्ण कर्म और अध्यात्म के रहस्य को पूर्णतः जान लेने वाले ब्रह्मवित् हैं । यह प्रयत्न यदि मृत्यु काल में भी अधिभूत अर्थात तमोगुण प्रधान जगत का आकाश से लेकर पृथ्वी या शरीर तक तमोगुण के कार्य, अधिदैव अर्थात सूक्ष्म शरीर से लेकर हिरण्यगर्भ पर्यन्त चेष्टाएं जहां तक हैं वहां तक का रजोगुण का कार्य, और इन सब पर अनुग्रह करने वाला अधियज्ञ अर्थात कारण शरीर या समष्टि जगत पर अनुग्रह करने वाले सत्वगुण प्रधान विष्णु अर्थात सत्त्वगुण के कार्य सहित त्रिविध गुणों से संपन्न शब्दादि पंच विषयों के स्थूल, सूक्ष्म एवं उसके कारण को जानकर जो इन गुणों से अभिन्न किन्तु इन गुणों पर भी अनुशासन करने वाला निर्विकार परमेश्वर को जो जानता है वही परमेश्वर से अभिन्न चित्तवाला ही आत्मतत्त्व को जानने वाला अर्थात प्राप्त करने वाला है । अर्थात वासुदेवः सर्वम् के अन्तर्गत अपने सहित सब जड़ चेतन जगत को जैसा है और जो है उस संपूर्ण जगत की उत्पत्ति, स्थिरता और नाश तीनो अवस्थाओं में भी परमेश्वर तत्त्व को जानकर उससे निर्लिप्त निर्विकार आत्मस्वरूप जानने वाले ही परमेश्वर तत्त्व को जानता है, वही मोक्ष का अधिकारी है, परमेश्वर तत्त्व उसी के प्रकाश में समग्र रूप से आता है, केवल हठधर्मिता का आश्रय लेने वाले निराकार या साकार उपासक उसे जान ही नहीं सकते हैं यह भाव है । इस प्रकार सप्तम् अध्याय का विश्राम हुआ ।
अष्टम अध्याय—सप्तम अध्याय के अन्तिम दो श्लोक सुनते ही अर्जुन के मन में अध्यात्म आदि को लेकर कुछ प्रश्न उपस्थित हो गये जिनके पूछने पर भगवान ने अक्षर तो एक मात्र परमब्रह्म ही है {अन्य प्रकृति आदि तो अक्षर तब तक हैं जब तक तात्त्विक ज्ञान नहीं हो जाता} । परमेश्वर का जो अहमर्थक स्वभाव है वही अध्यात्म है । प्राणियों के उत्थान के उत्थान के लिए निरपेक्ष भाव से किया गया पंचमहायज्ञ,पार्जन्य आदि यज्ञ के रूप में किया गया त्याग ही त्याग है । संपूर्ण जगत में क्षरण भाव अर्थात विनाश एवं परिवर्तन शील पदार्थ या भाव ही अधिभूत है । इन सभी शरीरों में कूटभाव से स्थित पुरुष संज्ञक व्यष्टि में जीव अथवा समष्टि में हिरण्यगर्भ ही अधिदैव है । इसमें अधियज्ञ यानी तामस और राजस को भी सत्ता प्रदान करने वाला अधियज्ञ विष्णु मैं स्वयं हूं एवं अन्तकाल में शरीर का त्याग करते समय मेरा ही स्मरण करके शरीर त्यागने वाला मुझको ही प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है अर्थात तामस, राजस और सात्विक भावों से जो ऊपर है निर्विशेष ब्रह्मस्वरूप आत्म भाव का स्मरण ही अन्त में यहां अपेक्षित है । इस प्रकार सात प्रश्नोंं के सातों उत्तर देकर आगे यह बताते हैं कि जीव की गति क्या होगी इसका निर्णय जीवन भर किया गया कर्म नहीं बल्कि अन्तिम समय में वह किस भाव को प्राप्त हो रहा है उसी भाव के अनुसार उसकी गति होती है । अतः अभ्यास ऐसा करना चाहिए कि निरंतर उस एक आत्मतत्त्व के रूप में स्थित निर्विशेष परमतत्व का स्मरण बना रहे क्योंकि जैसा जीवन भर अभ्यास किया जायेगा वही अन्तिम समय की वृत्ति निश्चित ही बनेगी ।
अन्तिम समम में किसका और किस प्रकार स्मरण करना चाहिए इसके लिए आठ लक्षणों वाले परमेश्वर तत्त्व का वर्णन करते हुए वीतरागियों द्वारा चिन्तनीय, जिसमें प्रवेश करके समुद्र में नदी की तरह अभिन्नता को प्राप्त होगा उसी का ओंकार रूप में स्मरण करता हुआ सहस्रसार में प्राणों को स्थिर करके शरीर का त्याग करने वाले की परमगति का वर्णन करते हुए ब्रह्मलोक पर्यन्त जगत की नश्वरता का वैराग्य के निमित्त से वर्णन करते हुए जिसमें संपूर्ण जगत स्थित है, उस विराट पुरुष में अनन्य अर्थात अभिन्न भाव से स्थित हुआ परमप्रकाश स्वरूप मोक्ष रूपता को प्राप्त होना बताते हैं ।
अन्त में अर्चि (शुक्ल) मार्ग और कृष्ण मार्ग के वर्णन के माध्यम से ज्ञानमार्ग का आश्रय लेने वाले का मोक्ष और कर्ममार्ग का आश्रय लेने वाले का संसार में पुनरागमन का उल्लेख करते हुए संपूर्ण वेदाध्ययन,यज्ञ,दान,तप आदि से जो पुण्य फल होता है उनकी अनित्यता का स्मरण करके ज्ञानयोगी के द्वारा उनका उल्लंघन करके परम पद प्राप्ति बताते हुए अष्टम अध्याय को विश्राम देते हैं ।
नवम अध्याय—अब सप्तम अध्याय में की गई ज्ञान-विज्ञान की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए इस नवम् अध्याय का प्रारंभ करते हुए इस ब्रह्मविद्या की आत्यंतिक गोपनीयता का वर्णन करते हुए इस ज्ञान के प्रति श्रद्धा रहित की मुक्ति का न होना, ईश्वर की व्याप्ति, एवं माया के ऐश्वर्य को जानने के लिए कहते हुए अपनी अध्यक्षता में अर्थात ब्रह्मसत्ता के आश्रित प्रकृति की सृष्टि का वर्णन करते हुए अज्ञानी के अविज्ञेय मोहिनी अर्थात राजसी तामसी गुणों का आश्रय लेने वाले के जीवन की निरर्थकता बताकर, दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले साधक के, ज्ञानयज्ञ, जीव-ब्रह्म की एकता की उपासना का वर्णन करते हैं । अपनी कुछ विभूतियों के वर्णन में पहली विभूति में कहते हैं अहं क्रतुः — क्रतु का अर्थ होता यज्ञ प्रारंभ करने से पहले का संकल्प । अध्याय छः में अशेष संकल्प का त्याग बताया था और यहां स्वयं को यज्ञ का संकल्प बताते हैं । इस तात्पर्य यह हुआ कि जो समाज के लिए निरपेक्ष भाव से किया जाने वाला त्याग उसका दृढ़ संकल्प भगवान ही हैं, अथवा जीव-ब्रह्म की एकता का संकल्प भी ब्रह्म ही है, इसीलिए कहा ब्रह्मभूयाय कल्पते १८/५३ अर्थात सत संकल्प परमात्मा ही है और असत अर्थात संसार के प्रति किया जाने वाला संकल्प बंधन का हेतु है । आगे अनन्य चिन्तन करने वाले की परमेश्वर की प्राप्ति में बाधाओं को दूर करते हुए उसकी प्राप्ति कराने की जिम्मेदारी स्वयं उन्हीं की है— योगक्षेमं वहाम्यहम् ९/२२ परमेश्वर की उपासना का एक ही विधान है श्रद्धा, उस श्रद्धा से ही साधक का कल्याण हो जाता है । पत्र, पुष्प आदि के माध्यम से श्रद्धा समर्पित होकर लेना, देना, खाना, पीना करना आदि संपूर्ण शुभाशुभ क्रियाओं को उसमें समर्पित करके अत्यंत दुराचारी, स्त्री, शूद्र, आदि भी शीघ्र ज्ञानी होकर परम गति को पाने का साधन तन मन धन से परमेश्वर से अभिन्न होकर प्रत्येक चेष्टाएं उसमें समर्पित होने के कारण वह भी परमेश्वर से अभिन्न मोक्ष को प्राप्त होता है, यह बताकर नवम् अध्याय का विश्राम करते हैं ।
दशम् अध्याय— दशम् अध्याय में अपनी दुर्विज्ञेयता बताते हुए आत्मा अनात्मा का विवेक रखने वाले शम दमादि संपन्न को, जिसकी प्रत्येक श्वास, प्रत्येक चेष्टा परमेश्वर के अर्पित हो चुकी है उस निरंतर एकरस परमेश्वर में समाहित मुमुक्षु को अपनी कृपा से ही हृदय में अज्ञानांधकार को नाश करने के लिए ज्ञान रूपी दीपक के रूप में हृदय में ही प्रकट हो जाते हैं और मोक्ष का साधन ज्ञानयोग प्रदान कर देते हैं । पश्चात अर्जुन की स्तुति और आग्रह से प्रसन्न होकर अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए यह बताते हैं कि संपूर्ण जगत में जहां कहीं नहीं अपने से अधिक बल, ऐश्वर्य दिखायी दे वह अन्य कोई नहीं बल्कि साक्षात मैं ही हूं । अथवा यह जानो कि संपूर्ण जगत ही मेरे एक अंश में मुझसे अभिन्न स्थित है । यह कहते हुए इस अध्याय को विश्राम मिलता है । गीता का यह जीव-ब्रह्म की एकता का जीता जागता प्रमाण है ।
एकादश अध्याय—अध्याय ग्यारह में अर्जुन के द्वारा युद्ध संबंधित मोह के नष्ट होने की बात कहते हुए विश्वरूप दर्शन की इच्छा प्रकट करना और उसका दर्शन करना, इस प्रकार के विराट स्वरूप की दुर्लभता का कथन करते हुए अभिन्न भक्ति द्वारा आचार्यों से परोक्ष जानकर पुनः उसका अभिन्न अनुभव करके उसमें प्रवेश करके परमतत्त्व की विशालता को समझ, या अनुभव कर पाने में समर्थ होना बताते हुए प्रकृति के गुणसंसर्ग अर्थात आसक्ति से रहित होकर संपूर्ण प्राणियों में आत्मवत् मैत्री वाले को ही परमेश्वर की प्राप्ति कहते हुए अध्याय को विश्राम देते हैं ।
द्वादश अध्याय— अध्याय बारह में निर्गुण निराकार के उपासक और सगुण साकार के उपासकों में श्रेष्ठता के प्रश्न पर सगुणोपासक की परम श्रद्धा से युक्त अनन्य भाव वाले की स्तुति करते हुए उसे श्रेष्ठ बताना और ज्ञानी की महिमा का वर्णन, जितेन्द्रिय को ही मोक्ष की प्राप्ति बताते हुए, अजितेन्द्रिय अव्यक्तोपासक के द्वारा उसकी अप्राप्ति और दुःखद गति का वर्णन करते हुए, अनन्य भाव से संपूर्ण कर्मों को परमेश्वर में अर्पित करने वाले का शीघ्र उद्धार करने की प्रतिज्ञा करते हुए ब्रह्म की प्राप्ति के चार साधन कहते हुए सर्वकर्मफलत्याग की महिमा का वर्णन करते हुए ज्ञानी के सहज स्वभाव का वर्णन करके, ज्ञानी के सहज स्वभाव को ही नित्य ज्ञानस्वरूप समझकर उनका अनुष्ठान करने वाले को अत्यंत प्रिय बताते हुए इस अध्याय को विश्राम देते है ।
त्रयोदश अध्याय— अध्याय सात की अपरा और परा प्रकृति को अध्याय तेरह के प्रथम श्लोक में कहते हुए दूसरे श्लोक में अपने साथ अभिन्नता का कथन करते हुए संक्षेप में पंचीकरण का क्षेत्र रूप में वर्णन करते हैं । फिर ज्ञान के साधनों का वर्णन करते हुए अध्यात्म ज्ञान को ही ज्ञान कहते हुए, इससे भिन्न को अज्ञान बताकर, प्रत्यगात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए, सबके हृदय में स्थित ज्योतियों की भी ज्योति आत्मा के प्रभाव का कथन करते हुए, आत्मा के बंध और मुक्ति का कारण सहित वर्णन करते हुए, जिनका आत्मा-अनात्मा का विवेक नष्ट नहीं हुआ है वे ध्यान आदि के द्वारा उस आत्मा को प्रकृति से भिन्न करके जानते हैं यह बताते हुए आकाश, सूर्य की भांति सभी प्राणियों के शरीर में ही पृथक-पृथक दिखते हुए भी एक आत्मा को देखने वाले की ब्रह्मरूपता की प्राप्ति बताते हुए, विवेक द्वारा क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के विभाग को जानने वाले का ही प्रकृति के गुणधर्म से मुक्त होकर परम पद प्राप्त करना सुनिश्चित किया ।
चतुर्दश अध्याय— अध्याय सात में जो प्रकृति से संपूर्ण जगत व्याप्त बताते हुए सब उस परमेश्वर ही त्रिगुणात्मक जगत बताया था, उसी त्रिगुणात्मक जगत का वर्णन इस चतुर्दश अध्याय में करते हूए प्रकृति के गर्भाधान और प्राणियों की उत्पत्ति एवं प्रकृति के गुणों का अलग अलग प्रभाव बताते हुए उनका आश्रय लेने वाले की गति का वर्णन किया । इन गुणों को पार करने वाले को ही जन्मादि पार करके मोक्ष प्राप्त करना, अर्जुन के पूछने पर त्रिगुणातीत के लक्षण एवं उससे ऊपर उठने का साधन बताते हुए ब्रह्म का ज्ञान, ब्रह्म एक रस आनन्द सब अहं के अर्थ से अभिन्न बताकर अध्याय को विश्राम दिया ।
पञ्चदश अध्याय— अध्याय सात में ही अपरा और परा एवं निमित्तोपादान कारण बताया था, उसी के विस्तार के लिए अश्वत्थ वृक्ष का रूपक देकर संसार के नश्वर स्वरूप को समझाते हुए बिना ज्ञान के उसका नाश न होना बतारते हुए असंग शास्त्र के द्वारा ही इस वृक्ष का नाश होना बताते हुए, नित्य अध्यात्म साधनों में निर्द्वान्द्व लगे हुए की अव्यय आत्मपद की प्राप्ति उसकी महिमा का वर्णन किया । परमेश्वर के सनातन अंश के शरीर छोड़ने और ग्रहण करने की स्थित में भी जितेन्द्रिय ज्ञानी द्वारा उसे एक रस देखा जाना, अजितेन्द्रिय के का न देखा जाना, आत्मा की सूर्यादि के दृष्टांत से महिमा का कथन करने के पश्चात हृदयस्थ परमेश्वर का ही स्मृति और ज्ञान प्रदान करना एवं उसका नाश होना, संपूर्ण वेदों द्वारा परमेश्वर ही जानने योग्य, वेदान्त अर्थात ज्ञान मार्ग का प्रारंभ करना अर्थात वेदान्त की संप्रदाय परंपरा चलाना क्योंकि वे परमेश्वर ही वेद के तात्पर्य को जानने वाले हैं । आगे अपरा प्रकृति को क्षर और परा प्रकृति को अविनाशी कूटस्थ पुरुष एवं स्वयं को पुरुषोत्तम, इस तरह तीन प्रकार के पुरुषों का वर्णन करते हुए विवेकशील द्वारा परमेश्वर के अधिभूत, अधिदैव एवं अधियज्ञ सहित स्वरूपतः जानकर सर्वभाव से जानने के लिए यह गोपनीय शास्त्र कहा ।
षोडश अध्याय— अध्यात्म सोलह में दैवी संपत्ति का संक्षेप एवं आसुर भाव का विस्तार करते हुए बताया कि जिनकी मुक्ति निश्चित होती है वही दैवी संपत्ति एवं जिन्हें संसार चक्र में भटकना होता वे आसुर भाव को लेकर उत्पन्न होते हैं । आसुर भाव वालों की गति नरकादि का वर्णन करके, नरकादि प्राप्ति के काम, क्रोध और लोभ तीन साधनों का त्याग करने वाले की परम उत्तम गति अर्थात मोक्ष का वर्णन करते हैं । शास्त्र विधि का त्याग करने वाले की दुर्गति का वर्णन करते हुए शास्त्र प्रमाण से ही कर्म करने की आज्ञा देते हुए अध्याय को विश्राम दिया ।
अर्जुन ने अध्याय नौ में परमेश्वर की प्राप्ति के साधन की एक ही विधि सुनी थी श्रद्धा, जबकि यहां शास्त्र बीच में आ गया । अतः अर्जुन प्रश्न करता है कि जिनको शास्त्र का ज्ञान ही नहीं वे आपकी आत्यंतिक श्रद्धा से उपासक सात्त्विक राजस तामस क्या हैं ? इस जन्म और संगति आदि से निर्मित स्वभाव को ही कारण मानते हुए अशास्त्रीय तप की निंदा करते हुए, आहार, यज्ञ, तप, दान के तीन तीन गुण आधारित भेदों का वर्णन किया और अन्त में यह बताया कि शास्त्र विधि तो होना ही चाहिए तथापि वहां भी त्रुटि संभव है जिसके दोष निवारण हेतु ॐ तत् सत्— इन तीन नामों का आश्रय लेने को कहा अर्थात विधि तो करो उसमें भी सात्त्विका श्रद्धा की प्रधानता हो तो वह कार्य निर्दोष फलदायी हो जाता है ।
अष्टादश अध्याय— अर्जुन बारंबार यह पूछते रहे हैं कि ज्ञान और कर्म में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है ? अध्याय छः में भक्त यानी कर्मयोगी और अध्याय बारह में भी कर्मयोगी को ही श्रेष्ठ कहा था, किन्तु किसी भी प्रसंग के अन्तिम लक्ष्य ज्ञानयोग अर्थात सर्वकर्म संन्यास ही सर्वत्र कहा गया । जबकि कर्मी के लिए हमेशा कर्मफल का त्याग ही कहा गया । अध्याय आठ में त्याग की भी परिभाषा की गई थी कि जो प्राणियों के उत्थान के उद्देश्य से त्याग किया जाता है वास्तविक त्याग वही है अन्य नहीं । किन्तु अर्जुन को यह सब एक पहेली जैसा ही लगा । अतः अर्जुन द्वारा— ज्यायसी चेत्कर्मणास्ते मता बुद्धिर्जनादन ३/१ अर्थात यदि आप कर्म को श्रेष्ठ मानते हैं तो घोर कर्म में क्यों लगाते हो ? इस प्रश्न को अब पुनः परिवर्तन करके पूछते हैं कि ठीक संन्यास की महामहिमा है, कर्मी के कर्मफल त्याग की बड़ी महिमा है । दोनो ही महिमान्वित हैं, अतः अब आप यह न बताएं कि दोनो में कौन श्रेष्ठ है, बल्कि यह बताएं संन्यास और त्याग को तात्त्विक स्वरूप बताएं कि कर्म का त्याग करना है या नहीं ? और उसके फल त्याग का अन्तिम फल क्या होगा ? और संन्यास अर्थात सर्वकर्म संन्यास का स्वरूप भी तात्त्विक रूप से कहें ।
इस पर भगवान विभिन्न मतों को प्रस्तुत करते हुए यह सुनिश्चित करते हुए अपना मत कहते हैं कि यज्ञ, दान, तप आदि वैदिक और स्मार्त कर्मों का जब तक राग द्वेष है तब तक किसी भी दशा में त्याग नहीं करना चाहिए । यही कर्म का तात्त्विक स्वरूप है । कब त्याग करना चाहिए ? कहते हैं जब संशय रहित यानी द्वैत-अद्वैत नामक संशय का नाश हो जाये अर्थात अद्वैत निष्ठा पूर्णतः परिपक्व हो जाये और शुभाशुभ कर्मों के प्रति राग द्वेष नष्ट हो जाये तब सर्वकर्म संन्यास करना चाहिए । यह त्याग का तात्त्विक स्वरूप है । यह स्थिति देहाभिमान रखने वाले किसी भी देहधारी के लिए संभव नहीं है कि वह संपूर्ण कर्मों का स्वरूप से ही त्याग कर दे । आगे इष्ट अनिष्ट और मिले-जुले तीन प्रकार का फल कर्मियों को प्राप्त ही होते हैं जबकि संन्यास स्वरूप से ही कर्म त्याग के कारण उसके कर्मफल उसे नहीं मिलते, यह बताते हुए कर्म के पांच हेतुओं का ज्ञान के द्वारा का नाश होना बताते हुए यह बताते हैं कि सर्वकर्म संन्यासी को कर्मफल क्यों नहीं बांधते ? कहते हैं यद्यपि सर्वकर्म संन्यासी भी कर्म करता हुआ दिखता है तथापि जिसकी बुद्धि में कृत कर्म का अहं भाव नहीं होता है, अनुकूल एवं प्रतिकूल कर्मों से लिप्त नहीं होती अर्थात हर्ष और शोक नहीं होता है क्योंकि वह संपूर्ण कर्म प्रकृति में ही देखता है और स्वयं को प्रकृति से विलक्षण निर्विकार, निष्क्रिय मानता है इसलिए वह संपूर्ण संसार को मार कर भी न किसी को मारता है और न उसके फलस्वरूप जन्मादि के बंधन में ही बंधता है अर्थात सदैव वह मुक्त ही रहता है । यह संन्यास का स्वरूप समझा दिया ।
आगे कर्म की ज्ञान, ज्ञेय और उसे जानने वाला (मायोपाधिक जीव) इन तीन प्रेरणाओं एवं करण, कर्म और कर्ता ये तीन कर्म प्रेरणा को मूर्त रूप देने वाले गुण भेद से तीन तीन प्रकार से सांख्य अर्थात वेदान्त प्रतिपादित ज्ञानयोग की दृष्टि से आगे वर्णन करते हैं, जिसका सात्त्विक भाव पहले ज्ञान का बताते हैं कि सात्त्विक ज्ञान क्या है जिसे ग्रहण करना चाहिए—
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।।१८/२०।।
विभक्त रूप से दिखते हुए संपूर्ण प्राणियों में जिस वृत्ति से अखंड अविनाशी एक सत्ता को देखा जाता है उसी वृत्ति को सात्त्विक ज्ञान जान ।
इसी प्रकार उपरोक्त सभी का वर्णन सात्त्विक आदि रूप से करते हुए कहते हैं —
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।१८/३०।।
प्रवृत्ति अर्थात कर्म के स्वरूप एवं उसके तात्पर्य को, निवृत्ति यानी सर्वकर्म संन्यास के स्वरूप एवं उसके संशय रहित लक्ष्य को, किये जाने वाले शास्त्रीय निष्काम कर्म और और सकाम कर्म से प्राप्त होने वाले निर्भय पद, एवं जन्म आदि भय प्रदान करने वाले दुःखद स्वरूप को, संसार में बांधने वाले एवं संसार से मुक्त करने वाले अनात्म एवं आत्म पदार्थ को जिस वृत्ति से जानते हैं वह वृत्ति सात्त्विक बुद्धि जाननी चाहिए । इसी प्रकार धृति एवं सुख का भी त्रिविध वर्णन करते हुए पृथ्वी से देकर द्युलोक पर्यंत समस्त प्राणियों को त्रिगुणात्मक बताते हुए ब्राह्मणादि का परिचय गुणों के आधार पर देते हुए कहते हैं कि यदि उनमें वे गुण हों तो ही उन्हें वह जानना चाहिए, अन्यथा जहां वे गुण हों उस आधार पर उन्हें वह मानना चाहिए ।
ब्राह्मणादि के जो स्वाभाविक गुण जिसमें भी हों उन्हीं गुणों से स्वाभाविक होने वाली चेष्टाओं द्वारा जिससे समस्त चेष्टाएं हो रही हैं जिससे संपूर्ण जगत व्याप्त है उसकी उपासना करके मनुष्य चित्तशुद्धि रूप सिद्धि को मनुष्य प्राप्त कर लेता है । ये स्वाभाविक कर्म की चेष्टा ही कर्तव्य परायण होकर करना दूसरे की गुणवान अपेक्षा गुण रहित अपना कर्त्तव्य पालन श्रेष्ठ है, क्योंकि अग्नि में धुंवा से संबंध न रखकर मात्र अग्नि संबंध से अपने अग्निहोत्र आदि कर्म कर लेते हैं, वैसे ही हमें हमारी चित्तशुद्धि हमारे उन्हीं स्वाभाविक क्रियाओं से ही होगी उतने मात्र से हमारा संबंध है । तथापि यह पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत सर्वत्र चौदह इन्द्रियों को जीतकर, इच्छा रहित, बुद्धि के द्वारा आसक्ति रहित होकर आत्मा-अनात्मा के विवेक पूर्वक करने पर ही नैष्कर्म्य सिद्धि अर्थात चित्तशुद्धि प्राप्त होगी । चित्तशुद्धि के पश्चात ध्यान आदि साधनों द्वारा सीमित अहंता को व्यापक अहंता में विलय करके, बाह्य साधन विषयक बल, काम, क्रोध और स्वरूप से ही संग्रह का त्याग करके ब्रह्म से अभिन्न होने का संकल्प लेते हुए हर्ष शोक से रहित हुआ पराभक्ति अर्थात प्रकृति से परे एक मात्र आत्मनिष्ठा में स्थित होकर मैं जो हूं, जैसा और जितना हूं मुझे तत्त्वतः जानकर मुझमें प्रवेश कर जाता अर्थात मुझसे अभिन्न हो जाता है । इस प्रकार जीते जी अभिन्नता को प्राप्त ज्ञान योगी आत्मप्रसाद से अविनाशी शाश्वत पद प्राप्त कर लेता है । अतः कर्म का केवल मन से ज्ञानयोग का आश्रय लेकर मुझमें त्यागकर बाह्य कर्म करता हुआ निरंतर मुझमें चित्तवाला अर्थात अभिन्न भाव वाला हो जा ।
यहां तक अर्जुन के प्रश्न त्याग का फल चित्तशुद्धि एवं सर्वकर्म संन्यास का फल जीव-ब्रह्म की एकता बताया । अब कोई प्रमादवश कर्म में पतन को प्राप्त न हो इसके लिए भय नीति का आश्रय लेते हुए कहते हैं कि मुझसे अभिन्न चित्त होकर सभी कर्म मुझ परमेश्वर में ही करने के कारण मेरी कृपा से सभी दुर्गुणों को पार कर जायेगा अर्थात जैसा मुझ सर्वेश्वर ने कहा वैसा का वैसा ही मेरा कहा हुआ करने वाला सभी पुण्य और पापों को पार कर जायेगा किन्तु जो मेरी बात नहीं मानेगा वह नष्ट हो जायेगा अर्थात नरकादि में जाना निश्चित है । यदि कोई परमेश्वर की गीतोक्त आज्ञा का अहंकारवश पालन नहीं करता है तो प्रकृति उसका नियंत्रण करके उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार करवा ही लेगी, क्योंकि सबके शरीर रूप यंत्र वही बुद्धि में बैठकर अपनी माया के द्वारा नियंत्रण कर रहा है । वह स्मृति और ज्ञान प्रदान करने वाला है तो कुबुद्धि रूप में उसका नाश भी करने वाला है १५/१५ यही उसकी माया है । इसलिए उस मायापति की शरण में जाकर उसी की प्रसन्नता को प्राप्त करके माया को पार करके नित्य शान्ति को प्राप्त करना चाहिए ।
यह सबसे अधिक गोपनीय तथ्य भगवान ने कहा है । भलीभांति विचार करके उसके अनुसार जो भी नर्क या मोक्षमार्ग पसंद हो उसके अनुसार आचरण कर ।
भगवान पुनः अपने भक्तों को लक्ष्य करके संपूर्ण गीता का सार कहते हैं कि मेरे समग्र रूप को समग्र रूप से नमस्कार कर, कर्तव्य पालन रूप यज्ञों द्वारा मेरा पूजन कर, सगुण निराकार रूप में मेरी मानसिक उपासना करते हुए मुझसे अभिन्न मन वाला हो जा, मैं सत्य कहता हूं कि तू मुझ निर्विशेष ब्रह्म को ही प्राप्त होगा । अवथा सभी अनात्म पदार्थ का त्यागकर एक मात्र अहमर्थक आत्मपदार्थ की शरण ग्रहण कर अर्थात स्वयं से स्यवं में असंग होकर स्थित हो जा, मैं स्वयं आत्मरूप में स्थित हुआ तेरे सभी पुण्य और पापों का नाश कर दूंगा, इसमें शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है—
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।१०/११।।
यह जो भगवान की प्रतिज्ञा है उसे भगवान हर उस अपने भक्त की पूरी कर देते हैं जो भी आत्मा यानी स्वयं से अभिन्न परमेश्वर को देखता है । पुण्य पाप का नाश तो ज्ञान से ही होता है इसलिए हृदय में आत्मा अनात्मा का विवेक रूप प्रकाश कर देना ही पापों के नाश का साधन प्राप्त करा देना ही योगक्षेमं वहाम्यहम् है । इसके पश्चात जो आत्मन्येवात्मना तुष्टः है वही आत्मवान् २/४५ में बताया गया उपक्रम का लक्ष्य है ।
यहां पर श्रीभगवान ने जो ‘माम्’ शब्द का प्रयोग किया है वह ‘तमेव’ १८/६२ के अर्थ में है । क्योंकि सबके हृदय में जो स्थित परमेश्वर है जो माया यानी संपूर्ण जगत को नचाने वाली माया का स्वामी है वह परमेश्वर और कोई नहीं बल्कि मैं ही हूं ‘अहमात्मा गुडाकेश’ १०/२० मुझ सगुण साकार की अनन्य भाव से अन्य भावों को त्यागकर शारण ग्रहण कर ले यह मंद, अतिमंद साधकों के लिए समझना चाहिए । भविष्य में अहमर्थक मुझ ईश्वर की कृपा से सभी कल्मष दूर होकर मुझे ही प्राप्त होगा अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः १८/६६ ।
अथवा उत्तम अधिकारी की दृष्टि से नैष्कर्म्य सिद्धि के पश्चात जिस परमतत्व में प्रवेश करने की बात कही गई है १८/५५ उसी आत्मस्वरूप का वर्णन तमेव शरणं गच्च १८/६२ कहकर यहां पर यहां दिखाया है कि वह आत्मा और कोई ‘माम्’ अर्थात ‘मैं’ अर्थ प्रयुक्त होने वाला क्षेत्रज्ञ १३/२, आत्मा १०/२० ही है जैसा कि अध्याय १४/२६ में कहा कि जो अव्यभिचारिणी आत्मनिष्ठा से अहमर्थक आत्मा को जानता है वह तीनो गुणों से अतीत ब्रह्म को प्राप्त करने में समर्थ होता है अर्थात अपरिच्छिन्न एकमेवाद्वीयम् में स्थित होने में समर्थ होता है । इस शंका निवारण करते हुए बताया कि ब्रह्म, ज्ञान, ऐकान्तिक सुख अर्थात एक मात्र अद्वय सत्ता का अनुभव, मोक्ष, नित्यत्व और अविनाशित्व अहं के अर्थ में ही कल्पित है । ठीक उसी प्रकार यहां पर पहले ‘तमेव शरणं गच्छ’ कहकर फिर ‘मामेकं शरणं ब्रज’ में तत् पदार्थ की त्वम् पदार्थ से एकता का प्रतिपादन करते हुए अशेष अनात्म पदार्थ का त्यागकर सर्वभावेन १८/६२, १५/१९ अर्थात सब प्रकार से आत्मपदार्थ में स्थित हो जाने का आदेश देते हैं । यही एकत्व भाव जीव और ब्रह्म नामक नाम रूप कल्मष को जलाकर ‘अस्मि’ पद का जीते जी अनुभव कराते हुए शरीरपात होने पर ‘असि’ पद में हो जाता है । जो कहा था तत्त्वेन प्रवेष्टम् ११/५४, विशते तदनन्तरम् १८/५५ उसी को यहां मामेकम् में विनियोग कर दिया । यही गीता का केवलाद्वैत । इस प्रकार सामवेद के महावाक्य तत्त्वमसि का गीता के रूप में भागवन श्रीकृष्ण ने वर्णन किया ।
इस प्रकार आत्मा अनात्मा का विवेक कराकर ‘असि’ मात्र सत्ता का प्रतिपादन करके गीता के अधिकारी एवं गीता के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए अर्जुन की स्थिति जानना चाहा तो अर्जुन ने जैसे पहले कहा था मोहोऽयं विगतो मम ११/१ अर्थात यह जो मेरा युद्ध विषयक मोह उत्पन्न हुआ था वह नष्ट हो गया । सचेताः प्रकृतिं गतः ११/५१ यहां पर भी प्रकृति का अर्थ मोह है अर्थात मोह के कारण जो मैं अचेत हो गया था, अब वह मोह नष्ट हो गया है अतः अब सचेत हो गया हूं यानी युद्ध विषयक कारयता नष्ट हो गई है और अपने कर्तव्य के प्रति सावधान हो गया हूं, इह प्रकार जो कहा था ठीक वैसा ही उत्तर यहां देते हैं—
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।१८/७३।।
यहां पर भी ठीक अध्याय ग्यारह के अनुसार ही शब्द शैली है । जिससे अर्जुन को आत्मा-अनात्मा का ज्ञान प्राप्त हुआ यह अर्जुन और श्रीकृष्ण जानें, किन्तु शब्द शैली के अनुसार मोह युद्ध विषयक ही नष्ट हुआ है न कि आत्मा-अनात्मा विषयक ।
इस प्रकार संपूर्ण गीता का उपसंहार करते हुए संजय जैसा कि धृतराष्ट्र ने धर्मक्षेत्र को निमित्त बनाकर प्रश्न किया था उसी के अनुसार उत्तर देते हुए कहते हैं कि जहां योगेश्वर कृष्ण हैं और धनुर्धर अर्जुन हैं वहीं विजय रूप लक्ष्मी एवं ऐश्वर्य है यही मेरी नीति है । मेरी नीति का अर्थ यह है कि वहां जो कुछ होना था वह हो गया लेकिन मेरा निश्चय है कि विजय पाण्डवों की निश्चित है, यह कहते हुए मानो संजय कह रहे हैं कि अभी भी समय है और आप भी धर्म के ज्ञाता हो, अतः धर्म का आश्रय लेकर सन्धि करके बची हुई संतति की रक्षा आप स्वयं भी कर सकते हो । इस प्रकार भगवती गीता का उपसंहार हुआ । गीता और गीता नायक हम सब पर अनुग्रह करें ।
इस प्रकार भगवती गीता के सिंहावलोकन का यह अंश पूर्ण हुआ । ओ३म् !
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