गीता समीक्षा अध्याय १७
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ सप्तदशोऽध्यायः
पूर्व अध्याय में भगवान ने बताया कि जो शास्त्र विधि का त्याग करने वाले के लिए न सुख आत्मसिद्धि (चित्तशुद्धि) मिलती है, न सुख मिलता है और न ही परमगति मिलती है । अतः शास्त्र प्रमाण के द्वारा निश्चित की गई विधि द्वारा ही कार्य करना चाहिए । यह बात सुनकर अर्जुन के मन जिज्ञासा होती है कि सभी को शास्त्र का ज्ञान होता नहीं तो फिर अन्य लोग जो बड़ी श्रद्धा से कार्य करते हैं उनकी श्रद्धा का क्या होगा ? जबकि आपने पहले ही बताया कि पत्रं पुष्पं फलं तोयं ९/२६, यत्करोषि यदश्नासि ९/२७ अर्थात जिस वैदिक विधि द्वारा देवताओं की आराधना की जाती है, वह आपने और देवाताओं में भेद दृष्टि के कारण अविधि और जो आप सर्वात्मा की ही आराधना करना वही विधि है । फिर उसमें आपने बहुत सामान्य बात बताया कि हमारी उपासना की विधि का भी कोई नियम नहीं है, आपके पास पत्र हो, पुष्प हो अथवा जो कुछ भी खाना पीना रूप क्रिया भी करते हो वह सब मुझे अर्पित कर दो मैं उसे बड़े प्रेम से ग्रहण करता हूँ और आपने उसका परिणाम भी कि संसार बंधन से मुक्त होकर ९/२८ मुझ सर्वात्मा को प्राप्त कर लेगा । फिर अब शास्त्र विधि से ही कार्य करने की बात कहना, यह आपकी ही बात में विरोधाभास दिखता है अथवा आपके लिए विरोधाभास भले न हो लेकिन मेरी समझ उचित न होने के कारण मुझे ही विरोध दिख रहा हो । इस प्रकार का मन में संदेह लेकर अर्जुन का इस अध्याय का पहला प्रश्न उपस्थित होता है ।
ये उपरोक्त विचार मेरे मन में अर्जुन के प्रश्नों की संगति को लेकर उपस्थित हुए थे जिनका विवरण आगे स्पष्ट हो जायेगा । उपरोक्त विचारों का भलीभांति मंथन करने के पश्चात जब लिखने के लिए बैठा तो कुछ मानस पाठ चल रहा था, अतः उस पाठ के बीच में ही उपस्थित भावना के अनुसार स्वामी रामसुखदासजी की इसी अध्याय की अवतरणिका देखी जिसकी टिप्पणी में इन विचारों का खंडन किया गया है । मेरे मन में यह आया कि ये मेरे मन में उत्पन्न विचार एक मात्र मेरे ही नहीं हैं । मेरे इस मत का पहले ही खंडन मिल गया, इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व के किसी टीकाकर ने भी उपरोक्त मेरी प्रकृति की भावनाएं व्यक्त की हैं, अतः यदि स्वामी रामसुखदासजी के विचार गलत नहीं हो सकते हैं, तो हमारे भी विचार सर्वथा निराधार नहीं हो सकते, इन विचारों के साथ ही मैं अपने विचारों पर और अधिक दृढ हो गया हूँ ।
कुछ विद्वत्वृन्द कहते हैं कि अर्जुन का प्रश्न जो शास्त्र विधि के त्याग की बात कुल देवी एवं कुल देवता को लेकर किया गया है कि उनकी पूजा परंपरा से चली आ रही है किन्तु शास्त्र में वर्णित नहीं है । उनका श्रद्धा से की गई उपासना विषयक प्रश्न है कि वह शास्त्रविधि से रहित पूजा सात्त्विक, राजस, तामस क्या है ?
इस पर यदि आप ध्यान दें तो अर्जुन कहता है कि ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य अर्थात जो शास्त्रविधि का त्याग करके, यानी स्पष्ट शास्त्रविधि त्याने की बात कही गई है, तो पहले शास्त्रविधि होना चाहिए फिर त्याग होगा, जिनका कोई वर्णन शास्त्र करता ही नहीं है, उनके लिए शास्त्रविधि ही नहीं है, तो शास्त्र विधि का त्याग भी कैसे होगा ? अतः यह तर्क युक्तिसंगत नहीं लगा तो भी हम पुनः विचार करते हैं ।
भगवान ने अध्याय ३/१०-१५ तक यज्ञ का जो स्वरूप बताया उसके अनुसार देवताओं का यजन भी भगवान विधि विरुद्ध नहीं है । विरुद्ध है तो भेद दृष्टि से की गई सकाम सकाम उपासना है, यही शास्त्र विधि का त्याग है । यहाँ पर शास्त्र विधि का त्याग से भी शास्त्र के तात्पर्य को न समझकर किये जाने वाले प्रत्येक कर्म से है । शास्त्र का तात्पर्य समझ लेने पर नित्य-नैमित्तिक कर्म भी बाधक नहीं बल्कि चित्तशुद्धि के साधक हैं नित्य कर्म कहिए संध्या, गायत्री, अग्निहोत्र आदि, नैमित्तिक कर्म वे होते हैं जो समाज और कुल की रक्षा यानी कल्याण के लिए किये जाते हैं । इसी नैमित्तिक कर्म के अन्तर्गत ही परंपरा से चली आ रही शास्त्र कथन से भिन्न परंपरा कुलदेवी, कुलदेवता की भी उपासना है और उसे उसी प्रकार करना होगा जो परंपरागत विधि चली आ रही है उसके विरुद्ध नहीं किया जा सकता है यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं ना करणीयं नाचरणीयरम् । अतः गीता तथा अन्याय शास्त्रों में भी नित्यनैमित्तिक कर्म का चित्तशुद्धि का हेतु होने से कहीं भी विरोध नहीं मिलता, श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः ३/३५, ३/४७ से भी यही सिद्ध होता है । यहाँ कुलदेवता संबंधित प्रश्न ही नहीं बनता है ।
इस प्रकार यहाँ पर यह सिद्ध होता शास्त्र विधि का सीधा अर्थ शास्त्र के तात्पर्य से है और शास्त्र का तात्पर्य है एकमेवाद्वितीम् में प्रतिष्ठा क्योंकि न सुखं न परां गतिम् १६/२३ में जिस सुख की बात कही वह नित्य सुख की बात कही है क्योंकि स्वर्गादि क्षणिक सुख की गीता विरोधी है, जबकि नित्यसुख बिना परमगति को प्राप्त किये मिल नहीं सकती है और परमगति बिना चित्तशुद्धि के हो ही नहीं सकती है । अतः न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् १६/२३ से जिस सिद्धि की बात की है वह आत्मसिद्धि, नित्य सुख, एवं मोक्ष के लिए ही कहा है― दैवी सम्पद्विमोक्षाय १६/५ भी इसी बात की पुष्टि करता है । इन सभी साक्ष्यों को लेकर कृष्ण का कथन शास्त्रविधि अर्थात शास्त्र के तात्पर्य से ही है― वेदविदेव चाहम् १५/१५ में जो कृष्ण ने कहा कि वेद को जानने वाला भी मैं ही हूँ, जिसका भावपक्ष निर्विरोध सभी ने वेद के तात्पर्य से लिया है । वैसा ही यहाँ पर भी समझना चाहिए । अतः अर्जुन का प्रश्न पत्रं पुष्पं फलं तोयम् ९/२६, यत्करोषि यदश्नासि ९/२७ को लेकर ही यहाँ पर प्रश्न उपस्थित हुआ है कि वह जो आपने बताया था उसको यहां क्या समझें ? वहां पर भी तो श्रद्धान्वित अर्थात श्रद्धा में डुबा हुआ है ? इसके अतिरिक्त भी उपनिषदों में प्रणव आदि की महिमा का कथन उसके जप करने वालों के प्रति वर्णन किया गया है जो उसके स्वरूप या तात्पर्य को नहीं जानते हैं, मात्र गुरु मुख से श्रवण कर लिया और उसी के परायण हो गये । पुराणों में भी ऐसा ही आता है कि मात्र मन्त्र जप से ही मोक्ष का कथन कर दिया गया है । इन सभी बातों को मन में ध्यान रखते हुए अर्जुन अपने इसी द्वन्द्व की निवृत्ति के लिए प्रश्न करता है―
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ।।१७/१।।
अर्जुन बोले― हे कृष्ण ! जो शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धा से परिपूर्ण होकर आपकी उपासना करते हैं उनकी वह निष्ठा सात्त्विक, राजस, तामस क्या है ? यह कहो ।
पुनर्विचार― हमने यद्यपि ऊपर अवतरणिका में सभी तर्क इस श्लोक संबंधित प्रस्तुत कर दिये तो भी ऐसा लगा कि स्पष्टीकरण नहीं हो सका, अतः पुनर्विचार करता हूँ―
श्लोक में दो पक्ष दिखते हैं― पहला पक्ष है― ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य और दूसरा पक्ष है― श्रद्धयान्विताः । यहाँ विचार करने पर पहला पक्ष युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अध्याय १६ में कह चुके हैं कि शास्त्र विधि का त्याग करने वाला की चित्तशुद्धि, सुख, लोक, परलोक कुछ भी सिद्ध नहीं होता है । शास्त्रविधि को जानकार भी उसका त्याग करने वाला तो असुर है यह भी पीछे बता चुके हैं । अतः यह अर्जुन का प्रश्न ही नहीं बनता है ।
अब दूसरे पक्ष पर विचार यह उत्पन्न होता है कि कैसी श्रद्धा जो शास्त्र का त्याग करे ? क्योंकि श्रद्धा शास्त्र के विरुद्ध नहीं होती है । अब दूसरा प्रश्न यह उठता है कि ‘शास्त्र का ज्ञान न होने से शास्त्रविधि का त्याग करके, यह प्रश्न भी नहीं बनता है क्योंकि त्याग उसका होता है जो पहले से हमारे पास हो या हम जिसे जानते हों । जब शास्त्र का ज्ञान ही नहीं है तो वह त्याग कैसे करेगा ? अतः यह भी प्रश्न नहीं बनता । अब तीसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि शास्त्रविधि पर ध्यान ही नहीं दिया कि वह किसी से पूछ ही लेता, तो यह भी प्रश्न नहीं बनता है क्योंकि ध्यान उस पर दिया जाता है जिसका ज्ञान पहले से हो और उसी को कहा जायेगा कि ध्यान नहीं दिया अर्थात भूल गया, तो यह भी प्रश्न नहीं बनता है, क्योंकि जब जिस विषय का ज्ञान ही न हो तो वह भूलेगा कैसे ? चौथे प्रश्न के रूप कुलदेवी या कुलदेवता संबंधित प्रश्न बन सकता है जिसका समाधान अवतरणिका में दिया जा चुका है । अतः ऊपरोक्त कोई प्रश्न ही नहीं बनते । तो फिर किस बात को लेकर अर्जुन का त्रिगुणात्मक प्रश्न बना ? इसका समाधान करते हैं―
हम नित्य ही कुछ ऐसे कर्म करते हैं जिनका हमें यह भाव अथवा तात्पर्य ही नहीं पता होता है कि क्यों करना चाहिए ? परन्तु करते हैं । जैसे माता-पिता किसी महात्मा आदि को प्रणाम करते हैं, तो उनका अबोध बच्चा भी उन्हें देखकर प्रणाम कर लेता है, जबकि वह प्रणाम कर रहा है यह भी नहीं जानता और प्रणाम क्यों करना चाहिए यह भी नहीं जानता है परन्तु प्रणाम आदि करता है । इसी प्रकार परंपरागत जन्म से ही योग साधना में लगा हुआ बालक जो यह नहीं जानता है कि क्यों करना चाहिए परन्तु करता है । यह जो कृत कर्म के तात्पर्य को न जानना है, यही विधि का त्याग करने का भाव है अर्थात विधि त्याग का अर्थ है तात्पर्य को न समझना ।
अब इसका अर्थ इस प्रकार से बनता है― जो शास्त्र के तात्पर्य को न जानकर भी श्रद्धा से परिपूर्ण होकर जो आपका यजन करते हैं उसकी वह निष्ठा सात्त्विक, राजस और तामस क्या होगी ? यह अर्जुन का प्रश्न बनता है ।
अब शंका यह हो सकती है कि यह प्रश्न जन्म से ही बच्चे के उदारहण से कैसे दे सकते हो ? क्योंकि श्रद्धा तो किसी भी आयु वाले में अन्य कोई भी हो सकती है ।
तो इसका समाधान यह है कि भगवान ने कहा था― भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत १६/३ यहाँ पर भगवान ने स्पष्ट कह दिया है कि । दैवीं अभिजातस्य अर्थात दैवी संपत्ति को आगे करके उत्पन्न होने वाले । अर्थात जिनका यह अन्तिम जन्म होता है, जिनका मोक्ष इस जन्म में निश्चित होता है वे दैवी सम्पत्ति को साथ ही लेकर उत्पन्न होते हैं । वे साधना करके प्राप्त नहीं करते । इसका प्रमाण यद्यपि शास्त्रों में बहुत मिलता है तथापि वर्तमान में रमण ऋषि प्रमाण हैं । वहीं आसुरी संपत्ति वाले के लिए कहते हैं― अज्ञानं चाभिजातस्य भारत सम्पदमासुरीम् १६/४ अर्थात जिनका मोक्ष नहीं होना है वे अज्ञानान्धकार से परिपूर्ण आसुरी संपत्ति को लेकर उदित होते हैं । इसी बात को भगवान् अगले ही श्लोक में परिपुष्ट करते हैं― त्रिविधा भवति श्रवद्धा देहिना सा स्वभावजा ये तीनो श्रद्धाएं जन्म से ही होती हैं । उनका आगे विस्तार से वर्णन करते हुए बताते हैं कि, शास्त्र की जानकारी नहीं है तो भी दैवी संपत्ति से संपन्न हुआ जो भी प्राणी है उसके स्वभाविक लक्षण समझ लो और पहचान लो कि वह सात्त्विक आदि क्या है उसके अनुसार ही उसकी गति होगी ।
अब प्रश्न यह है कि जिनका अन्तिम जन्म है वे ही दैवी सम्पत्ति को लेकर उत्पन्न हुए हैं तो फिर अन्य को किसी साधना की क्या आवश्यकता ?
तो इसका उत्तर अध्याय तीन में ही दिया जा चुका है कि मनुष्य का जन्म गुणों के आधार पर होता अवश्य है जिसे लेकर चारों वर्णों की संरचना हुई है तथापि मनुष्य अपना उत्कर्ष और पतन करने में भी स्वतंत्र है । इसी के लिए अध्याय १८ में ब्राह्मणादि के लक्षण कह दिये गये हैं । उन लक्षणों का अनुष्ठान करने और न करने में हम स्वतंत्र हैं । यदि हम उत्कर्ष चाहते हैं तो जन्म की दैवी सम्पत्ति का और सिद्ध के लक्षणों को ही नित्य ज्ञान, अमृतमय धर्म १२/२० मानकर उपासना करना चाहिए ।
सारांश― जो शास्त्र के तात्पर्य को न जानकर श्रद्धा से युक्त हुआ उपासना करता है उसकी निष्ठा सात्त्विक, राजस तामस क्या है यह भाव है, न कि शास्त्रविधि त्यागकर ।।१।।
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ।।१७/२।।
श्रीभगवान बोले― प्राणियों की स्वभाव से ही उत्पन्न जो श्रद्धा है वह तीन प्रकार की होती है― सात्त्विक, राजस, तामस इस प्रकार । उनको सुनो ।
यहाँ पर भगवान ने स्वभावजा कहा है, स्वभावजा का सीधा अर्थ जन्म से ही उत्पन्न जन्मजात श्रद्धा । क्योंकि चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टः गुणकर्मविभागशः ४/१३ यह जो कहा था कि मनुष्य के पूर्व जन्मों के गुण और जैसे होते हैं उसके आधार पर ही मेरे द्वारा चार वर्णों की सृष्टि की । यह जो वर्ण व्यवस्था है इसमें पूर्वजन्म से संबद्ध होने के कारण जन्मजात उसी कुल के अनुसार सत्त्वादि गुण होते हैं । भले बाद में उत्कर्ष या पतना को प्राप्त हों जैसे― अजामिल ब्राह्मण जन्म से ही कर्माकांडी और निष्ठावान था तथापि बाद में पतित हो गया । अन्य रैदास आदि जन्म से तमोगुण प्रधान होने से अपना हिंसा कार्य जन्मज करते हुए भी उत्कर्ष को प्राप्त हो गये । यह रहा जन्मज स्वभाव । उसके पश्चात कर्मज स्वभाव के लिए अगले अध्याय में दिये गये ब्राह्मण आदि के वे लक्षण मिलते हैं तो वह है अन्यथा नहीं, यह उत्कर्ष है । अतः जन्म से प्राप्त तीनो गुणों का यहाँ कथन करने का तात्पर्य यह है कि इनमें जो सात्त्विक गुण हैं अपना उत्कर्ष चाहने वाला उनका अनुशरण करे शेष का त्याग करे, क्योंकि जन्म भले किसी कुल से संबद्ध गुणों को लेकर हुआ हो किन्तु अपने विवेक का आश्रय लेकर उन्हें त्यागने और ग्रहण करने का स्वातंत्र्य मनुष्य का अलग से है । अतः कल्याणमार्ग पर प्रस्थान के लिए सात्त्विक गुण का आश्रय कल्याणमार्गी ग्रहण कर सके इसलिये विस्तार से लगभग प्रत्येक विषय का त्रिगुणात्मक वर्णन यहाँ किया जा रहा है । जो कुछ अंश छूटेगा या संक्षिप्त होगा उसकी पूर्ति या विस्तार अगले अध्याय में किया जायेगा ।।२।
सत्त्वनुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ।।१७/३।।
हे भारत ! सभी प्राणियों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुसार होती है, क्योंकि यह पुरुष श्रद्धामय है, जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही होता है ।
सत्त्वानुरूपा अर्थात अन्तःकरण का जैसा संस्कार होता है उसके अनुसार ही प्रणियों की श्रद्धा भी होती है । यहां अन्तःकरण के अनुरूप कहने का तात्पर्य यह है जो पूर्व श्लोक में स्वभावजा कहा था उसी को यहां और स्पष्ट करते हैं― स्वभाव का निर्माण तीन प्रकार से होता है, पहला जिस कुल में जन्म हुआ उस कुल के संस्कार स्वाभाविक ही होंगे । दूसरा संस्कार संगति का होता है । जैसी संगति करेगा, जैसा अपने आसपास का वातावरण होगा वैसा आज नहीं तो कल स्वाभाविक ही होगा । तीसरा शास्त्रीय संस्कार, शास्त्र पढते पढते उनमें तद्रूप होकर वही गुण उसमें स्वाभाविक ही आ जाते हैं । यह स्वभावजा का तात्पर्य है । इसीलिये हमारी वैदिक आर्य परंपरा में गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यंत सोलह संस्कारों का बड़ा महत्त्व है । मृत्यु के पश्चात किया जाने वाला संस्कार उसके अगले होने वाले जन्म में भी शास्त्रीय संस्कारों से संपन्न रहे इसके निमित्त अन्तिम संस्कार भी शास्त्र विधि से किया जाता है । इसीलिए यह पुरुष यानी एकमात्र मनुष्य श्रद्धामय है । जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा बन जाता है और वैसे ही कार्य करता है । यह भाव है ।।३।।
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ।।१७/४।।
सात्त्विकगुणी देवताओं की पूजा करते हैं । रजोगुणी यक्ष-राक्षसों की । अन्य तामसी लोग, भूत, प्रेत, ब्रह्म राक्षस, यक्षिणी आदि समूहों की पूजा करते हैं ।
यहाँ पर यह बताया गया है कि जिसके अन्तःकरण के जैसे संस्कार होते स्वभाव से वैसी ही आराधना और कर्म भी उसके अनुरूप ही करेगा । प्रेतान्भूतगणान् से यहाँ इनके समूह का वर्णन करते हैं, क्योंकि मारण, मोहन, वशीकरण आदि अलग अलग कार्यों के लिए अलग अलग उपासना एक ही व्यक्ति द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।।४।।
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ।।१७/५।।
जो मनुष्य शास्त्रविधि रहित कामनाओं और आसक्ति का आश्रय लेकर दंभ और अहंकार से युक्त होकर कठोर तप करते हुए ।।५।।
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान्विद्धासुरनिश्चयान् ।।१७/६।।
विवेकहीन आकाश आदि भूतसमुदाय के समूह अर्थात शरीर के रूप में तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ सर्वात्मा को जो सुखा डालते अर्थात क्लेश देते हैं, उनको तू असुर जान ।
यहां पर यह बताया गया है श्रद्धापूर्वक किया गया तप यद्यपि निषेध नहीं हैं तो भी उसका तात्पर्य समझे बिना मात्र अहंकार वश दिखावे के लिए शास्त्र विहित विधान के द्वारा भी आकाश भूतसमुदाय के समूह शरीर के रूप में मैं ही स्थित हूँ और अन्तःकरण में आत्मा के रूप में भी मैं ही स्थित हूँ मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ अर्थात मुझसे अतिरिक्त कुछ है ही नहीं अतः शरीर को सुखाना मुझे ही सुखाने के समान है अथवा किसी शरीरस्थं भूतग्रामम् यानी सभी शरीरों में स्थित प्रणियों को क्लेश देने के लिए और उसके स्वयं अन्तःकरण में स्थित आत्म रूप मुझ सर्वात्मा को क्लेश देने के लिए किया गया तप भी अशास्त्रीय तप है और उसे आसुरी तप जान ।
भावार्थ― दूसरों को और स्वयं को भी जो क्लेश देने वाला हो, जिसका आत्मविद्या से संबंध न हो वही तप आसुरी है । भले ही उसका शास्त्र वर्णन करता हो । मतलब यह कि जो कर्म समाज और आत्मोन्नति में सहायक हो वही कर्म शास्त्रीय है, शेष अशास्त्रीय ।।६।।
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ।।१७/७।।
आहार के प्रेमी भी तीन प्रकार के होते हैं । यज्ञ, तप तथा दान के भी तीन भेद सुनो ।।७।।
आयुःसत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ।।१७/८।।
रसयुक्त, चिकने, स्थिरता और हृदय को पुष्ट करने वाले, आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, इन्द्रियों सहित मन को प्रसन्न करने वाले, खाने में में रुचि बढाने वाला भोजन सात्त्विक स्वभाव वाले मनुष्य को प्रिय होता है ।
चूंकि यह लक्षण जो स्वभाव से सात्त्विक के हैं इसलिये पहले सात्त्विक का अर्थ होगा उसकी स्थिरता, शास्त्र चिन्तन एकाग्रता एवं शान्तभाव । स्थिर का अर्थ है दीर्घ काल तक उस आहार का प्रभाव रहना ।।८।।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्तरूक्षविदाहिनः ।
अहारा राजस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।।१७/९।।
अधिक कड़वा, खट्टा, नमकीन, गर्म, रूखेपन वाला, पेट, शौच और पेशाब में जलन पैदा करने वाला अर्थात सर्वत्र अति वाला भोजन दुःख और शोक देने वाला राजसी स्वभाव वाले को प्रिय होता है । अति सबके साथ जायेगा ।।९।।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिषटमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।।१७/१०।।
जिस भोजन का एक प्रहर बीता चुका हो अर्थात अत्यंत ठंडा, जिसका स्वाभाविक रस चला गया हे अर्थात बदल गया हो, बासी, दुर्गंध वाला अर्थात जो खराब हो गया हो, जूठा भी एवं अंडे, मांस, मदिरा आदि ये सभी आहार तामसी स्वभाव वाले को प्रिय होते हैं ।।१०।।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ।।१७/११।।
किसी भी फल की इच्छा न रखने वाला यज्ञ की विधि अर्थात स्वरूप समझकर कर जो पुरुष यज्ञ करता है । केवल ‘यज्ञ करना ही चाहिए’ इस प्रकार फल की उपेक्षा करके जो केवल मन के समाधान अर्थात ऐसा करने से मन प्रसन्न होता है इसके अतिरिक्त मुझे और किसी फल की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार सात्त्विक यज्ञ कहा गया है ।।११।।
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।।१७/१२।।
हे भरतश्रेष्ठ ! किन्तु फल को सामने रखकर और मात्र दिखावे के लिए, भी जो यज्ञ करते हैं वह राजसी है ।।१२।।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ।।१७/१३।।
शास्त्रीय विधि से रहित एवं असृष्टान्न अर्थात अन्नदान से रहित, मन्त्र रहित, दक्षिणा रहित, श्रद्धा रहित तज्ञ तामस कहा गया है ।।१३।।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।।१७/१४।।
देव, द्विज, गुरु, एवं विद्वान का पूजन बाहर-भीतर की पवित्रता, विनम्रता, ब्रह्मचर्य, और अहिंसा ये शारीरिक तप कहे गए हैं ।
देव यानी नैमित्तिक कर्म के अन्तर्गत कुलदेवी, कुलदेवता । द्विज के अन्तर्गत त्रैवर्णिक आते हैं, उनमें सभी तो पूज्य नहीं हो सकते हैं तथापि जो भी श्रोत्रिय अर्थात वेदाध्ययन करने वाले विशिष्टजन समझ लेना चाहिए । गुरु के अन्तर्गत माता-पिता, यज्ञोपवीत करने वाला, वेदाध्ययन कराने वाला, श्वसुर, एवं अग्रज यानी बड़ा भाई, ये पांच गुरु कोटि में आते हैं । प्राज्ञ के अन्तर्गत जो त्रैवर्णिक नहीं हैं उनमें भी जो विद्वान, ब्रह्मनिष्ठ हैं उनको भी समझ लेना चाहिए । ये सभी पूजनीय हैं । ब्रह्मचर्य का अर्थ अध्याय ८/११ में देखें । अहिंसा किसी को शारीरिक कष्ट न देना {वाणी और मानस तप अगले दो श्लोकों से समझ लेना चाहिए}। ये सभी लक्षण शारीरिक तप के कहे गये हैं ।।१४।।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ।।१७/१५।।
जो। सुनने में मधुर, हितकारी, सत्य, मन में उद्वेग न करने वाले तथा स्वाध्याय के अभ्यास में उच्चारण पूर्वक बोलना भी वाणी का तप है ।।१५।।
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।१७/१६।।
मन का प्रसन्न रहना, शान्त रहना, मौन और मन को अनुशासित रखने वाला चित्त की भलीभांति शुद्धि यह मानसिक तप कहा गया है ।।१७।।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।।१७/१७।।
परम श्रद्धा से फल की इच्छा से रहित होकर मनुष्य के द्वारा किया जाने वाला यज्ञ तीनो शारीरिक, मानसिक एवं वाणी से तपा हुआ तप सात्त्विक कह गया है ।।१७।।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।।१७/१८।।
जो तप सत्कार पाने के लिए, दिखावे के लिए, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करके अपनी पूजा करवाने के लिए किया जाता है अनिश्चित और नाशवान फल वाला राजसी कहा गया है ।।१८।।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।।१७/१९।।
जो तप अज्ञानमय दुराग्रह पूर्वक स्वयं को पीड़ा देकर या दूसरो का नाश करने के लिए किया जाता है उसे तामस कहा गया है ।।१९।।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च यद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ।।१७/२०।।
जो दान बिना किसी बदले में उपकार की भावना रखे सिर्फ ‘देना चाहिए’ इसलिये देश, काल एवं पात्र या परिस्थिति के अनुसार दिया जाता है वह सात्त्विक समझना चाहिए ।।२०।।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।।१७/२१।।
किन्तु जो बदले में उपकार चाहते हुए अथवा किसी फल की इच्छा से दिते हुए मन में क्लेश होता है उस दान को राजस समझना चाहिए ।।१७।।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ।।१७/२२।।
जो दान अनुचित क्षेत्र में, अनवसर पर अपात्र अर्थात अनधिकारी को दिया जाता है वह दान तामस कहा गया है ।।१७/२२।।
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।।१७/२३।।
ॐ, तत्, सत् इस प्रकार तीन प्रकार से ब्रह्म का संकेत समझना चाहिए । उस ब्रह्म से सृष्टि के आदि में ब्राह्मण तथा वेद एवं यज्ञ उत्पन्न हुए ।।२३।।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।।१७/२४।।
इसलिए वेदों के तात्पर्य को जानने वाले वेदों के कहे गये विधान द्वारा यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाएं ॐ कहकर प्रारंभ करते हैं ।
स्वध्याय, प्रवचन आदि भी यज्ञ दान तप के अन्तर्गत समझना चाहिए । यहाँ पर ब्रह्मवादिनाम् शब्द इस बात का संकेत है कि निर्विशेष ब्रह्म की उपासना के लिए की जाने वाली उपासनाओं में ॐ कहकर सच्चिदानन्द स्वरूप निर्विशेष ब्रह्म में कर्मों का विनियोग किया जाता है― ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः….४/२४। इत्यादि के अनुसार । यही भाव प्रतीत हो रहा है ।।२४।।
ततदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ।।१७/२५।।
तत् कहकर मोक्ष की इच्छा रखने वाले चित्तशुद्धि रूपी फल के अनुसंधान के लिए यज्ञ, तप और दान आदि नाना प्रकार की क्रियाएं करते हैं ।
यहाँ पर तत् शब्द से मायोपाधिक सगुण निराकार की उपासना का संकेत फलभिसंधाय से है । क्योंकि मोक्षार्थी की फलाकांक्षा चित्तशुद्धि की ही कामना होती है अन्य नहीं । अतः फलाभिसन्धाय का अर्थ चित्तशुद्धि के लिए ही उचित प्रतीत होता है ।।२५।।
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।।२६।।
हे पार्थ ! सत् इस प्रकार सत्ता के प्रतिपादन के लिए तथा साधुभाव के लिए प्रयुक्त किया जाता है, प्रशस्त अर्थात मांगलिक कार्यों में भी प्रयुक्त होता है ।।२६।।
सत् शब्द ब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन करता है । जैसे सोमदत्त यज्ञदत्त के घर जाकर पूछे तुम्हारा बेटा देवदत्त है ? तो यज्ञदत्त कहे हां, है । जबकि सोमदत्त समझ लेगा बेटा तो दिख नहीं रहा है लेकिन कहा ‘है’, इसका मतलब कहीं खेल रहा होगा, लेकिन यह ‘है’ देवदत्त की सत्ता यानी होने का कथन करता है, ठीक ऐसे ही ब्रह्म समझ में नहीं आ रहा है लेकिन वह ‘सत्’ स्वरूप सत्ता वाला है । जो पहले बिगड़े आचरण वाला था और बाद में सद्मार्ग का आश्रय ले लिया तो उसको साधु कहते हैं । इस प्रकार साधुभाव में भी ‘सत्’ कहा जाता है । विवाह आदि सांसारिक प्रशस्त अर्थात मांगलिक कार्यों को भी ‘सत्’ कहा जाता है । यह भाव है ।।२६।।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ।।१७/२७।।
यज्ञ, तप तथा दान में जो निष्ठा है वह सत् है इस प्रकार कहा जाता है । उस ॐ तत् सत् नामक परमेश्वर के निमित्त किया गया कर्म भी सत् है ऐसा कहा जाता है ।
यहां यज्ञ, तप और दान में निष्ठा एवं उस क्रिया को भी सत् ऐसा समझना चाहिए यह एक अर्थ है । यज्ञ, तप, दान में में निष्ठा और परमेश्वर अर्पित कर्म एवं उसका फल सत् ऐसा कहा जाता है । यह दूसरा अर्थ ।
सारांश— श्लोक २३ से लेकर यहां तक का सार यह है कि जो शास्त्रीय कर्म करते उसमें त्रुटियां स्वाभाविक हैं तथापि उन्हें परमेश्वर के निमित्त करने से उनकी शुद्धि और अशुद्धि की जिम्मेदारी परमेश्वर की हो जाती है । हमारा कर्म निर्दोष होकर निष्कामता रूप चित्तशुद्धि होती है ।।२८।।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।।१७/२८।।
हे पार्थ ! अश्रद्धा से किया गया यज्ञ, दिया गया दान, और तपा हुआ तप तथा जो कुछ भी अन्य कर्म है वह सब असत् है ऐसा कहा जाता है । उसका फल न तो इस लोक में मिलता है, न मरने के बाद ही परलोक में ही मिलता है ।।२८।।
समीक्षा― लोग तर्क देते हैं कि श्रद्धा नहीं है तो अमुक कर्म कैसे अमुक ने किया ? लेकिन यहाँ पर इसी बात का परिचय कराया गया है । अपनी श्रद्धा का निरीक्षण कर लो । अर्जुन ने श्रद्धा सात्त्विक राजस तामस श्रद्धा के विषय में प्रश्न किया था कि जिनमें श्रद्धा तो बहुत है लेकिन शास्त्र का ज्ञान नहीं है इसलिए उन्होंने त्याग कर दिया है तो उनकी निष्ठा किस गुण से संपन्न मानी जाये ? दूसरा प्रश्न यह भी बनता है कि शास्त्र का ज्ञान होने पर भी शास्त्र विधि का त्याग कर निष्ठा पूर्वक तप करते हैं उनकी निष्ठा को आप क्या क्या कहेंगे ? उत्तर मिला कि शास्त्र का ज्ञान होने पर भी यदि दूसरों को पीडित करने के लिए जो स्वयं को कष्ट देकर तप करते हैं वही अशास्त्रीय और आसुरी तप है । इसके बाद, भोजन, यज्ञ, तप, दान के तीन तीन भेद बताते हुए । जो देवाद्विजगुरुप्राज्ञ आदि तीन श्लोकों में त्रिविध तप का वर्णन मुमुक्षु के निमित्त किया ।
आगे ॐ तत् सत् इन तीनो नामों की अन्त में महिमा के अन्तर्गत परमात्मा के निमित्त किये जाने वाले किये जाने वाले कर्मों की महिमा मुमुक्षुओं और परम श्रद्धास्पद के अनुशरण के निमित्त बताया । अन्त में यह बताया कि भले शास्त्र का ज्ञाता ही क्यों न हो, किन्तु यदि श्रद्धा रहित होकर किया जाने वाला कर्म असत् अर्थात व्यर्थ है― मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ९/१२ अर्थात ऐसे चेतना रहित मूढों की प्रत्येक आशाएं, कर्म और ज्ञान सभी व्यर्थ हैं । यह स्पष्ट किया ।।१-२८।।
सूचना― संक्षिप्त व्याख्या को श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में देखें ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभाग योगो नाम सप्दशोऽध्यायः ।।१७।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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