गीता समीक्षा कहना क्या है ?
प्रत्येक ग्रंथ में प्रतिपादित विषय का अपना-अपना लक्ष्य होता है, जिसे सर्वप्रथम बताना होता है कि हमें कहना क्या है ? फिर उस लक्ष्य को प्राप्त कैसे किया जाए ? इस पर विचार होता है तत्पश्चात उसके साधनों पर विचार और उसका संग्रह करके लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । इसी प्रकार गीता में भी अर्जुन की अत्यंत दयानीय स्थिति को देखकर कर भगवान अर्जुन के शोक निवारण के लिए क्लैब्य अर्थात नपुंसक, क्षुद्र विचारों वाला यहां तक अनार्य जैसे शब्दों का प्रयोग करके शोक से प्राप्त मूढ़ दशा से सावधान करते हैं, तत्पश्चात उपहास सा करते हुए प्रज्ञावादी अर्थात शुष्क बौद्धिस्ट कहकर अपना लक्ष्य निर्धारित करते हैं ।
भगवान ने आत्मा के स्वरूप का निर्धारण— जिससे संपूर्ण जगत व्याप्त है, अविनाशी, अव्यय, नित्य, कभी भी न जन्मने वाला, न मरने वाला अर्थात त्रिकाल में भी आत्मा का जन्म-मरण न हुआ था, न है एवं न होगा और हो सकता भी नहीं हैं क्योंकि वह अज, नित्य, शाश्वत, पुराण अर्थात नवीन इस प्रकार यहां जन्म, अस्ति भाव, वृद्धि, अपक्षय, परिणाम एवं मृत्यु इन छः विकारों से रहित आत्मतत्त्व का वर्णन करना है । जहां भी ये सभी लक्षण दिखते हैं वह परमतत्त्व है, वही नित्य परमसत्ता है । ये सभी लक्षण जिसमें हैं वही परमब्रह्म है—
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।२/२०।।
इस प्रकार भगवान् को आत्मा से अभिन्न बताने के लिए अध्याय २/११-३० विभिन्न युक्तियों से आत्मतत्त्व का निरूपण करके यह बताया कि जिसका त्रिकाल में भी जन्म ही नहीं सिद्ध होता है उसका शोक भी किस प्रकार से बुद्धिमान कर सकता है ?
अब प्रश्न उठता है कि ठीक है कि आत्मा निर्विकार अर्थात छः विकारों से रहित है अर्थात त्रिकाल में भी जन्म सिद्ध नहीं होता किन्तु हम कैसे जाने कि आत्मा आपके बताये लक्षणों वाला आत्मा ब्रह्म से अभिन्न अर्थात ब्रह्म ही है ? इसके प्रत्येक परिस्थिति में हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दुःख, मान-अपमान अथवा कम शब्दों में प्रत्येक परिस्थिति में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को आने-जाने वाली समझकर उनको सहन करता हुआ— आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व २/१४, सकाम कर्म के त्यागपूर्वक समान रूप से निष्काम, निरपेक्ष भाव में स्थित हुआ कर्म के आदेश पूर्वक लक्ष्य की प्राप्ति कैसे हो ? यह निर्धारित करते हैं—
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वद्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ।।२/४५।।
इस श्लोक पर आगे बढने से पहले शंकरानन्द सरस्वती जी की टीका ‘वाक्यतातत्तपर्य बोधिनी’ का कुछ अंश पहले समझ लेते हैं—
विरक्तः प्रब्रजेद्धीमान् सरक्तस्तु गृहे वसेत् ।
सरागो नरकं याति प्रब्रजन् हि द्विजाधमः ।।
जब तक राग रहे तब तक घर में रहे, क्योंकि संसारासक्त ब्राह्मणाधम संन्यास लेकर नरक को जाता है, अतः जब संसार के प्रति मन में राग न रहे तब बिना द्वेष के, वैराग्य होने पर बुद्धिमान संन्यास ग्रहण करे ।
यहां द्विजाधम शब्द से ब्राह्मण इसलिए कहा गया है कि ब्राह्मण के लिए ही अन्त में संन्यास अनिवार्य है वैराग्य न होने पर भी, अतः संन्यास के बाद की संसार के प्रति बने रहने वाले राग-द्वेष पर कुठाराघात के लिए कहा है, अन्य के लिए नहीं । तथापि आज जब वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है, तब द्विज से जो भी व्यक्ति संन्यास तो ग्रहण करना चाहता है किन्तु वह वैराग्य से नहीं, नाना प्रकार के कारणों से अपने गृहस्थ धर्म से पलायन करने वाले को समझना चाहिए ।
यदा मनसि सञ्जातं वैतृष्ण्यं सर्वस्तुषु ।
सदा सन्न्यामिच्छेत पतितः स्याद्विपर्यये ।।
जब मन से सभी प्राप्त अप्राप्त वस्तुओं से वैराग्य हो जाये तब संन्यास की इच्छा करे, इससे विरुद्ध आचरण करने से अर्थात बिना वैराग्य के संन्यास ग्राहण करने से पतित हो जाता है ।
प्रबृत्तिर्लक्षणं कर्म ज्ञानं सन्न्यासलक्षणम् ।
तस्माज्ज्ञानं पुरस्कृत्य सन्न्यासेदिह बुद्धिमान् ।।
प्रवृत्ति का लक्षण कर्म और ज्ञान का लक्षण संन्यास है । यानी कर्म प्रवृत्ति का और ज्ञान निवृत्ति का लक्षण है । इसलिए बुद्धिमान संन्यास के द्वारा ज्ञान को पुरुस्कृत करे अर्थात विवेक पूर्वक संन्यास करे, किसी घटना विशेष से भावुक होकर अविवेकपूर्वक नहीं ।
यदा तु विदितं तत्त्वं परं ब्रह्म सनातनम् ।
तदैक दण्डं सङ्गृह्य सोपवीतां शिखां त्यजेत् ।।
जब नित्य परमब्रह्म तत्त्व का ज्ञान हो जाये, तब एकदंड को ग्रहण करके शिखा-सूत्र का त्याग कर दे ।
यहां पर दंड की बात आयी है जो मात्र ब्राह्मण शरीरधारी को अधिकार है, यह विशेष नियम है । सामान्य नियम यह है—
‘काष्ठदण्डो धृतो येन सर्वांशी ज्ञान वर्जित: ।
ज्ञानदण्डो धृतो येन एकदण्डी स उच्यते ॥’
अर्थात जिसने आसक्ति पूर्वक काष्ठ का दंड धारण किया है, वह पूर्णतः अज्ञानी है । जिसने आत्मा-अनात्मा रूपी विवेक का दंड धारण किया, एक आत्मा में ही जिसका दृढ़ निश्चय और स्थिति है वही एकदंडी कहा गया है ।
अहमेव परं ब्रह्म वासुदेवाख्यमव्ययम् ।
इति बोधो दृढो यस्य तदा भवति भैक्ष्यभुक् ।।
वासुदेव नाम से कहा जाने वाला अविनाशी परमब्रह्म ‘मैं ही हूं’ इस प्रकार का जब बोध हो जाये उस समय भिक्षाभोजी अर्थात संन्यासी हो जाये ।
प्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति ।
तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि सकैवल्याश्रमे वसेत् ।।
जिस प्रकार शरीर से प्राण निकल जाने पर शरीर सुख और दुःख को नहीं जानता, उसी प्रकार प्राण के शरीर में रहने पर भी जब सुख-दुःख का अनुभव न हो तो वह कैवल्य अर्थात संन्यास आश्रम में निवास करे ।
अधीनत्याऽखिलान्वेदाननिष्ट्वाऽखिलान्सुरान् ।
अनुत्पाद्य सुतान्विप्रो न सन्न्यासितुमर्हति ।।
ब्राह्मण बिना संपूर्ण वेदों को पढ़े, संपूर्ण देवताओं का यज्ञादि द्वारा आराधन किये बिना, बिना पुत्र उत्पन्न किये संन्यास का अधिकारी नहीं होता ।
यह कथन सांसारिक रस के कारण वैराग्य में कमी का प्रतिपादन करने के उद्देश्य से कहा गया है, पूर्ण वैराग्य होने पर ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रब्रजेत्’ अर्थात जब भी वैराग्य हो जाये तभी संन्यास ग्रहण कर ले, यह श्रुति वाक्य है । सनकादि ऋषि इसके उदाहरण हैं ।
अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन् ।
प्रचरन्निन्द्रियार्थेषु नरः पतनमृच्छति ।।
शास्त्रीय नित्य-नैमित्तिक कर्म न करता हुआ, निन्दित कर्म करता हुआ और इन्द्रियों के विषयों में विचरण करता हुआ मनुष्य पतित होता है । अर्थात बिना वैराग्य के संन्यास ग्रहण करके पतन की स्वयं ही इच्छा करता है ।
‘ज्ञात्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् । सशिखं वपनं कृत्वा, बहिः सूत्रं त्यजेत् बुधः । ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थाय भिक्षाचर्यं चरन्ति’ इति ।
इसलिए परमतत्त्व को जानकर नैष्कर्म्य का आचरण करे अर्थात आत्मपदार्थ का निश्चय हो जाने पर सर्वकर्म संन्यास करे अर्थात स्वरूप से ही कर्म का त्याग कर दे । शिखा (चोटी) सहित मुण्डन कराकर बुद्धिमान बाह्यसूत्र (यज्ञोपवीत) का त्याग कर दे । वे निश्चय ही पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा का त्याग करके भिक्षाचरण करते थे, अर्थात उपरोक्त लक्षणों वाला ही भिक्षावृत्ति का यानी संन्यास का अधिकारी है अन्य नहीं ।
परं ब्रह्म परिज्ञाय प्रब्रजेद्ब्राह्मणोत्तमः ।
अन्यथा कर्मकुर्वीत न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।।
ब्राह्मणों में श्रेष्ठ परमब्रह्म को भली-भांति जानकर संन्यास ग्रहण करे । ऐसा न हो तो कर्म करे, इसमें किसी भी प्रकार का प्रमाद न करे ।
स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।
विपरीतस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः ।।
जिसकी जैसी अपनी अपनी स्वाभाविक निष्ठा है, उसके अनुसार ही उसका वह गुण कहा गया है । इससे विपरीत दोष होता है, यह दोनो प्रकार से निश्चित है ।
दोनो प्रकार से अर्थात गृहस्थ होकर गृहस्थ धर्म का पालन ठीक से न करना और संन्यासी होकर सांसारिक विषयों में राग का होना, ये दोनो ही दोषपूर्ण हैं ।
हमें पहले यह भी विचार कर लेना चाहिए कि संन्यास दो प्रकार का कहा गया कि विद्वत्संन्यास एवं विविदिषु संन्यास । यहां पर वर्णित विद्वात्संन्यास है । जबकि दूसरा विविदिषु यानी परमतत्त्व को जानने की इच्छा से से सर्वकर्म संन्यास कहा गया है । आज विशेषतः विविदुषु संन्यास की प्रधानता है । हम उसी पर चर्चा करेंगे ।
अब विचार करते हैं ‘त्रैगुण्यविषयावेदा……..’ पर । हम श्लोक के इस प्रथम चरण पर समय नष्ट करना उचित नहीं समझते । संक्षेप में इतना समझना चाहिए कि शास्त्र सकाम और सबके आत्मा परमात्मा से भिन्न जन्म-मृत्यु के हेतु किसी की भी उपासना की निंदा करता है, जो गीता में भी किया गया है । उन सभी सकाम कर्मों को जो पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत फलदायी वैदिक कर्म हैं उन सभी पूर्वमीमांक कर्मों को ‘त्रैगुण्यविषयावेदा’ से एक ही स्वर में कह दिया गया है ।
अब समझते हैं ‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’ इसकेे लिए कहा कि जिसे भी त्रिगुणातीत होना है उसे सबसे पहले कर्म तो करना होगा किन्तु न तो फल पर अधिकार होगा, न तो कर्तापन का अहं होगा और न ही अपनी निष्कामता का अहं होगा । प्रत्येक परिस्थिति में निर्विकार रहना होगा—
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।२/४७।।
इसका साधन बताया सिद्धि-असिद्धि अर्थात अनुकूल और प्रतिकूल दोनो ही परिस्थिति में समान भाव से निर्विकार होकर योग में स्थित होकर कर्म करना । समत्व का अर्थ किया योग ‘समत्वं योग उच्यते’ २/४८ । क्योंकि योगः कर्मशु कौशलम् २/५० अर्थात कर्मों की कुशलता परमात्मा की प्राप्ति में ही है । अर्थात वही कर्म कर्म है जिससे चित्तशुद्ध होकर परमात्मा की प्राप्ति हो सके, अन्य कर्म कर्म ही नहीं हैं । किसी को संदेह न हो जाये कि योग का अर्थ परमात्मा कैसे किया इसके लिए निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ योग का अर्थ किया समता, और समता को ही निर्विकार ब्रह्म कहा, अतः यहां योग का अर्थ परमात्मा ही होगा । तो योग में स्थित होकर कर्म करने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर से अभिन्न स्वयं को और किये जाने वाले कर्मों को, को कर्ता और क्रिया को जिसमें सत्ता मिल रही है, जिसमें स्थित होकर वह कर्म कर रहा है वह परमेश्वर ही है अन्य नहीं यह अभिन्न भाव पहले ही सुनिश्चित कर लेना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर त्रिगुणातीत है अतः उसमें स्थित होकर उसी में उसी रूप में होने वाले कर्म और कर्ता भी त्रिगुणातीत स्वतः हो जायेगा यह गुणातीत होने का प्रथम साधन है ।
आगे कहते हैं—
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।२/५२।।
यहां पर वैराग्य दो प्रकार से कहा गया । पूर्वर्ध में संसार के भोगों से मन की संतुष्टि न होकर निरंतर दुःख का अनुभव होने से संसार के प्रति अर्थात विषयासक्ति से उपराम होकर नित्य सुख क्या है ? उसकी प्राप्ति कैसे हो इस भाव को लेकर मोहरूपी कीचड़ को पार करके जब परम सुख के साधन परमतत्त्व को जानने की इच्छा से गृह त्याग कर संन्यास गृहण किया जाता है तब वह विविदिषु संन्यास कहलाता है । फिर आचार्य आदि से श्रुति का उपदेश पाकर जब लोक और परलोक के सुखों को भी नश्वर और दुःख रूप जान लेता है तब जो मुमुक्षु ने पहले सुना था और भविष्य में भी सुनने में आयेगा उन सभी पूर्वमीमांसा में कही गई फलश्रुति से अशेष रूप से दृढ़तापूर्वक आत्मरूप का निश्चय हो जाने के कारण वैराग्य हो जायेगा । इस प्रकार पूर्वार्ध में आचार्य, श्रुति, शास्त्र, इन्द्रिय दमन, साधन-चतुष्टय आदि साधन रूप निष्काम कर्मों की अपेक्षा होती है, किन्तु उत्तरार्ध में सीधा आत्मनिश्चय होता है, मात्र परिच्छिन्न भाव नष्ट करना होता है ।
हमारा विषय ‘त्रिगुणातीत’ होने के लिए प्रथम साधन इस श्लोक का पूर्वार्ध है । अगला साधन बताते हैं— प्रजहाति यदा काममान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् २/५५ अर्थात मन में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक कामना का जिस समय नाश हो जायेगा, उसी समय गुणातीत हो जायेगा । नैष्कर्म्य सिद्धि अर्थात सर्वकर्म संन्यास बिना शास्त्रीय कर्म संपादित किये प्राप्त नहीं हो सकता । इसके लिए हर परिस्थिति में मुमुक्षु को चाहिए कि निष्काम कर्म का विधिवत् यज्ञ का स्वरूप देकर यज्ञ को ही विष्णु या परमेश्वर मानकर उसी में स्थित होकर सभी कर्मों को ब्रह्म में अध्यात्म बुद्धि से अर्थात आत्मा-अनात्मा के विवेक पूर्वक संसार से या सांसारिक किसी भी कर्म के फल की आशा न रखते हुए शोक मोह का त्याग करके युद्धस्तर पर साधना रूपी निष्काम कर्म में लग जाना चाहिए—
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।३/३०।।
सभी शास्त्रीय कर्मों को स्वरूप से जानकर फिर उन सभी चेष्टाओं, क्रियाओं में अपने सहित सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि करता हुआ विचार रूपी अग्नि में जीव-ब्रह्म समिधा का हवन करना रूप साधन त्रिगुणातीत होने के साधन हैं जिसे परंपरागत तत्त्वदर्शीयों की सेवा आदि के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ४/३४ । यही आत्मा-अनात्मा के विवेक का साधन है, जिससे त्रिगुणातीत हुआ जा सकता है । अतः अज्ञान से उत्पन्न मोह का त्यागकर करके संशय रहित होकर युद्धस्तर पर साधना के लिए कमर कस लेना ही त्रिगुणातीत होने का साधन है ।। ४/४२।।
योग से युक्त होकर चतुर्दश इन्द्रियों को जीतने वाला मैं कुछ नहीं करता, जो भी देखने आदि से लेकर चेष्टाएं हो रही हैं वे सभी प्रकृति ही प्रकृति में स्वतः कर रही है । ‘मैं’ संपूर्ण प्राणियों की निष्क्रिय, निर्विकार आत्मा हूं, इस प्रकार की धारणा करके सभी चेष्टाएं प्राकृति में आधान करके अर्थात छोड़कर कमलपत्रवत् उसके गुण-दोष रूप पापों से नहीं बंधता अर्थात त्रिगुणतीत हो जाता है ।
कर्मफल का आश्रय न लेना, संपूर्ण संकल्पों का त्याग कर देना संपूर्ण प्राणियों में एकात्मा को देखना, पंचीकरण का ज्ञान, वासुदेवः सर्वम् अर्थात ब्रह्म से भिन्न अपनी सत्ता का न होना, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अर्थात तामस, राजस, सात्त्विक गुणों के सहित उसके अधिष्ठान आत्मतत्त्व को जानना, यहां तक खाना, पीना, सोना आदि तक का परमेश्वर से अभिन्न और अनन्य भाव का आश्रय लेना आदि गुणातीत होने के साधन हैं । इसी से अन्तर्देश में गुणातीत आत्मप्रकाश का उदय होगा । क्योंकि वह परमतत्त्व ही संपूर्ण प्राणियों में ‘मैं’ के रूप स्फुरित होने वाला आत्मा है ‘अहमात्मा’ १०/२०। परमेश्वर के लिए कर्म करना, उसकी अनन्य भाव से शरण ग्रहण करना देहाभिमान का त्याग करना, संपूर्ण कर्मफल का त्याग करना, ज्ञानी के स्वाभाविक लक्षणों का नित्य ज्ञानस्वरूप मानकर अनुष्ठान करना, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विवेक करके स्वयं को क्षेत्रज्ञ जानना इत्यादि गुणातीत के साधन हैं ।
गुणों की पहचान करके उनमें सत्त्वगुण का आश्रय लेना, परमेश्वर को सर्वरूप में जानना, दैवी गुणों का आश्रय लेना, अपने अनुभव को दूर रखकर श्रुति को ही प्रमाण मानना, आहार विहार आदि का सात्त्विक अनुसंधान करते हुए त्रिविध तप का साधन-चतुष्टय का आश्रय लेकर सभी सात्त्विक पक्षों पर विचार करके सात्त्विक पक्ष में स्थित होने का प्रयत्न करना त्रिगुणातीत के साधन हैं ।
ज्ञान के अहं में आकर नित्य-नैमित्तिक कर्मों का त्याग न करना, विभक्त दिखते हुए भी संपूर्ण प्राणियों में एक अविनाशी परमसत्ता को ही देखना, प्रवृत्ति, निवृत्ति, शास्त्रीय सकाम और निष्काम कर्म, बंध और मोक्ष को सर्वरूप से जानना, ब्राह्मण अर्थात ब्रह्म स्वरूप की पर्याप्त के नौ साधनों को का निरंतर अन्वेषण करना, अपने स्वाभाविक सहज कर्तव्य कर्म में स्थित होकर अपनी चेष्टामात्र से चेष्टाओं के अधिष्ठान व्यापक परमेश्वर की आराधना करके ही मनुष्य चित्तशुद्धि रूप आत्मासाक्षार के साधन रूप सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । कम शब्दों में— जब चौदह इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके सभी प्रकार की अशेष कामनाओं से रहित होकर पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत सभी किये जाने वाले कर्म, क्रिया और उसके फल से आसक्ति समाप्त हो जायेगी तब आत्मा-अनात्म के विवेक द्वारा परमनैष्कर्म्य नामक सिद्धि प्राप्त होगी अर्थात तब प्रकृति से परे स्वरूप का दृढ निश्चय होगा । यही स्थिति त्रिगुणातीत में स्थित होने की है । इस समय आत्मा का परिच्छिन्न रूप से साक्षात्कार हो जाता है जिसे योग की भाषा में संप्रज्ञात समाधि कहते हैं—
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यान्येसेनाधिगच्छति ।।१८/४९।।
अध्याय दो में कहे गए—
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।२/५२।।
इस उपक्रम का उपसंहार यह असक्तबुद्धिः सर्वत्र…….। नैष्कर्म्यसिद्धिं...…।। उपसंहार है ।
आत्मवान्— यहां पर ‘असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः’ के कथन की सिद्धि हो जाने पर निर्द्वन्दो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम’ २/४५ ये तीनो साधन स्वतः आ जाते हैं, अतः इस पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । अब हम आत्मवान् २/४५ पर विचार करते हैं—
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि २/५३ अर्थात उपरोक्त प्रकार से जब मुमुक्षु की बुद्धि एक आत्मनिश्चय वाली हो जायेगी, उसी समय आत्मा की प्राप्ति हो जायेगी अर्थात आत्मवान् हो जायेगा । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते २/५५ अर्थात स्वयं से स्वयं में संतुष्ट होना आत्मवान् का लक्षण है । यही ब्राह्मी स्थिति है २/७२ ।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च संतुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते ।।३/१७।।
आत्मरति, आत्मतृप्त, स्वयं में सन्तुष्ट रहना ये आत्मवान् का लक्षण है । सर्वत्र ब्रह्मभाव का स्थिर होना, जीव भाव और ब्रह्मभाव का विचार रूप अग्नि में हवन करके नाम, रूप की उपाधि से परे निर्विकार, निर्विशेष भाव में ‘अस्ति’ मात्र सत्ता में स्थिर रहने वाला आत्मावान् है ४/२५ । सर्वत्र समान रूप में सत्तात्मक निर्दोष ब्रह्म में ५/१९ स्थित आत्मवान् ही है । न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ अर्थात जिसमें किसी भी प्रकार के संकल्प का उदय नहीं होता वह आत्मावन् है । सर्वत्र आत्मा की उपमा से ही सबको देखने वाला आत्मवान् है । वासुदेवः सर्वम् ७/१९ जानने वाला आत्मवान् है । अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अर्थात तामस, राजस और सत्त्व गुण को जानकर उन तीनो से विलक्षण अपने को जानने वाला आत्मवान् है । अविनाशी परमपद को जानने वाला आत्मवान् है । संपूर्ण लोकों को अपने विलास के एक छोटे से अंश में जानने वाला आत्मवान् है । जो अनन्य आत्मनिष्ठा से मैं के अर्थ को श्रुति शास्त्र से जानकर, उसका साक्षात्कार करके उसी में प्रवेश कर जाता है अर्थात अभिन्न हो जाता है ११/५४ वह आत्मवान् है ।
जिसमें शोक मोह नहीं होता, जो अपने को क्षेत्रज्ञ करके असंग पुरुष के रूप में जानता है वह आत्मवान् है । जो यह जानता है कि ब्रह्म, ज्ञान, ऐकान्तिक सुख आदि अविनाशी नित्य अहं के अर्थ से भिन्न नहीं हैं वह आत्मवान् है । जो उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय में भी एक अविनाशी नित्य आत्मा को सर्वभाव से जानता है वह सर्वज्ञ आत्मवान् है । परम नैष्कर्म्य सिद्धि अर्थात आत्मस्वरूप का दृढ निश्चय होने के पश्चात जो सीमित अहंता का त्याग करके व्यापक अहंता में सभी अनात्मपदार्थ का त्याग करके जागतिक आशाओं का त्याग करके शान्त ब्रह्म के साथ अभिन्नता में समर्थ होकर शोक, मोह का त्याग करके अनन्य आत्मनिष्ठा से परमतत्त्व जितना और जिस प्रकार के स्वरूप वाला है वैसा ही तत्त्व से जानकर उसमें प्रवेश कर जाता है १८/५५ वह आत्मवान् है । यही योगदर्शन के अनुसार असंप्रज्ञात समाधि है ।
इस प्रकार भगवान् ने निस्त्रैगुण्य यानी त्रिगुणातीत एवं आत्मवान् का यहां तक विवेचन कर दिया । अब आगे कहते हैं कि हमने तो विवेचन कर दिया किन्तु मेरे इस विवेचन को जो भी नहीं मानेगा अर्थात आचरण में नहीं लायेगा तो ‘पापमवाप्स्यसि’ २/३३ अर्थात उसे पाप लगेगा, विनङ्क्ष्यसि १८/५८ अर्थात उसका विनाश हो जायेगा । अर्थात जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र में पड़ना रूप पाप लगेगा एवं मानवेतर नरक एवं नारकी कूकर, शूकर, कीट-पतंग आदि योनियों को प्राप्त करना रूप विनाश हो जायेगा । क्योंकि ऐसे लोगों का प्रकृति स्वयं नियंत्रण करके विनाश कर देगी । इससे अच्छा यह है कि मायापति सर्वात्मा की शरण ग्रहण करके शाश्वत पद प्राप्त कर लेना ही मनुष्य का एकमात्र अनुष्ठेय धर्म है । यह अत्यंत गोपनीय है और इससे भी गोपनीय यह है कि सभी प्रकार से आनात्मपदार्थ का त्याग करके सभी एकमात्र स्व-सत्ता का प्रतिपादन करने वाले ‘मैं’ के अर्थभूत स्वसंवेद्य ‘अस्ति’ मात्र सबकी सत्ता आत्भाव से स्थित हो जाना चाहिए । यही अनिर्वचनीय श्रुतियों द्वारा ‘नेति नेति’ कहा जाने वाला आत्मपद है और यही श्रीभगवान का यहां कहना है । अस्तु !
हे परमेश्वर आप जो हो जैसे स्वरूप वाले हो आप ही अपने को जानो । परन्तु हे आत्मप्रकाशक मुझ पर अपनी कृपा बनाये रखना । ओ३म् !
आज दिन सूर्यवार, आश्विन शुक्लपक्ष, शारद पूर्णिमा, विक्रम संवतसर २९७६ तदनुसार तेरह अक्टूबर सन् 2019 ई. को यह गीता समीक्षा का चिन्तन गङ्गा माँ के पावन तट, राजस्थान सेवा समिति ऋषिकेश उत्तराखंड में संपन्न हुआ ।
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