गीता समीक्षा अध्याय ५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ पञ्चमोऽधायः
अध्याय चार में भगवान ने कर्म के स्वरूप की व्याख्या करते हुए ज्ञानयोग की महिमा और जीवात्मैक्य का विस्तृत वर्णन किया और अन्त में कहा कि योग की महिमा को समझकर अर्थात आत्मभाव में स्थित होकर युद्ध के लि खड़ा हो जा । इस प्रकार कर्म करने की आज्ञा सुनकर अर्जुन कुछ निर्णय नहीं कर सका कि इतनी बड़ी ज्ञान की महिमा बताकर कर्म में क्यों लगा रहे हैं ? इसी बात का निर्णय करने के लिए अर्जुन पुनः प्रश्न करता है…..
अर्जुन उवाच
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।५/१।।
अर्जुन बोले― हे कृष्ण ! कर्मों के स्वरूप से त्याग और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हो इन दोनो में जो एक श्रेष्ठ हो उसे मुझसे भलीभांति निश्चित करके कहो ।।१।।
श्रीभगवानुवाच
सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकराउभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।५/२।।
श्रीभगवान बोले― कर्मों का स्वरूप से त्याग अर्थात ज्ञानयोग एवं कर्मों का भलीभांति अनुष्ठान दोनो ही भली प्रकार कल्याण करने वाले हैं । उन दोनो में भी कर्मों के स्वरूप से त्याग की अपेक्षा कर्मयोग ही श्रेष्ठ है ।
यहाँ पर सर्वकर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक आत्मा और अनात्मा का विवेक उत्पन्न नहीं हो जाता है तब तक आत्मस्वरूप में भलीभांति प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है, ऐसे अविवेकपूर्ण कर्म संन्यास कीअपेक्षा कर्मों के स्वरूप को समझकर निष्काम कर्म करना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि कर्म ही चित्तशुद्धि करके ज्ञान को उत्पन्न करने में हेतु है । इस प्रकार कर्मयोग की स्तुति ज्ञान के अनधिकारी को कर्म में प्रवृत्त कराने के लिए की गई है ।।२।।
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।५/३।।
नित्य संन्यासी उसी को जानना चाहिए जो न तो किसी से द्वेष करता है और न ही कोई इच्छा करता है । हे महाबहो ! क्योंकि वह निर्द्वन्द्व हुआ सुखपूर्वक बन्धन से भलीभाँति छूट जाता है ।
कर्मयोगी की प्रशंसा करते हुए नित्यसंन्यासी का लक्षण बताते हैं कि जो सुख के साधन हैं उनकी इच्छा नहीं करता अर्थात अप्राप्त साधन में भी सदैव संतुष्ट रहता है और वह साधन यदि किसी के पास है तो उससे वह द्वेष भी नहीं करता है यही संन्यासी का लक्षण है । यह लक्षण जहाँ भी हो वह कर्मी भी नित्य संन्यासी ही जानना चाहिए । जो राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित है वह सुखपूर्वक अर्थात बिना प्रयत्न के ही जन्ममृत्यु के बन्धन से भलीभांति मुक्त हो जाता है अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । हि ज्ञान की अपेक्षा कर्मों के निर्धारण का निश्चय करने के लिए है ।
यहाँ पर कर्मयोगी को सुखपूर्वक मुक्त होना माना गया है । जबकि अव्यक्त के उपासक के लिए अध्याय १२ में अधिक क्लेश कहा गया है क्लेशोऽधिकतस्तेषां अव्यक्तासक्तचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते १२/५ यहाँ पर पूर्वोक्त श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि सर्वकर्मसंन्यास अर्थात ज्ञानयोग का स्वरूप से ज्ञान न होने के कारण कर्मयोग श्रेष्ठ है क्योंकि जब तक गुणकर्मविभाग का तात्त्विक ज्ञान होगा नहीं ३/२८ तब तक देहाभिमान जायेगा नहीं, और जब तक देहाभिमान जायेगा नहीं तब तक वह इद्रियाराम, अत्यंत मूढ और मिथ्याचारी अर्थात दंभी है और दंभी को कभी त्रिकाल में ज्ञान हो सकता नहीं है, इसीलिये सन्नियम्येन्द्रिग्रामम् १२/४ कहा गया है । यहाँ का स्पष्टीकरण ही अध्याय बारह में किया गया है तथापि यदि कोई अपनी हठधर्मिता के कारण दुराग्रह करता है कि कि अव्यक्त उपासक को अधिक क्लेश होता है तो उसका ज्ञान दया के योग्य है । जबकि वह स्वयं कर्म के क्लेश को जानता है । यदि वह यह मानता है कि कर्म में क्लेश नहीं है तो वह कार्य करने के पश्चात विश्राम की इच्छा क्योंकि करता है ? कर्म में निरंतरता क्यों नहीं बनाये रखता है ? जबकि ज्ञानी जिसका देहाभिमान नष्ट हो गया है वह निरंतर स्वरूप में स्थित रहता है या प्रयत्नशील रहता है । इसी जगह पर अपने अधिकार को देखो और यह कर्मयोग उसी ज्ञान प्राप्ति के निमित्त कहा गया है जिससे चित्तशुद्धि होकर वह ज्ञान का अधिकारी बन सके । इसीलिये भक्तियोग कहे जाने वाले अध्याय बारह में ऐसे अनधिकारियों के लिए कर्मफल का त्याग करके अद्वेष्टा सर्वभूतानां १२/१३ आदि ज्ञानियों के अमृतमय लक्षणों का अनुष्ठान करने को कहा गया है । ऐसा क्यों कहा गया है यदि आपकी भेदपूर्ण भक्ति और कर्म ही अन्तिमा गन्तव्य है ? भगवान आगे यह भी कहेंगे कि ददामि बुद्धियोगं तम् १९/१०, …...अज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता १०/११ भगावन ज्ञान देंगे उसका उद्धार नहीं करेंगे क्योंकि तेषामहं समुद्धर्ता १२/७ अर्थात यहां पर यह नहीं कहा कि मैं अपने भक्त का उद्धार करता हूँ बल्कि यह कहा कि मैं उद्धार करने वाला बनता हूँ । कैसे बनते हैं ? इस पर आगे भक्त को ज्ञानी के लक्षणों को अमृतमय समझकर अनुष्ठान करने को कह दिया और अध्याय चौदह में त्रिगुणातीत के लक्षणों का अनुगमन करने को कह दिया । तात्पर्य यह है कि यदि ज्ञानयोग इतना ही आपकी दृष्टि में निम्न होता तो ज्ञानी के लक्षणों का अनुगमन करने को भगवान कहते ही क्यों ? इस पर विचार करो कि या तो जिन्हें आप भगवान और अन्तर्यामी कहते हो उन श्रीकृष्ण को अज्ञानी स्वीकार करो कि उन्होंने अपने अज्ञान के कारण ही ऐसा कह दिया अथवा आप अपना अज्ञान स्वीकार करो कि आपका अधिकार गीता समझने के लिए कम पड़ रहा है । हम तो अनुवाद मात्र भगवान की वाणी का कर रहे हैं और निर्णय आपको को ही करना है ।
भावार्थ― कर्म की स्तुति करके कर्म की चित्तशुद्धि में और ज्ञान उत्पत्ति में ही अहं भूमिका है जिसके बिना ज्ञान हो ही नहीं सकता अतः गुणकर्मविभाग पूर्वक जिनका ज्ञान स्वरूपगत निश्चय को प्राप्त नहीं हुआ है उनके लिए ही यह कर्म करने का उपदेश दिया गया है ।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।५/४।।
सांख्ययोग और कर्मयोग अलग अलग है बच्चे लोग ही हठपूर्वक कहते हैं न कि प्रौढजन । इन दोनो में से एक में भी भलीभांति स्थित हो जाने पर दोनो का फल प्राप्त होता है ।
ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनो अलग अलग हैं ऐसा लोगों के मन में जो भ्रम है वह बच्चों के जैसा है, जैसे बच्चों को हित या अहित का ज्ञान नहीं होता है और कुछ भी कह एवं मान बैठते हैं यही हठ इन अविवेकी द्वैतवादियों में होता है । यहाँ प्रवदन्ति कहने का मतलब यह है कि वे भली प्रकार ज्ञान न होने पर भी अपने अज्ञान को ही भलीभांति दूसरों पर थोपते और झगड़ा करते रहते हैं कोई विवेकशील कभी ऐसा नहीं कर सकता है क्योंकि वह तत्त्व के रहस्य को जानता है कि कर्म चित्तशुद्धि का साधन है साध्य नहीं । जब कोई अनधिकारी निष्काम भाव से कर्म को करेगा तो कालान्तर में चित्तशुद्धि होकर ज्ञानपूर्वक स्वरूप में प्रतिष्ठित होगा ही और जो सीधे गुणकर्मविभाग पूर्वक स्वरूप में प्रतिष्ठित होने के लिए चौदह इन्द्रियों के समूह को अपने आधीन करके निरंतर प्रयत्नशील हैं वे भी स्वरूप में ही प्रतिष्ठित होंगे अर्थात दोनो की प्रतिष्ठित अन्त में स्वरूप में ही होनी है । यह जो अन्तिम फलदृष्टि है यह एक ही है इस बात का अगले श्लोक में स्पष्ट करते हैं ।।४।।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५/५।।
जिस स्थान को ज्ञानयोगी प्राप्त करते हैं उसी स्थान को कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं । इस प्रकार सांख्ययोग और कर्म योग एक ही है ऐसा जो देखता है वही ठीक से देखता अर्थात जानता है ।
व्याख्या पूर्वश्लोक में फलदृष्टि से हो चुकी है । यही तत्त्व से ठीक ठीक देखना है तत्त्वित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागशः ३/२८ शेष अर्थ स्पष्ट है ।।५।।
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।५/६।।
क्योंकि हे महाबाहो ! अयुक्त पुरुष के लिए संन्यास की प्राप्ति दुःखद है । कर्म योग से युक्त मननशील मुनि शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं ।
यहां पर यह स्पष्ट किया गया है कि संन्यास यानी ज्ञानयोग से कर्मयोग श्रेष्ठ क्यों है ? क्योंकि शंका हो सकती थी कि जब सांख्य और कर्म दोनो ही योग श्रेष्ठ हैं तो स्तुति कर्मयोग की ही क्यों की गई सांख्ययोग की क्यों नहीं ? हमारे यहाँ शास्त्र कभी कोई शंका का स्थान नहीं छोड़ता है । सांख्य यानी ज्ञान की साधना जो अयोगी है अर्थात जिसने स्वस्थानीय कर्मों का भली भांति संपादन नहीं किया उसको नैष्कर्म्य सिद्धि कभी भी नहीं हो सकती है न कर्मणामनारम्भान्नैषकर्म्यं पुरुषोऽनुते ३/४ अर्थात बिना कर्म किये मनुष्य निष्कामता को प्राप्त नहीं हो सकता है । बिना नैष्कर्म्य की सिद्धि के ज्ञान की प्राप्ति हो नहीं सकती है इसी को क्लेशोऽधिकतस्तेषां…...। …….देहवद्भिरवाप्यते ।।१२/५।। यहाँ कोई शंका कर सकता है यहाँ पर यह नहीं कहा गया है कि उसे ज्ञानयोग की प्राप्ति नहीं होती बल्कि यह कहा गया है कि दुःख से अर्थात कठिनाई से प्राप्त होती है और यही अध्याया १२ में अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं १२/५ कहा गया । अतः ज्ञान के प्राप्त न होने का यहां प्रसंग आया कहाँ से ? भले अत्यंत कठिनाई से प्राप्त हो, किन्तु प्राप्त तो होगा ही ? इसका यह समाधान किया जाता है कि संपूर्ण गीता में एक ही बात पर सर्वत्र अधिक बल दिया गया है पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार मिलकर इन चौदह इन्द्रियों को वश में करना । यहाँ पर भी अयोगतः अर्थात जो समाहित चित्त हुआ ही नहीं है, जो न तो गुणकर्मविभाग को ही जानता है और न ही वह कोई शास्त्रीय निष्काम कर्म किया है ? बिना निष्काम कर्म किये निष्कामता के फलस्वरूप नैष्कर्म्य अर्थात ज्ञान अर्थात सर्वकर्मसंन्यास होगा ही नहीं और बिना सर्वकर्मसंन्यास के ज्ञान का स्वरूप स्वसंवेद्य आत्मा में प्रतिष्ठा हो नहीं सकती । इन्हीं सभी पूर्वापर के विचारों का अवलोकन न कर्मणामनारम्भान्नैषकर्म्यं ३/४ में कराया गया है । इस प्रकार यहां पर दुःख से प्राप्ति का अर्थ ही है ज्ञानयोग यानी नित्य अव्यक्त आत्मा में प्रतिष्ठित न होना । यही बात बताने के लिए अध्याय बारह में पहले ही सन्नियम्येन्द्रिग्रामम् १२/४ कह देते हैं ।
किन्तु जो कर्मयोग से युक्ता हैं, इस वाक्य में कर्मयोग को भी समझ लेना चाहिए और आगे कहे गये ब्रह्म को भी समझ लेना चाहिए सुखदुःखे समे कृत्वा २/३८ अर्थात सुख दुःख को समान समझकर समत्वं योग उच्यते २/४८ अर्थात समत्व ही योग है क्योंकि योगस्थः कुरु कर्माणि २/४८ योग में स्थित होकर कर्म करने की आज्ञा दी है और यहाँ भी योग से युक्त कर्मी को ही मुनि अर्थात जो कर्म और अकर्म को तत्त्वतः गुणकर्मविभाग पूर्वक जानते हैं उन्हीं मननशील तत्त्वदर्शी को ही यहां मुनि कहा है । ऐसे मननशील मुनि ही शीघ्र ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात शीघ्र ही कर्मयोग द्वारा चित्तशुद्धि होकर श्रवण, मनन, निदिध्यासन पूर्वक आत्मा अनात्मा का विवेक प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ पर ब्रह्म का अर्थ है आत्मा अनात्म के विवेक द्वारा आत्मनिष्ठा को प्राप्त करना । यह जो आत्मनिष्ठा प्राप्त होगी इसी को निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ अर्थात यह जो गुणकर्मविभाग पूर्वक जो प्रकृति से उत्पन्न गुण और कर्मों का त्याग करके जो आत्मपदार्थ बचता है वही व्यापक, विभु या भूमा नाम से सर्वगत समरस यानी एकरस, अज, अद्वय, चिद्घन, सबका प्रकाश ब्रह्म नाम से कहा गया है, उसे शीघ्र ही जितनी अधिक तितिक्षा पूर्वक कर्म संपादन पूर्वक चित्त की शुद्धि कर लेगा उतनी ही शीघ्र चित्तशुद्धि होते ही तत्क्षण बिना किसी सन्धि के आत्मनिष्ठा को प्राप्त कर लेता है यह इसका भाव है ।
भावार्थ― किसी भी परिस्थिति में अविवेक से परिपूर्ण कर्मसंन्यास कल्याणकारी नहीं इसकी अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है । कर्मों के स्वरूप का वर्णन अध्याय चार में दिया जा चुका है ।।६।।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।५/७।।
कर्मयोग से युक्त शुद्ध अन्तःकरण वाला मुमुक्षु जिसने भलीभांति शरीर और संपूर्ण इन्द्रियों को जीत लिया है वही संपूर्ण प्राणियों का आत्मा है वह कर्मो को करता हुआ भी उनके फलस्वरूप बन्धन को प्राप्त नहीं होता ।
विशुद्धात्मा से निर्मल बुद्धि समझना चाहिए, बुद्धि के विशुद्ध होने का तात्पर्य यह है कि आत्मा अनात्मा का विवेक करके एकमात्र आत्मा में एक निष्ठ होना, क्योंकि निर्मल एवं एकनिष्ठ बुद्धि में ही आत्मा प्रतिफलित होती है । विजितात्मा में आत्मा का मन अर्थ है । अधिकांश टीकाकारों ने विजितात्मा का अर्थ शरीर किया है । उनके अनुसार उचित भी है क्योंकि शरीर सुदृढ़ होने पर ही योगादि अष्टांग योग संबधित कार्य संपादित हो सकते हैं, तथापि मेरे अनुसार शरीर कभी स्थिर नहीं हो सकता है प्रतिक्षण क्षरण को प्राप्त होने वाला शरीर ही यद्यपि परमार्थ साधन का आधार है तथापि शरीर में सूक्ष्म इन्द्रियों की अनूकूल और प्रतिकूल की प्रतिक्रिया का परिणाम शरीर में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मान-अपमान आदि की जो सहन शक्ति है वह मन ही सहन करेगा । अतः यहाँ आत्मा का अर्थ मन ही होता है अर्थात मन को भलीभाँति वश में करना ही यहाँ पर उचित अर्थ प्रतीत होता है । दूसरे अर्थ में शरीर को उचित आहार विहार भी देकर स्वस्थ रखना भी यहाँ शरीर को जीतना अर्थात स्वस्थ रखना हो सकता है तथापि यह भी मन के नियंत्रण का ही कार्य है, क्योंकि आगे इन्द्रियों को भी वश में करने की बात कही गई है जो बिना मन के अनुशासित हुए संभव ही नहीं है । इस दृष्टिकोण से भी यहाँ विजितात्मा का अर्थ मन को भलीभांति अपने आधीन करना ही उचित प्रतीत होता है । इन्द्रियाणि दशैकं च १३/ मन एवं दस इन्द्रियां विजितात्मा जितेन्द्रियः से समझना चाहिए ।
संपूर्ण प्राणियों का आत्मा कहने का तात्पर्य है कि येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ४/३५ अर्थात जिसे जानकर तू पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा जिससे तू संपूर्ण प्राणियों को पहले अपने में और फिर मुझमें देखेगा एवं न मां कर्माणि लिम्पन्ति ४/१४ में कर्म से न बंधने की बात जिस उद्देश्य से कही थी और आगे न हन्ति न निबध्यते १८/१७ कहेंगे वही यहाँ पर कुर्वन्नपि न लिप्यते अर्थात वह कर्म करता हुआ लिप्त नहीं होता कह दिया है ।।७।।
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन्श्वसन् ।।५/८।।
मैं कुछ भी नहीं करता, यह समाहित चित्त तत्त्वदर्शी नहीं माने । देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, जाता हुआ सोता हुआ, श्वास लेता हुआ ।।८।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।।५/९।।
बातें करता हुआ, त्याग करता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आंखों की पलकें खोलता और बंद करता हुआ भी इद्रियां ही इन्द्रियों के अर्थ में क्रिया कर रही हैं ऐसी धारणा करे अर्थात ऐसा समझे ।
इन्द्रियां भी प्रकृति का कार्य हैं और उन इन्द्रियों के विषय भी प्रकृति के कार्य हैं, अतः उनमें होने वाली प्रत्येक क्रिया भी प्रकृति ही कर रही है मैं कुछ नहीं करता क्योंकि कार्य प्रकृति के हैं आत्मा के नहीं । आत्म निर्विकार एवं एकरस है और वह निर्विकार एकरस आत्मा मैं हूँ ऐसा समझकर समाहित चित्त ज्ञानयोगी मैं कुछ नहीं करता यही माने । यह मुमुक्षु साधक का साध्य एवं ज्ञानी की स्थिति का वर्णन किया गया है ।।९।।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।५/१०।।
जो सभी कर्मों को ब्रह्म में त्यागकर उसकी भी आसक्ति त्याग देता है वह जल में कमलपत्र के समान पाप से लिप्त नहीं होता ।
यहाँ पर दो प्रकार के अर्थ समझना चाहिए कुछ विद्वान ब्रह्म का अर्थ परमात्मा करते हैं क्योंकि भक्तियोगी के लिए आधार चाहिए । अध्याय ग्यारह में भी मत्कर्मकृन्मत्परमो ११/५५ कहेंगे । तथापि यहां प्रसंग ज्ञानयोग का चल रहा है और इससे पूर्व इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते ५/९ कहा जा चुका है जिसका अर्थ प्रकृति का कार्य सभी विद्वान मानते और इसके पश्चात भी आत्मशुद्धये ५/११ कहा गया है । अतः बीच में ब्रह्म का अर्थ परमात्मा कुछ युक्ति संगत नहीं लगता । यहाँ पर ब्रह्म का अर्थ प्रकृति ही उचित लगता है जैसा कि मम योनिर्महद्ब्रह्म १४/३ एवं तासां ब्रह्म महद्योनिः १४/४ कहा गया है । अर्थात यहाँ पर यह तात्पर्य है कि क्रिया मात्र का त्याग प्रकृति में करके उस त्याग की आसक्ति का भी त्याग करने वाला मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि २/४७ जो कहा था वही यहाँ पर भी कर्ता और क्रिया एवं उसके त्याग की आसक्ति न होना ही कहा गया । ब्रह्म में क्रिया मात्र का एवं उसकी भी आसक्ति का त्याग यही है गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ एवं इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते ५/९ के अनुसार संपूर्ण क्रियाओं को फल और उसकी आसक्ति सहित प्रकृति का कार्य मानते हुए स्वयं को आत्मस्वरूप अक्रिय, एकरस, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वरूप साक्षात मैं ब्रह्म ही हूँ यह माने । ऐसी धारणा होने पर वह उसी प्रकार उसके पाप और पुण्य से लिप्त नहीं होता है जैसे जल में रहने वाला कमल का पत्ता जल के स्पर्श अर्थात गीलेपन से रहित होता है ।।१०।।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ।।५/११।।
योगीजन शरीर, मन, बुद्धि एवं इन्द्रियों द्वारा भी आसक्ति का त्याग करके केवल आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं ।
आत्मशुद्धि अर्थात चित्तशुद्धि के लिए ।।११।।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।।५/१२।।
उपरोक्त प्रकार का कर्मयोगी समाहित चित्त होकर कर्मफल का त्याग करके नित्य शान्ति को प्राप्त करता है । कामना के कारण सावधान न रहने वाला उसके फल से बंधता है ।
पहले कहा कर्म चित्तशुद्धि के लिए करता है और अब कहा कि कर्मफल का त्याग करके नैष्ठिक अर्थात नित्य शान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है । इसके बाद सर्वकर्मसंन्यास के लिए कहते हैं । अतः यहाँ यह क्रम समझना चाहिए कि पहले चित्तशुद्धि, चित्तशुद्धि के पश्चात सर्वकर्मसंन्यास और फिर मोक्ष श्रुतियों द्वारा यही क्रम मान्य है । आत्मा को अकर्ता बताने के लिए यह क्रम आगे अलग से बताया गया है ।।१२।।
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नव द्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ।।५/१३।।
इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला पुरुष सभी कर्मों को मन से त्यागकर नव द्वार वाले शरीर में सुख पूर्वक रहता हुआ न कुछ करता है और न ही करवाता है ।
वशी का अर्थ इन्द्रियों को वश में रखने वाला और देही का अर्थ है आत्मा जो शरीर रूपी नव द्वारों वाले घर में रहता है । चूंकि आत्मा अक्रिय है, अतः वह कुछ करता नहीं तो फिर करवायेगा भी कैसे ? क्योंकि वह अक्रिय है । सुख पूर्वक का मतलब जब उसमें कोई क्रिया ही नहीं है तो उसमें किसी प्रकार का क्लेश भी नहीं है अतः नित्य सुखी है । जैसे अज्ञानी भूमि पर स्थित घर में रहता है वैसे ही ज्ञानी शरीर रूप घर में रहता है । विस्तृत व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखना चाहिए ।।१४।।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।५/१४।।
उस परमेश्वर में न क्रिया है न ही कर्म कर्मफल के संयोग से सृष्टि करते हैं एवं स्वभाव से ही प्रवृत्त हो रहे हैं ।
शंका हो सकती है कि जब आत्मा अक्रिय है तो यह संपूर्ण सृष्टि कैसे हुई ? तो इस पर कहते हैं कि जो सकाम कर्म करने वाले प्राणी हैं उनके द्वारा किये गये कर्मों का फल और उसका भोगकाल इन दोनो के संयोग से ही परमेश्वर सृष्टि करता है । उसी के अनुसार सभी अपने अपने कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं । वस्तुतः यह समझाने के लिए उसके द्वारा सृष्टि का अध्यारोप मात्र है । सभी प्राणियों की उनके कर्मों के अनुसार सृष्टि स्वाभाविक परमेश्वर के प्रकाश में प्रकृतिजन्य है और उसी के अनुसार सभी प्रवृत्त हो रहे हैं । इसका वर्णन मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ९/१० इत्यादि आगे करेंगे ।
अभी तक व्यष्टि आत्मा का वर्णन किया गया है किन्तु यहाँ पर प्रभु समष्टि को लेकर कहा गया और अगले श्लोक में विभु भी समष्टि को लेकर ही कहा जायेगा । जिसका तात्पर्य यह हुआ कि अब त्वम् पदार्थ का शोधन पूर्णता की ओर है और आगे तत् पदार्थ के शोधन की यह भूमिका तैयार हुई । जो अध्याय सात से प्रारंभ होगी । इस बात को भी मन में ठीक से बैठा कर रखना चाहिए कि जिसे व्यष्टि में आत्मा कहते हैं समष्टि में उसे ही ईश्वर कहते हैं । व्यष्टि में हमारा शरीर पांचभौतिक है तो समष्टि में कारण शरीर है । शरीर दोनो जगह पर है इसलिये ये स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर वाले जीव कोटि में ही कहे गये हैं । उपद्रष्टानुमन्ता च १३/२२ को प्रमाण रूप में देखा जा सकता है ।।१४।।
नादत्ते कश्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।५/१५।।
सर्वव्यापक परमात्मा किसी का पाप नहीं ग्रहण करता है और न उसके पुण्य को ही ग्रहण करता है । अज्ञान के कारण विवेक ढक गया है इससे जीव मोहित हो रहे हैं ।
पू्र्व श्लोक में कहा कि परमात्मा कुछ करता नहीं कराता नहीं तो फिर बार बार यह क्यों कहते कि मयि सर्वाणि कर्माणि ३/३०, मत्कर्मकृन् ११/५५, यत्करोषि यदश्नासि ९/२७ इसका यहाँ पर उत्तर दिया गया है वस्तुतः ऐसा है नहीं किन्तु सत् असत् को जानने वाली विवेक बुद्धि सकाम कर्म के कल्मष से ढक गई है उसी से ये जीव मोहित हो रहे हैं अर्थात उनकी सकाम कर्मों से आसक्ति का त्याग कराकर ही चित्तशुद्धि होकर स्वरूप ज्ञान होगा उसी के लिए त्याग का महत्त्व समझा कर क्रमशः आत्मनिष्ठ बनाने के लिए उन उन स्थानों में वैसा कहा गया है । वह आत्मा ज्ञानस्वरूप है अतः उसे ज्ञान से ही अक्रिय, अकर्ता जाना जा सकता है यही सूचित करने के लिए ही यहां तत् पदार्थ शोधन के निमत्त ही यह प्रकरण यहाँ पर उपस्थित किया गया है ।।१५।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।।५/१६।।
किन्तु जिसने आत्मज्ञान द्वारा उस अज्ञान का नाश कर दिया है उसका वह परम ज्ञान अर्थात आत्मस्वरूप सूर्य के समान प्रकाशित हो जाता है ।
आत्मा तो स्वयं प्रकाश है किन्तु जैसे सूर्य स्वयं प्रकाश है तथापि बादलों द्वारा ढक जाने के कारण प्रकाशित नहीं होता है किन्तु जैसे ही बादल हट जाते हैं तो कहते हैं सूर्य का प्रकाश आ गया । यद्यपि प्रकाश कहीं गया नहीं था केवल बादलों से आंखें ढक गई थी तथापि सूर्य के प्रकाशित होने और न होने का अध्यारोप करते हैं वैसे ही आत्मा स्वयं प्रकाश है किन्तु अज्ञान से बुद्धि ढक गई थी जिसके कारण उसका प्रतिफलन नहीं हो रहा था । जैसे ही विचार रूपी वायु प्रबल हुई वैसे ही अविचार रूपी बादल हट गये और स्वयं प्रकाश आत्मा प्रकाशित हो गई ऐसा समझाने के लिए अध्यारोप किया गया है मात्र जिज्ञासु को समझाने के लिए ।।१६।।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञानिनिर्धूत कल्मषाः ।।५/१७।।
उसी परमेश्वर में बुद्धि वाला, मन वाला, निष्ठा वाला, उसी के परायण जो हो गया है वह ज्ञान के द्वारा संपूर्ण कल्मषों को धोकर अपुनरावृत्ति को प्राप्त हो जाता है ।
यहाँ पर मन और बुद्धि का उस परमेश्वर में तदाकार यानी एक रूप होकर जो उसी एक परमतत्त्व परमात्मा में एकनिष्ठ होकर उसी के आधीन हो गया है अर्थात जिसने अपनी सत्ता ही समाप्त कर दी है वह ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान के द्वारा संपूर्ण पुण्य और पाप रूप कल्मषों से शुद्ध हुआ जन्म मृत्यु रूप बारंबार आवागमन से मुक्त होना बताया गया है । ज्ञानयोग से कैसे संपूर्ण कल्मषों से मुक्त हो जाता है इसका विवरण चतुर्थ अध्याय में देखना चाहिए ।।१७।।
समीक्षा― अर्जुन के ज्ञान और संन्यास में से किसी एक का निश्चय पूछने पर ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों मार्गों का वर्णन करते हुए फल की दृष्टि से एक ही बताया भले वह क्रिया में भेद वाला हो । अजितेन्द्रिय के लिए संन्यास दुःखद जबकि विचारशील के लिए कर्मयोग शीघ्र अव्यक्त परमेश्वर की प्राप्ति कराने वाला बताया । ऐसे कर्मयोगी के लिए चार साधन बताया पहला बुद्धि का सम भाव से युक्त होकर बुद्धि का शुद्ध होना, दूसरा शरीर एवं मन पर भलीभांति नियंत्रण होना, तीसरा इन्द्रियों को जीतने वाला और चौथा सभी प्राणियों में स्वयं को आत्मरूप से देखने वाला । ऐसा मुमुक्षु ग्राह्य, ग्राहक, विषय और विषयी इत्यादि क्रिया मात्र सब प्रकृति के विकार हैं वस्तुतः मैं सर्वात्मा, सर्वगत निर्विकार शुद्ध चैतन्य मात्र हूँ, मुझमें कोई क्रिया है ऐसा मानता है । संपूर्ण कर्मों को प्रकृति में त्याग कर अपने विशुद्ध स्वरूप में स्थित होता है तथापि मुमुक्षु शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा मात्र चित्तशुद्धि के लिए कर्म करता है । आत्मभाव से युक्त नित्य शान्ति स्वरूप अपने शरीर को नव द्वारों वाला घर मानकर उसमें निवास करता है अर्थात शरीर में उसका आत्मभाव बिल्कुल नष्ट हो चुका होता है इसलिए वह न तो कुछ करता है और न ही करवाता है । इस व्यष्टि आत्मभाव में एकनिष्ठ हो जाने पर समष्टि के स्वरूप को ठीक ठीक समझकर यह जान लेता है कि अक्रिय आत्मा ही वह परम पुरुष है मात्र प्रकृति जन्य कर्मफल ही सृष्टि का हेतु हैं आत्मा या परमात्मा नहीं क्योंकि दोनो ही परस्पर अभिन्न हैं यह आत्मज्ञान होने पर विवेक के उदय होते अनुभव करता हुआ उस परमेश्वर से तदाकार अर्थात एक रूपता को प्राप्त होकर हमेशा हमेशा के लिए जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है ।।१-१७।।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।।५/१८।।
विद्या विनय से युक्त पण्डित अर्थात तत्त्ववेत्ता ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल में परमतत्त्व परमेश्वर को समान रूप से देखते हैं ।
इस श्लोक के भाव को समझने के लिए शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी का पाचवां अध्याय देखना चाहिए जहाँ पर कुत्ता और उसके पालने वाले को, चोर और तस्कर को, पुल्कस आदि पापात्माओं इत्यादि को भी रुद्र रूप कहा गया है । यह तीनों गुणों में एक परमेश्वर को देखने का भाव है कि ये सब तीनों गुणों की अलग अलग प्रधानता वाले सभी प्राणी ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यंत उस परमेश्वर से ही उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते तो भी वह परमेश्वर इनके गुणों के कार्य स्पर्श नहीं करते । यहाँ यह व्यवहार में नहीं परमार्थ में यह भाव है कि शरीर की आकृति कोई भी हो सबमें वही एक परमेश्वर तत्त्व विराजमान है । वह न किसी में कम है और किसी में अधिक । यह कैसे देखना है यह बात आगे आत्मौपम्येन सर्वत्र ६/३२ से कहेंगे । अधिक श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन देखें । यहां पर इतना समझना है त्वम् पदार्थ का तत् पदार्थ में विनियोग किया गया है अर्थात यहाँ जीव ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करते हुए तीनो गुणों की उत्पत्ति को परमात्मा से अभिन्न बताया गया है ।।१९।।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ।।५/१९।।
इसलिये जिसका मन समभाव में स्थिति है वे मनुष्य इस लोक में ही जीते-जी ब्रह्म में स्थित हैं क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है ।
समं सर्वेषु भूतेषु १३/२७, समं पश्यन्हि सर्वत्र १३/२८ इत्यादि से परमेश्वर का आगे वर्णन किया जायेगा । निर्दोष का मतलब जिसमें उत्पत्ति, अस्ति, वृद्धि, अपक्षय, विपरिणाम और मृत्यु ये छः विकार नहीं हैं वह निर्दोष है । वह सबमें आत्मरूप से बिना किसी भेदभाव के स्थित है इसलिए सम है समत्वं योग उच्यते २/४८ की यहाँ पर व्याख्या समझना चाहिए । ब्रह्म में स्थित होने का मतलब नदी समुद्र में स्थित हो गई तो वह नदी बची ही नहीं समुद्र ही समुद्र है अर्थात ऐसा पण्डितजन नित्य ब्रह्मस्वरूप ही हैं यह भाव है ।।५/१९।।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ।।५/२०।।
जो प्रिय वस्तु की प्राप्ति में हर्षित नहीं होते और अप्रिय की प्राप्ति में उद्वेग को प्राप्त नहीं होते वे विवेकशील एकनिष्ठ विवेक वाले ब्रह्म को जानकर ब्रह्म में ही स्थित हो जाते हैं ।
साधक के लक्षण होने से यहाँ ब्रह्म का अर्थ स्वरूप ज्ञान है और असम्मूढ का अर्थ जिसने श्रवण मनन निदिध्यासन द्वारा आत्मा को अपरोक्ष जान लिया है वह ज्ञानी । अर्थात जो स्वरूप ज्ञान से संपन्न है वह एकनिष्ठ नित्य स्वरूप ज्ञान में स्थित रहता है और प्रिय अप्रिय अर्थात अनुकूल और प्रतिकूल की प्राप्ति में भी चलायमान नहीं होता ।।२०।।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।।५/२१।।
बाह्य स्पर्श में जिसका मन आसक्त नहीं है जो आत्मा में ही सुख देखता है वह आत्मा और ब्रह्म के एकत्व अर्थात अभिन्नभाव में स्थित हुआ मुमुक्षु अक्षय सुख को प्राप्त करता है ।
यहां पर त्वम् पदार्थ और तत्पदार्थ की एकता का वर्णन किया गया है । बाह्यस्पर्श यानी अनात्पदार्थ में रमणीय बुद्धि का स्फुरण न होना । आत्मा में सुख प्राप्त करना यानी आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५, अक्षयसुख अर्थात विकारों के ही परिणाम सुख होता है, किन्तु जहाँ कोई विकार ही न हो वहाँ की जो नित्य बिना किसी परिणति के जो आनन्दानुभूति होगी वह मोक्षस्वरूप नित्य और देशकाल की सीमा से परे अपरिच्छिन्न होगा । वही स्वसंवेद्य स्व-रूपस्थ नित्य सुख मुमुक्षु प्राप्त करता है ।।२१।।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्वतः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।५/२२।।
क्योंकि जो इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न भोग हैं वे दुःखयोनि ही हैं । हे कौन्तेय वे आदि और अन्तवाले हैं इसलिए बुद्धिमान उनमें नहीं रमते ।
पूर्व श्लोक का स्पष्टीकरण करण किया गया है कि वे आसक्ति रहित क्यों होते हैं ? इन्द्रियों और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न विषय आदि अन्त वाले अर्थात नष्ट होने वाले होने से दुःख के कारण ही हैं । इस प्रकार विचारशील जो नित्य आत्मसुख है उसी में रमण करते हैं, इसलिये उन मुमुक्षुओं में विषयों के प्रति आसक्ति नहीं होती ।।५/२२।।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।।५/२३।।
जो शरीर छूटने से पहले काम क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन करने में समर्थ है वही मनुष्य युक्त और वही सुखी है ।
अध्याय तीन में काम क्रोध को दुर्जय कहा गया है और ये शरीर के अन्तिम क्षण तक साथ में रहते हैं । जीते जी जो इसी शरीर में इनके वेग को सहन करता लेता है वही सुखी और योगी अर्थात अपरिच्छिन्नता का अनुभव करने वाला मुक्त पुरुष है ऐसा समझना चाहिए । अध्याय दो में अर्जुन को क्लैब्य अर्थात नपुंसक कहा था और यहाँ इन दो शत्रुओं को जीतने वाले को ही नर कहा अर्थात यह कहना चाहते हैं कि तुम तो मुझ नारायण के अंगीभूत नर हो फिर तुममें ऐसी कायरता उचित नहीं है । अब विचार कर लो कि तुम नर हो या नपुंसक ।।२३।।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।।५/२४।।
जो अन्तः सुखी, अन्तराम तथा आन्तर्ज्योति वाला है वही योगी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव करता हुआ ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त करता है ।
यह श्लोक यस्त्वात्मरतिरेव….३/१७ का ही अनुवाद करता है । जो आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५ स्वयं से स्वयं में सन्तुष्ट है वही अन्तः सुखी अर्थात हृदय में निर्विकार शान्ति का अनुभव करता है, जो अन्तर मे रमण करने वाला अर्थात आत्माराम है यानी अपनी आत्मा में ही संपूर्ण जगत की क्रीड़ा को स्वयं के द्वारा ही होती हुई देखता है, जो आन्तर्ज्योति अर्थात आत्मज्योति वाला है यानी सबके प्रकाशक सर्वात्मा को आत्म रूप से देखता है वह इस शरीर में ही ब्रह्म का अनुभव कर लेता है और शरीर त्यागने पर विदेह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । अर्थात जिसका अनात्पदार्थ पदार्थ से तादाम्य समाप्त हो गया वह प्रारब्धवश शरीर के रहते हुए भी ब्रह्मरूप ही है और शरीर छूटने पर अपरिच्छिन्न ब्रह्मरूपता यानी मोक्ष पर तो कोई संदेश का प्रश्न भी नहीं बनता । जैसे मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ आदि का भाव कभी स्मरण नहीं करना पड़ता है किन्तु इस भाव में कोई भी परिस्थिति या घटना बाधा भी नहीं पहुंचाती, यहां तक नींद या स्वप्न अथवा सुषुप्ति अवस्था भी, ऐसा ही तादात्म्य जब आत्मा का ईश्वर के साथ बन जाता है तब उसे मैं भिन्न हूँ या अभिन्न हूँ का स्मरण नहीं करना पड़ता बल्कि वह जो है जैसा है वैसा का वैसा ही किसी भी परिस्थिति या घटना में भी अस्ति पद का अनुभव करता है यही है ब्रह्मभूत का अर्थ । यह ज्ञान मूर्छा स्थिति में भी बाधित नहीं होता स्वप्न और सुषुप्ति के दृष्टांत से ऐसा भी समझ लेना चाहिए ।।२४।।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।।५/२५।।
जिसके सभी कल्मष क्षीण हो गये हैं, जिसकी द्विविधा नष्ट अर्थात छिन्न भिन्न हो गई है जिसने इन्द्रियों सहित मन को जीत लिया है, जो सभी प्रणियों के हित में लगे रहते हैं वे विवेकशील ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होते हैं ।
जब पाप और पुण्य रूप कल्मष नष्ट हो जाते हैं उसी की द्विविधा― जीव ब्रह्म कैसे हो सकता है ? ब्रह्म जीव कैसे हो सकता है ? इस प्रकार का संशय और इसका यह अर्थ कैसे हो सकता है ? इसकी जगह यह क्यों नहीं हो सकता ? यह विपर्यय इस प्रकार की दुविधा नष्ट हो जाती है । यह सब भलीभाँति मन को जीतकर निष्काम हो जाने पर सभी प्राणियों में स्वयं को आत्मरूप देखते हुए व्यवहार करना ही सभी प्राणियों का हित करना है । ऐसा विचारशील ही ऋषि होता है । ऋषि मन्त्रद्रष्टा को कहते हैं ऋषयः मन्त्रद्रष्टारः चूंकि मुमुक्षु भी सभी प्राणियों में एक ही आत्मा को तत्त्वतः देखता है इस दृष्टि से ऋषि कहा गया है । ऐसा विचारशील ब्रह्मनिर्वाण अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।।२५।।
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ।।५/२६।।
जिनके काम, क्रोध नष्ट हो गये हैं, मन वश में है आत्मा को स्वरूपतः जान लिया है ऐसे ज्ञानयोगी सर्वकर्मसंन्यासी ब्रह्मनिर्वाण में सभी ओर से वर्त रहे हैं ।
यहाँ आत्मस्वरूप को जानने वाले को ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति कही गई है, जबकि भगवान स्वयं कहते देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तः यान्ति मामपि ७/२३ अर्थात देवताओं को पूजने वाला देवता को और मेरा उपासक मुझको प्राप्त होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा और ब्रह्म में अभिन्नता है या यूं कहें कि आत्मा और ब्रह्म दोनो एक ही तत्त्व के नाम हैं । तभी तो ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त करने की बात कहा गया है । अन्यथा भगवान की वाणी में ही दोषदर्शन का दोष उत्पन्न हो जायेगा । यहाँ द्वैत का पूर्णतया निषेध किया गया है । चारों ओर से वर्तने का मतलब है कि वही जीते जी ब्रह्म स्वरूप होकर सारे कर्म ब्रह्म में ही करता है क्योंकि ब्रह्म से भिन्न उसके लिए और कुछ है ही नहीं यही सब ओर से ब्रह्म में वर्तना है ब्रह्मार्पणं ब्रह्म….४/२४ । एवं शरीर त्याग के पश्चात अव्यक्त ब्रह्म रूप हो जाता है ।।२६।।
स्पर्शान्कृत्वाबहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।५/२७।।
इन्द्रियों के बाह्य विषयों का चिन्तन बाहर ही त्यागकर अर्थात उनका चिन्तन न करता हुआ नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थिर करके नाक में विचरण करने वाली प्राण और अपान नामक वायु को समान करके ।।२७।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणाः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।।५/२८।।
जिसकी मन, बुद्धि, इन्द्रियां जीती हुई हैं, जिसकी इच्छा, भय क्रोध पूर्णतः नष्ट हो गये हैं ऐसा जो मननशील मुनि अर्थात निरंतर आत्मानुसंधान करने वाला मोक्षपरायण है वह मुक्त ही है ।
इन दोनो श्लोकों की व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में देखना चाहिए ।।२८।।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरं ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।।५/२९।।
सभी यज्ञों एवं तप का भोक्ता सभी लोकों का महान शासक, सभी प्राणियों का सुहृद मुझे जानकर शान्ति को प्राप्त करता है ।
बिना किसी प्रति उपकार की भावना के प्राणियों का हित करने वाला सुहृद कहलाता है । चूंकि ईश्वर ही सर्वरूप है इसलिये वही अपने औपचारिक विराट रूप में यज्ञ तपादि ग्रहण भी करता है उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् १५/१० इस श्लोक में के भोक्ता आदि को समझने के लिए देख लेना चाहिए और अखिल ब्रह्मांड में ब्रह्मा से लेकर स्तंब पर्यंत शासन भी करते हैं ऐसा जो तत्त्व से जानता है वह शान्ति अर्थात आत्यंतिक शान्ति यानी मोक्ष को प्राप्त करता है । स शान्तिमधिगच्छति २/७१ ।। इस प्रकार यहाँ पर तत् और त्वम् की एकता का प्रतिपादन किया गया है ।।२९।।
समीक्षा― श्लोक १७ में ज्ञानी की अपरिच्छिन्नता का बोध कराते हुए आगे यह बताते हैं कि त्रिगुणात्मक सृष्टि में समभाव से किस प्रकार एक परमेश्वर तत्त्व को देखता हुआ तत्त्वदर्शी कितना विनम्र होता है । वस्तुतः यह विनम्रता अर्थात निरहंकारता ही तत्त्वदर्शी की पहचान है और जीते जी समत्व रूप निर्दोष ब्रह्म में स्थित होकर हर्ष शोक से से रहित हुआ ही ब्रह्म में स्थित ब्रह्मवेत्ता कहा गया है । आदि अन्त का ज्ञान रखने के कारण विषय स्पर्श से दूर शरीर पतन से पहले काम क्रोध का तिरस्कार करके आन्तर्ज्योति अर्थात आत्मप्रकाश को प्राप्त हुआ सभी अस्ति नास्ति आदि संशय विपर्यय का नाश करके प्रयत्नपूर्वक ब्रह्म स्वरूप ब्रह्म में ही उसके सारे व्यवहार होते हुए अपरिच्छिन्न ब्रह्म नामक स्व-स्वरूप से अभिन्न मोक्ष को प्राप्त करता है । इसके बाद छठे अध्याय की भूमिका के रूप में मुमुक्षुओं के लिए योग का वर्णन करते हुए उसे सदैव मुक्त बताते हुए अन्त में सभी लोकों पर शासन करने वाला सबका स्वामी एवं भोक्ता स्वयं को बताते हुए यह बताते हैं कि जो इस प्रकार मुझे जानता है वही शान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है । इस प्रकार अन्त में तत् और त्वम् का अर्थात जीव और ब्रह्म की एकता का संक्षिप्त वर्णन करते हैं । १८-२९ ।। ओ३म् !
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः ।
हरिःॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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