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गीता समीक्षा कहना क्या है ?

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कहना क्या है ?           प्रत्येक ग्रंथ में प्रतिपादित विषय का अपना-अपना लक्ष्य होता है, जिसे सर्वप्रथम बताना होता है कि हमें कहना क्या है ? फिर उस लक्ष्य को प्राप्त कैसे किया जाए ? इस पर विचार होता है तत्पश्चात उसके साधनों पर विचार और उसका संग्रह करके लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । इसी प्रकार गीता में भी अर्जुन की अत्यंत दयानीय स्थिति को देखकर कर भगवान अर्जुन के शोक निवारण के लिए क्लैब्य अर्थात नपुंसक, क्षुद्र विचारों वाला यहां तक अनार्य जैसे शब्दों का प्रयोग करके शोक से प्राप्त मूढ़ दशा से सावधान करते हैं, तत्पश्चात उपहास सा करते हुए प्रज्ञावादी अर्थात शुष्क बौद्धिस्ट कहकर अपना लक्ष्य निर्धारित करते हैं ।            भगवान ने आत्मा के स्वरूप का निर्धारण— जिससे संपूर्ण जगत व्याप्त है, अविनाशी, अव्यय, नित्य, कभी भी न जन्मने वाला, न मरने वाला अर्थात त्रिकाल में भी आत्मा का जन्म-मरण न हुआ था, न है एवं न होगा और हो सकता भी नहीं हैं क्य...

गीता समीक्षा सिंहावलोकन

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                            सिंहावलोकन                   श्री मद्भगवगीता की संपूर्ण समीक्षा, प्रथम अध्याय— भगवती गीता का प्रारंभ धर्म और क्षेत्र नामक दो संयुक्त शब्दों से होता है । जब कि जबकि विश्राम नीति और मम शब्द से होता है । विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि धर्म अर्थात ज्ञान का क्षेत्र क्या है ? अर्थात ज्ञान का वास्तविक स्वरूप क्या है ? हम जिसे युद्ध आदि व्यावहारिक सत्ता को लेकर कर इस जगत के भोगों को अर्जुन करने में लगे हैं वह ज्ञान है अथवा इससे भी हटाकर जिसे आत्मा या परमात्मा संज्ञा दी जाती है और जहाँ जाकर संपूर्ण विषयों से सदा सर्वदा के लिए तृप्ति मिल जाती है अर्थात निवृत्ति हो जाती है वह ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट क्षेत्र अर्थात स्थान है ? इस गीता में यह प्रश्न कहाँ अथवा यह भाव कहाँ से आ गया ? यदि यह प्रश्न किसी का हो तो धृतराष्ट्र का इससे पहले के संपूर्ण जीवन देखना चाहिए जब अनेक बार न्याय अर्थात जिसे गीता के अन्त में नीति और मम से विश्राम दिया गया...