गीता समीक्षा अध्याय ३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ तृतीयोऽध्यायः
अर्जुन ने अपने कल्याण का मार्ग पूछा था जिसके उत्तर में भगवान ने पहले जीव के स्वरूप का प्रतिपादन किया फिर क्षत्रिय धर्म के अनुसार स्वधर्म से विचलित न होने और विचलित होने पर पाप लगने २/३३ का भय दिखाते हुए जीवन और मृत्यु दोनो ही स्थिति में क्षत्रिय के लिए युद्ध सुख दुःख में समान भाव रखकर करने से कल्याणकारी बताया । ज्ञान और योग दो प्रकार की बुद्धि का वर्णन करते हुए आत्मा में एक निष्ठ बुद्धि की प्रशंसा और विषयी बुद्धि की निंदा करते हुए तीनो गुणों से ऊपर उठकर आत्मभाव में स्थित होने को कहते हुए सर्वकर्मसंन्यास में अर्जुन का अनधिकार बताते हुए कर्म में ही अधिकार बताते हुए ज्ञानयोग की स्तुति करते हैं । अर्जुन के पूछने पर स्थित प्रज्ञ का लक्षण बताते हुए सभी कामनाओं से रहित सर्वकर्मसंन्यासी की प्रशंसा एवं उसी को ब्रह्म की प्राप्ति बताते हैं । अतः अर्जुन को समझ में नहीं आया कि पहले कर्मयोग से कर्मबन्धन काटने की २/३९ बात कहते हैं, फिर मोक्ष सर्वकर्मसंन्यासी को ही बताते हैं इसलिए अर्जुन उस भ्रम के निवारण के लिए पूछता है…..
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किंकर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ।।३/१।।
अर्जुन बोले― हे जनार्दन ! यदि बुद्धि (ज्ञान) कर्म से श्रेष्ठ मानते हो तो घोर कर्म में मुझे क्यों लगा रहे हो ?
भगवान ने स्वकर्म न करने पर पाप लगने की बात कही थी पापमवाप्स्यसि २/३२ इसलिये यह जबरन् युद्ध रूप घोर कर्म करने के लिए अर्जुन लगाया जाना समझता है, जबकि कल्याण तो ज्ञानयोग यानी सर्वकर्मसंन्यास में है यही समझ कर अर्जुन भ्रमित होकर अधिकार पर ध्यान नहीं देता है कि भगवान ने कर्मण्येवाधिकारस्ते २/४५ कहा है बल्कि वह सर्वकर्मसंन्यास सन्न्यास की प्रशंसा से प्रभावित है अतः वह संन्यास का इच्छुक है इसलिये पूछ बैठा कि ये हिंसक कर्म किये बिना ही जब सर्वकर्मसंन्यास से कल्याण हो सकता है वही स्वीकर करें । इस घोर कर्म में तो आप बलात् लगा रहे हैं । यह इसका भाव है ।।१।।
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयात् ।।३/२।।
क्योंकि आपके मिले हुए वाक्यों से बुद्धि मोहित सी हो रही है, इसलिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त करूं वही एक निश्चित मार्ग कहो ।
जब बुद्धि मोहित हो जाती है तब वह अनधिकार को अधिकार और अधिकार को अनधिकार समझ लेती है अधर्मं धर्ममिति मन्यते तमसावृताः १८/३२ यही स्थिति अर्जुन की है अतः निश्चित किया हुआ एक ही कल्याणकारी मार्ग जानना चाहता है ।।२।।
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३/३।।
श्रीभगवान बोले― हे पाप रहित अर्जुन ! पूर्वकाल में दो प्रकार की निष्ठाएं मेरे द्वारा कही गई हैं । साङ्ख्य अर्थात सर्वकर्मसंन्यासियों के लिए ज्ञानयोग और कर्मयोगियों के लिए कर्मयोग ।
यहाँ सांख्य से आत्मा अनात्मा का विवेक द्वारा निश्चय कर चुके सर्वकर्मसंन्यासी के लिए ज्ञानयोग कहा गया है । किन्तु जो आत्मा अनात्मा का निश्चय करके गृहस्थ प्रवृत्तिमार्गी हैं उनके लिए मुझ शाश्वत परमेश्वर द्वारा कर्मयोग कहा गया है । यहाँ पर यह स्पष्ट भगवान कह रहे हैं कि कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनो एक साथ नहीं चल सकते । दूसरी बात ज्ञानमार्ग के लिए विवेक और वैराग्य की अपेक्षा है जबकि ये सब गृहस्थ में संभव नहीं है, इसलिये पहले कर्म करके चित्तशुद्धि करे । चित्तशुद्धि होने पर ही ज्ञानमार्ग का अधिकारी होगा । यही बात आगे भी बता रहे हैं ।।३।।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।३/४।।
पुरुष कर्म का आरंभ न करने से नैष्कर्म्य की प्राप्ति नहीं कर सकता और न ही कर्मों के त्याग से (आत्म) सिद्धि की प्राप्त होती है ।
शास्त्रीय कर्म के अनुष्ठान के बिना निष्कामता की सिद्धि नहीं होती, कर्मों के त्याग से आत्मरूप सिद्धि नही होती । इसमें वाक्य भेद से अर्थ भेद एक जैसा दिखने पर भी पूर्वार्ध में कर्मी गृहस्थ के लिए कहा गया है क्योंकि जब तक चित्तशुद्धि नहीं होगी तब तक निष्कामता हो नहीं सकती और बिना निष्कामता के स्वरूप से अन्तर्बाह्य कर्मों का त्याग होगा नहीं तो बाहर से संन्यास ग्रहण करके बाह्य कर्मों के त्याग मात्र कर देने से आत्म प्रतिष्ठा नहीं हो सकती । इसका कारण आगे बता रहे हैं ।।४।।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।।३/५।।
कोई भी एक क्षण किसी भी अवस्था में बिना कर्म किये व्यर्थ नहीं जाता, क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा कर्म परवश करता है ।
इसी को आगे प्रकृतिं त्वां नियोक्ष्यति १८/५कहेंगे । तात्पर्य यह है कि संसार प्रकृति का कार्य है, उसे जब जो करवाना होता है वह आपके पूर्व कर्मों से उत्पन्न फलस्वरूप वैसा कर्म करवा ही लेती है व्यर्थ में मनुष्य यह समझता है कि मैं कर्ता हूँ, मैं अकर्ता हूँ अहङ्कार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ३/२७ इसी मूढता को दूर करने के लिए ही मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि २/४७ यानी तू न तो कर्ता बन और न ही अकर्ता होने की आसक्ति रख । इसी बात की पुष्टि के लिए यहाँ बताया कि तू अगर सोचता है कि बिना कर्म के निष्कामता प्राप्त हो जायेगी तो यह भी गलत है, और यदि सोचता है निष्कामता से आत्मलाभ हो जायेगा यह भी गलत है क्योंकि बिना काम के निष्काम कैसे हो सकता है ? बिना निष्काम हुए स्वरूप में प्रतिष्ठा रूप सिद्धि भी कैसे हो सकती है । प्रकृति तो कार्य करवा ही लेगी किन्तु पता नहीं कहां ले जाकर डालेगी, किन्तु तुझे स्वतंत्रता है कि तू अहं बुद्धि का त्याग करके अपने अनुसार कर्म कर ले ताकि कल्याण को प्राप्त कर सके । यह भाव है ।।५।।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।४/६।।
इन्द्रियों के विषयों का मन के द्वारा स्मरण करते हुए जो कर्मेन्द्रियों का नियमन करके बैठ जाता है वह मिथ्याचारी कहा गया है ।
भावार्थ यह है कि बाहरी इन्द्रियों को उनके कार्यों से बलात् रोक देने पर भी भी आन्तरिक रस बना रहता है जो पतन का हेतु है । जबकि आन्तर विषय रस नियंत्रित होने पर बाह्य कर्मेन्द्रियों को नियमन की आवश्यकता ही नहीं होती है । अतः ज्ञानेन्द्रियों बल्कि उनके भी नियंता मन को ही वश में करके स्व-कर्म करना चाहिए ।।६।।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मैन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।३/७।।
जो मन के द्वारा ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके कर्मेन्द्रियों के द्वारा शास्त्रीय शास्त्रीय कर्म का अनुष्ठान करता है वह आसक्ति रहित कर्मयोग श्रेष्ठ है ।
यहाँ कर्मयोग की स्तुति की गई है । आसक्ति रहित यानी निष्काम कर्मयोग की प्राप्ति । यही नैष्कर्म्य सिद्धि कही गई है ।।७।।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ।।३/८।।
अकर्म से कर्म श्रेष्ठ है इसलिये तू अपना कर्म सुनिश्चित कर, क्योंकि बिना कर्म के शरीर यात्र भी नहीं चलती ऐसा प्रसिद्ध है ।
यहां पर यह उनके लिए कहा गया है जिनकी अभी प्रवृत्ति संन्यास में न होकर कर्म में ही लगी है किन्तु किसी कारण वश कर्म का त्याग करने को उद्यत हैं । जो यहाँ नियत कर्म कहे गये हैं वे यहाँ स्वाभाविक गुणों के आधार पर कहे गये बलात् कर्म क्षणिक अन्य के विहित कर्म में आकर्षण देखकर नहीं, इसी को आगे सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् १८/४८ कहेंगे । सहज स्वाभाविक और शास्त्रीय कर्मों का निष्काम कर्तव्यत्वेन अनुष्ठान करना श्रेष्ठ है क्योंकि सकाम कर्मों की अध्याय दो में निंदा की जा चुकी है । फिर कर्म तो वैसे भी प्रकृति का नियम है अन्यथा शरीर का तक निर्वाह बिना कर्म के नहीं हो सकता ।।९।।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ।।३/९।।
जो यज्ञ के निमित्त किया जाये वही कर्म है, अन्य कर्म इस संसार में बन्धन देनेवाले हैं । इसलिए हे कौन्तेय ! यज्ञ के लिए आसक्ति से रहित होकर कर्म का भलीभांति आचरण कर ।
यज्ञ के लिए कर्म क्यों करना ? इसको श्लोक ३/१५ में बताएंगे । यहाँ पर इतना समझना चाहिए यज्ञो वै विष्णुः यज्ञ ही परमात्मा है अतः प्रत्येक कर्म यज्ञ अर्थात परमात्मा के लिए ही करना चाहिए ।।९।।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ।।३/१०।।
पूर्वकाल में प्रजापति ब्रह्मा जी ने यज्ञ सहित प्रजा की सृष्टि करके कहा इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होओ । यह यज्ञ तुम लोगों के लिए कामधेनु के समान होवे ।
यहां पर यज्ञ का विवरण चल रहा जो श्लोक ३ से श्लोक १५ तक चलेगा । अतः आज के समय में हठधर्मिता को आगे करके किसी अग्नि विशेष में ही आहुति देने को यज्ञ मानकर केवल पूर्व के भाष्यकारों, टीकाकारों के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही करते रहेंगे तो मुझे सबका कल्याण करने वाली गीता की सार्थकता कदापि सिद्ध होती नहीं दिख रही है । क्योंकि गीता संपूर्ण मानव के कल्याण के लिए युद्धक्षेत्र में कही गई है । जो मनुष्य की अत्यन्त विषम परिस्थिति में भी उद्धार करने का दावा करती है । फिर यज्ञ नाम से यहाँ पर कहा गया अग्नि विशेष की आहुति ही कैसे हो सकती है ? हुत का अर्थ त्याग होता है । अर्थात जो कर्तव्य कर्म भलीभाँति फलाकांक्षा का त्याग करके किया जाये वही यज्ञ कहा गया है । यज्ञो वै विष्णुः अर्थात यज्ञ ही विष्णु है तो और सब क्या है ? इसलिये जहाँ कहीं भी गीता में यज्ञ की बात आती है उसे अपने स्वभाव और योग्यता के अनुसार बिना किसी सम्मान, फल या बदले में उपकार की भावना रखे जो कर्म करता हुआ भी उससे किसी प्रकार की वैसे ही किसी फल की कामना नहीं करता जैसे अग्नि में जली हुई वस्तु से कोई कामना नहीं की जा सकती । यही कर्तव्य कर्म है ऐसा समझना चाहिए ।
इस प्रकार किये गये यज्ञ कामधेनु जैसे इच्छित आवश्यक सामग्री देती है उसी के समान ये कर्तव्य कर्म भी तुम्हें यथा समय यज्ञ यानी परमात्मा कर्तव्य कर्म के लिए आवश्यक सामग्री देने वाले हों ।।१०।।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।३/११।।
इस यज्ञ के द्वारा देवताओं की वृद्धि करो, वे देवता तुम्हारी वृद्धि करें इस प्रकार परस्पर एक दूसरे की उन्नति करके श्रेय यानी कल्याण को प्राप्त होओ ।
इस प्रकार निष्काम कर्तव्य कर्म द्वारा एक दूसरे की उन्नति करके श्रेय को प्राप्त होना यानी चित्तशुद्धि पूर्वक आत्म अनात्मा का विवेक प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करना । यहां मनुष्य देवताओं की निष्काम सेवा के फलस्वरूप स्वर्ग की बात हमें इस लिए नहीं ठीक लगती है कि प्रसंग है निष्कामता का और निष्कामता का फल है चित्तशुद्धि एवं चित्तशुद्धि का फल है ज्ञान पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति । वैसे भी दूसरे अध्याय में और आगे भी सकाम कर्म की निंदा की गई है और की जायेगी, इसलिये यहां श्रेय का अर्थ चित्तशुद्धि पूर्वक क्रममुक्ति ही समझना चाहिए ।।११।।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ।।३/१२।।
यज्ञ से प्रसन्न हुए वे देवता यज्ञ संबंधित उपयोगी भोग्य वस्तुएं देते हैं । उनकी दी हुई सामग्री उनको दिये बिना जो भोग करता है वह चोर ही है ।
इस श्लोक की विस्तृत व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखना चाहिए । वहाँ पंचमहायज्ञ के नाम से विस्तृत विवेचन किया गया है ।।१२।।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।३/१३।।
परमात्मा को अर्पित करने के बाद यज्ञ शेष खाने से सभी पापों का नाश हो जाता है । जो शरीर पोषण के लिए मात्र खाते हैं वे पापात्मा पाप को ही खाते हैं ।
सब कुछ परमात्मा का दिया हुआ है इसमें मेरा क्या है ? सब परमात्म रूप ही है, परमात्मा से भिन्न कुछ है नहीं अतः परमात्मा के लिए पंचमहायज्ञों के माध्मय से अर्पित करने के बाद जो कुछ भी शेष बचता है उसे परमात्मा का प्रसाद समझकर खाने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते है । यहाँ किल्बिष न कहकर सर्वकिल्बिष कहा है, अतः पुण्य और पाप दोनो मिलकर किल्बिष समझना चाहिए । अर्थात भगवत्प्रसाद ग्रहण करने से चित्तशुद्धि हो जाती है । एवं जो भगवत् अर्पण किये बिना ही खाता है वह कृतघ्न एवं पाप को खाने वाला पाप रूप ही है ।।१३।।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।।३/१४।।
अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है यज्ञ निष्काम कर्म अर्थात त्याग से होते हैं ।
अन्न खाने के परिणामस्वरूप रज वीर्य से प्राणियों की उत्पत्ति पूर्वक सृष्टि चक्र का वर्णन दो श्लोकों में किया जा रहा है ।।१४।।
कर्मब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।३/१५।।
निष्काम कर्म रूप यज्ञ की उत्पत्ति वेदों से हुई है, वेद अक्षर परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं । इसलिये वेद नित्य यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं ।
यहाँ पर जिन वैदिक कर्मों की बात कही जा रही है वे निष्काम कर्म संबधित ही कर्म समझाना चाहिए क्योंकि अध्याय दो में और आगे भी सकाम वैदिक कर्मों की भी निंदा की गई है, यहाँ तक पूर्वमीमांसक स्वर्ग आदि भोगों के अतिरिक्त ईश्वर को ही नहीं मानते हैं, जबकि यहाँ अक्षर परमात्मा से वेदों की उत्पत्ति बताई गई है । अक्षर परमात्मा से उत्पन्न होने के कारण वेद भी अक्षर, व्यापक और अपौरुषेय है । इसलिये अक्षर परमात्मा की प्राप्ति के लिए अक्षर वेदों का आश्रय लेकर ही निष्काम ईश्वरार्पण बुद्धि से ही कर्तव्य करना यज्ञ कहा गया है । यह भाव है ।।१५।।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।३/१६।।
हे पार्थ ! इस प्रकार जो इस सृष्टि के नियमों का पालन नहीं करता है वह पापायु इन्द्रियाराम व्यर्थ ही जीता है ।
एवं से श्लोक १० से लेकर श्लोक १५ तक कहे गये जो नियम हैं यह सृष्टि संरक्षण संबंधित एवं मानव के कल्याण के सर्वोपरि साधन हैं । इस प्रकार भगवान यह कहना चाहते हैं उसी का जीना इस पृथ्वी पर श्रेष्ठ है वही पुण्यात्मा है जो अपने कर्तव्य का पालन जो जिस स्थान पर है वहीं से बिना किसी राग द्वेष के करता है, वह पुण्यात्मा है और उसी की जीवन धारण करना ही सार्थक है और जो ऐसा नहीं करते तो उनकी आयु ही पापमय है अर्थात उनके रूप में साक्षात पाप ही शरीर धारण किये हुए है, ऐसे लोग व्यर्थ ही जीते हैं तात्पर्य यह कि ऐसे लोगों को मर ही जाना चाहिए जो कर्तव्य का पालन नहीं कर सकते हैं वे धरती पर बोझ ही हैं ।।१६।।
समीक्षा― अध्याय दो में एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु २/३९ अर्थात ज्ञानयोग सुनाकर प्रतिज्ञा की थी कर्मयोग की । सकाम कर्मों की निंदा करके अर्जुन को ज्ञानयोग का अधिकारी न बताकर कर्माधिकारी बताते हुए निष्काम कर्म का निर्देश करके पुनः सर्वकर्मसंन्यास का वर्णन किया । इससे अर्जुन यह निर्णय करने में भ्रमित हो गये कि उन्हें क्या करना चाहिए ? इस पर अपने भ्रम को प्रकट करते हुए एक मात्र कल्याणकारी मार्ग कहने के लिए कहते हैं जिसके उत्तर में भगवान ने ज्ञानयोग और कर्मयोग नामक दो निष्ठाओं का पूर्वकाल में दिये गये उपदेश का वर्णन करते हुए बिना कर्म के नैष्कर्म्य और सर्वकर्मसंन्यास के फलस्वरूप आत्मसिद्धि का न होना बताया । कारण कि कोई भी क्षण भर भी कर्म किये बिना रह नहीं सकता और बलात् सर्वकर्मसंन्यास में भी अन्दर विषयों के प्रति महत्व बुद्धि का होना दंभ है अतः निरासक्त होकर कर्म करने को ही श्रेष्ठ कहते हुए कर्म के बिना जीवन यात्रा भी नहीं होती है अतः अपने शास्त्रीय स्वाभाविक नियत कर्म करने को कहते हुए परमात्मा के निमित्त कर्म करने की प्रेरणा करते हुए सृष्टि में कर्म की महत्ता, वेदों की नित्यता, वेदों का अक्षर ब्रह्म से उत्पन्न होने से उनकी अपौरुषेयता का प्रतिपादन करते हुए वेदों में ही यज्ञ अर्थात कर्तव्य कर्म की स्थिति बताते हैं । भाव यह है कि संपूर्ण कर्म वेद में और वेद मुझमें प्रतिष्ठित हैं अतः वैदिक कर्म करने वाला ही मुझ सर्वात्मा ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है । जो इस वैदिक कर्म का अनुसरण नहीं करता है वह साक्षात पाप रूप ही है उसका जीने का कोई अधिकार ही नहीं है । अतः जिस किसी भी प्रकार से हो सके कर्माधिकारी को कर्तव्य कर्म करना ही चाहिए ।
यह बात ध्यान रखना चाहिए कि यहाँ पर वर्णित यज्ञ अग्नि, साकल्य और समिधा वाली नहीं है । क्योंकि उपदेश युद्धक्षेत्र में हो रहा है यहाँ तो युद्ध को भी नरमेध यज्ञ कहा जाता है । साथ ही यज्ञ के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन अगले अध्याय में भी आयेगा वही यज्ञ यहाँ भी समझना चाहिए उससे भिन्न नहीं ।।१-१६।।
अब प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा ही कर्म का महत्व है तो फिर संन्यासियों को भी कर्म करना ही चाहिए फिर वे कर्म का स्वरूप से ही त्याग क्यों कर देते हैं ? इसका तो उन्हें पाप लगना ही चाहिए, इस पर कहते हैं…..
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य तस्य कार्यं न विद्यते ।।३/१७।।
किन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करता है और आत्मा में ही तृप्त रहता है, आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उसके लिए कोई कार्य होता ही नहीं है ।
तु कर्माधिकारी से ज्ञानयोगी की विलक्षणता दिखाने के लिए है । जो आत्मा से ही रति यानी प्रेम करता है मतलब उसको आत्मा के अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा है ही नहीं जिससे स्थाई नित्य प्रेम किया जा सके अतः वह नित्य स्वरूप में ही ऐकान्तिक रमण करता है । उसकी दृष्टि में आत्मा के अतिरिक्त संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो उसे तृप्त कर सके, अतः उसकी तृप्ति स्व-स्वरूप में ही होती है इसलिए जो आत्म तृप्त है । संसार में प्रत्येक वस्तु अभाव ग्रस्त है, कोई भी वस्तु नित्य है नहीं जिसकी वह कामना करे, अतः जो बाह्य अनित्य पदार्थ में कभी सन्तुष्ट न होकर स्व-स्वरूप में ही सन्तुष्ट रहता है । इस प्रकार जो अनात्म पदार्थ से संबंध विच्छेद कर चुका है एक मात्र आत्मा ही जिसकी गति मति है वह शरीर निर्वाह प्रारब्धानुसार करता हुआ भी उनमें महत्व बुद्धि न होने के कारण आत्माराम है इस लिए उसके लिए संसार में अन्य कोई कार्य भी करने योग्य विद्यमान नहीं है ।
यही मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ यानी एक मात्र आत्मा अर्थात सर्वात्मा की शरण ग्रहण करना है क्योंकि यहीं सभी कर्मों की समाप्ति हो जाती है सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३ ।।१७।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।३/१८।।
ऐसे तृप्तात्मा ज्ञानयोगी के लिए इस लोक में न ही कोई कर्म करना ही शेष रहता है और न ही न करने योग्य, न ही वह किसी का किसी भी हेतु से किसी का आश्रय लेता है ।
यहां पर कुछ करना और न करना इन दोनो प्रयोजनों से कोई उसका संबन्ध नहीं बताया गया है । पहले कहा था— न कर्मणामनारम्भान्नैषकर्म्यं पुरुषोऽनुते ३/४ एवं कर्मेन्द्रियाणि संयम्य ३/६ । अर्थात बिना कर्म के नैष्कर्म्य की सिद्धि होती नहीं है, क्योंकि बाहर की कर्मेन्द्रियों के नियमन से आन्तरिक रस के कारण दंभाचार ही सिद्ध होता इसलिये यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेर्जुन इसलिये मन के द्वारा जिसने ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को अनुशासित करके निष्कामकर्म संपादित लिया है तो वह बाहर भीतर से पूर्णतः तृप्त हो चुका है । वह ही कर्म से नैष्कर्म्य को प्राप्त जो आत्मरति, आत्मतृप्त, आप्तकाम होने के कारण अब उसके लिए कुछ करने से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है और करने से भी कोई प्रयोजन नहीं होता इसी को कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।२/४७।। अर्थात कर्म करने का तो अधिकार है लेकिन कर्मफल पर नहीं । इसलिये कर्मफल की इच्छा मत रख और निष्कामता की भी आसक्ति मत रख यही दृष्टि रखकर यहाँ कर्म न करने से कोई प्रयोजन नहीं होता कहा गया है । ऐसा आत्मतृप्त किसी का किसी भी प्रयोजन से आश्रय भी नहीं लेता, स्वयं ईश्वर का भी आश्रय नहीं लेता क्योंकि उसकी दृष्टि में आत्मा से भिन्न कोई अन्य ईश्वर की सत्ता है ही नहीं । जो मैं हूँ वही ईश्वर है और जो ईश्वर है वही मैं हूँ । इसलिये वह स्व से भिन्न किसका आश्रय ले ? जब अन्य कोई है ही नहीं । शंका हो सकती है कि फिर जीवन निर्वाह कैसे होगा जब वह किसी का आश्रय नहीं लेगा तो, इस पर कहते हैं कि जब उसे कुछ करने से भी प्रयोजन नहीं और न करने से भी, अतः वह शरीर निर्वाह के निमित्त भी प्रमाद नहीं करता और नियत कर्म के अनुसार वह सर्वकर्मसंन्यासी भिक्षाचरण करता हुआ प्रारब्धानुसार मिलने और न मिलने की भी आशा का परित्याग करके दोनो ही परिस्थितियों में संतुष्ट रहता है । यह इसका भाव है ।।१८।।
तस्मदसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।।३/१९।।
इसलिये आसक्ति का त्याग करके निरंतर अपने नियत कर्म का भलीभांति आचरण कर क्योंकि आसक्ति रहित होकर नियत कर्म का आचरण करने वाला पुरुष परमपद को प्राप्त कर लेता है ।
यहाँ कर्मयोगी की स्तुति करते हुए नित्यकर्म को निरंतर करते रहने का आदेश और और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि क्षत्रिय होने के कारण अर्जुन का नियत कर्म प्रजा रक्षा का है अर्थात प्रजा रक्षा के निमित्त किया जाने वाला युद्ध भी नित्यकर्म है, अतः यह आदेश देते हैं कि तू आसक्ति रहित होकर अपना नियत कर्म अर्थात युद्ध कर । आसक्ति रहित कर्म का भलीभांति आचरण करने से से परम पुरुष– यानी आत्मा की प्राप्ति हो जाती है पुरुषः स परः ८/२२, पुरुषः परः १३/२२ ।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कर्म द्वारा सीधे मुक्ति का वर्णन कहीं नहीं कहा गया है, कर्म द्वारा चित्तशुद्धि पूर्वक क्रम मुक्ति समझना चाहिए ।।१९।।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थितः जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।।३/२०।।
क्योंकि कर्म से ही जनकादि भलीभाँति सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, एवं लोकसंग्रह को भलीभाँति देखते हुए भी तू कर्म कर ।
यहां लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन् कहा गया है, मतलब संसार की मर्यादा का ध्यान रखकर तू कर्म करने के योग्य है और उदाहरण दिया जनकादयः अर्थात जनक, अश्वपति आदि जो भी इस कोटि के हों समझ लेना चाहिए । जनकादि ने प्रजा संरक्षण किया, क्यों किया ? यदि वे ज्ञानी थे तो लोक मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कर्म किया कारण कि जो राजा करता है वही प्रजा करती है । जो तू कहता था कि कुलनाश हो जायेगा तो यह समझ ले कि इस प्रकार तेरा पलायन दूसरों के लिए प्रेरणा बनेगा और सभी अपने अपने कर्म से पलायन करके वर्णसंकर तो उत्पन्न ही कर देंगे, अतः उससे संरक्षण के लिए भी जनकादि की तरह स्वधर्म का पालन करना ही चाहिए अर्थात युद्ध करने के योग्य है, अतः युद्ध करना ही चाहिए । दूसरी बात यदि जनकादि और स्वयं को भी ज्ञानी मानते हो तो भी उनकी तरह ही शासन यानी युद्ध करना ही चाहिए और यदि उन्हें और स्वयं को अज्ञानी मानते हो तो भी चित्तशुद्धि के लिए युद्ध रूप कर्म करना ही चाहिए ।
यहां तीन दृष्टिकोण कोण हैं पहला यह कि जनकादि तुम्हारे पूर्वज हैं, पूर्वजों के चरणचिह्नों का अनुसरण करना चाहिए, ज्ञानी या अज्ञानी मानते हो तो भी लोकमर्यादा स्थापित करने के लिए अथवा अज्ञानी होने पर चित्तशुद्धि के लिए कर्म करना ही चाहिए ।।२०।।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।३/२१।।
श्रेष्ठजन जैसा जैसा आचरण करते हैं दूसरे लोग भी वही वही आचरण करते हैं । संसार में उसी को प्रमाण मानकर उसी का अनुवर्तन किया जाता है अर्थात फिर वही एक परंपरा बन जाती है ।
अनुवर्तन का मतलब श्रेष्ठजनों द्वारा किया गया आचरण क्रमशः पीढी दर पीढ़ी परंपरा ही बन जाती है । उनका भले कुछ न हो लेकिन समाज में उसका जो प्रभाव पड़ता है वह प्रभाव सामाजिक मर्यादाओं की स्थापना या नाश करता है इसलिए ज्ञानी को भी आचरण सावधानी पूर्वक लोकमर्यादा को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए ।।२१।।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।३/२२।।
हे पार्थ ! तीनो लोकों में मेरे लिए कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं है, और न अप्राप्त को प्राप्त करना शेष है तो भी कर्तव्य कर्म करता हूँ ।
यदि अर्जुन को शंका हो कि इस समय क्या कोई ऐसा है जो आत्मनिष्ठ ज्ञानी भी हो और कर्म भी करता हो इसके लिए भगवान अपना ही उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि मुझे तो आप ज्ञानी मानते ही हो तो देखो मैं सर्वेश्वर स्वयं पूर्ण काम हूँ । मेरे को ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्राप्त करना शेष हो जिसकी प्राप्ति के लिए कर्म करूँ फिर भी मैं कर्म करता हूँ । अतः तुम भी करो यह भाव है ।।२२।।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।३/२३।।
क्योंकि यदि मैं सावधान होकर न करूं तो हे पार्थ ! मनुष्य सब प्रकार से मेरे किये हुए का आचरण करेंगे ।
कृष्ण तो भगवान थे उन्होंने जब ऐसा किया तो मुझे भी वही करना चाहिए आदि । अर्थ स्पष्ट है ।।२३।।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यमुपहन्यामिमाः प्रजाः ।।३/२४।।
यदि मैं कर्तव्य कर्म न करूँ तो इस संसार का मैं उच्छेद करने वाला होऊंगा और वर्णसंकर करने वाला होऊँगा तथा नष्ट इस प्रजा का नाश करने वाला होऊंगा ।
अर्जुन ने आशंका की थी कि युद्ध के विनाश से सभी स्वेच्छाचारी हो जायेंगे, स्त्रियां दूषित होकर वर्णसंकर संतान को उत्पन्न करने वाली होंगी इत्यादि उसी का उत्तर यहाँ भगवान दे रहे हैं कि तू युद्ध नहीं करेगा तो क्या वर्णसंकर उत्पन्न नहीं होंगे ? क्योंकि वर्णसंकर उत्पन्न होता है कर्तव्य का पालन न करने से, स्वेच्छाचार से । इसलिए यदि कर्तव्य पालन समर्थ होकर भी जो नहीं करता है तो समाज की मर्यादाओं का नाश करने वाला भी वही होता है इसलिये मैं स्वयं भलीभाँति बिना किसी प्रमाद के राग रहित होकर कर्म करता अतः तुझे भी करना ही चाहिए । यह भाव है ।।२४।।
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ।।३/२५।।
हे भरतवंशी अर्जुन ! जैसे अविवेकी आसक्ति पूर्वक कर्म करते हैं, उसी प्रकार विद्वान आसक्ति रहित होकर लोकसंग्रह के लिए कर्तव्य कर्म करे ।
आजकल सबसे बड़ी यही समस्या है कि अपने अपने ज्ञान के अहंकार में कोई तो मूर्ति पूजा की निंदा में लगा हुआ है तो कोई ईश्वर जीव के भेद प्रतिपादन में ही सारी शक्ति लगा रहा है । चारों ओर मात्र श्रुतिविरोध में ही तत्पर हैं । वंध्यापुत्रवत् ज्ञान आज संसार की मर्यादाओं का नाश कर रहा है । हमे नहीं लगाता कि ये कोई ज्ञानी हो भी सकते हैं क्योंकि परमात्मा के सर्वांग भाव में उसे सगुण या निर्गुण दोनो से परे है वह न सत है और न असत है और वह सत भी है और असत भी है न सत्तन्नासदुच्चयते १३/१२, सदसच्चाहम् ९/१९ । परमात्मा का अनिर्वचनीय स्वरूप है । अतः यह ध्यान रखें ज्ञानी आप हैं समाज नहीं । आपको जब कर्म में आसक्ति नहीं है तो कर्म के त्याग में आसक्ति क्यों है ? जब वह साकार और निराकार दोनो ही है तो फिर निराकार का ऐसा प्रतिपादन किस लिए कि समाज ही प्रमादी हो जाये ? सच में यदि गीता को आप प्रभु का संदेश मानते हैं तो गीता कहती है कर्म के न करने में भी आसक्ति मत रखो सङ्गोऽस्त्वकर्मणि २/४७ इस लिये अज्ञानी की शिक्षा के लिए लोकमर्यादा को बनाए रखने के लिए अज्ञानियों के समान नित्य नैमित्तिक यज्ञ, मूर्ति पूजा से लेकर सभी कर्मों का विधिवत पालन करो इससे तुम्हारे निराकार स्वरूप का कुछ बिगड़ेगा नहीं और समाज का कल्याण हो जायेगा ये अलग से । उन शास्त्रीय कर्मों में लगकर और आपके उपदेश से चित्तशुद्धि होकर उनका जीवन सुधर जायेगा । अतः जब तक रसना में रस लेने की इच्छा है, आंखों में रूप देखने की इच्छा है, जब तक कान आपके अनुकूल शब्द पसंद करते हैं । मान अपमान का स्पर्श अनुभव होता तब तक लोकमर्यादा के लिए कर्म करो ।।२५।।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।३/२६।।
ज्ञानी को चाहिए कि कर्मों में आसक्त अज्ञानी की बुद्धि में भेद उत्पन्न न करे और सभी कर्मों को विधिवत स्वयं भी करे और उनसे भी करावे ।।
व्याख्या प्रसंगवश पूर्व श्लोक में कर दी गई है ।।२६।।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।३/२७।।
सभी प्रकार के कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा हो रहे हैं अज्ञान से मोहित हुआ मनुष्य मैं ही कर्ता हूँ ऐसा मानता है ।
मूल प्रकृति के सात्विक, राजस, तामस ये तीन गुण होते हैं । उनमें हलचल उत्पन्न होने पर गुणों में विषमता होकर वही गुण स्वयं ही तामस भाग से शरीर, राजस भाग से मन सहित इद्रियां और सात्विक अंश से बुद्धि बन जाती है । वही इन्द्रिय आदि के विषय भी बन जाती है । तो इस प्रकार अनेक रूपों में दिखने और अनुभव में आने वाली प्रकृति ही है । वही सब कर रही है, किन्तु प्रकृति संगति के कारण उसके गुणों से मोहित हुआ मनुष्य सीमित अहंता में बंध जाता है जिसके कारण स्वयं को ही कार्य करण संघात समझ लेता है और यही मैं हूँ, मैं ही कर्ता हूँ, मैं ही सुख दुःख आदि का भोक्ता हूँ पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य...१३/२१ । यहां पर सीमित अहंता को ही अहंकार कहा गया है । अर्थात सभी अनर्थों की जड़ सीमित यानी परिच्छिन्न अहंता ही है ऐसा समझाया गया है ।।२७।।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।३/२८।।
किन्तु हे महाबाहो ! तत्त्ववेत्ता गुण और कर्म के विभाग को जानकर गुण ही गुणों में कार्य रहे हैं इस प्रकार मानकर उनमें आसक्त नहीं होते ।
ज्ञानी अज्ञानी में यही अन्तर है अज्ञानी कर्ताहमिति मन्यते अर्थात मैं ही कर्ता भोक्ता आदि हूँ और ज्ञानी उनमें आसक्त ही नहीं होता उसकी मान्यता है नैव किञ्छित्करोमीति ५/८ अर्थात तत्त्ववेत्ता का यह निश्चय होता है कि मैं कुछ करता ही नहीं क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण ही गुणों में व्यवहार करते हैं मैं नहीं इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते ५/९ ऐसा आगे कहेंगे । गुण कर्म का विभाग भी विस्तृत रूप से अध्याय १४ में कहा जायेगा ।
विशेष– यहाँ यह समझना चाहिए कि शरीर से लेकर बुद्धि पर्यंत सभी प्रकृति के कार्य हैं वे सभी अनात्म पदार्थ हैं ज्ञानी अनात्म पदार्थ से संबंध विच्छेद करके एकमात्र आत्म पदार्थ में ही स्थित होता है । इसी कारण उसे कुछ भी करना और न करना, पाने योग्य और त्यागने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहता तस्य कार्यं न विद्यते ३/१७ ।।३/२८।।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मषु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।।३/२९।।
प्रकृति से उत्पन्न गुणों से मोहित हुआ अज्ञानी तीनों गुणों के कर्मों में आसक्त रहते हैं । उन कर्मों के स्वरूप को न जानने वाले मन्दबुद्धि मनुष्यों को तत्त्ववेत्ता विचलित न करे ।
प्रकृतिजन्य त्रिगुणात्मक कर्म जिनसे पारलौकिक स्वर्गादि की प्राप्ति, लोक में सम्मान धन आदि की प्राप्ति में आसक्त रहने वाले मनुष्यों को तत्त्ववेत्ता विचलित न करे बल्कि पूर्व मे कहे के अनुसार स्वयं करे और कराते हुए उनका मार्ग दर्शन करे ।।२९।।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निममो भूत्वा युद्धस्व विगतज्वरः ।।३/३०।।
विवेकबुद्धि के द्वारा सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशा रहित, मामता रहित होकर मानसिक संताप का त्याग करके युद्ध कर ।
यहां मूल में अध्यात्मचेतसा आया है अध्यात्म का अर्थ आत्मा और अनात्मा का जिन साधनों से विवेक हो जाये वे साधन, उस विवेक का आत्मभाव में स्थिर हो जाना यही अध्यात्मचेतसा है । जैसा कि श्लोक २८ में गुणकर्म विभाग पूर्वक वह आत्मभाव में स्थित होता । उसी को यहाँ अध्यात्मचेतसा से कहते हैं कि उसी आत्मभाव में स्थित विवेक के द्वारा सभी कर्मों को मुझ सच्चिदानंद में अर्पित करके― यहां आत्मभाव में स्थिरता और मुझ सच्चिदानन्द में ऐसा जो कहा गया है वह आत्मा और परमात्मा की एकता सूचित करने के लिए कहा गया है जैसा कि युक्त आसीत मत्परः २/६१ कहा था । व्याख्या वहीं देखना चाहिए । यहां आत्मा परमात्मा में अभिन्नता का प्रतिपादन करते हुए यह कहा गया है कि सब कुछ सच्चिदानन्द स्वरूप है उससे भिन्न कुछ नहीं है । न तू मुझसे भिन्न न मैं तुझसे , जो तू है वह मैं हूँ और जो मैं हूँ वह तू है ऐसे दृढ भाव को स्थिर करके सभी अनात्म पदार्थों से होने वाले कर्म प्रकृति में हो रहे हैं और प्रकृति का अधिष्ठान अर्थात प्रकृति को भी सत्ता देने वाला मैं हूँ अतः सभी कर्म मेरी सत्ता में मुझसे ही हो रहे हैं मत्तः सर्वं प्रवर्तते १०/८ ऐसा मानकर शोक संताप त्यागकर युद्ध कर ।।३२।।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ।।३/३१।।
जो मनुष्य मेरे इस मत का निरंतर अनुष्ठान करते हैं, मेरे प्रति श्रद्धा है मुझमें दोष नहीं देखते हैं वे भी कर्मों से मुक्त हो जाते हैं ।
यहां कर्मों से मुक्त होने का मतलब है वे नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त करके क्रम मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं । यही बात गीता के उपसंहार में भी कहेंगे― इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।१८/६७। इस प्रकार भगवान कहते हैं कि ये मेरा अपना मत है । अतः जो साधन चतुष्टय संपन्न नहीं हैं उन्हें इस प्रकार से कर्तव्य कर्म करना ही चाहिए ।।३१।।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।।३/३२।।
किन्तु जो इस प्रकार कहे हुए मेरे मत में दोष देखते हुए स्थित नहीं होंगे वे सभी प्रकार के ज्ञान से विमूढ हैं उन अविवेकियों को नष्ट हुआ जान ।
भगवान का यहाँ पर कहा गया प्रकृति और आत्मा जिसे अध्याय १३ में प्रकृति और पुरुष गया है उसको गुणकर्मविभाग सहित जानकर जो मनुष्य उसका अनुष्ठान नहीं करता वह सभी प्रकार के ज्ञान का मतलब भ्रामक काम्यकर्म संबंधित बहुत प्रकार के सांसारिक ज्ञान द्वारा भ्रमित होकर मूढता को प्राप्त होने के कारण जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है ऐसे बुद्धिहीनो को नष्ट हुआ जान ।।३२।।
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।।३/३३।।
ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते हैं सभी प्राणी अपनी अपनी प्रकृति को प्राप्त होते हैं, उन पर निग्रह क्या करेगा ?
अध्याय १८ में सभी प्राणियों का पूर्व जन्म के गुण कर्मों के आधार पर जन्म लेना बताया है अतः उसी के अनुसार इस शरीर में स्थित ज्ञानी भी व्यवहार करता है । दुर्वसा जी क्रोधी हैं, संवर्तक जी धूलधूसरित रहते हैं, दत्तात्रेय जी छद्मवेशी हैं, बृहस्पति देवगुरु तो शुक्राचार्य जी असुर गुरु इत्यादि । ज्ञान में किसी में भी कोई कमी नहीं तथापि प्रकृति भिन्न है, इसी प्रकार सभी प्राणी अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं ऐसे प्रकृति के आधीन लोगों पर अनुशासन क्या करेगा ? अर्थात उनके लिए शम दमादि से भी कुछ होने वाला नहीं और न ही उसके लिए कोई उपदेश ही अनुशासित कर सकता है ।।३३।।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्मवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।३/३४।।
इन्द्रियां इद्रियों के विषयों में राग द्वेष के कारण स्थित हैं उन दोनो के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि ये दोनो इस परमार्थपथगामी मुमुक्षु के मार्ग के शत्रु हैं ।
पूर्व श्लोक में बताया गया था कि ज्ञानी भी पूर्व प्रारब्ध से उत्पन्न स्वभाव के अनुसार ही आचरण करते हैं तो वैसे ही अज्ञानी आचरण करते हैं उन पर अनुशासन कुछ नहीं कर सकता है तो उस पर शंका हो जाती है कि यदि ऐसा है तो फिर आपका उपदेश तो व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि सब प्रकृति के अनुसार ही करते हैं, इसका उत्तर यहां दिया जा रहा है– यद्यपि स्वभाव तो पूर्व कृत कर्मों के अनुसार होता ही है जैसे बीज का कार्य है अंकुरित होना, किन्तु जब तक उपजाऊ भूमि न मिले खाद, पानी न मिले तब तक अंकुरित नहीं हो सकता वह यूं ही बरसात आदि में नष्ट हो जायेगा, अथवा अंकुरित हो भी गया तो उसका संरक्षण न करने से भी पशुओं आदि के माध्यम से, खाद, पानी न देने से भी सूख कर नष्ट हो जायेगा । इसी प्रकार हमारी प्रत्येक चेष्टा राग द्वेष को ही लेकर होती है अगर हमारा किसी चीज से लगाव न हो तो उसके दूसरे के पास होने में द्वेष भी नहीं हो सकता है । इतनी तो हमारी स्वतंत्रता है ही, अतः राग द्वेष से व्यस्थित अर्थात चंचल इन्द्रियां उनके शब्दादि विषयों में स्थित हैं । उन दोनो के वश में मनुष्य को नहीं होना चाहिए क्योंकि यही राग द्वेष ही मनुष्य के पतन के मार्ग हैं ।।३५।।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।३/३५।।
दूसरे के श्रेष्ठ धर्म की अपेक्षा अपने गुण रहित धर्म का भलीभांति पालन करना श्रेष्ठ है । स्वधर्म में मरना श्रेष्ठ है, दूसरे का धर्म भय देने वाला होता है ।
अर्जुन को संन्यास धर्म श्रेष्ठ दिखाई दे रहा है इसीलिये वह उसे स्वीकार करना चाहता है किन्तु वह एक गृहस्थ के लिए पर यानी दूसरे का धर्म है क्योंकि अभी उसका अधिकार प्राप्त नहीं और अपने स्वधर्म से पलायन करना चाहता है । इसलिए पलायन करके दूसरे धर्म को स्वीकार करने वाला समय के अनुसार वहां के भी कर्तव्य का पालन ठीक से नहीं कर सकेगा अतः वहां भी भय उत्पन्न होगा । भले क्षत्र धर्म हिंसा जैसे दोष से ओतप्रोत हो लेकिन उसमें निपुण होने के कारण वही श्रेष्ठ है । यह समाज के प्रत्येक मनुष्य के लिए समझना चाहिए । इसका विस्तृत विवेचन अध्याय १८ में किया जायेगा ।।३५।।
समीक्षा― नैष्कर्म्य सिद्धि के लिए बताया कि वैदिक कर्म का अनुष्ठान आवश्यक है क्योंकि वैदिक कर्म जो पंचमहायज्ञ आदि के नाम से कहे गये हैं उन्हीं कर्तव्य कर्मों का वेद विधि से अनुष्ठान करने से ही अविनाशी ब्रह्म की प्राप्ति होती है । इस पर यह शंका हुई कि फिर तो ज्ञानी को भी कर्म करना ही चाहिए जिस पर कहा कि जिसकी गति एक मात्र आत्मा से भिन्न है ही नहीं ऐसे आत्माराम के लिए कोई कर्तव्य कर्म शेष ही नहीं रहता है । वह पूर्ण काम है । अतः तू भी अनासक्त होकर कर्तव्य कर्म द्वारा परम पुरुष को प्राप्त कर लेगा । जनकादि पूर्वजों के अनुसार ज्ञान और अज्ञान दोनो ही रूपों में तेरे लिए अनुकरणीय है । जनकादि से प्रत्येक को अपने कुलोत्पन्न श्रेष्ठ पुरुष समझना चाहिए । अगर उसे ज्ञान की प्राप्ति होने पर कर्मों की आवश्यकता नहीं भी हो तो भी मेरी तरह कर्म करे अन्यथा प्रजा की मर्यादा का नाश करके दुराचार व्यभिचार उत्पन्न होकर वर्णसंकर उत्पन्न करने वाला वही होगा अर्थात समाज की मर्यादा भंग करने का दोष उसे ही लगेगा । अज्ञानी की भांति बाहर से आसक्त हुआ सा कर्म करे और कराए एवं अज्ञानियों की बुद्धि में भेद न पैदा करे कि वह दोनो ओर से नष्ट हो जाये सीमित अहंता को व्यापक अहंता से जोड़कर आत्मा अनात्मा के विवेक का आश्रय लेकर परमात्मा के साथ अभिन्न मानता हुआ उनके कर्म उन्हीं को अर्पित करके फिर जागतिक कार्यों का विधिवत प्रतिपादन करे । यदि वह ऐसा नहीं करता है तो जागतिक नाना प्रकार के भेदज्ञान के कारण वह बुद्धिहीन नष्ट हुआ जानना चाहिए यद्यपि सभी अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार व्यवहार करते हैं तो भी अपनी इन्द्रियों को अपने अनुशासन में करके राग द्वेष रूपी कल्याण पथ के शत्रुओं को जीतकर अपने गुणीहीन धर्म का ही पालन करे । स्वधर्म में तो मर जाना भी श्रेष्ठ है हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम् २/३७ ।। क्योंकि दूसरे का धर्म भय देने वाला होता है ।।१७-३५।।
श्लोक ३३ में कहा था कि व्यक्ति का स्वभाव जैसा होता वह वैसा ही करता है भले वह आत्मज्ञानी ही क्यों न हो, इस बात को सुनकर अर्जुन भी उसके अनुसार ही यहाँ प्रश्न करता है―
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ।।३/३६।।
अर्जुन बोले― हे वार्ष्णेय ! इस प्रकार किसके द्वारा नियुक्त किया हुआ यह पुरुष इच्छा न होने पर भी जबर्दस्ती लगाये हुए की तरह पाप करता है ?
मतलब पाप तो कोई करना ही नहीं चाहता है तो भी पाप करता ही है ऐसा करने के लिए वह किसके द्वारा बाध्य किया जाता है ।।३६।।
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ।।३/३७।।
श्रीभगवान बोले― रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही इस मुमुक्षु का शत्रु है, यह काम ही क्रोध रूप में परिणत होता है । यह काम बहुत खाने वाला महापापी है इसे परमार्थपथगामी का शत्रु जान ।
सभी अर्थों का मूल काम ही है । यह काम भी रजोगुण की वृद्धि से उत्पन्न । इस काम से ही क्रोध उत्पन्न होता है कामात्क्रोधोभिजायते २/६२ सबके मूल में सबकी जड़ रजोगुण ही है । किन्तु यह पकड़ में आता नहीं है । इसका ज्येष्ठ पुत्र है काम अर्थात हमारे जीवन की प्रत्येक कामना ही हमारे जीवन की परम शत्रु है । यह आयी तो फिर इसके अन्य क्रोध लोभ, होह, मत्सर ये इसके बन्धुजन, एवं तृष्णा, ईर्ष्या आदि इसकी बहने भी आयेंगी ही तो फिर अनर्थ होना ही है इसीलिये प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् २/५५ अर्थात जब मन में संकल्प विकल्पात्मक सभी कामनाएं नष्ट हो जाती हैं तभी वह समाधि को प्राप्त होता है । अतः यहाँ पर काम को ही वश में करने का निर्देश दिया गया है जिसका स्पष्टीकरण अध्याय के विश्राम पर्यंत किया जायेगा ।।३७।।
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनवृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।।३/३८।।
जैसे धुवां अग्नि को ढक लेता है और दर्पण को धूल ढक लेती है । जेर गर्भ को ढक लेती है वैसे ही यह ज्ञान काम के द्वारा ढका है ।
यहां तीन उदाहरण दिये गये हैं क्रमशः तीनो का अपना अपना अलग ही महत्व है । विस्तार श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखना चाहिए । यहाँ इतना समझना है कि आत्यन्तिक ज्ञान का अभाव होना जिससे उसे मैं ब्रह्म हूँ की अनुभूति की तो बात ही छोड़ो वह अपने को शरीर से भिन्न मैं कोई जीव भी हूँ यह भी नहीं जानता । वह तो कार्य करण संघात अर्थात इन्द्रियों सहित शरीर को ही मैं यही हूँ और इतना ही हूँ ऐसा मानता है । इसी सीमित अहंता के कारण उसके भरण पोषण में लगा रहता है जिसके कारण वह माता, पिता, गुरु तक की हत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैठता है फिर अन्य पापों की बात ही क्या कहा जाये ? यही ज्ञान का अत्यंत ढक जाना है । इसलिये ही ये क्रमशः तीनो उदाहण दिये गये हैं ।।३८।।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।।३/३९।।
ज्ञानियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है । हे कौन्तेय ! यह कामरूप अर्थात इच्छित रूप धारण करने वाला उतनी कठिनता से पूरा होता है जैसे अत्यंत प्रचंड अग्नि में सूखे तिनके डालने से पूरा किया जाता है ।
यहाँ ज्ञानी का अर्थ जो आत्मा, अनात्मा की विवेक करके आत्मा में आरूढ हो गये हैं उनके लिए नहीं कहा गया बल्कि वे मुमुक्षु हैं जिनके अन्दर विवेक है । वे विवेक द्वारा जानते हैं कि इस काल में भले ये कामनाएं अच्छी लग रही हैं, भोग अच्छे दिखते हैं, किन्तु ये हैं विष के समान ही दुःख देने वाले हैं परिणामे विषमिव १८/३८ किन्तु वे उन से निवृत्त नहीं हो पा रहे हैं इसलिए दुःखी होते हैं । मूर्ख तो उन कामनाओं और विषयों को मित्रवत स्वागत करते हैं भले परिणाम कैसा भी दुःखद हो । अतः ज्ञानी का यहां अर्थ साधन परायण साधक यानी मुमुक्षु और ज्ञान का अर्थ विवेक समझना चाहिए । यहाँ इच्छाओं को कामरूप कहने का मतलब यह है कि साधक जब एक ओर से मुंह मोड़ लेता है तब वह दूसरा रूप धारण करता है फिर तीसरा चौथा पांचवा इत्यादि । जैसी जैसी साधक की वृत्ति बदलती जायेगी वैसा वैसा रूप धारण करती जायेंगी । इस लिए जैसे प्रचंड अग्नि में छोटे छोटे तिनके पूरे नहीं किये जा सकते किन्तु तिनका डालना बंद कर देने पर अग्नि स्वतः शान्त हो जाती है वैसे ही इन्द्रियों को वश में करके उनके आहार उनके अनुसार न देने पर वे स्वतः शान्त अर्थात निष्काम हो जायेंगी ऐसा इसका भाव है ।।३९।।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ।।३/४०।।
इस काम निवास स्थान इन्द्रियां, मन और बुद्धि है । इन से मोहित होकर जीवधारी का मोह ढक जाता है ।
यहां पर जिस काम का निवास इन्द्रिय, मन और बुद्धि को बताया गया है उसको इस प्रकार समझना चाहिए कि विषयों की अधिष्ठान इन्द्रियां हैं किन्तु इन्द्रियां बिना मन से मिले जड़ हैं, कुछ नहीं कर सकतीं है इसलिये इन्द्रियां चूंकि मन में सन्निहित हैं इसलिये मन को अपने अनुकूल बना लेती हैं और मन भी बिना बुद्धि के बिना कुछ नहीं कर सकता है क्योंकि वह बुद्धि में रहता है इसलिए वह बुद्धि को अपने अनुकूल बना लेता है । यद्यपि बुद्धि अपंचीकृत महाभूतों का पंचीकृत सात्विक अंश है उसमें कोई भी विकार नहीं होता है तो भी वह मन की संगति करके मन को उसके अनुकूल और मन इन्द्रियों के अनुकूल अनुमति दे देता है जिससे बुद्धि ही नष्ट सी हो जाती है इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।२/६७।। यह श्लोक प्रस्तुत श्लोक की संगति बनेगी इस प्रकार कामनाएं यानी विषय, इन्द्रियां, मन और बुद्धि चारों मिलकर एक साथ रहने के कारण ही काम का वास इन चारों में कहा गया है ।
शरीर को धारण करने वाले जीव को इस प्रकार इन विषयों से मोहित करके ज्ञान को ढक लेती हैं । यहाँ पर विषयों के रहने के स्थान का वर्णन इस लिए किया गया कि यदि शत्रु से अधिक परेशान हो तो उसके निवास स्थान को जहां वह छुपता है नष्ट कर देना चाहिए ताकि उसके छुपने का स्थान नष्ट होते ही बाहर आ जाये और हम उस पर भलीभाँति विजय पा सकें । इसलिये इन्द्रियों पर मन का अनुशासन और मन पर सदसद्विवेक द्वारा निश्चयात्मिका बुद्धि का अनुशासन होना चाहिए । यही यहाँ का तात्पर्य है जैसा कि आगे कहते हैं ।।४०।।
तस्मात्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।३/४१।।
इसलिये हे भरतश्रेष्ठ ! तुम इन्द्रियों को पहले अनुशासित करो फिर इस ज्ञान विज्ञान का नाश करने वाले महापापी को पूर्णतः मार डालो ।
यहाँ पर पांचों कर्मेन्द्रियाँ बिना ज्ञानेद्रियों के कुछ नहीं कर सकती हैं अतः यहाँ पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ही लेनी चाहिए या यूं कहें कि बाह्य स्थूल विषय ग्रहण या त्याग से कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि आन्तरिक रह लेना बंद हो जाये जैसा कि श्लोक छः में कहा गया है,तो इन्हें वश में करना सरल हो जाये । अतः ज्ञानेन्द्रियों से सूक्ष्म शब्दादि विषयों के रस के प्रति लोलुपता का त्याग ही पांचों ज्ञानेन्द्रियों को वश में करना है यह मन के द्वारा होगा और बुद्धि के द्वारा सदसद्विवेक के निश्चय से नियंत्रित होगा । ज्ञान वह है जो आचार्य और शास्त्र के माध्यम से आत्मा अनात्मा का विवेक का श्रवण द्वारा होता है और इसकी अनुभूति ही विज्ञान है । इनकी रक्षा काम के नाश से ही होगा ।।४१।।
अब प्रश्न यह है कि इस काम के रहने के स्थान का पता चल गया लेकिन ये बड़े दुर्जय हैं इनके नाश का उपाय क्या ? इस पर अगले दो श्लोकों द्वारा उत्तर देते हुए अध्याय का उपसंहार करना….
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।३/४२।।
शरीर से सूक्ष्म इन्द्रियां, इन्द्रियों से सूक्ष्म मन कहा गया है मन से सूक्ष्म बुद्धि और जो बुद्धि से भी सूक्ष्म है वह आत्मा है ।
यहाँ पर शरीर तो साढे तीन हाथ का ही होने से इसकी अपेक्षा सूक्ष्म इन्द्रियां व्यापक होने से शरीर से श्रेष्ठ हैं क्योंकि शरीर के न रहने पर भी इन्द्रियां होती हैं, इन्द्रियों की अपेक्षा संकल्प विकल्पात्मक व्यापक होने से मन श्रेष्ठ है, मन को भी निश्चय प्रदान करने वाली बुद्धि मन से भी सूक्ष्म और व्यापक है और इस बुद्धि को सत्ता देने वाली वह आत्मा ही है जो इन सबकी संगति से विषयी बना हुआ है ।
यहाँ पर सः का अर्थ कुछ विद्वानों द्वारा काम किया गया है जो उनके अनुसार ठीक भी है क्योंकि काम वास मन, बुद्धि में भी होता है इसलिए बुद्धि से भी सूक्ष्म ऐसा माना गया है । यह अर्थ आपके अनुसार अवश्य ठीक ही है तथापि मेरा विचार कहता है कि यदि काम बुद्धि से भी सूक्ष्म है इसका अर्थ यह हुआ कि काम ही बुद्धि को सत्ता दे रहा है, क्योंकि प्रत्येक सूक्ष्म अपने से स्थूल को सत्ता देता ही है इस प्रकार यदि काम ही बुद्धि को सत्ता दे रहा है तो काम कभी निवृत्त ही नहीं होगा क्योंकि स्वामी की आज्ञा का पालन सेवक-सेविका को करना ही पड़ता है, कोई स्वामी अपने सेवक द्वारा अपना नाश क्यों होने देगा ? किन्तु विचार करने पर काम की तो कोई सत्ता ही नहीं है सत्ता तो बुद्धि ने संग दोष से दे रखी है, इसीलिये जब आचार्य की कृपा से तत्त्वमस्यादि का श्रवण करता एवं उसका विचार करके जब आत्मा अनात्मा का विचार निश्चय हो जाता है तब काम तो नष्ट ही हो जाता है क्योंकि स्वसंवेद्य आत्मा का जिस वृत्ति से अनुभव होता है वह बुद्धि फिर भी होती है अतः यहाँ पर सः का अर्थ काम न होकर आत्मा ही होगा । व्यष्टि में सः का अर्थात आत्मा और समष्टि में परमात्मा एवं व्यष्टि में बुद्धि और समष्टि में महत् नाम धारण करने वाली प्रकृति ऐसा अर्थ होगा । यहां एक प्रकार से पंचीकरण प्रक्रिया का संक्षिप्त वर्णन किया गया है जिसके माध्यम से गुणकर्म विभाग का वर्णन किया गया है गुणकर्मविभागयोः ३/२८ । क्योंकि यही एकमात्र साधन आत्मा अनात्मा के विवेक का है जब यह विवेक दृढ हो जायेगा तो काम तो अपने आप मरे हुए के समान हो जायेगा क्योंकि उसका कवच टूट चुका होगा । यही यहाँ पर बताया गया है ।।४२।।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।।३/४३।।
इस प्रकार (उपरोक्त गुणकर्मविभाग द्वारा) बुद्धि से सूक्ष्म आत्मा के स्वरूप को जानकर विवेक बुद्धि द्वारा मन को वश में करके दुर्जय कामरूप शत्रु को मार डाल ।
यहां पर पूर्वोक्त श्लोक में कहा गया जो आत्मा का स्वरूप उसको सत् असत् का निर्णय करने वाली निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा समझकर अर्थात अपने स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप में स्थित होकर उसी निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा मन को वश में करके― क्योंकि मन वश में होने से संकल्प विकल्प ही समाप्त हो जायेंगे तो मन और इन्द्रियां करेंगी क्या ? इसी को आगे कहेंगे आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ उसी को यहाँ पर विवेक बुद्धि द्वारा मन को वश में करना कहा गया है यही स्थित प्रज्ञ का लक्षण है आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते २/५५ । इस प्रकार जब मोक्षार्थी स्वरूपस्थ हो जायेगा तब काम तो बिना मारे अपने आप ही मर जायेगा वह भले ही दुर्जय हो क्योंकि काम का स्वरूप संकल्प है सङ्कल्पप्रभवान्कामान् ६/२४ अर्थात कामनाएं संकल्प ही उत्पन्न होती हैं और संकल्प ही समाप्त तो काम ही समाप्त हो जायेगा । तथापि साधन साध्य की दृष्टि से काम को मार डालने की बात कही गई है । यह स्वरूप स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है इसी को प्राप्त होने पर फिर कभी मोह नहीं होता २/७२ यही आत्मवान् २/४५ है । यहाँ काम हो ही नहीं सकता है ।। यही इसका भाव समझा में आता है ।।४३।।
समीक्षा― प्रकृति के द्वारा नियंत्रित किया जाता हुआ मनुष्य को राग द्वेष में स्थित होता और यही राग द्वेष मुमुक्षु के परम शत्रु हैं । इस पर अर्जुन प्रश्न करता है कि कोई भी पाप नहीं करना चाहता है किन्तु किस बलवान की प्रेरणा से यह सब बलपूर्वक कराया जाता है ? उस पर भगवान ने काम को ही सभी अनर्थों की जड़ बताया । ये इच्छाएं ही मनुष्य के विवेक का हरण करके स्वरूप ज्ञान को ढक देती हैं जिससे वह अपना स्वरूप भूलकर शरीर को ही मैं मान बैठता है । इसलिये सबसे पहली प्राथमिकता होती है इच्छाओं पर नियंत्रण करने की, जिस पर मन और मन पर बुद्धि का नियंत्रण होता है किन्तु जब बुद्धि संग दोष से आवृत हो जाती है तब स्वयं को परिच्छिन्न मानकर सुख दुःख का अनुभव करती है और जब अपने अपरिच्छिन्न रूप का विचार करके स्थिर होती है तब सारी वासनाएं स्वतः मिट जाती हैं । तथापि साधना काल में विषयों पर नियंत्रण, मन के संकल्प विकल्प पर अनुशासन, बुद्धि का सत् और असत् के विचारों की निरंतरता बनाये रखना एवं ऐकान्तिक समाधि निष्ठा का एक साथ अभ्यास करना आवश्यक है । यहाँ पर अर्जुन के माध्यम से यह भी बताया गया है कि बाह्य शत्रु कितना भी बलवान हो उन्हें जीता जा सकता है किन्तु आन्तरिक कामादि शत्रुओं का जीतना अत्यंत दुष्कर है अर्थात इन्हें तब तक जीता नहीं जा सकता है जब तक ऐकान्तिक स्वरूप निष्ठा न बन जाये । जिसकी स्वरूप निष्ठा बन गई है, जिसने काम को जीत लिया है वही महाबाहु अर्थात बड़ी भुजाओं वाला है । यही मानव मात्र का लक्ष्य है ।ओ३म् ।।३६-४३।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ।।३।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
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