गीता समीक्षा अध्याय ८

ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथाष्टमोऽध्यायः
                 
अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमाधिदैवं किमुच्यते ।।८/१।।
            अर्जुन बोले― हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत क्या है ? एवं अधियज्ञ किसे कहते हैं ? ।।१।।

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।।८/२।।
        हे मधुसूदन ! इस शरीर में अधियज्ञ कौन किस प्रकार कहा गया है ? एवं मृत्युकाल में संयतचित्त वाले योगियों के द्वारा किस प्रकार कैसे जानने में आता है ?
          अध्याय सात के अन्तिम दो श्लोक ही अर्जुन के यहाँ पर सात प्रश्न बनते हैं । यहाँ पर अधियज्ञः कथं एवं कोऽत्र देहेऽस्मिन् इस प्रकार यहाँ एक ही प्रश्न को दो प्रकार से पूछा गया है । अधियज्ञः कथं से प्रश्न किया है कि अधियज्ञ कौन है ? यह प्रश्न समष्टि जगत का कारण समझने के लिए और कोऽत्र देहेऽस्मिन् से इस शरीर में वह अधियज्ञ किस स्वरूप वाला कौन है ? इस व्यष्टि शरीर का कारण समझने के लिए दूसरा प्रश्न  बनता है । दोनो प्रश्न मिलकर प्रश्न यह बनता है कि जिसे तत्पुरुष कहा गया है और जिसे त्वं पुरुष कहा गया है । आपके अनुसार दोनो ही अभिन्न अर्थात एक ही हैं तो मैं यह किस प्रकार जानूँ कि इस शरीर में रहने वाला शरीर का कारण आत्मा एवं संपूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित सबका कारण परमेश्वर एक ही है और उसका स्वरूप क्या है ? यह छठा प्रश्न व्यष्टि और समष्टि दोनो को लेकर किया गया है । अध्याय ७/३० की व्याख्या को व्यष्टि और समष्टि दोनो रूपों में की गई है उसे पुनः वहीं देखें । व्यष्टि यानी आत्मा और समष्टि यानी हिरण्गर्भ रूप दोनो एक ही कैसे हैं ? यह प्रश्न है । अथवा तत् पदार्थ और त्वम् पदार्थ दोनो एक ही कैसे हैं ? अर्थात हम दोनो में भिन्नता प्रत्यक्ष देख रहे हैं तथापि आपके अनुसार दोनो एक ही हैं तो यह एकत्व कैसे जाने ? यही इस प्रश्न का भाव है । ।                            
         चूंकि मृत्युकाल जीवन का सबसे अंधकारमय समय होता है । व्यक्ति मूर्छित हो जाने के कारण स्वयं की चेतना भी विलुप्त हो जाती है फिर भी जिनका संयमित जीवन रहा है अर्थात जो जितेन्द्रिय योगीजन हैं उस समय भी आपको कैसे जान लेते हैं ? अर्थात आत्मैक्य भाव कैसे स्थित होता है ? इस प्रकार इन दो श्लोकों में अर्जुन के आठ प्रश्न दिखते हुए भी सात प्रश्न हैं । हमने अन्तिम दो प्रश्नों में कुछ विचारों में नयापन दिखने के कारण कुछ लिख दिया है । शेष सभी प्रश्नों की व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखें ।।२।।

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवभवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः ।।८/३।।
            श्रीभगवान बोले―  अक्षर परब्रह्म है, स्वभाव अध्यात्म है, प्राणियों की सत्ता की उत्पत्ति के निमित्त किया जाने वाला कर्म ही त्याग है ।
          यहाँ जिस अक्षर ब्रह्म को परम् के साथ कहा गया है इसका कारण यह है कि जीव भी अक्षर कहा गया है तथापि ज्ञान होने पर जीवत्व का नाश श्रुति-स्मृति प्रसिद्ध है । ओंकार भी अक्षर यहाँ नहीं हो सकता क्योंकि उसका भी विलय स्वरूप-स्थ होने के पश्चात हो जाता है इसलिये यहाँ निर्विशेष ब्रह्म ही मान्य है । उस ब्रह्म का जो स्वाभाव है वही यहाँ अध्यात्म कहा गया है । उसका स्वभाव है कि जब चिद् प्रकाश जड़ प्रकृति पर पड़ता है  तो वह भी चैतन्य भाव को प्राप्त हो जाती है । यही स्वभाव परा प्रकृति अर्थात जीव कहा गया है दूसरे शब्दों में श्रुति कहती है तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्  अर्थात यह जो शरीरों में प्रवेश करके जीव भाव को स्वीकार करके भी जो स्वरूप स्थित का ज्यों का त्यों निर्विकार बना रहना ही उसका स्वभाव अध्यात्म कहा गया है । 
        भूतभाव यानी प्राणियों की सत्ता की, उद्भवकरो यानी उत्पन्न करने वाला अर्थात वह कर्म जो प्राणियों को संसार में उत्पत्ति का हेतु और उसका संरक्षक हो वही कर्म यहाँ त्याग कहा गया है अर्थात अध्याय ३/१०-१५ तक छः श्लोकों में कहे गये निष्काम यज्ञ के उद्देश्य से जो भी त्याग किया जाता है वही त्याग है न कि स्त्री-पुरुष संसर्ग विषयक काम प्रधान वीर्य का त्याग । यज्ञ का विवरण उक्त स्थान पर देखें अथवा श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में इस श्लोक की व्याख्या देखें । इसी त्याग को कर्म नाम से कहा गया है । इसका अर्थ है जो यज्ञ अर्थात परमेश्वर के निमित्त त्याग पूर्वक कर्म नहीं किया जाता है वह कर्म कर्म नहीं विकार्म है ।।३।।

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।८/४।।
        हे धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरण भाव अधिभूत है और पुरुष ही अधिदैव है । इस शरीर में अधियज्ञ मैं हूँ ।
         क्षरण को प्राप्त होने वाला प्रत्येक प्रकृतिजन्य गुण, क्रिया और कर्म अर्थात प्रकृति और उसके विकार ही अधिभूत है । पुरुष का अर्थ जो पुरी यानी शरीर में रहने वाला व्यष्टि स्थूल शरीर का हेतु जीवात्मा अथवा समष्टि का अधिष्ठान हिरण्यगर्भ ही अधिदैव है । शरीर में रहने वाला अधियज्ञ अर्थात यज्ञ को ग्रहण करने वाले भगवान हैं । अतः यहाँ देहे का अर्थ में रहने वाला देहधारी यज्ञकर्ता होगा । अर्थात जीव का अधिष्ठान स्वयं विष्णु हैं । अवथा यज्ञ नाम है जीव का अर्थात वह जीव का अधिष्ठान है तात्पर्य यह कि जीवरूप में भासित होने वाला मैं स्वयं परमेश्वर हूँ अन्य नहीं । यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ४/२५ यहाँ यज्ञ अर्थात जीव का हवन यज्ञ यानी परमेश्वर में कहकर एकत्व बताया गया है । इसके अतिरिक्त ब्रह्मकर्म समाधिना ४/२३ अर्थात यहां कर्म कर्ता और क्रिया ब्रह्म कहा गया है और यह सब शरीर को लेकर ही कहा गया है अतः यहां देहे का अर्थ देह में प्रतिभासित होने वाले यज्ञ संज्ञक जीव का अधिष्ठान मैं हूँ यह भाव है । यहाँ तक अर्जुन के छः प्रश्नों के उत्तर हो चुके ।।४।।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्यत्र संशयः ।।८/५।।
        तथा  मृत्यु के समय में जो मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़ता है वह मेरे भाव को प्राप्त होता है इसमें कोई संशय नहीं है ।
          पूर्व के दो श्लोकों में अर्जुन के छः प्रश्नों के उत्तर भगवान ने इस प्रकार दिया― परम्ब्रह्म ही अक्षर ब्रह्म है । उसका स्वभाव अध्यात्म है, यज्ञ के निमित्त त्याग ही कर्म है, क्षरण का भाव अधिभूत, पुरुष ही अधिदैव है, और शरीर में रहने वाला मैं स्वयं सर्वात्मा ही अधियज्ञ हूँ । 
       यहाँ पर मूल में यह देखना चाहिए कि ब्रह्म निष्क्रिय का साकार रूप ही अध्यात्म है, अध्यात्म परमेश्वर का स्वभाव कहा गया है, अध्यात्म जीव के स्वरूप का प्रतिपादन करता है, यह जीव दो प्रकार का होता है पहला सामान्य जीव जो हम सभी स्थूल शरीधारी कहे गये हैं और दूसरा समष्टि का बीज हिरण्गर्भ, कर्म भी दो प्रकार के कहे गये हैं पहला वह जो मात्र मानस परिवर्तित होने वाली चेष्टा है और दूसरा वह जो स्थूल रूप को अर्थात कार्य रूप को प्राप्त हो गया है । इसको हम इस तालिका के अनुसार देखते हैं―

ब्रह्म ➡
(सगुण रूप में) अधियज्ञ
अध्यात्म ➡
(सामान्य जीव, हिरण्गर्भ) अधिदैव
कर्म ➡
(परिवर्तनशील चेष्टाएँ, कार्य रूपता को प्राप्त स्थूल पदार्थ ।) अधिभूत
            इस प्रकार जो जो अध्याय ७/३० में अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ के सहित मुझ परब्रह्म परमेश्वर को मृत्युकाल में भी जो जानने की बात कही थी । वही यह परमेश्वर ही जान लेने मात्र से संपूर्ण कर्म, पूर्णतः अध्यात्म को जानना स्वतः हो जाता जिसे जान लेने मात्र से और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ७/२ की प्रतिज्ञा को इस प्रकार पूर्ण करते हैं ।  पूर्व अध्याय में कहे गये अधिभूत आदि तीनो रूपों के सहित जो अपनी भिन्न दिखाते हुए अभिन्नता और अभिन्नता दिखाते हुए जो भिन्नता दिखाया यही वह नेति नेति कहे जाने वाला निर्विशेष ब्रह्म को जानना है ते ब्रह्म तद्विदुः ७/२९ उसी को यहाँ अर्जुन के मृत्युकाल के समय किसका स्मरण करना चाहिए के उत्तर में मामेव अर्थात एक मात्र मेरा ही स्मरण करके शरीर त्याग करे । यह जो यहाँ माम् प्रत्यय है वह निर्विशेष ब्रह्म के तात्पर्य में है । 
          यहाँ कहने का भाव यह है यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ६/२६ अर्थात सब कुछ परमात्मा से अभिन्न अर्थात परमात्मा ही है ऐसा चिन्तन करने से एक मात्र आत्मपदार्थ की ही सत्ता से ओतप्रोत होकर शरीर छोड़ने पर शरीर मद्भावं अर्थात मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त कर लेगा अर्थात मुझसे अभिन्नता को प्राप्त होकर अस्ति मात्र सत्ता में स्थित होकर हमेशा के लिए जगज्जाल से मुक्त हो जायेगा । यदि मन में आत्म पदार्थ अर्थात परमेश्वर की सत्ता अगल मानता है और अनात्मपदार्थ अर्थात त्रिगुणात्मक जगत की सत्ता को अलग मानता है तो अनात्मपदार्थ की सत्ता कभी मन से निकल नहीं सकती है, फिर वह त्रिगुण रहित हो नहीं सकता और त्रिगुण रहित हुए बिना मोक्ष को प्राप्त हो नहीं सकता है । इसी को आगे सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ के माध्यम से भी भगवान कहेंगे । इस प्रकार जिससे संशय रहित समग्र रूप अर्थात सर्वरूप से जिस प्रकार परमतत्त्व को जाना जा सकता है ७/१ एवं ज्ञान विज्ञान ७/२ की प्रतिज्ञा का अर्जुन के सातवें प्रश्न के उत्तर के रूप में बता दिया ।
         भावार्थ― जीवन भर कैसे भी रहो द्वैत या अद्वैत चाहे जिसकी आत्मा या अनात्मा की सत्ता स्वीकार करो लेकिन ऐसा अभ्यास कर लेना चाहिए कि जो अनात्म पदार्थ स्वतः छूटा हुआ है और छूटेगा ही वह मृत्यु काल में स्मरण ही न हो । एक मात्र आत्मपदार्थ का ही अभिन्न स्मरण रहे चाहे वाह तत् और त्वं पदार्थ के द्वारा अभिन्नता हो या परमेश्वर रूपी समुद्र में स्वयं को डुबाकर स्वयं की सत्ता समाप्त कर देना हो ।।५।।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ।।६।।
          हे कुन्तीपुत्र ! मनुष्य जिस मृत्यु काल उपस्थित होने पर जिस जिस विषय का चिंतन करके शरीर छोड़ता है निरंतर उसी भाव से भावित होकर उसी को प्राप्त करता है ।
             श्रीभगवान ने पूर्वोक्त श्लोकों में जो ब्रह्म, अध्यात्म यानी जीव एवं प्रणिमात्र की चेष्टाएँ जिसे अधियज्ञ, अधिदैव और अधिभूत के नाम से भी कहा कि । इसमें पहले विभाग में ब्रह्म तो सबको समझ में आता ही है जो निर्विकार एवं असंग है । अध्यात्म यानी जीव में लोगों की उभय वृत्ति रहती है कि जीव ब्रह्म और ब्रह्म जीव कैसे हो सकता उसके लिए भी कह दिया कि वह तो ब्रह्म का स्वभाव है अर्थात जीव भी ब्रह्म से अभिन्न हो गया । अब आता है कर्म― यह कर्म भी भगवान से अभिन्न कैसे हो सकता है यह संदेह हो सकता है । इसके लिए अध्याय तीन में श्लोक १० से लेकर श्लोक १५ तक परस्पर अन्वय-व्यतिक्रम से जब देखेंगे तो कर्म भी ब्रह्म से अभिन्न ही पायेंगे । इसी दृष्टि को लेकर आगे कहेंगे यतः प्रवृत्तिर्भूतानां १८४६ अर्थात जिसकी सत्ता में संपूर्ण चेष्टाएँ/क्रियाएं होती हैं । इस प्रकार कर्म भी भिन्न भिन्न है । ये सामन्य भाव से मूल तथ्य है । सामान्य मनुष्य यह समझ नहीं सकता उसके लिए ही अधियज्ञ से परमेश्वर के सगुण रूप का और अधिदैव से जीव एवं हिरण्यगर्भ के स्वरूप का वर्णन और अधिभूत से क्षरित होने वाले शरीर, पृथ्वी, आकाश आदि को भी जब स्वरूपतः । समझ लेंगे तो हमें अभिन्नता का ज्ञान हो जायेगा । यही अभिन्न एकमात्र मोक्ष का साधन है । 
                अतः जो पहले कहा था यो यो यां यां तनुं भक्तः ७/२१ उसी को यहाँ दूसरे तरीके से यं यं से कहते हुए कहते हैं कि जिस का निरंतर अभ्यास किया गया है सदा तद्भावभावितः― अर्थात वह उसी भाव से ही भावित होकर त्यजत्यन्ते कलेवरम्― अर्थात अन्तकाल में शरीर छोड़ता है और जो भी चिन्तन करता है वैसा ही उसको प्राप्त होता है अर्थात विषयों का चिन्तन करने वाले को उसी प्रकार के भोगों के निमित्त वैसी ही योनि का शरीर प्राप्त हो जाता है और जो मेरा भेदोपासक भक्त है उसे क्षणिक सुख देनेवाले वे लोक प्राप्त होकर पुनः सृष्टिचक्र का विस्तार करता है और जो मेरा अभिन्न चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है वह मुझसे अभिन्न होकर मुझे प्राप्त हो जाता है अर्थात साक्षात वह मेरा अभिन्न आत्मा ही हो जाता है ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ अतः जब चिन्तन ही करना है तो यह जगत भी परमेश्वर सत्ता से भिन्न नहीं है ऐसा निरंतर अभ्यास करना चाहिए जिससे अन्तकाल में मुझ निर्विकार अज, अद्वैतव सर्वात्मा से अभिन्न होकर मुक्त हो सके ।
              सारांश― पूर्णमदः पूर्णिमिदं की अनुभूति के बिना मोक्ष होना नहीं और पूर्णत्व के ज्ञान के लिए आजीवन अभ्यास करना चाहिए अर्थात अनात्म पदार्थ का चिंतन किये बिना आत्मभाव में प्रतिष्ठित होने का निरंतर अभ्यास करना ही चाहिए ।।६।।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।८/७।।
           इसलिये प्रतिक्षण मेरा स्मरण करता हुआ युद्ध कर । मुझमें अर्पित मन, बुद्धि वाला होकर मुझको ही प्राप्त होगा इसमें संशय नहीं है ।
          पहले माम् का अर्थ मेरी अपरिच्छिन्न व्याकता को जानकर अर्थात समझकर युद्ध करने का आदेश दिया गया है इसमें सगुण सकार, सगुण निराकार और प्रतिभासिक जगत तीनों को अभिन्न जानना है, इसी प्रतिभासिक जगत के अन्तर्गत उपदेश कर्ता कृष्ण, सगुण साकार के अन्तर्गत हिरण्यगर्भ,  एवं मयि से आत्म प्रत्यय जिसका अनुभव प्रत्येक प्राणी मैं के अर्थ में करता है । उन तीनो को अभिन्न समझकर फिर माम् यानी उस मेरी सर्वात्मा स्वरूप में अपने मन बुद्धि को वैसे ही अर्पित कर दे जैसे अग्नि में समिधा अर्पित की जाती है अर्थात मैं ब्रह्म से अभिन्न हूँ इस वृत्ति से तादात्म करके फिर युद्ध कर ।  
              यहाँ पर सर्वेषु कालेषु और युध्य का तात्पर्य यह है कि मेरे स्वरूप का स्मरण तो युद्ध जैसे घोर कर्म में भी विस्मृत नहीं होना चाहिए फिर सामान्य समय में तो विस्मृत होने का प्रश्न ही नहीं है । यही सर्वेषु कालेषु का तात्पर्य है ।।७।।

अभ्यायोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।८/८।।
           हे पार्थ ! अभ्यास योग के द्वारा चित्त परमात्मा से भिन्न कहीं अनात्म पदार्थ में न जाता हुआ पुनः पुनः चिन्तन करता हुआ परं दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है ।
          अध्याय छः में अभ्यास का वर्णन किया जा चुका है । योग का अर्थ परमात्मा है उससे भिन्न कुछ भी चिन्तन न करने वाला मन नान्यगामिना कहा जाता है । प्रातिभासिक जागतिक प्राणियों से की अपेक्षा सबका कारण हिरण्यगर्भ को भी परम पुरुष कहते हैं किन्तु दिव्य कहने का अर्थ जिसकी दिव्यता से सभी अनात्म पदार्थ भी देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते १३/१७ ज्योतियों का भी ज्योति जिससे बढकर कोई भी नहीं है उस सूर्य चन्द्र के मुझ प्रकाशक को १५/६ प्राप्त करता है अर्थात ऐसा ज्ञानयोगी सद्योमुक्ति को प्राप्त करता है, यह भाव है ।।८।।

कविं पुराणमनुसासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्यधातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।८/९।।
           जो सर्वज्ञ, नित्य नवीन अर्थात एकरस, सब पर शासन करने वाला, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबका धारण करने वाला, अचिन्त्य स्वस्वरूप, आदित्य वर्ण, अंधकार को भी पराजित करने वाला का भलीभांति स्मरण करता है
           कवि का अर्थ सर्वज्ञ अर्थात जो तीनो कालों को जानता है अथवा जिसकी सत्तामात्र से उस परमतत्त्व को जानने वाले भी त्रिकालज्ञ हो जाते हैं । अनादि, अनन्त अजन्मा होने से जो नित्य एकरस है ऐसा पुराणपुरुष, अनिशासितारम् अर्थात सब पर शासन करने वाला किन्तु जिस पर कोई अन्य शासन नहीं करता, चूंकि वह मन बुद्धि आदि से भी सूक्ष्म है जिसे बुद्धि से भी नहीं जाना जा सकता है ऐसा अत्यन्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म, सर्वस्यधातारम् अर्थात जो अखिल ब्रह्माण्ड को अपनी ही सत्ता मात्र से धारण करता है, अथवा सभी प्राणियों के सूक्ष्म कर्मबीज को अपने अन्दर ही धारण करने वाला है, चूंकि वह प्रकृति से परे है इसलिये वह प्रकृति के कार्य मन के द्वारा मनन नहीं किया जा सकता है और बुद्धि के द्वारा यह निश्चय नहीं किया जा सकता है कि यह ब्रह्म बस यही और इतना ही है ऐसा अचिन्त्य रूप, आदित्य वर्ण का अर्थ उगते हुए या दोपहर के बदले हुए रंग वाला नहीं बल्कि सूर्य का वह पुंज समूह जो बाहर और भीतर एक हीं रंग का है उसी के समाना जो बाहर भीतर एक समान व्याप्त यानी सर्वगत है । तमसः परस्तात् अर्थात जैसे सूर्य कि प्रकाश स्वभाव से ही अंधकार का नाश करने वाला होता है, उसे नाश करना नहीं पड़ता है । इसी प्रकार परमेश्वर का स्वारूपतः अभिन्न आत्मरूप से ज्ञान होने पर अनात्म पदार्थ की प्रातिभासिक सत्ता का स्वयं नाश हो जाता है नाश करना नहीं पड़ता । ऐसे आठ लक्षणों वाले परमेश्वर का निरंतर बिना एक भी काल के छोटे से छोटे अंश को गंवाये अनवरत जो चिन्तन करता है । वह परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है ऐसा पूर्व और उत्तर के श्लोक से संबद्ध कर लेना चाहिए । इसकी व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में भी देखना चाहिए ।।९।।
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।८/१०।।
          मृत्युकाल उपस्थित होने पर मन को योगबल के द्वारा एकनिष्ठ आत्मा में स्थिर करके और प्राणों को भी भली प्रकार से भृकुटि के मध्य में स्थिर करके जो शरीर छोड़ता है वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त होता है ।
          आचार्य शंकर ने योगबल का अर्थ समाधिजन्य चित्त की स्थिरता को योग माना है । न कि अष्टांग योग का योग बल तथापि आगे प्राणों की भृकुटि के मध्य में कही गई स्थिरता के साथ में प्राण छोड़ने की जो बात कही गई है और आगे मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ८/१२ भी कहा गया स्पष्ट अष्टांगयोग है अतः यहाँ पर भी अष्टांगयोग से इनकार नहीं किया जा सकता है । तथापि भक्ति का अर्थ आचार्य जी ने विवेक चूड़ामणि में आत्मानिष्ठा किया है उसके अनुसार जो युक्त है वह मन को उस एकात्मा में स्थिरता रूप योगबल यानी अचल समाधि के द्वारा उपरोक्त आठ लक्षणों वाले परम दिव्य पुरुष का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ने पर उसी परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है ।
                  परम दिव्य पुरुष ८/८ और यहां पर भी आया है और तम् भी कहा गया है अर्थात जिसे पहले से जिसने आजीवन अभ्यास किया वह जिस परम पुरुष को प्राप्त करता है वह यदि मृत्यु काल में भी इन आठ लक्षणों वाले परमपुरुष का स्मरण करके शरीर त्याग करता है तो भी उसी दिव्य परम पुरुष को प्राप्त होगा इसमें संदेह यह नहीं करना चाहिए कि जीवन भर कुछ नहीं तो अब क्या होगा ? यह संशय रहित होना ही योगबल है और भृकुटि के मध्य प्राणों का स्थिर करना अर्थात एकमात्र आत्मा और परमात्मा के अभिन्नत्व रूप तादात्म्य वृत्ति को प्राप्त करना है । यह इसका भाव है ।।१०।।

          समीक्षा―  यहाँ तक अर्जुन के सातों प्रश्नों को उत्तर में अधिभूत अधिदैव एवं अधियज्ञ का स्वरूप समझाते हुए तीनो गुणों से व्याप्त जगत का स्वरूप बताते हुए जगत स्वरूप किन्तु जगत से भिन्न परमात्मा कि स्वरूप बताया गया है । ठीक ठीक वैसे ही जल जिस समय बर्फ होता है तो भी पानी होता है, जिस समय पिघलती है उस समय भी पानी, जिस समय ओस या वाष्प बनता है तब भी पानी और बरसता है तब भी पानी । इसी प्रकार वासुदेवः सर्वं, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, ईशावास्यमिदं सर्वम्, पूर्णमदः पूर्ममिदम्, एवं अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्वमसि इत्यादि कै भलीभाँति समझाते हुए अन्त में जो अर्जुन का प्रश्न था कि मृत्यु के समय किसका स्मरण करके शरीर छोड़ना चाहिए ? इस प्रश्न से दो प्रश्न बनते हैं कि सगुण साकार परमेश्वर का स्मरण करके शरीर छोड़ना चाहिए या निर्गुण निराकार का ? इसके उत्तर में भगवान ने उत्तर में यह बताया कि यदि सगुण साकार का आप चिन्तन करेंगे तो मेरा और तेरा का भेद मिटेगा नहीं एवं मेरा तेरा का भेद न मिटने से यह की भी वृत्ति स्वतः ही हो जायेगी । यही त्रिपुटी संसार का हेतु है किन्तु अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ नाम से कहे जाने वाले आखिल ब्रह्माण्ड को मुझसे ही सत्ता प्राप्त होने से वे भी मेरा ही स्वरूप हैं अर्थात वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ, यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। ६/३०। ऐसा मुमुक्षु ही मुझसे अभिन्न होकर मुझको प्राप्त होता है यह बताते हुए अपने षड्विकारों से रहित निष्कल स्वरूप का स्मरण ही अन्त समय में श्रेष्ठ और मोक्ष का हेतु बताया ।।१-१०।।

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ।।८/११।।
        जिस अक्षर ब्रह्म को वेदवेत्ता कहते हैं, जिसमें वीतरागी प्रवेश कर जाते हैं, जिसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है उसी पद को संक्षेप से कहूंगा ।
        पूर्व तीन श्लोकों में जीवन के अन्तिम क्षण अभ्यास पूर्वक निष्कल ब्रह्म का स्मरण करते हुए शरीर को छोड़ने की बात कही गई है । अब यह बता रहे हैं कि वह अभ्यास किसका और किस प्रकार करेगा ? क्या और भी किसी ने किया ?  इस पर कहते हैं यह मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं बता रहा बल्कि वेद के रहस्य को जानने वाले ही जिस अक्षर ब्रह्म का कथन करते हैं और प्रयत्नशील यति वृन्द जिसमें प्रवेश कर जाते हैं । यहाँ प्रयत्नशील का तात्पर्य है साधन चतुष्टय संपन्न निरंतर परमात्मा के स्वरूप को आचार्य श्रुति शास्त्र द्वारा जानकर, पुनः उस जाने हुए तत्त्व को अपरोक्ष रूप से तादात्म्य भाव को प्राप्त करके जिसमें प्रवेश कर जाते हैं आगे भगवान स्वयं कहेंगे ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुम् ११/५४ अर्थात जिस आत्मैक्य भाव को यतिबृन्द प्राप्त करते हैं, जिसके लिए मुमुक्षु आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन अर्थात मन वचन कर्म से वाह्य विषयों से ऊपर उठकर ब्रह्म को तत्त्व से जानने की इच्छा से वेदों के रहस्य को समझने के लिए जीवन ही व्यतीत कर देते हैं उसका विस्तार तो कहना इस समय युद्धक्षेत्र में संभव नहीं है तथापि उसी तत्त्व को संक्षेप में ही तुम से कहता हूँ । उसे ध्यान से सुनो इतना अध्याहार कर लेना चाहिए ।।११।।

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।।८/१२
          सभी द्वारों का नियमन करके और मन को हृदय में अवरुद्ध करके विवेक बद्धि द्वारा प्राणों को मूर्धा में स्थिर योग की धारणा करे ।
           सभी द्वारो के नियमन का अर्थ है सभी सूक्ष्म इन्द्रियों का उनके विषय चिंतन से रोक करके मन को हृदय में ही रोक दे । यहाँ पर विचारणीय बात यह है कि जब मन हृदय में ही रुक जायेगा तो प्राणों को मूर्धा यानी सहस्रार में ले कौन जायेगा ? इसके लिए आगे आत्मनः शब्द का प्रयोग किया है । आत्मनः का अर्थ होता आत्मा और अनात्मा का नीर-क्षीर की भांति विवेक करने वाली बुद्धि । बुद्धि नीर क्षीर की भांति निर्णय तब तक नहीं कर सकती है जब तक मन विषयों के संकल्प विकल्म में लगा रहेगा । अतः अध्याय छः में कहे गये न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ की ही आवृत्ति यहाँ पर मन का हृदय में रोकने के रूप में समझना चाहिए । जब संकल्प विकल्प ही अवरुद्ध हो जायेगा तब मन भी बुद्धि के साथ अभिन्न होकर आत्मा अनात्मा का निश्चय करके मूर्धा का अर्थ है द्यौ लोक ही जिसकी मूर्धा है है ऐसे ब्रह्म में प्राणों को यानी अपने परिच्छिन्न भाव को अपरिच्छिन्न भाव में दृढ करके योग की धारणा करे अर्थात निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ५/१९ अर्थात जो ब्रह्म षड्विकार रूप सभी दोषों से रहित है ऐसे सभी प्राणियों में अन्दर बाहर एवं अवान्तर में भी बिना किसी भेदभाव के एकरस स्थित है ऐसे समत्व रूप की धारणा करते हुए…...।।७।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं सा याति परमां गतिम् ।।८/१३।।
             ॐ इस एकाक्षर ब्रह्म की व्याहृतियों सहित पुनः पुनः स्मरण करता हुआ जो शरीर का त्याग करता है है वह परमगति अर्थात जिसकी प्राप्ति के पश्चात और कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है उस मोक्ष को उपरोक्त योगी प्राप्त कर लेता है ।
           यहाँ पर शंकरानंद जी ने ॐ का स्पष्ट उच्चारण माना है जिसे वह स्वयं भी अपने कानों से सुन सके, श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन में हमने भी यही अर्थ किया है तथापि इस समय विचार करने पर वह अर्थ जिस समय मन और प्राण अन्तर्वृत्ति में स्थित होंगे उस समय उपांशु का भी उच्चारण करना संभव प्रतीत नहीं होता है । उस समय विचार की वही शैली ठीक थी किन्तु इस समर यही शैली ठीक है । आचार्य शंकर ने भी व्याहरन् का अर्थ ॐ के अर्थ का चिन्तन किया है । ॐ का विस्तार श्रुति शास्त्र करता ही है हमने भी उपरोक्त पुस्तिका में इससे पूर्व के श्लोक में व्याख्या कर ही दिया है अतः वहीं देख लेना चाहिए । इस प्रकार ॐ के अर्थस्वरूप में परमतात्त्विक स्वरूप का चिन्तन करके योगी परम स्थान अर्थात देशकाल अपरिच्छिन्न मेरा साथ अभिन्नता को प्राप्त होता है यह भाव है ।।१३।।

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं शुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।।८/१४।।
      हे पृथापुत्र ! अनन्य चित्तवाला जो भी मेरा नित्य स्मरण करता है मैं उस नित्ययुक्त योगी के  लिए सुलभ हूँ ।
        यहाँ पर माम् का अर्थ है जो अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के स्वरूप को समझते हुए मेरे निष्कल, निक्रिय सर्वात्मस्वारूप का जो नित्य यानी जीवन पर्यंत बिना एक भी क्षण व्यर्थ के प्रलापों में गंवाये आजीवन मेरा स्मरण करता है ऐसे समत्व भाव में अभिन्न भाव से स्थितयोगी के लिए मैं सुलभ हूँ ।
        यहाँ पर प्रसंग अर्जुन के सात प्रश्नों के उत्तर में अन्तिम समय में किसका स्मरण करना चाहिए बताया जा रहा है इसलिए जो अध्याय सात के अन्तिम दो श्लोक में अपने समग्र स्वरूप के वर्णन में कहा था उससे भिन्न अन्य मात्र साकार देवकीनंदन कृष्ण स्वरूप कभी नहीं हो सकता है । नित्ययुक्त से अपना जीव यानी आत्मा के चित्तशुद्धि होने पर स्वयं से एकता दर्शाया गया है तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त ७/१७ । यहां पर इस प्रकार के अभिन्न योगी के लिए ब्रह्म प्राप्ति सुलभ बताया गया है इसी बात को सुखेन ब्रह्म संस्पर्शम् ६/२८ कहा गया है । जबकि दुःखमाप्मयोगतः५/६, असंयतात्मना योगो दुष्प्राप्य ६/३६ अर्थात जो अयोगी, असंयमित अर्थात अजितेन्द्रिय है उसके लिए दुःख साध्य कहा यही बात क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम् १२/५ से भी कहेंगे । अर्थात ब्रह्म किसे सुलभ है यह बताते हैं कि जो जितेन्द्रिय और सर्वरूप में ही परमेश्वर को आत्मरूप में और स्वरूपता को परमेश्वर से अभिन्न देखता है वही ब्रह्म की प्राप्ति करता है शेष मात्र कष्ट भोगते हैं ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती है चाहे वे निराकार के उपासक हों या सकार के, यही इसका भाव है ।
         सारांश― स्व से भिन्न कभी परमेश्वर को नहीं जाना जा सकता है । स्व से भिन्न अत्यंत दूर अर्थात अप्राप्य हैं और स्वसंवेद्य सदैव अत्यंत निकट आत्मरूप नित्य प्राप्त हैं यह भाव है ।।१४।।

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।।८/१५।।
          मुझको प्राप्त होकर अनित्य दुःख के घर में पुनः जन्म नहीं प्राप्त करता वरन् महान् आत्मा की भलीभांति सिद्धि को प्राप्त करके परमगति को प्राप्त करता है ।
          हम माम् का अर्थ पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं, और संसार दुःख का समुद्र हैं यह सभी जानते ही हैं अतः हम महात्मानः पर विचार करते हैं । महात्मानः संसिद्धिं जो कहा इसका तात्पर्य यह है कि अभी तक जिस कार्य करण संघात अर्थात शरीर और इन्द्रिय के समूह को मैं के अर्थ स्वरूप सीमित अहंता वाला अपने आपको जानता था, अब जब उसने परमेश्वर के समग्र रूप को जाना तब उसने जाना कि यह परमेश्वर और कोई नहीं बल्कि जिसे मैं खोज रहा था वह ब्रह्म सबकी आत्मा और सबको सत्ता देने वाला और अन्य किसी की सत्ता से कोई संबंध न रखने वाला जगत के संबन्धों से निर्लेप शुद्ध चिन्मय अज, अनन्त अव्यय परमात्मा मैं ही हूँ इस प्रकार भलीभांति व्यापक सिद्धि को प्राप्त करता है अर्थात स्वयं को अनात्म पदार्थ से सर्वथा भिन्न जानकर उसका परित्याग करके स्वरूप में स्थित होना ही महानता है यह महानता जिस आत्मा में है वह महात्मा है । ऐसा महात्मा परम् गति अर्थात स्व से अभिन्न मोक्षस्वरूपता को प्राप्त करता है यह भाव है ।।१५।।

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ।।८/१६।।
             हे अर्जुन ! ब्रह्मलोके पर्यंत जितने लोक हैं वहां जाकर पुनः संसार में आना पड़ता है । किन्तु हे कुन्तीपुत्र ! मुझको प्राप्त होकर संसार में पुनः नहीं आना पड़ता ।
            यहाँ पर दूसरा भाव यह भी लिया जा सकता है कि जो लोग ब्रह्म पद को प्राप्त नहीं हुए हैं ऐसे सभी लोग पुनरावर्ती हैं किन्तु मुझ निक्रिय ब्रह्म को प्राप्त होकर पुनः पुनरावर्तन नहीं होता ।।
         पाताल लोक से लेकर सत्यलोक पर्यंत सभी लोक भोग प्रधान हैं गीता भोग प्रधान प्राणियों की बड़ी निंदा करती है । भोग प्रधान व्यक्ति यदि ब्रह्म लोक चला भी जाये तो भी वह मुक्त न होकर संसार चक्र की भंवर में पुनः गिर जाता है । किन्तु जो मुझे प्राप्त होता है― यहाँ माम् यानी मुझे का अर्थ है परमेश्वर के समाग्र से अर्थात जो परमेश्वर को समग्र रूप से जानता है स सर्वविद्भभजति मां सर्वभावेन १५/१९ ऐसा जो सर्वभाव से जानने वाला योगी है वह मुझ समग्र रूपता को ही प्राप्त होता है अर्थात स्व से अभिन्न मोक्ष को प्राप्त करता है इसलिये उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।
            शंका हो सकती है कि आगे इसी अध्याय में शुक्लमार्ग से गये हुए का ब्रह्मलोक में ही मोक्ष कह दिया गया है फिर यह कैसे कहा कि उसका पुनर्जन्म नहीं होता ? इसका समाधान यह है कि वहीं पर कृष्णमार्ग का भी वर्णन है । वह तो लौटता ही है । शुक्ल का अर्थ होता है निर्विकार ज्ञानस्वरूप निर्विकल्प मार्ग का अनुसरण करने वाला और कृष्ण का अर्थ होता है सविकार अज्ञान स्वरूप कर्ममार्ग का अनुसरण करने वाला । अतः जिसकी निर्विकल्प साधना का उद्देश्य था किन्तु कारणवश यहां वह साधना पूरी नहीं हो सकी और शरीर छूट गया तो वह उसके द्वारा अर्जित पुण्य के फलस्वरूप ब्रह्मलोक जायेगा वहां के भोगों को भी भोगेगा तथापि उसका उद्देश्य भोग नहीं मोक्ष होने के कारण वहां भी अनासक्त रहेगा इसी अनासक्ति के फलस्वरूप उसकी मोक्ष सिद्धि हो जाती है जबकि कर्मी यहां भी भोग प्रधान होता है और वहां भी भोग प्रधान रहेगा ही, अतः उसका पुनर्जन्म कहा गया है । इसीलिए यहाँ पर समग्र रूपता यानी आत्मैक्य लक्ष्य को प्राप्त होकर संसार बंधन से मुक्ति और भोगप्रधान भोदोपासक का पुनर्जन्म कहना युक्तिसंगत ही है ।।१६।।

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ।।८/१७।।
          जो मनुष्य ब्रह्मा के एक हजार चतुर्युग पर्यंत दिन जानता है और एक हजार चतुर्युग पर्यंत रात्रि जानता वही रात्रि और दिन को जानता है ।
          यहाँ पर ब्रह्मा के दिन रात्रि का निर्णय करके यह बताया गया है कि जब इस सृष्टि के कर्ता ब्रह्मा जी स्थिर नहीं हैं तो संसार कैसे स्थिर होगा ? यहां रजोगुणी ब्रह्मा की आयु का सत्वगुण संपन्न विष्णु का एक दिन और तमोगुण संपन्न महादेव का विष्णु की आयु का एक दिन समझकर काल निर्णय करके इन तीनों का ही नाश समझना चाहिए । जो भी इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जायेगा वही सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते १३/२३ अर्थात तीनो गुणों का अतिक्रमण करने वाला ही सर्वथा आत्मरूप एकमेवाद्वितीम् करके एकरस स्थित होता है शेष जन्म मृत्यु रूप विनाश को प्राप्त होते हैं यह भाव है ।।१७।।

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके ।।८/१८।।
          अव्यक्त यानी ब्रह्मा के दिन आने पर सभी प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं और रात्रि के आने पर उसी अव्यक्त संज्ञा वाले ब्रह्मा में पुनः लय को प्राप्त हो जाते हैं ।
          यद्यपि पूर्वोक्त श्लोक में संसार की नश्वरता दिखा दिया था तो भी यहां पर रात्रि दिन का अलग से वर्णन करके यह बताना चाहते हैं कि जैसे हम जब सोते हैं उस समय संसार के बीज स्वरूप सूक्ष्म वासना को लेकर सो जाते हैं और जब जाग्रत होते हैं तब वही अन्दर की बीज रूप वासना के फलस्वरूप पुनः वही का वही वैसा ही जगत भासित होता है उसी प्रकार ब्रह्मा जी जब रात्रि में सोते हैं संपूर्ण प्राणियों के कर्म संस्कारों को अपने अन्दर धारण करके सो जाते हैं अतः संसार का प्रलय हो जाता है और जब जाग्रत होते हैं तब उन्हीं कर्म संस्कारों के बीज बाहर जगत रूप में पुनः स्वतः प्रकट हो जाता है उसमें कुछ दुबारा अलग से नहीं करना पड़ता है । यही बात अगले श्लोक में भी दिखाया गया है ।
          व्यक्तयः अर्थात प्राणी का अर्थ आकाश आदि सभी प्रकार के जड़ चेतन प्राणियों की विचित्र विचित्र एवं भिन्न भिन्न आकृतियों के सहित समझना है ।।१८।।

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवन्त्यहरागमे ।।८/१९।।
             इस प्रकार ब्रह्म के दिन आने पर ये वही प्राणी पुनः जन्म लेते हैं और रात्रि के आने पर अपने कर्मबीज के परवश हुआ वही प्रणिसमुदाय पुनः लय को प्राप्त होता है ।
              यहाँ मूल में अयं एव शब्द आया इस का अर्थ यह है यह ‛वही जीव’ इस प्रकार निश्चय करने के ही अयं एव आया है । अर्थात अपने कर्मबीज के परवश होकर, पराधीन होकर अनन्ता काल से जन्मता मरता चला आ रहा है और आगे कब तक ऐसा चलता रहेगा इसका निर्णय नहीं किया जा सकता है । इसका निर्णय यही है कि जब तक स्वरूप का ज्ञान होकर कर्मों का क्षय नहीं हो जाता है तब तक ऐसा ही चक्र चलता रहेगा ।।१९।।

परस्तस्मात्तु भावोन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।।८/२०।।
          किन्तु उस अव्यक्त से जो अन्य श्रेष्ठ, सत्तामात्र अव्यक्त और सनातन है वह संपूर्ण प्राणियों के विनाश हो जाने पर भी विनाश को प्राप्त नहीं होता ।
            अव्यक्त पहले ब्रह्मा को कहा गया है क्योंकि वह संपूर्ण प्राणियों के समान देखने और समझने में नहीं आता है । अन्य शब्द से दूसरे अव्यक्त की विक्षणता दिखाते हुए उस अव्यक्त ब्रह्मा से भी जो श्रेष्ठ सनातन अर्थात नित्य है वह संपूर्ण प्राणियों नाश होने पर भी विनाश को प्राप्त नहीं होता । भाव शब्द सत्ता का सूचक है यदि वही नष्ट हो गया तो ब्रह्मा को सत्ता कौन देगा ? अतः वह परम सत्ता ही नित्य और अविनाशी एवं बिना स्वरूप ज्ञान के समझ में न आने वाला यानी मन बुद्धि से भी ‛यही वह है’ ऐसा निश्चय न कर पाने के कारण अव्यक्त है ।।२०।।

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।८/२१।।
           इस प्रकार पूर्वोक्त अव्यक्त अर्थात स्वसंवेद्य अविनाशी अक्षर परमेश्वर को ही परम गति कहा गया है । जिसको प्राप्त होकर प्राणी पुनः वापस नहीं होते वही मेरा ज्ञानस्वरूप, प्रकाश रूप मेरा परम यानी सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है ।
         यहाँ धाम का अर्थ प्रकाशस्वरूप संवेद्य ज्ञानस्वरूप कहा गया है जो निर्विवाद द्वैत एवं अद्वैत आचार्यों ने स्वीकार किया है । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।२१।।

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ।।८/२२।।
           हे पार्थ ! जिसके अन्तर्गत संपूर्ण प्राणी स्थित हैं, जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है वही परम पुरुष अनन्य भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है ।
          यद्यपि यहाँ तत् पदार्थ के शोधन स्वरूप पुरुष शब्द परमात्मा के लिए आया है तथापि सर्वश्रेष्ठ पुरुष की प्राप्ति का साधन बताते हैं अनन्या अर्थात जहाँ अन्य कोई भी आत्म पदार्थ से भिन्न वृत्ति न हो ऐसी भक्ति अर्थात आत्मानिष्ठा के द्वारा उस परम पुरुष को प्राप्त किया जा सकता है जिसमें संपूर्ण प्राणी स्थित हैं और जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है । ध्यान देना चाहिए येन सर्वमिदं ततम् २/१८ में त्वं पदार्थ के शोधन रूप आत्मा का वाचक है और यहां पर यही वाक्य तत् पदार्थ का वाचक विराट अर्थात ईश्वर है, क्योंकि संपूर्ण प्राणी उसी मायोपाधिक हिरण्यगर्भ का विलास है । आत्मरूप अनन्य निष्ठा का तात्पर्य है कि संपूर्ण अनात्म पदार्थ से स्वयं को अलग कर ले ऐसा करने पर जिसे यहां पर पुरुष कहा गया उसे ही आगे परुषः परः१३/२२ कहा गया है । अतः इस प्रकार दोनो श्रेष्ठ पुरुषों के एकत्व वृत्ति में मैं और तुम का भाव ही समाप्त हो जायेगा । इसी एकत्व वृत्ति से ही उसे प्राप्त किया जा सकता है । ‛सकता’ है का अर्थ संदेह नहीं बल्कि एकमात्र इस साधन से भिन्न अन्य कोई ऐसा साधन नहीं जिससे उस परमतत्त्व को जाना जा सके ।।२२।।

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।।८/२३।।
         हे भरतश्रेष्ठ ! जिस काल में मृत्यु को प्राप्त हुआ योगी वापस नहीं होता और जिस काल में वापस होता है उस काल को कहूंगा ।
            यहां पर काल का अर्थ विद्वानों ने मार्ग किया है । योगी से यहाँ अग्निष्टोम, अवश्मेधादि, तज्ञ, तप आदि करने वाले सकाम कर्मी भी योगी तो नहीं किन्तु योगी के समान समझना चाहिए, क्योंकि सकाम कर्मियों की शास्त्र निंदा करता है ।।२३।।

अग्निर्ज्योरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।।८/२४।।
            अग्नि, ज्योति, निर्विकार, छः महीने उत्तरायण जिस समय होता है उस समय ब्रह्म को जानने वाला मुमुक्षु शरीर का त्याग करने पर ब्रह्म को प्राप्त होता है ।
               इसमें विद्वानों की कुछ बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं जैसे अग्नि और ज्योति दोनो का अभिमानी देवता एक ही का होना एवं छः महीने उत्तरायण का भी उसी देवता का होना । हम जब जानने का प्रयत्न करते हैं तो यह कोई नहीं बताता है कि उनके अभिमानी देवता कौन हैं । इस श्लोक सहित तीन श्लोकों की विस्तृत व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखना चाहिए । यहां पर आया हुआ नया भाव दे रहा हूँ, चूंकि यह मेरा मानना है अतः मैं यह आशा भी नहीं करता हूँ कि कोई हमारी इस बात से सहमत हो । 
          अग्निर्ज्योतिः से यह समझना चाहिए कि अग्नि स्वरूप हैं ज्योति जिसकी ऐसा आत्म स्वरूप का परोक्ष ज्ञान प्राप्त करने वाला ब्रह्मवेत्ता जिसने छः महीने उत्तरायण यानी जीवन का आधा भाग भी जिसने ब्रह्माभ्यास में लगा दिया और फिर भी अपरोक्ष आत्मसाक्षात्कार नहीं कर सका और प्रारब्धवश शरीर छूट गया ऐसा अव्यक्तोपासक शरीर छोड़कर ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्मा के साथ ही मुक्त हो जाता है वह कभी वापस नहीं होता ।
           इसका दूसरा अर्थ यह भी कर सकते हैं कि अग्नि अर्थात ज्ञान द्वारा जिसके सभी कल्मष नष्ट हो गये हैं ज्ञानाग्निः दग्धकर्माणं ४/१९, सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३, ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ४/३७ इत्यादि जो ज्ञान को ही अग्नि सूचक कहा है वही यहाँ पर अग्नि समझना चाहिए । अग्नि का स्वरूप ज्योति अर्थात प्रकाश रूप है जो स्वसंवेद्य आत्मरूप ही है ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते १३/१७ अर्थात जो ज्ञान स्वरूप सबका प्रकाशक है उसकी प्राप्ति में जीवन का आधा उत्तर यानी बचे हुए भाग को लगा देने वाला आत्मवेत्ता अर्थात ब्रह्म को स्वरूपतः समग्र रूप से जानने वाला शरीर छोड़ने पर ब्रह्म को अर्थात विदेह मुक्ति को ही प्राप्त करता है । उसका पुनः इस संसार चक्र में आना नहीं होता ।
          अथवा तीसरा पक्ष ज्योर्मय ज्ञानमार्ग ही मनुष्य जीवन के छः मास यानी छहों ज्ञानेन्द्रियाँ को वश में करने वाले के लिए उत्तरायण यानी निवृत्ति मार्ग का सर्वश्रेष्ठ साधन है, यह निवृत्ति मार्ग ही उत्तरायण मार्ग है । जो ब्रह्म के स्वरूप को समग्र रूप से जानने वाले हैं वे इस संसार चक्र में पुनः वापस नहीं आते ।
         अथवा अग्नि यानी संसार का प्रत्यक्ष कल्याण करने वाले और देवताओं के मुख स्वरूप, ज्योति यानी प्रकाश का अधिपति संसार का आत्मा सूर्य और उत्तरायण के छः महीने का अभिमानी देवता अर्थात निवृत्ति मार्ग के एकमात्र आदि गुरु इमं विवश्ते योगं प्रोक्तावहनमव्ययम् ४/१ एक मात्र परमेश्वर है । क्योंकि इन सबका प्रकाश एक मात्र परमेश्वर है अतः परमेश्वर के उद्देश्य से इन विभूतियों की भी उपासना करने वाले भी ब्रह्मवेत्ता हैं और वे भी क्रम मुक्ति को प्राप्त करते हैं ।
          इन सभी व्याख्याओं में मुझे श्रुति और शास्त्र दोनो ही प्रमाण दृष्टिगोचर हो रहे हैं और जिसे जो अनुकूल लगे वह ग्रहण कर ले । अन्यथा अपना मार्ग स्वयं खोजे ।।२४।।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।।८/२५।।
        धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष के छः महीने, उस समय शरीर छोड़कर जाने वाले योगी चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः वापस होते हैं ।
       यहाँ पर धूम का अर्थात अज्ञान, रात्रि का अर्थ मूढ़ता छः मास का अर्थ मन सहित छहों ज्ञानेन्द्रियों को दक्षिणायन यानी प्रवृत्ति मार्ग में सकाम लोक आदि की कामना से किये गए त्यागमय कर्मों में ही जीवन को व्यतीत करने वाले देवताओं के आहार चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त करते हैं । चंद्रमा को श्रुतियों में देवताओं का भोजन कहा जाता है, गीता में भी पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः १५/१३ अर्थात परमेश्वर ही सभी रसमय औषधियों का पोषण करता है । अतः चन्द्रमा द्वारा उसके किये गये कर्मों के फलस्वरूप जितना भोग उपस्थित हुआ उसका पोषण होता है और वहां का भोगकाल, समाप्त होते ही पुनः इस संसार में वापस होता है यानी पुनर्जन्म को प्राप्त होकर सृष्टिचक्र की वृद्धि करता है ।।२५।।

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ।।८/२६।।
         क्योंकि संसार में शुक्ल और कृष्ण ये दो ही मार्ग शाश्वत माने गये हैं, इनमें से जाने पर संसार में वापस नहीं आता और दूसरे मार्ग से जाकर वापस आता है ।
          संसार में दो ही माने गये हैं एक शुक्लमार्ग यानी ज्ञानमार्ग अर्थात निवृत्ति मार्ग । शुक्लमार्ग का अर्थ आचार्य शंकर को भी ज्ञानमार्ग ही इष्ट है । ज्ञानमार्ग यानी जीव-ब्रह्म की एकता का बोध कराने वाला वेदांत अर्थात त्रिगुणातीत मार्ग है इस मार्ग में जाने वाले पथिक का शरीर छूटने पर पुनः संसार का दर्शन वापस आकर नहीं कर सकता अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । दूसरा मार्ग है कृष्णमार्ग इस मार्ग में आत्मा अनात्मा के विवेक का अभाव रहता है या यूं कहें अज्ञानमय भोग प्रधान प्रवृत्ति मार्ग में आसक्त । इस पथ के पथिक का शरीर छूटने पर उसे संसार में आना ही पड़ता है और पहले की तरह वेदों की फलश्रुति में आसक्त होकर कामना पूर्ण गोशाला, कुआं, बावड़ी, तालाब, वृक्षारोपण आदि समाज के कल्याण के लिए कर्म करता है । अर्थात प्रवृत्ति मार्गी सदैव ऊपर नीचे की गति को प्राप्त करता है। उसे कभी शान्ति नहीं मिलती । यह दोनों मार्ग के पथिकों की गतिविवेचन का उपसंहार हुआ ।।२६।।

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ।।८/२७।।
         इन दोनो मार्गों को जानने वाला योगी कभी मोहित नहीं होता इसलिये हे अर्जुन ! सभी समय योगयुक्त होओ ।
          यहाँ दोनो मार्ग शुक्ल और कृष्णमार्ग को जानने का तात्पर्य है सत् असत् का विवेक रखने वाला मनुष्य यह जान लेता है कि कर्म और कर्मजन्य प्राप्त फल अनित्य और अन्त में दुःखद ही हैं, अतः उनमें आसक्त न होकर ज्ञानमार्ग का अवलंबन लेकर परमतत्त्व को स्वरूपतः श्रुति एवं आचार्य से जानकर उसमें स्थित होकर फिर कभी मोहित नहीं होता है, इसलिये हे अर्जुन अर्थात हे मुमुक्षु तुम किसी भी सम और विषम समय में भी योगयुक्त अर्थात समत्व रूप ब्रह्मी भाव में स्थित होओ । तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ८/७ का ही यहाँ पर तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन यहाँ पर अनुवाद समझना चाहिए ।।२७।।

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।।८/२८।।
         भलीप्रकार शास्त्र विधि से किये हुए   वेदों के अध्ययन से, यज्ञ से, दान से, तप से जो फल मिलता है, उन सबके रहस्य को जानकर योगी उनका अतिक्रमण करके सनातन परम पद को अर्थात स्वसंवेद्य, स्व से अभिन्न स्वरूपगत नित्य आत्म पद को प्राप्त कर लेता है ।
           इस प्रकार समभावस्थ ज्ञान (चित्तशुद्धि) के निमित्त कर्म करने वाले योगी की स्तुति स्तुति पूर्वक अष्टम अध्याय का उपसंहार हुआ ।।२८।।

                    समीक्षा― अर्जुन को अन्तिम समय में आठ लक्षणों वाले पुरुष का मन के संकल्प को रोककर अपनी चेतना शक्ति को भृकुटि के मध्य में अर्थात जिसकी मूर्धा विराट है उसमें स्थिर करके शरीर छोड़ने पर त्रिगुणातीत परम् पुरुष को प्राप्ति बताते हुए आगे उसके साधनों के वर्णन के अन्तर्गत वेद के रहस्य आदि को जानने वाले ब्रह्मवेत्ताओं द्वारा कहे जाने वाले अक्षर पुरुष की प्राप्ति के साधनभूत प्रणव का अवलंबन लेकर उसके अर्थभूत उसके समग्र रूप का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग करने वाले की परम गति अर्थात मोक्ष बताते हुए अभिन्न भाव से अनात्मपदार्थ का स्मरण न करते हुए आत्मस्वरूप परमेश्वर का स्मरण करने वाले योगी का दुःख के आलय अर्थात जन्म मृत्यु से उत्पन्न होने वाले संसार रूप घर का भी अतिक्रमण करके सीमित अहंता से ऊपर उठकर व्यापक अहंता रूप आत्मसिद्धि का भलीभांति संपादन करके मोक्ष को प्राप्त करना बताया ।
           पुनः ब्रह्मा के दिन रात्रि का रूपक बताते हुए संसार की नश्वरता का वर्णन करते हुए कर्मासक्त प्राणियों पुनः पुनः जन्म-मरण रूप दुःख का वर्णन किया ताकि विवेकशील मुमुक्षु इस संसार चक्र में बिल्कुल न पड़कर उनका अतिक्रमण करता हुआ आत्मलाभ प्राप्त करे । इस नश्वरता को दिखते हुए प्राणिमात्र को सावधान करते हुए जो हिरण्यगर्भ से भी परे अविनाशी परमात्मा है उसका ब्रह्मा सहित संपूर्ण जगत के विनाश होने पर भी विनाश न होना बताते हुए जिसे अविनाशी, अक्षर और परम गति तत्त्वदर्शियों ने कहा है वही परमात्मा का प्रकाशस्वरूप अभिन्न स्वरूप है है जिस अभिन्नता को प्राप्त होकर पुनः इस संसार का मुख नहीं देखना पड़ता है । यह वही अविनाशी परमपुरुष है जो संपूर्ण प्राणियों के अन्तर्गत स्थित है । यहाँ पर मूल में अन्तःस्थानि आया है जिसका अर्थ प्राणियों का हृदय भी कहा जा सकता हृदि सर्वस्य विष्ठितम् १३/१७, हृदि सन्निविष्टो१५/१५, ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति १८/६१ तथापि परमेश्वर के अन्तर्गत लेना उचित प्रतीत होता क्योंकि वह सबमें व्याप्त होने से सबको सत्ता देने वाला है ।
             आगे जिन मार्गों द्वारा प्रणियों के शरीर छोडने पर संसार में पुनः वापस न आना पड़े उन दोनो अर्चि एवं धूम्रमार्ग का जिसे गीता में शुक्ल और कृष्ण मार्ग कहा गया है का वर्णन करते हुए निवृत्ति मार्ग एवं प्रवृत्ति मार्ग वाले जीवों की गति का वर्णन वैराग्य की स्थिरता के लिए कहते हुए ज्ञानमार्ग को ही संसार के आत्यंतिक दुःख निवृत्ति का हेतु बताया । इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के रहस्य को जानने वाले को प्रतिक्षण ज्ञानमार्ग का ही आश्रय लेने की आज्ञा देते हुए यह बताते हैं कि अंगो सहित वेदाध्ययन का जो फल होता जो उत्तम तप और श्रेष्ठ प्रिय वस्तुओं के दान का जो फल होता उसके अनित्यत्व का निश्चय करके उनका अतिक्रमण करता हुआ योगी मेरे अनादि सनातन नित्य स्वरूप को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार अन्तिम दो श्लोकों में समत्व रूप ज्ञानयोग के प्राप्ति के साधन रूप कर्मयोग की प्रशंसा करते हुए इस अक्षर ब्रह्म योग नामक अध्याय का उपसंहार श्रीभगवान कर देते हैं ।।१३-२८।।

ॐतत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरं ब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः ।।८।।

हरिः ॐ तत्सत् !                    हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!

         श्रीकृष्णार्पणमस्तु

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