गीता समीक्षा अध्याय ७

 ॐ श्रीपरमात्मने नमः
                     
              
   अथ सप्तमोऽध्यायः
           छठे अध्याय में श्लोक छियालीस में सर्वकर्मसंन्यासी के लक्ष्य ज्ञानयोग द्वारा समत्व रूप अव्यक्त ब्रह्म मे स्थित होने का आदेश दिया किन्तु उसमें बिना चित्तशुद्धि के कोई भी टिक नहीं सकता इसलिये उसमें टिकने का श्रेष्ठ साधन बताया कि मुझमें आत्मा यानी स्वयं को अभिन्न करके श्रद्धापूर्वक जो मुझ सगुण साकार का भजन करता है वह मुझसे अभिन्नता रखने वालों में श्रेष्ठ है यह साधन बताया । अब प्रश्न यह उठता है कि समत्व रूप निर्विशेष ब्रह्म में स्थिति वाला आपका भजन क्यों करे ? साकार विग्रह से निर्विशेष ब्रह्म का क्या संबंध है ? इसके लिए कहते हैं यही विज्ञान है । स्वरूप स्थिति तो ज्ञान है कि ब्रह्म निर्विशेष  है किन्तु यह सगुण साकार साढे तीन हाथ के शरीर वाला भी निर्विशेष ब्रह्म है यह समझ लेना ही विज्ञान है, क्योंकि यही विज्ञान आत्मा के व्यापक निर्विकार स्वरूप में प्रतिष्ठित करेगा । अन्यथा मात्र निर्विशेष का ज्ञान एकांग और ब्रह्म की सर्वरूपता का हनन करेगा यही बताने के लिए ज्ञान-विज्ञान नामक तत् पदार्थ का शोधन करने के लिए सप्तम अध्याय प्रारंभ करते हैं जिसका बारहवें अध्याय तक वर्णन किया जायेगा––
      श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।७/१।।
            श्रीभगवान बोले― हे पार्थ ! मुझमें मन वाला होकर मेरा आश्रय लेकर योग का अनुसंधान कर । जिससे मेरे संशय रहित समग्र रूप को जान लेगा वह सुन ।
            यहाँ अध्याय ६/४६ में बताये गये योग का अनुष्ठान कैसे करना है यही बताने के लिए कहा कि मेरा अर्थात सगुण सकार का आश्रय लेकर समत्व रूप ब्रह्म का यानी आत्मानुसंधान करने के लिए कहा है । इसमें यदि संदेह हो कि आपका आश्रय लेने से क्या लाभ मिलेगा ? आप तो साढे तीन हाथ वाले हो । इस पर कहते मेरा संशय रहित सगुण और निर्गुण रूप जो विधि निषेधात्मक रूप है उसको जिस प्रकार जानेगा उसे तू ध्यान देकर सुन ।।१।। 

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।७/२।।
         मैं तेरे लिए यह ज्ञान विज्ञान के सहित विधिवत पूर्णतः कहूंगा जिसको जानकर पुनः इस समत्व ब्रह्म के विषय में अन्य जानने के लिए शेष नहीं रहेगा ।
            यहाँ पर ज्ञान की स्तुति की है । जैसे मिट्टी के ज्ञान से घड़े ज्ञान हो जाता उसी प्रकार एक मात्र परमतत्त्व के ज्ञान से अनात्मपदार्थ को जानने की आवश्यकता ही नहीं होती है जैसे दिन में रात्रि नहीं होती वैसे ही आत्मप्रकाश का ज्ञान होते है अनात्मा में आत्मा के भ्रम का अर्थात अज्ञान का स्वतः निवारण हो जाता है ।।२।।

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।।७/३।।
           हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि के लिए यत्न करता है, उन सिद्धों में भी कोई एक मुझे तत्त्व से जानता है ।
          यहाँ हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि के लिए अर्थात आत्म कल्याण करने के लिए प्रयत्न करता है यह बताया गया, इसके बाद कहा गया यततामपि सिद्धानाम् उन प्रयत्न करने वालों में भी जो सिद्ध हो चुके जिन्होंने आत्मा के स्वरूप का प्रकृति से भिन्न असंग अनुभव कर लिया है उन हजारों में भी कोई एक मनुष्य परमात्मा को तत्त्व से जानने वाला बताया गया है । यहाँ पर गंभीरता पूर्वक विचार करने से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आत्मस्वरूप को जानने वाला लाखों में कोई एकाध ही होता और वे स्वयं को मुक्त भी मानते हैं । यहां रामानुजाचार्य जी के कुछ अंश से आलोचना पूर्वक अवलोकन करते हैं । आपने अध्याय १५/१६ में अक्षर कूटस्थ का अर्थ मुक्तात्मा माना है किन्तु परमात्मा से अभिन्न नहीं माना है । इसी प्रकार ६/३१ में जीव के आत्मसाक्षात्कार कर लेने पर ब्रह्म के समान माना है किन्तु अभिन्न ब्रह्म नहीं माना है, इसी प्रकार एक स्थान पर जीव को अपरिच्छिन्न माना है लेकिन ब्रह्म से अभिन्न नहीं माना है अर्थात उनके ये विरोधाभाषी विसंगतियां स्पष्ट उनके भाष्य में दिखती हैं । प्रश्न यह होता है कि यदि जीव मुक्तात्मा है तो क्या वह अपने को परिच्छिन्न मानता है ? और अगर हां तो फिर उसका देशकाल अलग होगा और ईश्वर का देशकाल अलग होगा, यह तो मानना ही पड़ेगा । इस आधार पर दोनो ही नित्य नहीं हो सकते हैं अर्थात विनाश को प्राप्त होंगे ही । तथापि एक जगह आपने अपरिच्छिन्न भी कहा है अतः यह पहले के आपके कथन से ही विरोध होता दिख रहा है, तो वह अपरिच्छिन्न कैसे हो गया ? यदि दोनो की परिच्छिन्नता है अर्थात जीव और ब्रह्म परिच्छिन्न दो टुकड़े हैं तो अपरिच्छिन्न किस आधार पर कहा ? यहाँ स्पष्ट दो सत्ताएं आपके अनुसार हैं जबकि गीता एक ही सत्ता का भलीभांति प्रतिपादन करती है यह आप भी भलीभांति जानते हैं, और रही समानता की तो क्या जैसे ब्रह्म अपनी स्वतंत्र सृष्टि करता है बिना किसी अन्य अपेक्षा के, तो क्या वह आत्मसाक्षात्कार करके समानता को प्राप्त जीव भी उसी प्रकार सृष्टि आदि कार्य करेगा ? यदि हां तो देशकाल दोनो का भिन्न होगा, क्योंकि बिना भिन्न देशकाल के अलग अलग सृष्टि संभव नहीं है और वह सृष्टि इसी प्रकार होगी जैसे इस संसार में प्रत्येक प्राणी अपने परिवार में संतान की सृष्टि करता है तो भी वे जीव और ईश्वर विनाश को कभी न कभी तो प्राप्त ही होंगे । यदि एक ही सृष्टि में दोनो की सृष्टि आदि तीनो कार्य होते हैं तो अपनी स्वतंत्रता के कारण एक सृजन करेगा तो दूसरा मार डालेगा, एक पालन करेगा धन संपत्ति आदि देकर, तो दूसरा उसकी संपत्ति नष्ट करके दर दर की भीख मंगवायेगा । इस प्रकार का अनवस्था दोष आ जाता है, और यदि वह इन उपरोक्त कहे गये कार्यों को नहीं करता तो इसका अर्थ हुआ कि वह समानता को प्राप्त ही नहीं हुआ । यदि कहो कि वह ईश्वर से भिन्न कुछ नहीं करता तो प्रश्न होगा क्यों ? अब इस पर यदि आप कहें कि स्वामी सेवक भाव के कारण, तो यहीं पर आपके द्वारा कहे गये जीव की समानता का खंडन हो जाता है । आपकी बात किसी भी प्रकार कहीं भी खरी नहीं उतरती है । अतः इस परंपरा के जिज्ञासाओं और साधकों को इस पर विचार करना अति आवश्यक है तथापि मेरा ये उदाहरण इस स्थान पर प्रसंग न होने पर भी आवश्यक समझते हुए विषयांतर हुआ किन्तु अब जो उद्देश्य था उस पर विचार करता हूँ ।
               मनुष्यों में में जो आत्म सिद्धि का लाभ प्राप्त करता है वह आपके कथन पर विश्लेषण करने पर इस प्रकार समझा जा सकता है― ब्रह्म की समानता का अनुभव करेगा, अपरिच्छिन्नता का अनुभव करेगा, अपने मुक्त स्वरूप का अनुभव करेगा किन्तु जैसा कि पहले श्लोक में समग्र रूप को जानने की बात कही गई है वह समाग्र रूप को नहीं जान सकता है क्योंकि उसके अनुसार एक निर्गुण-निराकार निर्विकार आत्मा से भिन्न कुछ है ही नहीं, यह आत्मसाक्षात्कार करने के पश्चात अनुभव करेगा किन्तु यह अनुभव एकांग ही होगा जिसका यहाँ समग्र रूप से अनुभव कराने के लिए यह प्रसंग उपस्थित किया गया है । सर्वं खल्विदं ब्रह्म, सर्वं ह्येतद्ब्रह्म, पूर्णमदः पूर्णमिदं का सर्वांग ज्ञान नहीं हुआ क्योंकि आत्मा के एकांग निर्विशेष में ही आसक्ति हो गई है । किन्तु यह, वह और मैं यह सब मैं ब्रह्म ही हूँ । मैं का अर्थ सत, असत और उससे भी जो भिन्न या अभिन्न है वह सब मैं हूँ इसका ज्ञान तो तत् पदार्थ के शोधन से ही होगा जिसके लिए आगे पंचीकरण पूर्वक जीव के स्वरूप का वर्णन करते हुए उसके इस आत्मस्वरूप के स्वातंत्र्य की होने वाली अनुभूति से भिन्न तत् पदार्थ का बोध कराने के लिए ही पहले परम तत्त्व को निमित्तोपादान कारण बताकर फिर सभी से अभिन्ता बताते हुए संसार का बीज स्वयं को बताते हुए वासुदेवः सर्वम् अर्थात यह वह और मैं ये भिन्न नहीं अभिन्न हैं बल्कि एक ही हैं यही बताने के लिए कि परमतत्त्व को समग्र रूप से कैसे जानेगा ? इसके लिए ही आगे का प्रकरण प्रारंभ करते हैं ।।३।।

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च ।
अङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।७/४।।
           पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार  इस प्रकार की ये आठ भेदों वाली प्रकृति….।।४।।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।७/५।।
         अपरा प्रकृति कही गई है । इससे भिन्न जीवभाव को स्वीकार करके जिसने इस संपूर्ण जगत को धारण किया है उसे परा प्रकृति जान ।
          इन दो श्लोकों में पंचीकरण का संक्षिप्त वर्णन किया गया है । आचार्य शंकर का पंचीकरण देखें और सामान्य ज्ञान के लिए श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन देखें । येन सर्वमिदं ततम् २/१७ अर्थात वह आत्मा ही यह सब कैसे है ? जो कहा था उसी का यहां स्पष्टीकरण किया गया है, कि जब जीव अपने स्वरूप को ठीक से समझ लेता है तब यह सब मैं ही कैसे हूँ यह समझ कर अपने को व्यापक और मुक्त तथा जागतिक अभिन्नता का अनुभव करता है । जैसे विराट यानी ब्रह्मा जी यह जानते हैं कि यह संपूर्ण जगत मेरा मानस विलास मात्र है मुझसे भिन्न नहीं है । अपनी इस अनुभूति के कारण वे मुक्तात्मा हैं जगत उनका मानस विलास होने से अपरिच्छिन्न हैं और ब्रह्म के चैतन्य प्रकाश की ही क्रिया शक्ति धारण करके सृष्टि आदि कार्य करने से वे ब्रह्म की समानता का अनुभव करते हैं तथापि उनकी परिच्छिन्नता पूर्णतः बनी हुई है । ऐसा अनुभव भ्रम का कारण होने से ही ब्रह्म के तात्त्विक स्वरूप को समझने और अपरिच्छिन्नता का बाधक बनता है जो सर्ग के आदि में ब्रह्मा वशिष्ठ आदि रूपों में पुनः जगत में जन्म का हेतु बनते हैं । यही सूक्ष्म यानी कारण रूपा परा प्रकृति है । इस अपरिच्छिन्नता, समानता, और मुक्तत्व के भ्रम निवारण के लिए ही अब आगे संसार का मूल निमित्तोपादान कारण ब्रह्म का कथन अगल से आगे करते हैं ।
                 यहां इस बात का विशेष ध्यान यह रखना चाहिए कि जो अध्याय पंद्रह श्लोक सोलह में क्षर पुरुष कहा है वही प्रत्येक जड़ चैतन्य प्राणी सीमित अहंता आदि को लेकर अष्टधा प्रकृति यहाँ कही गई है और इसका क्षरण यानी नाश होता ही है यह आगे बतायेंगे । इसमें किसी भी प्रकार की शंका की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सभी साधक और विवेकशील जानते हैं मन, अहंकार यहाँ तक बुद्धि का भी नाश होता ही है । इसी स्थूल और सूक्ष्म शरीर को लेकर ही प्राणि जगत की नाशवान रचना प्रकृति द्वारा की गई है । अतः यह अष्टधा प्रकृति से भिन्न नहीं होते । जिसे येन सर्वमिदं ततम् २/१७ एवं जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत कहा यही कारण शरीर सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्यापक जगत से अपरिच्छिन्न और जगत के बंधन से मुक्त चैतन्य प्रकाश से प्रकाशित होने के कारण उसी चैतन्य के समान दिखने वाला जिसे अध्याय १५/१ में ऊर्ध्वमूलमधः शाख नाम से कहा जायेगा एवं संपूर्ण जगत का बीज भी १४/३ में कहा जायेगा वही यह परा प्रकृति अध्याय १५ में अक्षर कूटस्थ कहा गया है ।।५।।
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                इस प्रकार अध्याय पंद्रह में कहे जाने वाले क्षर और अक्षर पुरुष का यहाँ विवरण दिया गया है और उससे भिन्न जो जगत का निमित्तोपादान कारण है जिसे अध्याय १५ में उत्तम पुरुष कहा जायेगा उसका वर्णन करते हैं । यहाँ यह आगे का वह विषय बताना इसलिए आवश्यक था कि वहाँ सभी चौदह अध्यायों का संक्षिप्त सांकेतिक उपसंहार होने से अधिकांश लोग भ्रमित हो जाते हैं और प्रसंग की व्यापकता को बिना समझे ही अर्थ का अनर्थ करने में देर नहीं लगाते हैं । इसी दृष्टिकोण को लेकर यहाँ यह प्रसंग उपस्थित किया गया है । अब यहाँ का प्रसंग….
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नय जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।।७/६।।
           यह दोनो प्रकृति ही संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का कारण है, ऐसा जानो । मैं संपूर्ण जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय हूँ ।
          यह दो प्रकार की प्रकृति जिसे अध्याय १३ में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ नाम से कहा जायेगा वही इस संपूर्ण संसार की योनि है मम योनिर्महद्ब्रह्म १४/३ योनि यानी कारण  ऐसा जानना चाहिए । अब आगे कहते हैं कि मैं ही इन संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हूँ अर्थात उत्पन्न करने वाला हूँ ।  अब शंका होती है कि जब प्रकृति ही संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का हेतु है तो भगवान निष्क्रिय होने पर भी स्वयं को सबकी उत्पत्ति करने वाला क्यों कहते हैं इस पर भगवान कहेंगे  तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् १४/३ गर्भाधान तो मैं ही करता हूँ तभी तो प्राणी उत्पन्न होंगे । अतः मैं ही सबकी उत्पत्ति का कारण हूँ । यहाँ चिद् प्रकाश का जड़ प्रकृति में पड़ना ही गर्भाधान अर्थात जगत उत्पत्ति की वृद्धि का हेतु है । अब शंका तो यह भी उठती है कि माना कि चिद् प्रकाश ही जगत की उत्पत्ति का हेतु है तथापि उसी चिद् प्रकाश का आश्रय लेकर वही प्रलय भी कर देगी यही अध्याय ३ में प्रकृति को ही क्रियामाण कहा गया है और यही अध्याय १३ और १४ में या अन्यत्र भी कहेंगे फिर सबका प्रलय स्वयं को कैसे कहा ? इस पर भगवान का उत्तर होगा कि वह प्रकृति जहाँ सृष्टि करेगी वह भूमि कौन होगा ? वह भूमि तो मैं ही होऊंगा क्योंकि मुझसे भिन्न तो कुछ है नहीं । जब मैं ही भूमि होऊंगा सृष्टि भी मुझमें ही होगी तो प्रलय भी मुझमें ही होगा । अतः मैं सबकी भूमि हूँ अतः प्रत्येक क्रियामाण कर्म भूमि पर होने के कारण भूमि को भी कर्ता मान लिया जाता है, जैसे हमारी खेती ने इस बार धान की फसल अच्छी दी, खेती तो अन्न की वर्षा कर रही है इस प्रकार खेती तो अक्रिय है किन्तु खेती पर क्रियमाण होने का अध्यारोप किया जाता है क्योंकि वही अन्न का आधार है । इसी प्रकार मैं ही सबका आधार हूँ अतः ये सभी कर्म यद्यपि मेरा स्पर्श भी नहीं करते तो भी प्रत्येक क्रिया का आधार होने से सब मुझमें ही आरोपित हैं । मैं ही सबकी उत्पत्ति की भूमि यानि निमित्त हूँ और मैं ही उत्पत्ति और विनाश की समाग्री होने से उपादान हूँ ।।६।।

            क्योंकि―
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७/७।।
           हे धनञ्जय ! मुझसे बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है । यह संपूर्ण जगत धागे में मणियों के समान मुझमें मुझमें ही पिरोये हैं ।
          शंका होती है कि आप के अतिरिक्त और यदि कोई ऐसा कार्य करने वाला नहीं है जो आप ही सबके निमित्तोपादान कारण अपने को बता रहे हैं । यह सब भिन्न भिन्न दिख रहा आपसे भिन्न कोई कैसे नहीं है ? इस पर कहते मुझसे भिन्न वैसे ही कुछ भी नहीं है जैसे सोने की मणियों को सोने के धागे में पिरोये जाने पर मणि और धागा दोनो ही स्वर्ण से भिन्न नहीं हैं वैसे ही यह संपूर्ण जगत मुझसे भिन्न है ही नहीं । बाहर भीतर ऊपर नीचे दिशा विदिशा और इन सबकी सन्धि भी मैं ही हूँ । यहाँ पर द्वैतवादियों के मुंह पर बड़ा मीठा किन्तु तेज तमाचा भगवान ने जड़ दिया है । तथापि वे इसे नहीं समझ सकते । इससे भी बढकर एकता का और सूत्र क्या होगा ? इस प्रकार अपनी व्यापकता के विज्ञान से प्रकृति और जीव की इसी स्थान में सत्ता समाप्त होकर समग्र रूप का साक्षात्कार करा देते हैं जिसे आगे सर्वभावेन १५/१९ कहेंगे ।।७।।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।७/८।।
          हे कौन्तेय ! जल में रस,  शशि और सूर्य की प्रभा, संपूर्ण वेदों का सार प्रणव, आकाश में शब्द और मनुष्यों का पुरुषार्थ मैं हूँ ।।८।।

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।।७/९।।
           पृथ्वी में पवित्र गंध अग्नि का तेज यानी दाहिका शक्ति, संपूर्ण प्राणियों की जीवनी शक्ति प्राण, तपस्वियों का तप मैं हूँ ।।९।।

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेस्विनामहम् ।।७/१०।।
            हे पार्थ ! संपूर्ण प्राणियों की बीज, आत्मा-अनात्मा का विवेक करने वालों का विवेक और तेजस्वियों का तेज अर्थात अनुशासन की क्षमता मुझे ही जान ।।१०।।

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ ।।७/११।।
             हे भरतश्रेष्ठ ! बलवान का स्वार्थपरता एवं रागद्वेष रहित संसार की रक्षा के निमित्त जो बल है वह बल, संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का कारण तथा धर्म को बाधा न पहुंचाने वाला स्त्री-पुरुष संसर्ग विषयक काम मैं हूँ ।।
             जिन श्लोकों की भी व्याख्या न की गई हो उनकी व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन देखें ।।११।।

ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।।७/१२।।
                  जो सात्त्विक, राजस तामस भाव हैं वे मुझसे उत्पन्न जान ।  मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं ।
            यहाँ राजस तामस सब जितने भी गुणकर्म भावन्न क्रियात्मक जगत है वह सब परमेश्वर से उत्पन्न है ऐसा जान कहने का तातपर्य यह है कि ईशावास्यमिंदं सर्वं यत्किञ्चिज्जगत्यां जगत् । ईशा. उप. १ यत्किंचित अर्थात जहाँ तक आप सोच सकते हैं वहां तक और उसे भी परे यदि को जगत है वह यह सब जगत ईश्वर से परिपूर्ण है, सर्वं खल्ववमिदं ब्रह्म, सर्वं ह्येतद्ब्रह्म, पूर्ममदः पूर्णमिदं, एकमेवाद्वितीयम् इत्यादि श्रुति का उद्घोष है स्वयं गीता भी इसी का स्पष्टीकरण वासुदेवः सर्वम् ७/१९ से करेगी । यह बताने के लिए इस श्लोक के तीन चरणों का वर्णन है । 
            अब प्रश्न उठता है कि इसका मतलब कि जब संपूर्ण जगत वही है, तीनो गुणों का कर्ता भी वही है तब वही गुणों से बंधकर सुखी दुःखी और जन्मने मरने वाला भी होगा ? इसका उत्तर भगवान देते हैं कि वे मुझसे उत्पन्न होते अवश्य हैं किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ और वे मुझमें नहीं हैं । यहाँ पर तु पक्षान्तर के लिए है । यदि चतुर्थ चरण का अन्वय इस प्रकार करें― अहं तेषु न एवं इस नकार का अध्याहार करते हुए ते मयि न इस प्रकार अर्थ करते हैं तो उपरोक्त अर्थ ही होगा कि मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं । अर्थात परमतत्त्व चैतन्यात्मा निर्विकार, निर्लेप प्रत्येक दशा में है यह उसका स्वभाव है ।
            यदि अन्वय इस प्रकार करें― अहं तेषु न अर्थात मैं उनमें नहीं हूँ, तु ते मयि अर्थात परन्तु वे मुझमें हैं । अर्थात मैं उनमें नहीं हूँ का अर्थात यह है कि मैं उनके आधीन नहीं हूँ किन्तु वे प्रकृति के कार्य  मेरे आधीन हैं तभी तो प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय ४/६ अर्थात मैं उस प्रकृति को अपने आधीन करके प्रकट होता है यही विलक्षणता दिखाने के लिए तु शब्द का प्रयोग किया गया है । अब प्रश्न उठता है कि आप उनके आधीन क्यों नहीं होते ? इसका कारण पहले बता चुके हैं कि किसी की आधीनता किसी विषय की रमणीय बुद्धि पर निर्भर करती है । किसी विषय में गुणों का दर्शन करना फिर उसे प्राप्त करने की इच्छा करना ।  यह जो कर्मफल प्राप्ति की इच्छ है यही बन्धन का कारण है यह मुझमें है नहीं न मे कर्मफले स्पृहा ४/१४ कर्मफल की इच्छा न होने से ही मैं स्वयं तो उसके फल से बंधता नहीं फिर भी मेरे इस कर्मबन्धन से मुक्त का रहस्य जो जान लेता है वह भी कर्मबन्धन से नहीं बंधता अर्थात मुक्त हो जाता है । यही यहां पर दर्शाया गया है ।
            सारांश― वह सर्वात्मा परमतत्त्व निर्लेप, निर्विकार, सब कुछ करते हुए भी उसके कर्तापन और क्रियाफल की इच्छा से सर्वदा असंग यानी मुक्त है निर्लेप है । ऐसा जानने वाला सदैव सद्योमुक्ति का अनुभव करता हुआ विदेह मुक्ति प्राप्त करता है ।।१२।।

               समीक्षा― श्रीभगवान ने पिछले अध्याय में पहले ज्ञानयोगी की स्तुति करते हुए ज्ञानी होने का आदेश दिया, किन्तु अधिकार को देखते हुए शद्धा पूर्वक सगुण साकार से अभिन्न हुआ भजन करने वाले को श्रेष्ठ कहने के बाद यहाँ पर यह बताने के लिए किस प्रकार मुझसे अभिन्न होकर मेरा अनुसंधान करेगा, जो सभी संशयों का चुटकी बजाते ही नाश करने वाला है उस ज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभूति रूप विज्ञान का साक्षात्कार कराने की प्रतिज्ञा एक विज्ञान से सर्वविज्ञान की करते हैं । इस प्रकार का ज्ञानी तो करोड़ों में कोई एकाध होता है यानी दुर्लभ होता है । इसके लिए प्रकृति और पुरुष यानी जीव क्या है ? प्रकृति क्या है ? यह जानना भी बहुत आवश्यक है इसके लिए अष्टधा प्रकृति का संक्षिप्त पंचीकरण कहते हुए संपूर्ण जगत को धारण करने वाला अर्थात उसे अपने ही संकल्प से उत्पन्न करने वाला जीव ही है । यही प्रकृति और पुरुष ही परस्पर संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का हेतु और इन दोनो से भिन्न सबका निमित्तोपादान कारण संपूर्ण प्राणियों में धागे में गुंथे हुए माला की मणियों की तरह अभिन्न परमेश्वर को बताते हुए वे ही सब कुछ किस प्रकार हैं इसका कथन चार श्लोकों में अपनी विभूतियों द्वारा अभिन्नता का संक्षिप्त वर्णन करते हुए जीव की अपनी कोई सत्ता ही नहीं है यह बताने के लिए कहते मैं जीवन मैं हूँ, अब सोचिए यदि जीवन आप नहीं हो जीवन तो भगवान है तो फिर हो क्या ? जब शब्द भगवान है तो आपमें होने वाले शब्द की कोई सत्ता है क्या ? जब बुद्धिमानों की बुद्धि वह है तो आपकी बुद्धि कहाँ है जो आप पुरुषार्थ कर रहे हो, आप में जो, तेज तप, बल, संतानोत्पत्ति के निमित्त काम यह सब वही है तो फिर आप क्या हो उस परमेश्वर से भिन्न ? यदि कोई शंका करे करे जो धर्म का विरोध न करे वह सब भगवान है तो धर्म का विरोधी मैं हूँ तो भगवान कहते हैं संपूर्ण स्थावर जंगम प्राणियों का बीज मैं ही हूँ यहाँ तक सात्त्विक, राजस, तामस ये सभी भाव यानी गुण कर्म मैं ही हूँ तो अब आप क्या हो ? मुझसे भिन्न कुछ है ही नहीं मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ अब आप क्या हो ? इस प्रकार विचार करना ही भजन है और इस प्रकार के विचार के द्वारा जब यही जीव सत्तात्मक तत् पदार्थ का बोध प्राप्त करके आत्मा के स्वरूप को जान लेता है तब वह अभिन्न भाव को प्राप्त हो जाता है । यही बताने के लिए मैं उसमें नहीं हूँ और वे मुझमें नहीं यह निर्विकार परमेश्वर भाव अथवा वे मुझमें हैं अर्थात मुझसे सत्तावान हो रहे हैं किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ यही आत्मा या परमात्मा का निर्विकार, अकल्मष देशकाल को भी सर्वमावृत्य तिष्ठति १३/१३ अर्थात सबको आवृत करके स्थित करके हुआ आत्मतत्त्व ही है अन्य नहीं । इस प्रकार तत् और त्वम् के एकत्व का प्रतिपादन श्रीभगवान ने किया ।।१-१२।।

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ।।७/१३।।
             संपूर्ण जगत त्रिगुणात्मक है  । इन तीनों गुणो से मोहित होने के कारण तीनो गुणों से परे यानी अतीत मुझ अविनाशी सर्वात्मा को नहीं जानते ।
            अब यदि कोई कहे कि तब तो आपको सभी के जानने में सुलभ होना चाहिए फिर लोग आपको क्यों नहीं जानते हैं ? इसके लिए मानो भगवान खेद प्रकट करते हुए कहते हैं कि यही तो समस्या है कि लोग इस त्रिगुणात्मक जगत में ही रमणीय बुद्धि रखते हैं जिसके कारण उनकी बुद्धि मोहित हो गई है अर्थात अज्ञान के कारण सात्त्विक, राजस, तामस गुणों से उत्पन्न फल स्वरूप वे स्वर्गादि की कामना वाले हैं, तो कोई मुझे साढे तीन हाथ के शरीर वाला समझता है, तो कोई ईश्वर है ही नहीं यह समझता है इस प्रकार सब गुणों की रमणीयता में उलझे हुए होने के कारण उनका विवेक ढक गया है इसलिये मुझ त्रिगुणातीत अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानते ।।१३।।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।७/१४।।
          क्योंकि यह त्रिगुणात्मिका दैवी माया अत्यंत दुर्लंघ्य है । जो मुझे ही सर्वात्मा रूप से जानते हैं इस माया को वही पार करते हैं ।
         यहाँ प्रपद्यन्ते का अर्थ जाना और माम् का अर्थ है अहं का अर्थ व्यापक आत्मा यानी सर्वात्मा । यहां मामेव प्रपद्यन्ते कहते हैं और आगे कहेंगे मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ अर्थात एक मात्र अहं के अर्थ मुझ सर्वात्मा को जो भलीभाँति समग्र ७/१ रूप से जानते हैं यानी सर्वभावेन १५/१९ अर्थात जो कुछ भी दिखने सुनने में आ रहा है यह सब उस सर्वात्मा का विलास ही है ऐसा समझकर यतो यतो मनो याति तत्र तत्र समाधयः, यतो यतो निश्चरति…….६/२६ अर्थात जहाँ जहाँ मन जाये वहाँ उस उस वस्तु के गुणों का चिंतन छोड़कर एकमात्र सर्वात्मा का चमत्कार समझकर उसी का दर्शन करना ही उसकी एक मात्र शरण ग्रहण करना है इसी को सर्वधर्मान्परित्यज्य १८/६६ अर्थात सभी धर्मों का त्याग अर्थात अनात्म पदार्थ का त्याग और अहं के अर्थ सर्वामा का ही सभी रूपों में चिन्तन करना ही आत्मपदार्थ का ग्रहण है । इस प्रकार जो तत्त्वतः उस परमेश्वर को जानता है वही इस दुर्लंघ्य त्रिगुणात्मक जगत को पार कर जाता है अर्थात मोक्ष प्राप्त करता है दूसरा नहीं ।।१४।।

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ।।७/१५।।
           आसुरी भाव का आश्रय लेने वाले मनुष्यों में अधम पाप कर्मों के द्वारा मूढता को प्राप्त मुझे नहीं जानते ।
           प्रश्न उठता है कि सभी ऐसे सर्वात्मा की शरण ग्रहण क्यों नहीं करते ? इसके लिए कहते हैं उन्होंने आसुरी भाव का आश्रय ले लिया है इसलिये वे दुष्कृती हो गये हैं । दुष्कृती को तीन प्रकार से समझना चाहिए एक वे जो किसी ईश्वरीय सत्ता को मानते ही नहीं हैं वे पापात्मा और दूसरे वे जो दैवी वैदिक कार्य यज्ञादि करते तो हैं लेकिन ईश्वर को नहीं मानते । तीसरे  वे जो ईश्वर को मानते हैं कि कोई ईश्वर है तथापि कामनाओं की आपूर्ति के लिए अन्य अन्य देवताओं की उपासना में लगे होने के कारण मूढता को प्राप्त हो गये हैं, उनका सत् और असत् का विवेक कामनाओं से ढक गया है जिसका वर्णन अध्याय २/४२-४३ तक किया गया है और अध्याय ९/११-१२ एवं अध्याय १६/७-१८ तक किया जायेगा ये सभी आसुरी भाव का आश्रय लेने वाले मनुष्यों में अधम अर्थात मनुष्य जैसे दिखने वाले बंदर या आदि मानव जैसे ही हैं, अतः ये मुझे जानते ही नहीं हैं । अर्थात जब तक जानेंगे नहीं तब तक मेरी शरण भी कैसे ग्रहण करेंगे ? अर्थात ऐसे लोग मेरी शरण में आ ही नहीं सकते यह भाव है ।
          विशेष― जो कार्य परमेश्वर से भिन्न जन्म मरण देने वाला हो वह स्वर्गादि देने वाला पुण्य कर्म दिखने पर भी जन्म मृत्यु का हेतु होने से पाप ही है । इस दृष्टि से उपरोक्त पाप के साथ पुण्य को भी पाप कहा गया है ।।७/१५।।

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।७/१६।।
            हे अर्जुन― पुण्यकर्मा मेरे भक्त चार प्रकार से मेरा भजन करते हैं । हे भरतश्रेष्ठ ! वे आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी हैं ।
             संसार के नाना प्रकार के क्लेश और भय से पीड़ित आर्त है, धन की कामना वाला अर्थार्थी है ये दोनो ही अपने हर समस्या का निवारण परमेश्वर से ही करना चाहते हैं उनकी दृष्टि में परमेश्वर से भिन्न शरण जिसकी ग्रहण की जाये ऐसा अन्य कोई है ही नहीं ऐसा जो दैवी भाव है इसी भाव के कारण ही वे पुण्यकर्मा है । जिज्ञासु अर्थात ब्रह्म को तत्त्वतः जानने की इच्छा वाला अर्थात मुमुक्षु । ज्ञानी जो परमेश्वर को अभिन्न रूप से एकमेवाद्वितीयम् या अहं ब्रह्मास्मि करके जानता है । ऐसे चार प्रकार के मेरे भक्त पुण्यकर्मा हैं और यही एकनिष्ठ मेरा भजन करते हैं । यहाँ एक निष्ठा का तात्पर्य पहले दो भक्त यद्यपि परमेश्वर से भिन्न जगत की चाह तो रखते हैं लेकिन उसके लिए एक मात्र परमेश्वर की ही शरण ग्रहण करते हैं इसलिये वे एकनिष्ठ कहे गए हैं और जिज्ञासु यद्यपि अभी शरीर संरक्षण के लिए अन्य वस्तुओं की कामना करता तो है लेकिन मन में उनकी सत्ता न होकर एक मात्र परमेश्वर की ही सत्ता को स्वीकार करता है इसलिये वह एक निष्ठ है जबकि ज्ञानी आत्मा से भिन्न कुछ देखता ही नहीं है वासुदेवः सर्वम् ७/१९ इसलिये एकनिष्ठ है । ये चारों ही मनुष्य पुण्यकर्मा हैं ऐसा तात्पर्य है ।।१६।।           

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।।७/१७।।
          उन चारों भक्तों में ज्ञानी तो मुझसे नित्ययुक्त अर्थात मुझसे अभिन्न है, एकनिष्ठ भक्ति वाला विशेष यानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं बहुत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे भी बहुत प्रिय है ।
             यहाँ ज्ञानी को अपने से भगवान ने अभिन्न बताया है और जिज्ञासु को यानी सगुण निराकर के उपासक को श्रेष्ठ बताया है । तो शंक हो सकती है कि अगर आपको जिज्ञासु ही श्रेष्ठ दिखता है तो इसका मतलब ज्ञानी का कोई अपना अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि जब स्वयं भगवान ही जिज्ञासु को श्रेष्ठ कहेंगे तो स्वाभाविक है कि यह मान लिया जाये कि ज्ञानी का कोई औचित्य अर्थात अस्तित्व ही नहीं है । तो भगवान कहते हैं ऐसी बात नहीं है ज्ञानी तो मुझे प्रिय है ही । तो प्रश्न बनेगा कि कितना प्रिय है ? तो भगवान कहते हैं कि अत्यर्थः यह मत पूछो कि कितना प्रिय है ज्ञानी, क्योंकि जो मैं शब्दों में जितना प्रिय कहूंगा उससे भी बढकर वह मुझे प्रिय है अर्थात ज्ञानी की प्रियता की तुलना नहीं की जा सकती है, इतना मैं उसे और वह मुझे प्रिय है ।।१७।।

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ।।७/१८।।
            ये सभी उदार स्वभाव वाले हैं किन्तु ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है ।क्योंकि वह मुझसे अभिन्न है एवं जिससे बढकर और कोई गति नहीं है ऐसे मुझमें ही स्थित है ।
           प्रश्न होता है कि जब आपकी परस्पर ज्ञानी से इतनी अधिक प्रियता है कि उसके विषय में कोई उपमा भी छोटी बड़ रही है तो क्या अन्य तीन भक्त प्रिय नहीं ? ज्ञानी की प्रियता की कोई तो उपमा होगी ? इस पर कहते हैं ऐसा नहीं कि अन्य प्रिय नहीं हैं सभी उदार हैं अर्थात प्रिय हैं लेकिन ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है । यहाँ आत्मा के साथ एवं शब्द निश्चयात्मक संशय रहित है । अर्थात ज्ञानी उतना ही प्रिय है जितना आत्मा । अब समझ लो की यदि प्राणों पर आ जाये तो सभी प्रियता को छोड़कर प्राणी प्राणों की रक्षा करता है ।  अतः ज्ञानी तो मेरा आत्मा अर्थात साक्षात स्वरूप ही है इसमें संदेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह मुझसे अभिन्न है और चूंकि मुझसे उत्तम और कोई नहीं है इसलिए ऐसा मैं ही जिसकी अनुत्तम गति एक मात्र गति हूँ इस दृढ भाव से वह स्थित है । कहने का तात्पर्य यह है कि वह योगारूढ़ है इसलिये इस दृढ भावना से इस स्थित है कि मैं ही सर्वात्मा वासुदेव हूँ, मुझसे भिन्न कुछ नहीं है इस अभिन्नता के कारण वह साक्षात मेरा स्वरूप और उपमा रहित प्रिय है ।।१८।।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्ये ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।७/१९।।
          बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानी मुझे स्वरूप से जानता हैं । ऐसा वह वासुदेव सब है इस प्रकार जानने वाला महात्मा अत्यंत दुर्लभ है ।
            बहुत जन्मों के अन्त में कहने का तात्पर्य है बहुत जन्मों के निरंतर प्रयत्न के बाद । छठे अध्याय में योगभ्रष्ट का वर्णन अयतिः करके अर्थात अजितेन्द्रिय करके आया है चूंकि इन्द्रियों पर विजय पाना अत्यंत कठिन हैं, अतः अनेकों जन्मों से वासुदेवः सर्वम् का अभ्यास करते करते जब वासुदेवः सर्वम् में दृढ हो जाता है ऐसे दृढता वाले योगारूढ़ का यह अन्तिम जन्म होता है । यह, वह और मैं एवं मैं यह वह सब कुछ वासुदेव ही है ऐसा दृढ निश्चय हो जाने पर वह अभिन्न हो जाता है इसलिए उसकी अनुत्तम गति मैं वासुदेव नामधारी सर्वात्मा ब्रह्म अर्थात स्वरूप से अभिन्न मोक्ष ही है । यह भाव है । श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन भी देखना चाहिए ।।१९।।

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।।७/२०।।
          उन उन कामनाओं के द्वारा जिन चित्त हरण कर लिया गया है वे मनुष्य अपनी प्रकृति के द्वार नियंत्रित होकर अन्यान्य देवताओं का भजन करते हैं और उन उन कामनाओं के द्वारा नियंत्रित होते हैं ।
            यहां पर जो कामनाओं के द्वारा चित्त हरण करने की बात कही गई वह शैली भेद से उपरोक्त दैवीमाया यानी प्रकृति का ही कार्य समझना चाहिए । इसके अतिरिक्त जो प्रकृत्या आया है उस में प्रकृति के द्वारा का तात्पर्य है कि जिन पूर्व जन्मों में किये गये कर्म के द्वारा वर्तमान में निर्मित अपना स्वभाव है उसके द्वारा नियंत्रित होकर यानी परवश होकर― प्रकृतिंस्त्वां नियोक्ष्यति १८/५९, करिष्यस्यवशोऽपि तत् १८/६० अर्थात प्रकृति तेरा नियंत्रण करेगी । प्रकृति के आधीन होकर यानी विवश होकर करेगा । इस प्रकार अपने पूर्व कर्मों के द्वारा बने स्वभाव से इस समय नियंत्रित होकर ही वह जिन पुत्र, पत्नी आदि की कामनाओं से प्रेरित होकर उसका स्वभाव नियंत्रित होने के कारण वह उसके अनुसार वैसे ही देवता की उपासना करेगा, उस पर कोई नियंत्रण नहीं हो सकता प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ३/३३ । इस प्रकार जैसी जैसी कामना होगी वैसे वैसे देवता का चयन करेगा । यही माया है कि मेरा अभिन्न भाव से भजन नहीं कर सकता ।।२०।।

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।७/२१।।
            जो जो जिस जिस देवता का भक्त है एवं श्रद्धापूर्वक पूजा करने का इच्छुक है उस उस की श्रद्धा को उस उस देवता में ही स्थिर कर देता हूँ ।
           कामना प्रधान देवता में श्रद्धा भगवान क्यों स्थिर करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि मत्तः परतरं नात्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ परमेश्वर से भिन्न कोई है नहीं अहमादिर्हि देवानाम् १०/२ अर्थात देवताओं का भी आदिदेव मैं हूँ अर्थात देवत्व देवताओं को मैने ही प्रदान किया है, उनके कामना पूर्ति की शक्ति मैने ही दी है । अतः उस देवता को निमित्त बनाकर उस उस फल को मैं ही देता हूँ इसलिये मेरे उस स्वरूप की श्रद्धापूर्वक आराधना करने वाले भक्त की उसी स्वरूप में आस्था दृढ कर देता हूँ । यह भाव है ।।२१।।

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामन्मयैव विहितान्हि तान् ।।७/२२।।
          मेरे द्वारा दृढ की गई श्रद्धा के द्वारा उन उन देवताओं की आराधना करते हैं । फिर मुझ सर्वेश्वर द्वारा विधि की हुई उन उन कामनाओं को प्राप्त करते हैं ।
         यहाँ मात्र इतना ही समझना है कि उपासना किसी की भी करो वह उपासना परमेश्वर की ही होगी क्योंकि सबके मूल परमात्मा ही हैं । इस माध्यम से भगवान यह कहना चाहते हैं कि इससे अधिक अच्छा होता कि कामनाओं का त्याग करके मेरी ही शरण ग्रहण करते सब कष्ट ही कट जाते । यह भाव समझना चाहिए ।।२२।।

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भावत्यमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति ममपि ।।७/२३।।
           परन्तु उन अल्पबुद्धि वालों का सकाम उपासना का फल नाशवान होता है । देवताओं की आराधना करने वाले देवता को प्राप्त होते हैं और मेरी आराधना करने वाले मुझको को प्राप्त होते हैं 
           परन्तु पूर्व श्लोक से पक्षान्तर करता है । भले मैं सर्वेश्वर ही फल विधि करता हूँ तथापि भेद दृष्टि और काम दृष्टि से उपासना का फल नाशवान ही होता है क्योंकि अन्त में देवता भी नाशवान ही हैं अतः जो देवता की उपासना करते हैं वे जन्म मरण को ही प्राप्त होते हैं और मैं अव्यक्त, अक्षर और नित्य हूँ अतः मेरे उपासक मुझको ही प्राप्त होते हैं कहने का तात्पर्य है कि वे फिर कभी संसार में वापस नहीं आते अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं । यह तात्पर्य है ।।२३।।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।७/२४।।
          मुझ प्रकृति से परे, अव्यय सर्वोत्तम भाव यानी स्वरूप को न जानने वाले बुद्धिहीन लोग मुझ अव्यक्त को साधारण मनुष्यों की तरह व्यक्त अर्थात स्त्री-पुरुष संसर्ग से उत्पन्न हुआ साढे तीन हाथ का कृष्ण मानते हैं ।
             यहां पर भगवान ने जो परम् भाव कहा इसका तात्पर्य है कि अव्यक्त― प्रकृति (चौदह इन्द्रियों)  से जो परे अर्थात प्रकृति के गुण और कार्य से निर्लिप्त, अव्यक्त, अव्यय यानी अविनाशी और सर्वोत्तम परमेश्वर स्वरूप है उसको न जानने वाले कितने भी बड़े तार्किक क्यों न हों तथापि वे बुद्धिहीन ही हैं उनमें लेशमात्र बुद्धि नहीं है ।।७/२४।।

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।।७/२५।।
          मैं योगमाया द्वारा ढका कर होने के कारण सबके सामने प्रकट नहीं होता इसलिये मूढ मनुष्य संसार में मुझ अज, अव्यय को नहीं जानते ।
             योगमाया यानी प्रकृति के तीनो गुणों और कार्य एवं उनकी कामनाओं द्वारा ढका हुआ हूँ धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।। आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण…...३/३८-३९ अर्थ वहीं देखना चाहिए । अर्थात कामी स्वभाव से ही मूढ होते हैं ऐसे अल्पबुद्धि, बुद्धिहीन और मूढों के मैं कभी प्रकाश में प्रकाश में नहीं आता अर्थात वे मुझे कभी स्वरूपतः नहीं जान सकते । यह भाव है ।।२५।।

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।७/२६।।
           मैं प्राणियों के भूत, वर्तमान एवं भविष्य को भलीभांति जानता हूँ किन्तु मुझे कोई नहीं जानता ।
             यहाँ पर अर्थ का अनर्थ करने वाले द्वैतवादी बुद्धिहीन कहते हैं कि मायावादी (शांकरी अद्वैतवादी) कहते हैं कि परमेश्वर को कोई नहीं जानता लेकिन मैं कहता हूं कि― भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त मुझे जानता है । यहाँ पर मैं उन अविवेक प्रधान द्वैत-त्रैतवादियों से मैं पूछना चाहूंगा कि यदि आप गीता को भगवान की वाणी माने हो तो क्या आप इस बात को स्वीकार करते हो कि यह श्लोक भगवान का नहीं बल्कि मायावादियों ने जोड़ा हुआ है ? अगर आप हां में उत्तर देते हैं तो आपके यहाँ से प्रकाशित गीता से अब तक यह श्लोक क्यों नहीं निकाला गया है ? और यदि यह श्लोक भगवान का ही मानते हो तो यह बताओ कि भगवान मूर्ख थे क्या कि दो परस्पर विरोधी बातें कहकर आपनी ही वाणी का खंडन करेंगे ? अथवा तुम स्वयं मूर्खता की चरमसीमा को पार कर गये हो ? दूसरी बात यादि हमारी परंपरा मायावादी है तो आपने अभी तक गीता और उपनिषदों से माया एवं प्रकृति शब्द क्यों नहीं निकाला ? क्योंकि ये आचार्य शंकर के ही लिखे उपनिषद और गीता आदि हो सकते हैं तभी तो वे मायावादी हैं । आप इन्हें क्यों पढते हो ? प्रकृति और माया का जिन पुस्तकों में वर्णन न हो ऐसे ग्रंथों का अध्ययन करो, क्यों गीता और उपनिष्दों के चक्कर में पड़े हो ? अगर तुम्हारे पास थोड़ी भी बुद्धि होती तो पूर्वापर के प्रसंग पर विचार गंभीरता से करते, फिर यह शंका कभी न उठती । जिस जगह पर इस श्लोक का वर्णन आया है वहां पर उससे पहले के श्लोक ७/२० से लेकर ७/२५ तक के छः श्लोकों पर विचार कीजिये इस कश्चन से पहले सर्वस्य भी आया है जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि उपरोक्त सभी के सामने मैं प्रकट नहीं होता हूँ । उसी की यहाँ पर परिपुष्टि करने के लिए कश्चन शब्द का प्रयोग किया गया है । इतना ही नहीं इसके अगले श्लोक में तो यहाँ तक कहते हैं कि सर्वभूतानि सर्गे यान्ति ७/२७ ऐसे जिनके लिए कश्चन कहा वे लोग तो सृष्टि के आदि से मोहित हो रहे हैं पूरी व्याख्या अगले श्लोक में ही देखें । अर्थात जो भेद दृष्टि से उपासना करने वाले हैं ऐसे कोई भी मनुष्य यानी प्राणिमात्र कभी भी मुझे नहीं जान सकते हैं 
               तथापि जहाँ पर जानने की बात आयी है वहां पर देखिए जो अभी अभिन्न तो नहीं हुआ है लेकिन एक परमेश्वर में ही एकनिष्ठ है, एकनिष्ठ का अर्थ है कि एक परमेश्वर से भिन्न अन्य कोई सत्ता है ही नहीं स्वयं मेरी अपनी भी, ऐसा जो प्रेमी भक्त है वह श्रेष्ठ है किन्तु प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थः अर्थात ज्ञानी इतना अधिक प्रिय है कि उसकी कोई तुलना करना ही गलत होगा क्योंकि ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ अर्थात ज्ञानी तो साक्षात मेरा ही स्वरूप है क्योंकि वह सदैव मुझसे अभिन्न स्थित है । अधिक समझने के लिए ७/१७-१९ तक तीनों श्लोकों की व्याख्या देखें । साथ ही जिनके द्वारा जाना जाता है उनका भी वर्णन अन्तिम तीन श्लोकों में करते हुए ते ब्रह्म तद्विदुः ७/२९ किसके लिए कहा गया है ? यह भी देखिये । अतः यह आपका एक मात्र विधवा प्रलाप से अतिरिक्त कुछ नहीं है और हमें ऐसे ऐसी वंध्या के रोने से कोई प्रयोजन भी नहीं है । बस इतना कहूंगा कि आप दया के पात्र हो बस ।
           मुख्य बात―परमात्मा आत्मरूप है उससे भिन्न वह कहीं भी किसी भी दशा में जाना नहीं जा सकता है और जो जानने में आता है वह विनाशशील परमात्मा हो ही नहीं सकता ।।२६।।

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ।।७/२७।।
           हे भरतवंशी ! इच्छा द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्व और मोह के द्वारा संपूर्ण प्राणी हे परन्तप अर्जुन ! सृष्टि के आदि से अर्थात अनादिकाल से मोहित हो रहे हैं ।
            यहाँ भगवान यह संक्षिप्त रूप से स्पष्ट करते हैं कि वे सबके सामने स्वयं को प्रकट क्यों नहीं करते अथवा उन्हें कोई क्यों नहीं जानता, सबके मूल में इच्छा द्वेष है जिसे अध्याय तीन में काम और क्रोध कहा है वस्तुतः काम की परिणति ही द्वेष की परिणति है और द्वेष की परिणति द्वन्द्व और द्वन्द्व की परिणति क्रोध और क्रोध की परिणति मोह और मोह की परिणिति अध्याय दो के अनुसार विवेक का नाश और विवेक के नाश से विनाश सुनिश्चित हो जाता है । इस प्रकार सभी प्राणी अनादि काल से मोहित हो रहे हैं यह कोई नई बात नहीं है । इस प्रकार कुल आठ श्लोकों में वासुदेवः सर्वम् ७/१९ के रूप में परमेश्वर को मनुष्यों के न जान पाने का कारण स्पष्ट किया गया । इसकी व्याख्या पुनः अध्याय ९/७-१२ तक की जायेगी ।।२७।।

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वान्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढवृताः ।।७/२८।।
             परन्तु जिसके संपूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं वे पुण्यकर्मा ज्ञानीभक्त द्वन्द्व, मोह से मुक्त होकर दृढ व्रत को धारण करने वाले मुझे जानते हैं ।
          न मां दुष्कृतिनो मूढाः ७/१५ अर्थात पापी मुझे नहीं जानते यह कहकर जिनका सत् असत् का विवेक माया के द्वारा हरण करने की बात कही थी उनका वर्णन श्लोक७/२०से ७/२७ तक करके यह सुनिश्चित कर दिया कि ऐसे आसुरी भाव वाला कोई भी मुझे नहीं जानता । अब जिसे सकृतिनः ७/१६ कहा था यद्यपि उनका वर्णन श्लोक ७/१७-१९ तक तीन श्लोकों में कर दिया गया है तथापि पुनः आसुरी भाव का वर्णन करते समय सर्वस्य एवं कश्चन से कहीं कोई सभी के द्वारा परमेश्वर तत्त्व जाना नहीं जा सकता ऐसा न समझ ले इसके लिए पुनः कहते हैं कि वह कश्चन का प्रयोग उन कामी पापात्माओं के लिए किया गया है, पुयात्माओं के लिए नहीं । जो पुण्य कर्म करने वाले हैं ऐसे पुण्यात्मा मुझे जिनके सभी पाप साधन चतुष्टय का दृढतापूर्वक पूर्वक पालन करते हुए वेदान्त का श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा नष्ट होकर सभी द्वन्द्व अर्थात सुख-दुःखादि द्वन्द्व और द्वैत-अद्वैत के विषय में संशय विपर्य का नाश करके जो आत्मरूप में ही जिनकी दृढ स्थिति है ऐसे भक्त मुझे स्वरूपतः जानते हैं, अन्य नहीं यह भाव है ।।२८।।

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ।।७/२९।।
           वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्त होने के लिए जो भी मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं वे उस ब्रह्म को संपूर्ण अध्यात्म और संपूर्ण कर्मों के सहित जानते हैं ।
           यहाँ पर वृद्धावस्था और मृत्यु दो अवस्थाएं कही गई हैं, इसके पहले की जीव की चार अवस्थाएं न कहने का कारण यह है कि इससे पूर्व की अवस्था में सभी लोभ वश सहायक होते हैं और स्वयं भी अपने सामर्थ्य पर गर्व करता है, किन्तु वृद्धावस्था की दुःखद अवस्था को हमने अपनी आंखो से देखा कि क्या कितनी विवशता होती है जब व्यक्ति स्वयं भी कुछ कर नहीं सकता है और परिजनों की अभद्र बातें सुननी पड़ती हैं । यह अवस्था तो जीता जागता नरक है और मृत्यु से तो सबको भय होता ही है इसमें कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । अतः इस नारकी अवस्था से मुक्त होने का उपाय है परमात्मा का आश्रय लिया जाये । यहाँ माम् शब्द भगवान के बताये गये श्लोक एक का समग्र रूप समझना चाहिए । अर्थात जो परमेश्वर का सगुण-साकार, सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार रूप है । जो सबकी आत्मा के रूप में ही सर्वत्र जानने में आते हैं अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः १०/२० अर्थात जिसे मैं का अर्थ हूँ वह आत्मा परमेश्वर है । इस प्रकार मैं का अर्थ तत् पदार्थ लक्षित ब्रह्म है और संपूर्ण अध्यात्म को जानने का मतलब है कि अध्यात्म यानी जीव के स्वरूप को समझने के जितने भी आगे अमानित्वादि १३/७ एवं प्रकाशं च प्रवृत्तिं च १४/२२ कहे जायेंगे उन सबको एवं सभी कर्मों को जानने का तात्पर्य यह है कि जिस सगुण सकार के निमित्त यज्ञादि कर्म किये जाते हैं, जिस परमेश्वर के निमित्त सगुण निराकार की उपासना की जाती है और जिस आत्मस्वरूप निर्गुण निराकार सर्वात्मा परमेश्वर के निमित्त सर्वकर्मसंन्यास पूर्वक गृह त्याग किया जाता है वह सब कुछ अंगो सहित ब्रह्म के समग्र रूप को जानने वाला जानता है ।
            यहाँ सब कुछ जानने का अर्थ यह है कि वह संपूर्ण कर्मों की गति परमेश्वर ही है और जब वही जान लिया गया तो और कुछ स्वतः जाना हुआ हो गया । इस प्रकार जो प्रतिज्ञा किया था कि जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ७/२ उसका संक्षिप्त विवरण यहाँ बता दिया विस्तृत विवरण तो आगे पन्द्रहवें अध्याय तक चलता रहेगा । यहाँ तात्कालिक रूप से इन दो श्लोकों द्वारा अर्जुन के प्रश्न के परिणामस्वरूप आठवें अध्याय का प्रारंभ होगा ।।२९।।

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ।।७/३०।।
          अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित जो मुझे मृत्युकाल में भी जान लेते हैं वे मुझसे अभिन्न चित्त वाले मुझे ही जानते अर्थात प्राप्त होते हैं ।
           अधिभूत यानी व्यष्टि में प्राणियों का स्थूल शरीर और समष्टि में आकाश से लेकर पृथ्वी तक संपूर्ण तमोगुण प्रधान स्थूल जगत, अधिदैव यानी व्यष्टि में चौदह इन्द्रियों का समूह रजोगुण प्रधान शरीर का अनुग्राहक देवता सामान्य जीव एवं समष्टि में हिरण्यगर्भ, अधियज्ञ यानी सत्त्वगुण प्रधान व्यष्टि में कारण शरीर एवं समष्टि में विष्णु यज्ञो वै विष्णुः यह श्रुति है एवं अधियज्ञोऽहमेवाहम् ८/४ ऐसा गीता स्वयं आगे कहेगी । इसे और अधिक समझने के लिए अध्याय १४/२० की व्याख्या भी देखना चाहिए ।
              यह शरीर ही स्थूल जगत है यही जगत तमोगुण का कार्य है। इस शरीर का अनुग्राक देवता रजोगुण का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय समूह अर्थात सूक्ष्म शरीर हैं । यदि इन्द्रियाँ अनुग्रह न करे तो शरीर का संचालन नहीं हो सकता है । तथापि इन्द्रियाँ जड़ हैं इनको भी जहाँ से प्रकाश मिलता है ये थक कर जिसमें सुषुप्ति काल में लीन होकर पुनः क्रिया शक्ति प्राप्त करती हैं वह है कारण शरीर । कारण शरीर ही स्थूल और सूक्ष्म शरीर पर अनुग्रह करके उन सब पर कृपा करने वाला सबके मूल में शक्ति प्रदान करने वाला होने से सत्त्वगुण का प्रतिनिधित्व करने वाला कारण शरीर ही सत्त्वगुण का प्रतिनिधित्व करने वाला अधियज्ञ है । यह तीनो ही अर्थात तमोगुण का कार्य स्थूल शरीर, रजोगुण का कार्य सूक्ष्म शरीर और सत्त्वगुण का कार्य कारण शरीर अर्थात क्रमशः अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ इन तीनो को भी जहाँ से सत्ता मिलती जिस भूमि पर ये तीनो ही कार्य उत्पन्न होकर बढ़ते और क्रियमाण होते हैं वही भूमि माम् का अर्थात षड्विकार रहित सबका प्रकाशक आत्मा कहा गया है । इस प्रकार जो इन तीनो के सहित जो आत्मा को जानता है वह स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है । इसी को जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं इन तीनो को सत्ता प्रदान करने वाला आत्मा को जो जानता वास्तव में वही जानता है । यह है व्यष्टि में गुणकर्मविभाग ३/२८ द्वारा आत्मा को जानना । यह त्वम् पदार्थ का शोधन है ।
              इसी प्रकार आकाश से लेकर पृथ्वी तक संपूर्ण स्थूल जगत तमोगुण प्रधान अधिभूत है, इस स्थूल जगत का अनुग्राक देवता रजोगुण प्रधान हिरण्यगर्भ है । यदि यहाँ शंका हो कि व्यष्टि में की गई व्याख्या में रजोगुण प्रधान इन्द्रियाँ बहुत हैं और यहाँ हिरण्यगर्भ एक ही है तो इसका उत्तर यह है कि इन्द्रियों का उपलक्षण सूक्ष्म शरीर वहाँ बताया गया है और सूक्ष्म शरीर एक ही होता है दो या अधिक नहीं तथापि यदि आप इन्द्रियों में भिन्नता मानते हैं तो यहाँ भी टीकाकारों ने हिरण्यगर्भ के साथ अग्नि आदि अनेक देवता माने हैं जो स्थूल तमोगुण प्रधान स्थूल जगत के साथ रजोगुण प्रधान सूक्ष्म जगत कहा जाता है और ये ही देवता इन्द्रियों के अनुग्राक देवता भी कहे गये हैं । इस प्रकार यदि व्यष्टि में अनेक मानते हैं तो समष्टि में भी अनेक हैं, और यदि व्यष्टि में एक मानते हैं तो समष्टि में भी एक ही है । हिरण्यगर्भ से यहाँ तात्पर्य ब्रह्मा है क्योंकि सत्त्वगुण प्रधान अधियज्ञ विष्णु कहे गये हैं जो तमोगुण और रजोगुण प्रधान दोनो को सत्ता प्रदान करने वाले हैं । इस प्रकार इन तीनो गुणों से यह संपूर्ण जगत व्याप्त है ७/१३, इन्हीं को अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ क्रमशः कहा गया है । इन तीनो के सहित मुझे जानने का तात्पर्य यह है कि इन तीनो को सत्ता प्रदान करने वाला मैं ही हूँ इस प्रकार ये सभी मुझसे अभिन्न हैं तथापि मुझसे अभिन्न होकर भी ये मुझमें नहीं अर्थात ये मुझसे तो प्रातिभासिक हैं किन्तु मैं निर्लेप निर्विकार सर्वात्मा ब्रह्म इन सबसे परे हूँ । इस प्रकार जो जानता है वस्तुतः आत्मा के स्वरूप को वही जानता है । इस प्रकार मोक्षार्थी भी सर्वात्मा होकर सब कुछ ज्ञान विज्ञान के सहित जान लेता है । कुछ जानना शेष नहीं रहता । श्लोक दो में की गई प्रतिज्ञा कि अशेष रूप से कहूंगा जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा यह प्रतिज्ञा पूर्ण हुई । जो अर्जुन को बताया था निस्त्रैगुण्यो भव २/४५ उसी का अर्थ यहाँ पर समझा दिया ।
             सूचना― यहां तत् और त्वम् की दृष्टि से समष्टि और व्यष्टि का वर्णन तत्त्वम् की एकता की दृष्टि से किया गया है जिसे जो अर्थ पसंद हो वह ग्रहण करे ।।३०।।

              समीक्षा― श्लोक १२ में तीनो गुण मुझमें हैं मैं उनमें नहीं हूँ यह बताते हुए संपूर्ण जगत तीनों गुणों से अतीत मुझ अविनाशी परमेश्वर को सांसारिक लोग नहीं जानते यही भी मेरी त्रिगुणात्मिका माया का प्रभाव है कि उसे बिना मेरी शरण लिये पार नहीं किया जा सकता है । ऐसे आसुरी भाव वाले पापात्मा मनुष्यों में अधम हैं मेरे चार प्रकार के भक्त ही पुण्यात्मा और मेरा भजन करते हैं उनमें भी जिज्ञासु भक्त श्रेष्ठ और ज्ञानी वासुदेवः सर्वम् करके जानने वाला साक्षात मेरा ही स्वरूप है यह उसका अनन्त जन्मों के प्रयत्न स्वरूप अन्तिम जन्म होता है ।
           फिर यह भी बताते हैं कि मनुष्य उनकी ही शरण क्यों नहीं लेता― इसमें कामनाओं के द्वारा उनका विवेक ढका होने के कारण उनकी पूर्ति के लिए अन्याय देवताओं की शरण लेते हैं और मैं भी उनकी उस आस्था को उसी रूप में स्थिर कर देता हूँ जिससे उन उन देवताओं की उपासना करके जन्म मृत्यु के हेतु नाशवान फल को प्राप्त करके संसार चक्र की वृद्धि करने वाले होते हैं । ऐसे लोग मुझ अज एवं अविनाशी को भी सामान्य स्त्री-पुरुष से उत्पन्न हुआ, एकदेशीय मूर्ति आदि तक सीमित रखने वाले अल्प बुद्धि वाले बुद्धिहीन एवं मूढ हैं मैं इन सबके भूत, भविष्य और वर्तमान को जानता हूँ तथापि न तो मैं स्वयं इनमें से किसी के जानने में आता हूँ और न ही इनमें से कोई भी मुझे जान ही सकता है, इसका कारण यह है कि अनादि काल से प्राणियों का इच्छाओं के आधीन होकर द्वेष को प्राप्त होना ।
            तथापि जो इच्छा द्वेष के परिणामस्वरूप द्वन्द्व, मोह आदि से भलीभांति मुक्त है वही मुझे जानता है और मेरा ही आश्रय लेकर जो मुझे जानने का प्रयत्न करता है वह अध्यात्म अर्थात जीव के स्वरूप को एवं सभी कर्मों के रहस्य को पूर्णतः जानने वाला है और वही मुझ निर्विशेष ब्रह्म को जानने वाला है । 
            इसके लिए अधिभूत अर्थात नित्यविनाश को प्राप्त होने वाला स्थूल जगत, अधिभूत अर्थात  स्थूल जगत का अनुग्राक देवता विराट जिसे ब्रह्मा भी कहा जा सकता है एवं इन दोनो पर अनुग्रह करने वाला औपचारिक परमात्मा ये क्रमशः तामस, राजस एवं सात्त्विक गुण और इनके कार्य से संपूर्ण जगत ओतप्रोत है जिसके कारण इन तीनो से भी जो ऊपर उठकर इन को भी सत्ता देने वाली प्रकाशस्वरूप स्संवेद्य स्वयंप्रकाश है उसको जानने के लिए पहले गुण कर्म के विभाग को समझना आवश्यक है जो यह समझ लेता है वह माम् का अर्थ जो निर्लेप निर्विशेष आत्मतत्त्व है, ब्रह्म है उसको जान लिया जाता है । यही त्रिगुणोपरि ब्रह्म में प्रतिष्ठित होना है ।।१३-३०।।

   ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ।।७।।

हरिः ॐ तत्सत् !                     हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
                                          श्रीकृष्णार्पणमस्तु

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